Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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धवलामें जिन अन्य आचार्यों व रचनाओंके उल्लेख दृष्टिगोचर हुए हैं वे इसप्रकार हैं।
- त्रिलोकप्रज्ञप्तिको धवलाकारने सूत्र कहा है और उसका यथास्थान खब
- उपयोग किया है । हम उपर कह आये हैं कि सत्प्ररूपणामें तिलोयपण्णत्तिके
. मुद्रित अंशकी सात गाथाएं ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं और उसके कुछ यतिवृषभाचार्य
पातक्षमाचार प्रकरण भाषा-परिवर्तन करके ज्योंके त्यों लिखे गये है। इस ग्रंथके कर्ता यतिवृषभाचार्य कहे जाते हैं जो जयधवलाके अन्तर्गत कषायप्राभृतपर चूर्णिसूत्र रचनेवाले यतिवृषभसे अभिन्न प्रतीत होते हैं । ' सत्वरूपणामें भी यतिवृषभका उल्लेख आया है व आगे भी उनके मतका उल्लेख किया गया है ।
कुंदकुंदके पंचास्तिकायका 'पंचत्थिपाहुड' नामसे उल्लेख आया है और उसकी पंचत्थिपाहुड
.. दो गाथाएं भी उद्धृत की गई हैं । सत्प्ररूपणामें उनके ग्रंथोंके जो अवतरण
13 पाये जाते हैं उनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । परिकर्म ग्रंथके उल्लेख और उसके साथ कुंदकुंदाचार्यके संबन्धका विवेचन भी हम ऊपर कर आये हैं।
धवलाकारने तत्वार्थसूत्रको गृद्धपिच्छाचार्यकृत कहा है और उसके कई सूत्र भी गडपिठाचार्गत उद्धृत किये हैं । इससे तत्वार्थसूत्रसंबन्धी एक श्लोक व श्रवणबेलगोलके
"कुछ शिलालेखोंके उस कथनकी पुष्टि होती है जिसमें उमाखातिको तत्वायत्र 'गृद्धपिछोपलांछित ' कहा है । सत्प्ररूपणामें भी तत्वार्थसूत्रके अनेक उल्लेख आये हैं।
१ तिरियलोगो ति तिलोयपणत्तिसत्तादो। धवला. अ. १४३.
चंदाइच बिंबपमाणपरूवयतिलोयपण्णत्तिसुत्तादो। धवला. अ. १४३. तिलोयपण्णतिताणुसारि । धवला. अ. २५९. २ Catalogue of Sans. & Prak. Mss. in C. P. & Berar, Intro. p. XV. ३ यतिवृषभोपदेशात् सर्वघातिकर्मणां इत्यादि । धवला. अ. ३०२ ४ एसो दसणमोहणीय-उवसामओ त्ति जइवसहेण भाणदं । धवला. अ. ४२५.
५ धवला. अ. २८९ 'वृत्तं च 'पंचस्थिपाहुडे' कहकर चार गाथाएं उद्धृत की गई हैं जिनमेंसे दो पंचास्तिकाय में क्रमशः १०८, १०७ नंबर पर मिलती हैं। अन्य दो'ण य परिणमइ सयं सो' आदि व 'लोयायासपदेसे' आदि गाथाएं हमारे सन्मुख वर्तमान पंचास्तिकायमें दृष्टिगोचर नहीं होती । किन्तु वे दोनों गो. जीवमें क्रमशः नं. ५७० और ५८९ पर पाई जाती हैं । धवलाके उसी पत्रपर आगे पुनः वही 'वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे' कहकर तीन गाथाएं उधृत की हैं जो पंचास्तिकायमें क्रमशः २३, २५ और २६ नं. पर मिलती हैं। (पंचास्तिकायसार, आरा, १९२०.)
६ देखो ऊपर पृ. ४६ आदि. ७ देखो पृ. १५१, २३२, २३६, २३९, २४०.
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