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संत-परूवणाणुयोगदारे मंगलायरणं पणमामि पुप्फदंतं दुकयंतं दण्णयंधयार-रविं । भग्ग-सिव-मग्ग-कंटयमिसि-समिइ-वई सया दंतं ॥ ५ ॥ पणमह कय-भूय-बलिं भूयबलिं केस-चास-परिभूय-वलिं। विणिहय-वम्मह-पसरं वडाविय-विमल-णाण-बम्मह-पसरं ॥ ६ ॥
मंगल-णिमित्त-हेऊ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । वागरिय छ प्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरियो' ।। १ ।।
अर्थात्, सिद्धान्तके अवगाहनसे जिन्होंने विवेकको प्राप्त कर लिया है, ऐसे श्री धरसेन आचार्य मुझ पर प्रसन्न हो॥४॥
जो दुष्कृत अर्थात् पापोंका अन्त करनेवाले हैं, जो कुनयरूपी अन्धकारके नाश करनेके लिये सूर्यके समान हैं, जिन्होंने मोक्षमार्गके कंटकोंको (मिथ्योपदेशादि प्रतिबन्धक कारणको) भग्न अर्थात् नष्ट कर दिया है, जो ऋषियोंकी सामति अर्थात् सभाके अधिपति हैं, और जो निरन्तर पंचेन्द्रियोंका दमन करनेवाले हैं, ऐसे पुष्पदन्त आचार्यको मैं (वीरसेन) प्रणाम करता हूं ॥५॥
जो भूत अर्थात् प्राणिमात्रसे पूजे गये हैं, अथवा, भूत-नामक व्यन्तर-जीतके देवोंसे पूजे गये हैं, जिन्होंने अपने केशपाश अर्थात् संयत-सुन्दर बालोंसे बलि अर्थात् जरा आदिसे उत्पन्न होनेवाली शिथिलताको परिभूत अर्थात् तिरस्कृत कर दिया है, जिन्होंने कामदेवके प्रसारको नष्ट कर दिया है, और जिन्होंने निर्मल-ज्ञानके द्वारा ब्रह्मचर्यके प्रसारको बढ़ा लिया है, ऐसे भूतबलि नामक आचार्यको प्रणाम करो ॥६॥
विशेषार्थ-जिस समय भूतवलि आचार्यने अपने गुरु धरसेन आचार्यसे सिद्धान्तग्रन्थ पढ़कर समाप्त किया था उस समय भूत-नामक व्यन्तर देवोंने उनकी पूजा की थी। इसका उल्लेख धवलामें आगे स्वयं किया गया है।
__ मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कती, इन छह अधिकारोंका व्याख्यान करनेके पश्चात आचार्य शास्त्रका व्याख्यान करें।
विशेषार्थ-शास्त्रके प्रारम्भमें पहिले मंगलाचरण करना चाहिये । पीछे जिस निमित्तसे शास्त्रकी रचना हुई हो, उस निमित्तका वर्णन करना चाहिये । इसके बाद शास्त्र-प्रणयनके प्रत्यक्ष और परम्परा-हेतुका वर्णन करना चाहिये । अनन्तर शास्त्रका प्रमाण बताना चाहिये। फिर ग्रन्थका नाम और आनायक्रमसे उसके मूलका, उत्तरकर्ता और परंपरा-कर्ताओंका उल्लेख करना चाहिये । इसके बाद ग्रंथका व्याख्यान करना उचित है । ग्रंथरचनाका यह क्रम आचार्य .................................. १ मंगल-कारण-हेदू सत्त्थं सपमाण-णाम-कत्तारा । परमं चि य कहिदव्या एसा आइरिय-परिभासा ॥
ति. प. १, ७. गाथैषा पश्चास्तिकाये जयसेनाचार्यकृतव्याख्यया सहोपलभ्यते । अनगारधर्मामृतेऽस्याः संस्कृतच्छाया दृश्यते ।
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