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छक्खंडागमे जीवहाणं बारह-अंगग्गिज्झा वियालिय-मल-मूढ-दंसणुत्तिलया । विविह-वर-चरण-भूसा पसियउ सुय-देवया सुइरं ॥ २॥ सयल-गण-उम-रविणो विविहद्धि-विराइया विणिस्संगा। णीराया वि कुराया गणहर-देवा पसीयंतु ॥ ३ ॥ पसियउ महु धरसेणो पर-चाइ-गओह-दाण-वर-सीहो । सिद्धंतामिय-सायर-तरंग-संघाय-धोय-मणो ॥ ४ ॥
आगे जैसे जैसे कर्म-शत्रुओंका अभाव होता जाता है वैसे ही वैसे जिनत्व धर्मका प्रादुर्भाव होता. जाता है, और बारहवें गुणस्थानके अन्तमें जब यह जीव समस्त घातिया कर्मोको नष्ट कर चुकता है तब पूर्णरूपसे 'जिन' संज्ञाको प्राप्त होता है। सिद्ध परमेष्ठी तो समस्त कर्मोंसे रहित है, इसलिये अरहंत और सिद्ध परमेष्ठी कर्मशत्रुओंके जीतनेसे साक्षात् जिन हैं, ऐसा समझना चाहिये।
इसप्रकार शास्त्रारम्भमें अनन्त आदि विशेषणों से युक्त अरहंत और सिद्ध दोनों परमेष्ठियोंको नमस्कार किया है॥१॥
जो श्रुतज्ञानके प्रसिद्ध बारह अंगोसे ग्रहण करने योग्य है, अर्थात् बारह अंगोंका समूह ही जिसका शरीर है, जो सर्व प्रकारके मल ( अतीचार) और तीन मूढताओंसे रहित सम्यग्दर्शनरूप उन्नत तिलकसे विराजमान है और नाना-प्रकारके निर्मल चरित्र ही जिसके आभूषण हैं, ऐसी भगवती श्रुतदेवता चिरकाल तक प्रसन्न रहो ॥२॥
जो सर्व प्रकारके गण, मुनिगण अर्थात् ऋषि, यति, मुनि और अनगार, इन चार प्रकारके संघरूपी कमलोंके लिये; अथवा, मुनि, आर्थिका, श्रावक और श्राविका इन चार प्रकारके संघरूपी कमलोंके लिये सूर्यके समान हैं, जो बल, बुद्धि इत्यादि नाना प्रकारकी ऋद्धियोंसे विराजमान हैं, जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहसे रहित हैं और जो वीतरागी होने पर भी समस्त भूमण्डलके हितैषी हैं,ऐसे गणधर देव प्रसन्न होवें।
इस मंगलरूप गाथामें 'णीराया वि कुराया ' पदमें विरोधाभास अलंकार है। जो नीराग अर्थात् वीतराग होता है, उसके कुत्सित अर्थात् खोटा राग कैसे हो सकता है ? इस विरोधका परिहार इस प्रकार कर लेना चाहिये कि गणधरदेव ' णीराया वि, अर्थात् वीतराग होने पर भी 'कुराया' अर्थात् भूमण्डलमें रहनेवाले समस्त प्राणियोंके हितैषी होते हैं। अथवा, वीतराग होने पर भी अभी पृथ्वी-मण्डल पर विराजमान हैं, मोक्ष को नहीं गये ॥३॥
जो परवादीरूपी हाथियोंके समूहके मदका नाश करनेके लिये श्रेष्ठ सिंहके समान हैं, अर्थात् जिसप्रकार सिंहके सामने मदोन्मत्त भी हाथी नहीं ठहर सकता है, किंतु वह गलितमद होकर भाग खड़ा होता है, उसीप्रकार जिनके सामने अन्य-मतावलम्बी अपने आप गलितमद हो जाते हैं, और सिद्धान्तरूपी अमृत-सागरको तरंगोंके समूहसे जिनका मन धुल गया है,
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