Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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इस समस्त टीकाका परिमाण भी बारह हजार श्लोक था और उसकी भाषा प्राकृत संस्कृत और कनाड़ी तीनों मिश्रित थी। यह टीका परिकर्मसे कितने ही काल पश्चात् लिखी गई थी । इस टीकाके कोई उल्लेख आदि धवला व जयधवलामें अभीतक हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुए।
इन्द्रनन्दिद्वारा उल्लिखित तीसरी सिद्धान्तटीका तुम्बुलूर नामके आचार्यद्वारा लिखी गई ।
ये आचार्य 'तुम्बुलूर' नामके एक सुन्दर ग्राममें रहते थे, इसीसे वे तुम्बुलूरा
"चार्य कहलाये, जैसे कुण्डकुन्दपुरमें रहनेके कारण पद्मनन्दि आचार्यकी दु राचार कुन्दकुन्द नामसे प्रसिद्धि हुई। इनका असली नाम क्या था यह ज्ञात नहीं होता । इन्होंने छठवें खंडको छोड़ शेष दोनों सिद्धान्तोंपर एक बड़ी भारी व्याख्या लिखी, जिसका नाम ' चूडामणि' था और परिमाण चौरासी हजार । इस महती व्याख्याकी भाषा कनाड़ी थी । इसके अतिरिक्त उन्होंने छठवें खंडपर सात हजार प्रमाण 'पश्चिका' लिखी । इसप्रकार इनकी कुल रचनाका प्रमाण ९१ हजार श्लोक हो जाता है। इन रचनाओंका भी कोई उल्लेख धवला व जयधवलामें हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ। किन्तु महाधवलका जो परिचय — धवलादिसिद्धान्त ग्रंथोंके प्रशस्तिसंग्रह ' में दिया गया है उसमें पंचिकारूप विवरणका उल्लेख पाया जाता है। यथा
वोच्छामि संतकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ॥.........पुणो तेहिंतो सेसद्वारसणियोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परूविदाणि । तो वि तस्सइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुद्धयेण पंचिय-सरूवेण भणिस्सामो ।
जान पड़ता है यही तुम्बुलूराचार्यकृत षष्ठम खंडकी वह पंचिका है जिसका इन्द्रनन्दिने उल्लेख किया है। यदि यह ठीक हो तो कहना पड़ेगा कि चूडामणि व्याख्याकी भाषा कनाड़ी थी, किंतु इस पंचिकाको उन्होंने प्राकृतमें रचा था ।
भट्टाकलंकदेवने अपने कर्णाटक शब्दानुशासनमें कनाड़ी भाषामें रचित 'चूडामणि' नामक तत्वार्थमहाशास्त्र व्याख्यानका उल्लेख किया है। यद्यपि वहां इसका प्रमाण ९६ हजार बतलाया है जो इन्द्रनन्दिके कथनसे अधिक है, तथापि उसका तात्पर्य इसी तुम्बुलराचार्यकृत 'चूडामणि ' से है ऐसा जान पड़ता है । इनके रचना-कालके विषयमें इन्द्रनन्दिने इतना
१ काले ततः कियत्यपि गते पुनः शामकुण्डसंज्ञेन | आचार्येण ज्ञात्वा द्विभेदमप्यागमः कात्ात् ॥ १६२ ॥ द्वादशगुणितसहस्रं ग्रन्थं सिद्धान्तयोरुभयोः । षष्ठेन विना खण्डेन पृथुमहाबन्धसंज्ञेन ॥ १६३ ॥ प्राकृतसंस्कृतकर्णाटभाषया पद्धतिः परा रचिता ॥
इन्द्र. श्रुतावतार. २ वरिवाणीविलास जैन सिद्धान्तभवनका प्रथम वार्षिक रिपोर्ट, १९३५. ३ न चैषा ( कर्णाटकी) भाषा शास्त्रानुपयोगिनी, तत्त्वार्थमहाशास्त्रव्याख्यानस्य षण्णवतिसहस्रप्रमित
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