Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(६४) तथा श्रुतावतारके कर्ता इन्द्रनन्दिने षट्वंडागम' कहा है, और इन ग्रंथोंको आगम कहनेकी बड़ी भारी सार्थकता भी है । सिद्धान्त और आगम यद्यपि साधारणतः पर्यायवाची गिने जाते हैं, किंतु निरुक्ति और सूक्ष्मार्थकी दृष्टिसे उनमें भेद है। कोई भी निश्चित या सिद्ध मत सिद्धान्त कहा जा सकता है, किंतु आगम वही सिद्धान्त कहलाता है जो आप्तवाक्य है और पूर्व-परम्परासे आया है । इसप्रकार सभी आगमको सिद्धान्त कह सकते हैं किंतु सभी सिद्धान्त आगम नहीं कहला सकते । सिद्धान्त सामान्य संज्ञा है और आगम विशेष ।
इस विवेचनके अनुसार प्रस्तुत ग्रंथ पूर्णरूपसे आगम सिद्धान्त ही है । धरसेनाचार्यने पुष्पदन्त और भूतबलिको दे ही सिद्धान्त सिखाये जो उन्हें उनसे पूर्ववर्ती आचार्योंद्वारा प्राप्त हुए और जिनकी परंपरा महावीरस्वामीतक पहुंचती है । पुष्पदन्त और भूतबलिने भी उन्हीं आगम सिद्धान्तोंको पुस्तकारूढ़ किया और टीकाकारने भी उनका विवेचन पूर्व मान्यताओं और पूर्व आचार्योंके उपदेशोंके अनुसार ही किया है जैसा कि उनकी टीकामें स्थान स्थानपर प्रकट है । आगमकी यह भी विशेषता है कि उसमें हेतुवाद नहीं चलता', क्योंकि, आगम अनुमान आदिकी अपेक्षा नहीं रखता किंतु स्वयं प्रत्यक्षके बराबरका प्रमाण माना जाता है।
__पुष्पदन्त व भूतबलिकी रचना तथा उस पर वीरसेनकी टीका इसी पूर्व परम्पराकी मर्यादाको लिये हुए है इसीलिये इन्द्रनन्दिने उसे आगम कहा है और हमने भी इसी सार्थकताको मान देकर इन्द्रनन्दिद्वारा निर्दिष्ट नाम षट्खंडागम स्वीकार किया है। र षटखंडोंमें प्रथम खंडका नाम 'जीवाण' है। उसके अन्तर्गत १सत् , २ संख्या, ३क्षेत्र,
वस्पर्शन, ५काल, ६अन्तर, ७भाव और ८अल्पबहुत्व, ये आठ अनुयोगद्वार,तथा १प्रकृति
१ षटखंडागमरचनाभिप्रायं पुष्पदन्तगुरोः ।। १३७ ॥ षटखंडागमरचना प्रविधाय भूतबल्यायः ॥ १३८ ।। षट्खंडागमपुस्तकमहो मया चिंतितं कार्यम् ॥ १४६ ॥ एवं षदखंडागमसूत्रोत्पत्ति प्ररूप्य पुनरधुना ॥ १४९ ॥ षट्खंडागमगत-खंड-पंचकस्य पुनः ॥ १६८ ॥ इन्द्र. श्रुतावतार.
२ राद्ध-सिद्ध-कृतेभ्योऽन्त आप्तोक्तिः समयागमौ ( हैम. २, १५६.) पूर्वापरविरुद्धादेव्यपेतो दोषसंहतेः । द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहृतिरागमः । (धवला अ. ७१६ )
३ 'भूयसामाचार्याणामुपदेशाद्वा तदवगतः । (१९७ ) · किमित्यागमे तत्र तस्य सत्त्वं नोक्तमिति चेन्न, आगमस्यातर्कगोचरत्वात् ' ( २०६ ) · जिणा ण अण्णहावाइणो' (२२१ ) · आइरियपरं. पराए णिरंतरमागयाणं आइरिएहि पोत्थेसु चडावियाणं असुत्तत्तणविरोहादो' (२२१) प्रतिपादकार्पोपलंभात्' (२३९ ) आर्षात्तदवगतेः' (२५८) प्रवाहरूपेणापौरुषेयत्वतस्तीर्थकृदादयोऽस्य व्याख्यातार एव न कर्तारः' ( ३४९ )
४ किमित्यागमे तत्र तस्य सत्त्वं नोक्तमिति चेन्न, आगमस्यातर्कगोचरत्वात् (२०६) ५ सुदकेवलं च णाणं दोषिण वि सरिसाणि होति बोहादो। सदणाणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं णाणं ॥
गो. जी. ३६९.
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