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३४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १, १, 'पापं मलमिति प्रोक्तमुपचारसमाश्रयात् ।
तद्धि गालयतीत्युक्तं मङ्गलं पण्डितैर्जनैः ॥ १७ ॥ अथवा मङ्गति गच्छति कर्ता कार्यसिद्धिमनेनास्मिन् वेति मङ्गलम् । मङ्गलशब्दस्यार्थविषयनिश्चयोत्पादनार्थ निरुक्तिरुक्ता । मङ्गलस्यानुयोग उच्यते
किं कस्स केण कत्थ व केवचिरं कदिविधो य भावो ति ।
छहि अणिओग-दारेहि सव्वे भावाणुगंतव्वा ॥ १८ ॥ इदि वयणादो। किं मङ्गलम् ? जीवो मङ्गलम् । न सर्वजीवानां मङ्गलप्राप्तिः द्रव्यार्थिकनयापेक्षया मङ्गलपर्यायपरिणतजीवस्य पर्यायार्थिकनयापेक्षया केवलज्ञानादिपर्यायाणां च मङ्गल
उपचारसे पापको भी मल कहा है। इसलिये जो उसका गालन अर्थात् नाश करता है उसे भी पण्डितजन मंगल कहते हैं ॥१७॥
____ अथवा कर्ता, अर्थात् किसी उद्दिष्ट कार्यको करनेवाला, जिसके द्वारा या जिसके किये जाने पर कार्यकी सिद्धिको प्राप्त होता है उसे भी मंगल कहते हैं। इसतरह मंगल शब्दके अर्थ-विषयक निश्चय के उत्पन्न करनेके लिये मंगल शब्दकी निरुक्ति कही गई है।
अब मंगलका अनुयोग कहते हैं, अर्थात् अनुयोगद्वारा मंगलका निरूपण करते हैं।
विशेषार्थ-जिनेन्द्रकथित आगमका पूर्वापर संदर्भ मिलाते हुए अनुकूल व्याख्यान करनेको अनुयोग कहते हैं। अथवा, सूत्रका उसके. वाच्यरूप विषयके साथ संबन्ध जोड़नेको अनुयोग कहते हैं। अथवा, एक ही भगवत्-प्रोक्त-सूत्रके अनन्त अर्थ होते हैं, इसलिये सूत्रकी 'अणु' संक्षा है। उस सूक्ष्मरूप सूत्रका अर्थरूप विस्तारके साथ संबन्धके प्रतिपादन करनेको अनुयोग कहते हैं। .... पदार्थ क्या है, किसका है, किसके द्वारा होता है, कहां पर होता है, कितने समय तक रहता है, कितने प्रकारका है, इसप्रकार इन छह अनुयोग-द्वारोंसे संपूर्ण पदार्थोका शान करना चाहिये ॥ १८ ॥ इस वचनसे अनुयोगद्वारा मंगलका निरूपण किया जाता है।
___ मंगल क्या है ? जीव ही मंगल है। किन्तु जीव को मंगल कहनेसे सभी जीव मंगलरूप नहीं हो जावेंगे, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा मंगलपर्यायसे परिणत जीवको अर्थात् मंगल करते हुए जीवको, और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा केवलज्ञानादि पर्यायोंको मंगल माना है।
१ पावं मलं ति भण्णदि उवचारसरूवएण जीवाणं । तं गालेदि विणासं णेदि ति भणति मंगलं केई ॥
ति. प. १, १७. २ अणुओयणमणुओगी सुयस्स नियएण जमाभिधेएणं । वावारो वा जोगो जो अणुरूवोऽणुकूलो वा॥ अहवा जमत्थओ थोवपच्छभावेहिं सुयमणुं तस्स । अभिधेए वावारो जोगो तेणं व सबंधो। वि.भा. १३९३, १३९४.
३ मूलाचा. ७०५. दुविहा परूवणा, छप्पया य नवहा य छप्पया इणमो । किं कस्स केण व कहिं केवचिरं कहविदो य भवे ॥ आ. नि. ८६४. तानीमानि षडनुयोगद्वाराणि, निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः।
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