Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(५७) मतभेदोंका उल्लेख किया है तथा उन्हें महावाचकके अतिरिक्त 'क्षमाश्रमण' भी कहा है। यतिवृषभकृत चूर्णिसूत्रों की पुस्तक भी उनके सामने थी और उसके सूत्र-संख्या-क्रमका भी वीरसेनने बड़ा ध्यान रक्खा है।
सूत्रों और उनके व्याख्यानों में विरोधके अतिरिक्त एक और विरोधका उल्लेख मिलता है उत्तर और दक्षिण
जिसे धवलाकारने उत्तर-प्रतिपति और दक्षिण-प्रतिपत्ति कहा है। ये दो
" भिन्न मान्यताएं थीं जिनमेंसे टीकाकार स्वयं दक्षिण-प्रतिपत्तिको स्वीकार पार करते थे, क्योंकि, वह ऋजु अर्थात् सरल, सुस्पष्ट और आचार्य-परंपरागत है, तथा उत्तर-प्रतिपत्ति अनृजु है और आचार्य-परंपरागत नहीं है। धवलामें इस प्रकारके तीन मतभेद हमारे दृष्टिगोचर हुए हैं। प्रथम द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वारमें उपशमश्रेणीकी संख्या ३०४ बताकर कहा है
केवि पुवुत्तपमाणं पंचूणं करति । एदं पंचूणं वक्खाणं पवाइजमाणं दक्षिणमाइरियपरंपरागयमिदि जं वुत्तं होई । पुवुत्त-वक्खाणमपवाइज्ज-माणं वाउं आइरियपरंपरा-अणागदमिदि णायव्वं ।'
__ अर्थात् कोई कोई पूर्वोक्त प्रमाणमें पांचकी कमी करते हैं। यह पांचकी कमीका व्याख्यान प्रवचन-प्राप्त है, दक्षिण है और आचार्य-परंपरागत है। पूर्वोक्त व्याख्यान प्रवचन-प्राप्त नहीं है, वाम है और आचार्यपरंपरासे आया हुआ भी नहीं है, ऐसा जानना चाहिये ।
इसीके आगे क्षपकश्रेणीकी संख्या ६०५ बताकर कहा गया हैएसा उत्तर-पडिवत्ती । एत्थ दस अवणिदे दक्षिण-पडिवची हवदि ।
अर्थात् यह (६०५ की संख्यासंबंधी ) उत्तर प्रतिपत्ति है । इसमेंसे दश निकाल देनेपर दक्षिण-प्रतिपत्ति हो जाती है।
आगे चलकर द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वारमें ही संयतोंकी संख्या ८९९९९९९७ बतलाकर कहा है ' एसा दक्षिण-पडिवत्ती'। इसके अन्तर्गत भी मतभेदादिका निरसन करके, फिर
१ कम्माहीदि त्ति अणियोगद्दारे हि भण्णमाणे वे उवदसा होति । जहण्णुक्कस्सट्ठिदीण पमाणपरूवणा कम्मद्विदिपरूवणे ति णागहत्थि-खमासमणा भणंति । अजमखुखमासमणा पुण कम्मठिदिपरूवणे ति भणति । एवं दोहि उवदेसेहि कम्मट्ठिदिपरूवणा कायव्वा। (धवला. अ. १४४०.) एत्थ दुवे उवएसा ... महावाचयाणमन्जमखुखवणाणमुवदेसेण लोगपूरिदे आउगसमाण णामा-गोद-वेदणीयाणं ट्ठिदिसंत-कम्मं ठवेदि। महावाचयाणं णागहत्थि-खवणाणमुवएसेण लोगे पूरिदे णामा-गोद-वेदणीयाण विदिसंतकम्मं अंतोमुहत्तपमाणं होदि। जयध. अ. १२३९.
२ जइवसह-चुण्णिसुत्तम्मि णव-अंकुवलंभादो !... जश्वसहठविद-बारहंकादो । जयध, अ. २४.
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