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(८१) अर्थात् आत्मा रक्त होकर कर्म बांधता है तथा रागरहित होकर कमोंसे मुक्त होता है। यह जीवोंका बंधसमास है, ऐसा निश्चय जानो।
घातिया कोंसे रहित (केवली भगवान् ) का सुख ही सुखोंमें श्रेष्ठ है, ऐसा सुनकर जो श्रद्धा नहीं करते वे अभव्य हैं, और जो भव्य हैं वे उसे मानते हैं ।
महाराष्ट्री प्राकृत प्राचीन महाराष्ट्र की भाषा है जिसका स्वरूप गाथासप्तशती, सेतुबंध, महाराष्ट्री
र गउडवह आदि काव्योंमें पाया जाता है। संस्कृत नाटकोंमें जहां प्राकृतका प्रयोग
" होता है वहां पात्र बातचीत तो शौरसेनीमें करते हैं और गाते महाराष्ट्रीमें हैं, ऐसा विद्वानोंका मत है । इसका उपयोग जैनियोंने भी खूब किया है। पउमचरिअं, समराइच्चकहा, सुरसुंदरीचरिअं, पासणाहचरिअं आदि काव्य और श्वेताम्बर आगम सूत्रोंके भाष्य, चूर्णी, टीका, आदिकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है । पर यहां भी जैनियोंने इधर उधरसे अर्धमागधीकी प्रवृत्तियां लाकर उसपर अपनी छाप लगा दी है, और इस कारण इन ग्रंथोंकी भाषा जैन महाराष्ट्री कहलाती है । जैन महाराष्ट्रीमें सप्तशती व सेतुबंध आदिकी भाषासे विलक्षण आदि व, द्वित्वमें न
और लुप्त वर्णके स्थानपर य श्रुतिका उपयोग हुआ है, जैसा जैन शौरसेनीमें भी होता है । महाराष्ट्रीके विशेष लक्षण जो उसे शौरसेनीसे पृथक् करते हैं, ये हैं कि यहां मध्यवर्ती त का लोप होकर केवल उसका स्वर रह जाता है, किंतु वह द में परिवर्तित नहीं होता । उसीप्रकार थ यहां ध में परिवर्तित न होकर ह में परिवर्तित होता है, और क्रियाका पूर्वकालिक रूप ऊण लगाकर बनाया जाता है । जैन महाराष्ट्रामें इन विशेषताओंके अतिरिक्त कहीं कहीं र का ल व प्रथमान्त ए आजाता है । जैसे
जानाति-जाणइः कथम्-कहं; भूत्वा-होऊण; आदि । उदाहरणार्थ--
सव्वायरेण चलणे गुरुस्स नमिऊण दसरहो राया। पविसरइ नियय-नयरि सायं जण-धणाइण्णं ॥
(पउम. च. ३१, ३८, पृ. १३२.) अर्थात् सब प्रकारसे गुरुके चरणोंको नमस्कार करके दशरथ राजा जन-धन-परिपूर्ण अपनी नगरी साकेतमें प्रवेश करते हैं । क्रमविकासकी दृष्टिसे अपभ्रंश भाषा प्राकृतका सबसे अन्तिम रूप है; उससे आगे फिर प्राकृत
- वर्तमान हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओंका रूप धारण कर लेती है। इस भाषापर A भी जैनियों का प्रायः एकछत्र अधिकार रहा है । जितना साहित्य इस भाषाका अभी
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