Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(७७) १०. कषायसे अनुरंजित योगोंकी प्रवृति व शरीरके वर्णो का नाम लेश्या है। इसके छह भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ।
११. जिस शक्तिके निमित्तसे आत्माके दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुण प्रगट होते हैं उसे भव्यत्व कहते हैं । तदनुसार जीव भव्य व अभव्य होते हैं .
१२. तत्त्वार्थके श्रद्धानका नाम सम्यक्त्व है, और दर्शनमोहके उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक, सम्यग्मिथ्यात्व, सासादन व मिथ्यात्वरूप भावोंके अनुसार सम्यक्त्वमार्गणाके छह भेद हो जाते हैं।
१३. मनके द्वारा शिक्षादिके ग्रहण करनेको संज्ञा कहते हैं और ऐसी संज्ञा जिसमें हो वह संज्ञी कहलाता है । तदनुसार जीव संज्ञी व असंज्ञी होते हैं ।
१४. औदारिक आदि शरीर और पर्याप्तिके ग्रहण करनेको आहार कहते हैं । तदनुसार जीव आहारक और अनाहारक होते हैं ।
इन चौदह गुणस्थानों और मार्गणाओंका प्ररूपण करनेवाले सत्प्ररूपणाके अन्तर्गत १७७ सूत्र हैं जिनका विषयक्रम इसप्रकार है। प्रथम सूत्रमें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया है। आगेके तीन सूत्रोंमें मार्गणाओंका प्रयोजन बतलाया गया है और उनका गति आदि नाम निर्देश किया गया है । ५, ६ और ७ वें सूत्रमें मार्गणाओंके प्ररूपण निमित्त आठ अनुयोगद्वारोंके जाननेकी आवश्यकता बताई है और उनके सत् , द्रव्यप्रमाण (संख्या) आदि नामनिर्देश किये हैं। ८ वें सूत्रसे इन अनुयोगद्वारों से प्रथम सत् प्ररूपणाका विवरण प्रारम्भ होता है जिसके आदिमें ही ओघ और आदेश अर्थात् सामान्य और विशेष रूपसे विषयका प्रतिपादन करनेकी प्रतिज्ञा करके मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानोंका निरूपण किया है जो ९ वे सूत्रसे २३ वें सूत्रतक चला है । २४ ३ सूत्रसे विशेष अर्थात् गति आदि मार्गणाओंका विवरण प्रारम्भ हुआ है जो अन्त तक अर्थात् १७७ में सूत्रतक चलता रहा है। गति मार्गणा ३२ वें सूत्रतक है । यहांपर नरकादि चारों गतियोंके गुणस्थान बतलाकर यह प्रतिपादन किया है कि एकेन्द्रियसे असंज्ञी पंचन्द्रियतक शुद्ध तिर्यंच होते हैं, संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे संयतासंयत गुणस्थानतक मिश्र तिर्यच होते हैं, और इसी प्रकार मनुष्य भी । देव और नारकी असंयत गुणस्थानतक मिश्र अर्थात् परिणामोंकी अपेक्षा दूसरी तीन गतियोंके जीवोंके साथ समान होते हैं । प्रमत्तसंयतसे आगे शुद्ध मनुष्य होते हैं। ३३ वें सूत्रसे ३८ वें तक इन्द्रिय मार्गणाका कथन है और उससे आगे १६ वें सूत्र तक कायका और फिर १०० वें सूत्र तक योगका कथन है । इस मार्गणामें योगके साथ पर्याप्ति अपर्याप्तयोंका भी प्ररूपण
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