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( ८५ ) गाथाओं में एक्कम्मि, लोयम्मि, पक्खम्हि मदहि, आदि । टीकामें - वत्थुम्मि, चइदहि, जम्हि, आदि ।
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दो गाथाओं में कर्ताकारक एकवचनकी विभक्ति उ भी पाई जाती है । जैसे थावरु ( १३५ ) एक्कु ( १४६ ) यह स्पष्टतः अपभ्रंश भाषाकी ओर प्रवृत्ति है और उस लक्षणका शक ७३८ से पूर्वके साहित्य में पाया जाना महत्वपूर्ण है ।
७.
जहां मध्यवर्ती व्यंजनका लोप हुआ है वहां यदि संयोगी शेष स्वर अ अथवा आ हो तो बहुधाय श्रुति पायी जाती है ! जैसे -- तित्थयर - तीर्थकर, पयत्य-पदार्थ; वेयणा-वेदना; गय-गत; गज; विमग्गया- विमार्गगाः, आहारया आहारकाः, आदि ।
अ के अतिरिक्त 'ओ' के साथ भी और क्वचित् ऊ व ए के साथ भी हस्तलिखित प्रतियों में य श्रुति पाई गई है । किन्तु हेमचन्द्र के नियमका तथा जैन शौरसेनीके अन्यत्र प्रयोगोंका विचार करके नियमके लिए इन स्वरोंके साथ य श्रुति नहीं रखनेका प्रस्तुत ग्रंथ में प्रयत्न किया गया है । तथापि इसके प्रयोगकी ओर आगे हमारी सूक्ष्मदृष्टि रहेगी । ( देखो ऊपर पाठसंशोधनके नियम पृ. १३ )
उ के पश्चात् लुप्तवर्णके स्थान में बहुधा व श्रुति पाई जाती है बहु-बहु विहुव- विधूत, आदि । किन्तु ' पज्जव ' में बिना उ के व श्रुति पाई जाती है ।
८. वर्ण विकारके कुछ विशेष उदाहरण इस प्रकार पाये जाते हैं— सूत्रोंमेंअड्डाइज्ज - अर्धतृतीय (१६३), अणियोग - अनुयोग ( ५ ); आउ- अप् (३९) इड्डि-ऋद्धि ( ५९ ) ओधि, ओहि अवधि ( ११५, १३१ ); ओरालिय-औदारिक ( ५६ ); छदुमत्थछद्मस्थ (१३२); तेउ-तेजस ( ३९ ); पज्जव - पर्याय ( ११५ ); मोस - मृषा (४९); वेंतर-व्यन्तर (९६ ); णेरइय-नारक, नारकी (२५); गाथाओमें- इक्खय इक्ष्वाकु (५० ); उराल-उदार (१६०); इंगाल - अंगार ( १५१ ); खेत्तण्हू - क्षेत्रज्ञ ( ५२ ); चाग-त्याग ( ९२ ); फद्दय-स्पर्धक ( १२१ ); सस्सेदिम संस्वेदज (१३९) ।
गाथाओं में आए हुए कुछ देशी घुमंत-भ्रमत् (६३); चोक्खो - शुद्ध ( २०७ ); मेर- मात्रा, मर्यादा (९०).
। जैसे- बालुवा वालुकाः; सामीप्यके भी नियमसे
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शब्द इस प्रकार हैं - कायली - वीवध ( ८८ ) ; णिमेण - आधार ( ७ ); भेज्ज - भीरु ; ( २०१ );
टीका कुछ देशी शब्द — अल्लियइ - उपसर्पति ( २२० ); चडविय - आरूढ (२२१ ); छड्डिय त्यक्त्वा (२११ ); णिसुटिय- नत ( ६८ ); बोलाविय - व्यतीत्य ( ६८ )।
१ अवर्णो य श्रुतिः ( ८, १, १८०, ) टीका -- क्वचिद् भवति, पिय ॥ १८० ॥ २ डॉ उपाध्ये; प्रवचनसारकी भूमिका, पृ. ११५
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