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(७९) हो गया और उनकी टीकामें जो संस्कृत-प्राकृतका परिमाण पाया जाता है वह प्रायः उन दोनों भाषाओंकी तात्कालिक आपेक्षिक प्रबलताका द्योतक है। इस समयसे प्राकृतका बल घट चला और संस्कृतका बढा, यहांतक कि आजकल जैनियोंमें प्राकृत भाषाके पठन पाठनकी बहुत ही मन्दता है। दिगम्बर समाजके विद्यालयोंमें तो व्यवस्थित रूपसे प्राकृत पढ़ानेकी सर्वथा व्यवस्था रही ही नहीं । ऐसी अवस्थामें प्रस्तुत ग्रंथका परिचय कराते समय प्राकृत भाषाका परिचय करा देना भी उचित प्रतीत होता है। प्राकृत साहित्यमें प्राकृत भाषा मुख्यतः पांच प्रकारकी पाई जाती है-- मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, और अपभ्रंश । महावीरस्वामीके समयमें अर्थात् आजसे लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जो भाषा मगध प्रांतमें . प्रचलित थी वह मागधी कहलाती है। इस भाषाका कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं पाया
जाता। किंतु प्राकृत व्याकरणोंमें इस भाषाका स्वरूप बतलाया गया है, और कुछ शिलालेखों और नाटकोंमें इस भाषाके उदाहरण मिलते हैं जिनपर से इस भाषाकी तीन विशेषताएं स्पष्ट समझमें आ जाती हैं
१. र के स्थानमें ल, जैसे, राजा-लाजा, नगर-णगल, २. श, ष और सके स्थानपर श । जैसे, शम-शम, दासी-दाशी, मनुप-मनुश । ३. संज्ञाओंके कर्ताकारक एकवचन पुल्लिंग रूपमें ए । जैसे, देवः-देवे, नरः-णले, उदाहरण
अले कुंभीलआ ! कहेहि, कहिं तुए एशे मणिबंधणुक्किगणामहेए लाअकीलए अंगुलीअए शमाशादिए । ( शकुंतला )
'अरे कुंभीलक ! कह, कहां तूने इस मणिबंध और उत्कीर्ण नाम राजकीय अंगुलीको पाया'। __दूसरे प्रकारकी प्राकृत अर्धमागधी इस कारण कहलाई कि उसमें मागधीके आधे लक्षण पाये
र जाते हैं और क्योंकि, संभवतः वह आधे मगध देशमें प्रचलित थी। इसी भाषामें
। प्राचीन जैन सूत्रोंकी रचना हुई थी और इसका रूप अब श्वेताम्बरीय सूत्र-ग्रंथोंमें पाया जाता है, इसीलिये डा. याकोवीने इसे जैन प्राकृत कहा है । इसमें ष और स के स्थानपर श न होकर सर्वत्र स ही पाया जाता है, र के स्थानपर ल तथा कर्ता कारकमें 'ए' विकल्पसे होता है, अर्थात् कहीं होता है और कहीं नहीं होता, और अधिकरण कारकका रूप 'ए' व ‘म्मि' के अतिरिक्त ‘अंसि' लगाकर भी बनाया जाता है।
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