Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं
[ १९
वैच्चत्थ-णिरवेक्खो मंगल- सदो गाम - मंगलं । तस्स मंगलस्स आधारो अट्ठविहो । तं जहा, जीवो वा, जीवा वा, अजीवो वा, अजीवा वा, जीवो य अजीवो य, जीवा य अजीवो य, जीवो य अजीवा य, जीवा य अजीवा य' ।
तत्थ वण- मंगलं णाम आहिद-गामस्स अण्णस्स सोयमिदि दुवणं ट्रुवणा णाम ।
वाच्यार्थ अर्थात् शब्दार्थ की अपेक्षा रहित 'मंगल' यह शब्द नाममंगल है । उस नामंगलका आधार आठ प्रकारका है । जैसे, १ एक जीव, २ अनेक जीव, ३ एक अजीव, ४ अनेक अजीव, ५ एक जीव और एक अजीव, ६ अनेक जीव और एक अजीव, ७ एक जीव और अनेक अजीव, ८ अनेक जीव और अनेक अजीव ।
विशेषार्थ – मंगलके लिये आधार या आश्रय आठ प्रकारका होता है, जिसका खुलासा इसप्रकार समझना चाहिये - १ साक्षात् एक जिनेन्द्रदेव के आश्रयसे जो मंगल किया जाता है उसे एकजीवाश्रित मंगल कहते हैं । यहां जिनेन्द्रदेव के स्थानपर एक जिन-यति भी लिया जा सकता है । २ अनेक यतियोंके आश्रयसे जो मंगल किया जाता है उसे अनेक जीवाश्रित मंगल कहते हैं । ३ एक जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा के आश्रयसे जो मंगल किया जाता है उसे एक अजीवाश्रित मंगल कहते हैं । ४ अनेक जिन-प्रतिमाओंके आश्रयसे जो मंगल किया जाता है उसे अनेक अजीवाश्रित मंगल कहते हैं । ५ एक जिनेन्द्रदेव और एक ही उनकी प्रतिमाके आश्रय से एक ही समय जो मंगल किया जाता है उसे एक जीव और एक अजीवाश्रित मंगल कहते हैं । ६ अनेक यति और एक जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाके आश्रयसे एक ही समय जो मंगल किया जाता है उसे अनेक जीव और एक अजीवाश्रित मंगल कहते हैं । ७ एक जिनेन्द्रदेव और अनेक जिन प्रतिमाओंके आश्रयसे एक ही समय जो मंगल किया जाता है उसे एक जीव और अनेक अजीवाश्रित मंगल कहते हैं । ८ अनेक यति और अनेक जिन प्रतिमाओं के आश्रयसे एक ही समय जो मंगल किया जाता है उसे अनेक जीव और अनेक अजीवाश्रित मंगल कहते हैं । उन नामादि निक्षेपोंमेंसे अब स्थापनामंगलको बतलाते हैं। किसी नामको धारण करनेवाले दूसरे पदार्थ ' वह यह है ' इसप्रकार स्थापना करनेको स्थापना - निक्षेप कहते हैं ।
१. प्रतिषु ' वज्जच्थ' इति पाठः । नामं पि होज्ज सन्ना तव्वच्चं वा तयत्थपरिमुन्नं ॥ वि. भा. ३४००.
२ पाठोऽयमादर्शप्रतावित्थमुपलभ्यते - “ जीवो वा जीवो वा अजीवो वा अजीवो वा जीवो च अजीवो च अजीवोच अजीवा च जवा च अजीवो च जीवा चेति " | " किञ्चिद्धि प्रतीतमेकजीवनाम, यथा डित्थ इति । किञ्चदनेकजीवनाम यथा यूथ इति । किश्चिदेकाजीवनाम, यथा घट इति । किञ्चिदनेकाजीवनाम, यथा प्रासाद इति । किञ्चिदेकजी वैकाजविनाम, यथा प्रतीहार इति । किश्चिदेकजीवाने काजीवनाम, यथा काहार इति । किञ्चिदेकाजीवाने क जीवनाम, यथा मंदुरेति । किश्चिदनेकजीवाजीवनाम, यथा नगरमिति " । त. लो. वा. १, ५. जीवस्स सो जिणस्स व अज्जीवस्स उ जिदिपडिमाए | जीवाण जईणं पि व अज्जीवाणं तु परिमाणं || जीवस्साजीवस्स य जइणो बिंबस्स चेगओ समयं । जीवस्साजीवाण य जहणो परिमाण वेगत्थं ॥ जीवाणमजीवस्स य जईण बिंबस्स वेगओ समयं । जीवाणमजीवाण य जईण परिमाण वेगत्थं ॥ वि. भा. ३४२४, ३४२५, ३४२६.
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