Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(६५)
समुत्कीर्तना, २ स्थानसमुत्कीर्तना, ३-५ तीन महादण्डक, ६ जघन्य स्थिति, ७ उत्कृष्ट स्थिति, ८ सम्यक्त्वोत्पत्ति और ९ गति - आगति ये नौ चूलिकाएं हैं । इस खंडका परिमाण धवलाकारने अठारह हजार पद कहा है (पृ. ६० ) । पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारों और नौ चूलिकाओंमें गुणस्थानों और मार्गणाओं का आश्रय लेकर यहां विस्तारसे वर्णन किया गया है ।
२ खुदाबंध
दूसरा खंड खुद्द बंध ( क्षुल्लकबंध ) है । इसके ग्यारह अधिकार हैं, १ स्वामित्व, २ काल, ३ अन्तर, ४ भंगविचय, ५ द्रव्यप्रमाणानुगम, ६ क्षेत्रानुगम, ७ स्पर्शनानुगम, ८ नाना - जीव-काल, ९ नाना - जीव- अन्तर, १० भागाभागानुगम और ११ अल्पबहुत्वानुगम । इस खंड में इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मबन्ध करनेवाले जीवका कर्मबन्धके भेदों सहित वर्णन किया गया है ।
यह खंड अ. प्रतिके ४७५ पत्रसे प्रारम्भ होकर ५७६ पत्रपर समाप्त हुआ है ।
तीसरे खंडका नाम बंधस्वामित्वविचय है । कितनी प्रकृतियोंका किस जीवके कहां तक बंध होता है, किसके नहीं होता है, कितनी प्रकृतियोंकी किस ३ बंधस्वामित्वगुणस्थान में व्युच्छित्ति होती है, स्वोदय वरूप प्रकृतियां कितनी हैं विचय और परोदय वैधरूप कितनी हैं, इत्यादि कर्मबंधसंबन्धी विषयोंका बंधक जीवकी अपेक्षासे इस खंड में वर्णन है /
यह खंड अ. प्रतिके ५७६ वें पत्रसे प्रारम्भ होकर ६६७ वें पत्र पर समाप्त हुआ है । चौथे खंडका नाम वेदना है । इसके आदिमें पुन: मंगलाचरण किया गया है । इसी खंडके अन्तर्गत कृति और वेदना अनुयोगद्वार हैं । किंतु वेदनाके कथनकी प्रधानता ४ वेदना और अधिक विस्तार के कारण इस खंडका नाम वेदना रक्खा गया है' ।
कृतिमें औदारिकादि पांच शरीरोंकी संघातन और परिशातनरूप कृतिका तथा भव प्रथम और अप्रथम समय में स्थित जीवों के कृति, नोकृति और अवक्तव्यरूप संख्याओंका वर्णन है । १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, ४ गणना, ५ ग्रंथ, ६ करण और ७ भाव, ये कृतिके सात प्रकार हैं, जिनमें से प्रकृतमें गणनाकृति मुख्य बतलाई गई है ।
वेदना १ निक्षेप, २ नय, ३ नाम, ४ द्रव्य, ५ क्षेत्र, ६ काल, ७ भाव, ८ प्रत्यय,
१ कदि पास कम्म पयाड - अणियोगद्दाराणि वि एत्थ परूविदाणि, तेसिं खंडगंथसण्णमकाऊण तिण्णि चेव खंडाणि ति किमहं उच्चदे ? ण, ते पहाणत्ताभावादो । तं पि कुदो णव्वदे ? संखेवेण परूवणादो ।
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