Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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है। धन्य है वीरसेन स्वामीकी अपार प्रशा और अनुपम साहित्यिक परिश्रमको। उनके विषयमें भवभूति कविके वे शब्द याद आते हैं
उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा,
कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी । वरिसेनाचार्यका समय निश्चित है । उनकी अपूर्णटीका जयधवलाको उनके शिष्य लोग जिनसेनने शक सं० ७५९ की फाल्गुन शुक्ला दशमी तिथिको पूर्ण की थी
और उस समय अमोघवर्षका राज्य था' । मान्यखेटके राष्ट्रकूट नरेश अमोघनाकाल वर्ष प्रथमके उल्लेख उनके समयके ताम्रपटोंमें शक सं० ७३७ से लगाकर ७८८ तक अर्थात् उनके राज्यके ५२ वीं वर्ष तकके मिलते हैं । अतः जयधवला टीका अमोघवर्षके राज्यके २३ वीं वर्ष में समाप्त हुई सिद्ध होती है। स्पष्टतः इससे कई वर्ष पूर्व धवला टीका समाप्त हो चुकी थी और वीरसेनाचार्य स्वर्गवासी हो चुके थे।
धवला टीकाके अन्तकी जो प्रशस्ति स्वयं वीरसेनाचार्यकी लिखी हुई हम ऊपर उद्धृत कर आये हैं उसकी छटवी गाथामें उस टीकाकी समाप्तिके सूचक कालका निर्देश है। किंतु दुर्भाग्यतः हमारी उपलब्ध प्रतियोंमें उसका पाठ बहुत भ्रष्ट है इससे वहां अंकित वर्षका ठीक निश्चय नहीं होता । किंतु उसमें जगतुंगदेवके राज्यका स्पष्ट उल्लेख है। राष्ट्रकूट नरेशोंमें जगतुंग उपाधि अनेक राजाओंकी पाई जाती है । इनमेंसे प्रथम जगतुंग गोविंद तृतीय थे जिनके ताम्रपट शक संवत् ७१६ से ७३५ तकके मिले हैं । इन्हींके पुत्र अमोघवर्ष प्रथम थे जिनके राज्यमें जयधवला टीका जिनसेन द्वारा समाप्त हुई । अतएव यह स्पष्ट है कि धवलाकी प्रशस्तिमें इन्हीं गोविन्दराज जगतुंगका उल्लेख होना चाहिये ।
१. इति श्रीवीरसेनीया टीका सूतार्थदर्शिनी । वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते ॥ ६ ॥
फाल्गुने मासि पूर्वाह्न दशम्या शुक्लपक्षके । प्रवर्द्धमानपूजोरुनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥ ७ ॥ अमोघवर्षराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदया। निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥ ८ ॥ एकोनषष्टिसमधिकसप्तशताब्दषु शकनरेन्द्रस्य । समतीतेपु समाता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥ ९ ॥
जयधवला प्रशस्ति २. Altekar: The Rashtrakutas and their times, p. 71. Dr. Altekar, on page 87 of his book says “ His ( Amoghavarsha's) latest known date is Phalguna S'uddha 10, S'aka 799 (i, e. March 878 A, D.), when the Jayadhavalā tikā of Virasena was finished. This is a gross mistake. He has wrongly taken S'aka 759 to be saka 799.
३ रेऊ भारतके प्राचीन राजवंश. ३. पृ. ३६, ६५-६७.
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