________________
१६] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, १. उज्जुसुदे ढवण-णिक्खेवं वजिऊण सव्वे णिक्खेवा हवंति तत्थ सारिच्छसामण्णाभावादो।
कधमुज्जुसुदे पज्जवट्टिए दब-णिक्खेवो त्ति ? ण, तत्थ वट्टमाण-समयाणंतगणण्णिद-एग-दव्य-संभवादो । ण तत्थ णाम-णिक्खेवाभावो वि सद्दोवलद्धि-काले णियतवाचयत्नुवलंभादो। स-समभिरूढ-एवंभूद-णएमु वि णाम-भाव-णिक्खेवा हवंति तेसिं चेय तत्थ संभवादो। एत्थ किमटुं णय-परूवणमिदि ?
प्रमाण-नय-निक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते। युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ।। १० ।।
ऋजुसूत्र नयमें स्थापना निक्षेपको छोड़कर शेष सभी निक्षेप संभव हैं, क्योंकि, ऋजुसूत्र नयमें सादृश्य-सामान्यका ग्रहण नहीं होता है। और स्थापना निक्षेप सादृश्य-सामान्यकी मुख्यतासे होता है।
शंका-ऋजुसूत्र तो पर्यायार्थिक नय है, उसमें द्रव्यनिक्षेप कैसे घटित हो सकता है?
समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंक, ऋजुसूत्र नयमें वर्तमान समयवर्ती पर्यायसे अनन्तगुणित एक द्रव्य ही तो विषयरूपसे संभव है। - विशेषार्थ-पर्याय द्रव्यको छोड़कर स्वतन्त्र नहीं रहती है, और ऋजुसूत्रका विषय वर्तमान पर्यायविशिष्ट द्रव्य है। इसलिये ऋजुसूत्र नयमें द्रव्यनिक्षेप भी संभव है।
इसीप्रकार ऋजुसूत्र नयमें नाम निक्षेपका भी अभाव नहीं है, क्योंकि, जिस समय शब्दका ग्रहण होता है, उसी समय उसकी नियत वाच्यता अर्थात् उसके विषयभूत अ
विषयभूत अर्थका भी ग्रहण हो जाता है।
शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नयमें भी नाम और भाव ये दो निक्षेप होते हैं, क्योंकि, ये दो ही निक्षेप वहां पर संभव हैं, अन्य नहीं।
विशेषार्थ--- शब्द, समभिरूढ और एवंभूत, ये तीनों ही नय शब्द-प्रधान हैं, और शब्द किसी न किसी संज्ञाके वाचक होते ही हैं। अतः उक्त तीनों नयोंमें नाम-निक्षेप बन जाता है। तथा, उक्त तीनों नय वाचक शब्दोंके उच्चारण करते ही वर्तमानकालीन पर्यायको भी विषय करते हैं, अतएव उनमें भाव-निक्षेप भी बन जाता है।
शंका-यहां पर नयका निरूपण किसलिये किया गया है ? समाधान-जिस पदार्थका प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा, नैगमादि नयों के द्वारा और
१. उजुसुदो ठवण-वजे । कसाय-पाहुड-चुण्णि (जयध. अ.,) पृ. ३०.
२. सद्द-णयस्स णाम-भाव-णिक्खेवा । कसाय-पाहुड-चुण्णि । (जयध. अ.,)पृ. ३१. .. ३..जो ण पमाण-णएहिं णिक्खेवणं णिरिक्खदे अत्थं । तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं व पडिहाइ । ति. प.. १. ८२. अत्थं जो न सामक्खइ निक्खेव-णय-प्पमाणओ विहिणा। तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं व पडिहाइ ।
वि. भा. २७६४.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org|