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२०१ छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १. सा दुविहा, सब्भावासब्भाव-ट्टवणा चेदि । तत्थ आगारवंतए वत्थुम्मि सम्भाव-ढवणा। तबिवरीया असम्भाव-ढवणा ।
मंगल-पज्जय-परिणद-जीव-रूवं लिहण-खणण बंधण-खेवणादिएण दृविदं बुद्धीए आरोविद-गुण-समूहं सब्भाव-ढवणा-मंगलं' । बुद्धीए समारोविद-मंगल-पज्जय-परिणदजीव-गुण-सरूवक्ख-वराडयादयो असब्भाव-ढवणा-मंगलं'।
दव्य-मंगलं णाम अणागय-पज्जाय-विसेसं पडुच्च गहियाहिमुहियं दव्यं अतब्भावं वा। तं दुविहं, आगम-णो-आगम-दव्वं चेदि। आगमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयहो । आगमादो
वह स्थापनानिक्षेप दो प्रकारका है, सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना । इन दोनोंमेंसे, जिस वस्तुकी स्थापना की जाती है उसके आकारको धारण करनेवाली वस्तुमें सद्भावस्थापना समझना चाहिये, तथा जिस वस्तुकी स्थापना की जाती है उसके आकारसे रहित वस्तुमें असद्धावस्थापना जानना चाहिये।
लेखनासे लिखकर अर्थात् चित्र बनाकर, और खनन अर्थात् छैनी, टांकी आदिके द्वारा, बन्धन अर्थात् चिनाई, लेप आदिके द्वारा तथा क्षेपण अर्थात् सांचे आदिमें ढलाई आदिके द्वारा मूर्ति बनाकर स्थापित किये गये, और जिसमें बुद्धिसे अनेक प्रकारके मंगलरूप अर्थके सूचक गुणसमूहोंकी कल्पना की गई है ऐसे मंगल-पर्यायसे परिणत जीवके स्वरूपको अर्थात् आकृतिको सद्भावस्थापना-मंगल कहते हैं।
नमस्कारादि करते हुए जीवके आकारसे रहित अझ अर्थात् शतरंजकी गोटोंमें, वराटक अर्थात् कौड़ियों में तथा इसीप्रकारकी अन्य वस्तुओंमें मंगल-पर्यायसे परिणत जीवके गुण या स्वरूपकी बुद्धिस कल्पना करना अतदाकारस्थापना-मंगल है।
विशेषार्थ-जैसे शतरंज आदिके खेलमें राजा, मन्त्री आदिकी और खेलनेकी कौड़ी व पासोंमें संख्याको आरोपणा होती है, उसीप्रकार मंगलपर्यायपरिणत जीव और उसके गुणोंकी बुद्धिके द्वारा की हुई स्थापनाको असद्भावस्थापनामंगल कहते हैं।
अब द्रव्यमंगलका कथन करते हैं। आगे होनेवाली पर्यायको ग्रहण करनेके सन्मुख. हुए द्रव्यको ( उस पर्यायकी अपेक्षा ) द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। अथवा, वर्तमान पर्यायकी विवक्षासे रहित द्रव्यको ही द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। वह द्रव्यनिक्षेप आगम और नो-आगमके भेदसे दो प्रकारका है।
__ आगम, सिद्धान्त और प्रवचन, ये शब्द एकार्थवाची हैं। आगमसे भिन्न पदार्थको नो. मागम कहते हैं।
१ तत्राध्यारोप्यमानेन भावेन्द्रादिना समाना प्रतिमा सद्भावस्थापना, मुख्यदर्शिनः स्वयं तस्यास्तदिसंभवात , कथंचित्सादृश्यसद्भावात् । त. श्लो. वा. १, ५.
२ मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति संप्रत्ययात् । त. लो.वा. १, ५.
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