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तक प्रकाश में आया है उसमेंका कमसे कम तीन चौथाई हिस्सा दिगम्बर जैन साहित्यका है । कुछ विद्वानों का ऐसा मत है कि जितनी प्राकृत भाषाएँ थीं उन सबका विकसित होकर एक एक अपभ्रंश बना । जैसे, मागधी अपभ्रंश, शौरसेनी अपभ्रंश, महाराष्ट्री अपभ्रंश आदि । बौद्ध चर्यापदों व विद्यापतिकी कीर्तिलता में मागधी अपभ्रंश पाया जाता है । किन्तु विशेष साहित्यिक उन्नति जिस अपभ्रंशकी हुई वह शौरसेनी महाराष्ट्री मिश्रित अपभ्रंश है, जिसे कुछ वैयाकरण ने नागर अपभ्रंश भी कहा है, क्योंकि, किसी समय संभवत: वह नागरिक लोगोंकी बोलचालकी भाषा थी । पुष्पदन्तकृत महापुराण, णायकुमारचरिउ, जसहर चरिउ, तथा अन्य कवियों के करकंडचरिउ, भविसयत्तकहा, सणकुमारचरिउ, सावयधम्मदोहा, पाहुडदोहा, इसी भाषा के काव्य हैं । इस भाषाको अपभ्रंश नाम वैयाकरणोंने दिया है, क्योंकि वे स्थितिपालक होनेसे भाषाके स्वाभाविक परिवर्तनको विकाश न समझकर विकार समझते थे । पर इस अपमानजनक नामको लेकर भी यह भाषा खूब फली फूली और उसीकी पुत्रियां आज समस्त उत्तर भारतका काजव्यवहार सम्हाले हुए है ।
इस भाषा की संज्ञा व क्रियाकी रूपरचना अन्य प्राकृतोंसे बहुत कुछ भिन्न हो गई है । उदाहरणार्थ, कर्ता व कर्म कारक एकवचन, उकारान्त होता है जैसे, पुत्रो, पुत्रम् - पुत्तु; पुत्रेण-पुते; पुत्राय, पुत्रात् पुत्रस्य - पुत्तहु पुत्रे - पुत्ते, पुत्ति, पुत्तहिं, आदि ।
क्रिया में, करोमि - करउं; कुर्वन्ति - करहिं कुरुथ - करहु, आदि ।
इसमें नये नये छन्दोंका प्रादुर्भाव हुआ जो पुरानी संस्कृत व प्राकृतमें नहीं पाये जाते, किंतु जो हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि आधुनिक भाषाओं में सुप्रचलित हुए । अन्त-यमक अर्थात् तुकबंदी इन छन्दोंकी एक बड़ी विशेषता है । दोहा, चौपाई आदि छन्द यहांसे ही हिन्दीमें आये ।
अपभ्रंशका उदाहरण -
सुहु सारउ मणुयत्तणहं तं सुहु धम्मायत्तु । धम्मुवि रे जिय तं करहि जं अरहंतई वुत्तु ॥
सावयधमदोहा ॥ ४॥
अर्थात् सुख मनुष्यत्वका सार है और वह सुख धर्मके आधीन है। रे जीव ! वह धर्म कर जो अरहंत का कहा हुआ है ।
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इन विशेष लक्षणोंके अतिरिक्त स्वर और व्यंजनसम्बंधी कुछ विलक्षणताएं सभी प्राकृतोंमें समानरूपसे पाई जाती हैं । जैसे, स्वरोंमें ऐ और औ, ॠ और ऌ का अभाव और उनके स्थान पर क्रमश: अइ, अउ, अथवा ए, ओ, तथा अ या इ का आदेश; मध्यवर्ती
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