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१, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं
[ ३१ इति, प्रकृतार्थादन्यमर्थमादाय विपर्यस्यति वा । द्वितीयवत्तृतीयोऽपि संशेते विपर्यस्यति वा । तत्र यद्यव्युत्पन्नः पर्यायार्थिको भवेनिक्षेपः क्रियते अव्युत्पन्नव्युत्पादनमुखेन अप्रकृतनिराकरणाय । अथ द्रव्यार्थिकः तद्वारेण प्रकृतप्ररूपणायाशेषनिक्षेपाः उच्यन्ते व्यतिरेकधर्मनिर्णयमन्तरेण विधिनिर्णयानुपपत्तेः । द्वितीयतृतीययोः संशयितयोः संशयविनाशायाशेषनिक्षेपकथनम् । तयोरेव विपर्यस्यतोः प्रकृतार्थावधारणार्थ निक्षेपः क्रियते । उक्तं च
अवगय-णिवारणहूं पयदस्स परूवणा-णिमित्तं च ।
संसय-विणासणटं तच्चत्त्यवधारणहं च ॥ १५ ॥ निक्षेपविसृष्टः सिद्धान्तो वर्ण्यमानो वक्तुः श्रोतुश्चोत्पथोत्थानं कुर्यादिति वा ।
मङ्गलस्यैकार्थ उच्यते, मङ्गलं पुण्यं पूतं पवित्रं प्रशस्तं शिवं शुभं कल्याणं भद्रं
छोड़ कर और दूसरे अर्थको ग्रहण करके विपरीत समझता है। दूसरी जातिके श्रोताके समान तीसरी जातिका श्रोता भी प्रकृत पदके अर्थमें या तो संदेह करता है, अथवा, विपरीत निश्चय कर लेता है।
इनमेंसे यदि अव्युत्पन्न श्रोता पर्यायका अर्थी अर्थात् पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा वस्तुकी किसी विवक्षित पर्यायको जानना चाहता है, तो उस अव्युत्पन्न श्रोताको प्रकृत विषयकी व्युत्पत्तिके द्वारा अप्रकृत विषयके निराकरण करनेके लिये निक्षेपका कथन करना चाहिये । यदि वह अव्युत्पन्न श्रोता द्रव्यार्थिक है, अर्थात् सामान्यरूपसे किसी वस्तुका स्वरूप जानना चाहता है, तो भी निक्षेपोंके द्वारा प्रकृत पदार्थक प्ररूपण करनेके लिये संपूर्ण निक्षेप कहे जाते हैं, क्योंकि, विशेष धर्मके निर्णयके विना विधिका निर्णय नहीं हो सकता है। दूसरी और तीसरी जातिके श्रोताओंको यदि संदेह हो, तो उनके संदेहको दूर करनेके लिये संपूर्ण निक्षेपका कथन किया जाता है। और यदि उन्हें विपरीत ज्ञान हो गया हो, तो प्रकृत अर्थात् विवक्षित वस्तुके निर्णयके लिये संपूर्ण निक्षेपोका कथन किया जाता है। कहा भी है
___ अप्रकृत विषयके निवारण करनेके लिये, प्रकृत विषयके प्ररूपण करनेके लिये, संशयका विनाश करनेके लिये और तत्वार्थका निश्चय करनेके लिये निक्षेपोंका कथन करना चाहिये॥१५॥
अथवा, निक्षेपोंको छोड़कर वर्णन किया गया सिद्धान्त संभव है वक्ता और श्रोता दोनोंको कुमार्गमें ले जावे, इसलिये भी निक्षेपोंका कथन करना चाहिये।
अब मंगलके एकार्थ-वाचक नाम कहते हैं, मंगल, पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव,
१ ननु निक्षेपाभावेऽपि प्रमाणनयैरधिगम्यत एव तत्वार्थ इति चेन, अप्रकृतनिराकरणार्थत्वात् , प्रकृतप्ररूपणार्थत्वाच्च निक्षेपस्य । न खलु नामादावप्रकृते प्रमाणनयाधिगतो भावो व्यवहारायालं, मुख्योपचारविभागेनैव तत्सिद्धेः। न च तद्विभागो नामादिनिक्षेपैर्विना संभवति, येन तदभावेऽपि तत्वाधिगतिः स्यात् । लघीय. पृ. ९९.'
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