Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(३७)
स्तिमें भी वीरसेन के संबन्ध में प्रायः ये ही बातें कही गई हैं। चूंकि वह प्रशस्ति उनके शिष्यद्वारा लिखी गई है अतएव उसमें उनकी कीर्ति विशेष रूप से वर्णित पाई जाती है । वहां उन्हें साक्षात् केवीके समान समस्त विश्वके पारदर्शी कहा है। उनकी वाणी षट्खण्ड आगममें अस्खलित रूपसे प्रवृत्त होती थी । उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञाको देखकर सर्वज्ञकी सत्ता में किसी मनीषीको शंका नहीं रही थी । विद्वान् लोग उनकी ज्ञानरूपी किरणों के प्रसारको देखकर उन्हें प्रज्ञा श्रमणों में श्रेष्ठ आचार्य और श्रुतवली कहते थे । सिद्धान्तरूपी समुद्रके जलसे उनकी बुद्धि शुद्ध हुई थी जिससे वे तीत्रबुद्धि प्रत्येकबुद्धोंसे भी स्पर्धा करते थे । उनके विषय में एक मार्मिक बात यह कही गई है कि उन्होंने चिरंतन कालको पुस्तकों (अर्थात पुस्तकारूढ़ सिद्धांतों) की खूब पुष्टि की और इस कार्य में वे अपने से पूर्व के समस्त पुस्तक-पाठियोंसे बढ़ गये । इसमें सन्देह नहीं कि वीरसेनकी इस टीकाने इन आगम-सूत्रों को चमका दिया और अपने से पूर्वको अनेक टीकाओंको अस्तमित कर दिया ।
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जिनसेनने अपने आदिपुराण में भी गुरु वीरसेनकी स्तुति की है और उनकी भट्टारक पदवीका उल्लेख किया है । उन्हें वादि - वृन्दारक मुनि कहा है, उनकी लोकविज्ञता, कवित्वशक्ति और वाचस्पतिके समान वाग्मिताकी प्रशंसा की है, उन्हें सिद्धान्तोपनिबन्धकर्ता कहा है तथा उनकी ' धवला' भारतीको भुवनव्यापिनी कहा है ।
१. भूयादावीरसेनस्य वीरसेनस्य शासनम् । शासनं वरिसेनस्य वीरसेन- कुशेशयम् ॥ १७ ॥ आसीदासीददासन्न भव्य सत्त्व कुमुद्वतीम् । मुद्धतीं कर्तुमीशो यः शशांक इव पुष्कलः ॥ १८ ॥ श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः । पारदृश्वाधिविश्वानां साक्षादिव स केवली ॥ १९ ॥ प्रीणितप्राणिसंपत्तिराक्रांता]शेषगोचरा । भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्डे यस्य नास्खलत् ॥ २० ॥ यस्य नैसर्गिकीं प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाताः सर्वज्ञसद्भावे निरारेका मनीषिणः ॥ २१ ॥ यं प्राहुः प्रस्फुरद्बोधदीधितिप्रसरोदयम् । श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणसत्तमम् ॥ २२ ॥ प्रसिद्ध-सिद्धसिद्धान्तवार्धिवाधत शुद्धधीः । सार्द्धं प्रत्येकबुद्धैर्यः स्पर्धते धीद्धबुद्धिभिः ॥ २३ ॥ पुस्तकानां चिरत्नानां गुरुत्वमिह कुर्वता । येनातिशयिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः ॥ २४ ॥ यस्तप्तदीप्तकिरणैर्भव्याभोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ट मुनीनेनः पंचस्तूपान्वयांबरे ॥ २५ ॥ प्रशिष्यश्चन्द्रसेनस्य यः शिष्योऽप्यार्यनन्दिनाम् । कुलं गणं च सन्तानं खगुणैरुदजिज्वलत् ॥ २६॥ तस्य शिष्योऽभवच्छ्रीमान् जिनसेनसमिद्धधीः । ( जयधवला - प्रशस्ति )
२. श्री वीरसेन इत्यान्त भट्टारकपृथुप्रथः । स नः पुनातु पूतात्मा वादिवृन्दारको सुमिः ॥ ५५ ॥ लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयम् । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥ ५६ ॥ सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । मन्मनः सरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ॥ ५७ ॥ धवल भारतीं तस्य कीर्ति च शुचि - निर्मलाम् । धवलीकृतनिःशेषभुवनां तां नमाम्यहम् ॥ ५८ ॥
आदिपुराण- उत्थानिका
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