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(८४) किन्तु त का लोप होकर संयोगी स्वरमात्र शेष रहनेके भी उदाहरण बहुत मिलते हैं यथा- गाथाओंमें-होइ, ह-इ-भवति; कहेइ-कथयति; वक्खाणइ-व्याख्या ति; भमइ भ्रमति; भण्णइ–भण्यते, आदि । टीकामें--कुगइ-करोति; वण्णेइ-वर्णयति; आदि।
२. क्रियाओंके पूर्वकालिक रूपोंके उदाहरण इसप्रकार मिलते हैं- इय-छ।ड्डियत्यक्त्वा । तु-कट्ठ-कृत्वा । अ--अहिगम्म-अधिगम्य । दूण-अस्सिदूण-आश्रित्य । ऊग–अस्सिऊण, दलूण, मोत्तूण, दाऊण, चिंतिऊण, आदि ।
३. मध्यवर्ती क के स्थानमें ग आदेशके उदाहरण मिलते है । यथा- सूत्रोंमेंवेदग-वेदक । गाथामें-एगदेस-एकदेश, टीकामें-एगत्त-एकत्व; बंधग-बन्धक; अप्पाबहुगअल्पबहुत्व; आगास-आकाश; जाणुग-ज्ञायक; आदि ।
किन्तु बहुधा मध्यवर्ती क का लोप पाया जाता है। यथा- सूत्रोंमें-सांपराइयसाम्परायिक; एइंदिय-एकेन्द्रिय; सामाइय-सामायिक; काइय-कायिक । गाथाओंमें-तित्थयर-तीर्थकर; वायरणी-व्याकरणी; पयई-प्रकृति; पंचएण-पंचकेन; समाइण्ण-समाकीर्ण; अहियार-अधिकार । टीकामें--एय-एक; परियम्म-परिकर्म; किदियम्म-कृतिकर्म; वायरण-व्याकरण; भडारएण-भट्टारकेण, आदि।
४. मध्यवर्ती क, ग. च, ज, त, द, और प, के लोपके तो उदाहरण सर्वत्र पाये ही जाते हैं, किन्तु इनमेंसे कुछके लोप न होनेके भी उदाहरण मिलते हैं । यथा-- ग-सजोगसयोग; संजोग-संयोग; चाग-त्याग; जुग-युग; आदि । त-वितीद-व्यतीत । द-दुमत्थ-छमस्थ बादर-बादर; जुगादि-युगादि; अणुवाद-अनुवाद; वेद, उदार, आदि ।
५. थ और ध के स्थानमें प्रायः ह पाया जाता है, किंतु कहीं कहीं थ के स्थानमें ध और ध के स्थानमें ध ही पाया जाता है । यथा-पुध-पृथक; कधं-कथम् ; ओधि-अवधि; ( सू. १३१) सोधम्म-सौधर्म (सू. १६९); साधारण (सू. ४१); कदिविधो कतिविधः; (गा. १८) आधार (टी. १९)
६. संज्ञाओंके पंचमी-एकवचनके रूपमें सूत्रोंमें व गाथाओंमें आ तथा टीकामें बहुतायतसे दो पाया जाता है । यथा- सूत्रोंमें-णियमा-नियमात् । गाथाओंमें- मोहा-मोहात् । तम्हातस्मात् । टीकामें---णाणादो, पढमादो, केवलादो, विदियादो, खेत्तदो, कालदो, आदि।
संज्ञाओंके सप्तमी-एकवचनके रूपमें म्मि और म्हि दोनों पाये जाते हैं। यथा-- सूत्रोंमें-एकम्मि (३६, ४३, १२९, १४८, १४९) आदि । एक्कम्हि (६३, १२७) ।
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