Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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इन अवतरणों से बप्पदेव और उनकी टीका ' व्याख्या प्रज्ञप्ति ' का अस्तित्व सिद्ध होता है। धवलाकार वीरसेनाचार्यके परिचयमें हम कह ही आये हैं कि इन्द्रनन्दिके अनुसार उन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्तिको पाकर ही अपनी टीका लिखना प्रारम्भ किया था ।
उक्त पांच टीकाएं षट्खंडागमके पुस्तकारूढ होनेके काल (विक्रमकी २ री शताब्दि) से धवलाके रचना काल ( विक्रमकी ९ वीं शताब्दि) तक रची गई जिसके अनुसार स्थूल मानसे कुन्दकुन्द दूसरी शताब्दिमें, शामकुंड तीसरीमें, तुम्बुलूर चौथीमें, समन्तभद्र पांचवीमें और बप्पदेव छठवीं और आठवीं शताब्दिके बीच अनुमान किये जा सकते हैं ।
प्रश्न हो सकता है कि ये सब टीकार कहां गई और उनका पठन-पाठनरूपसे प्रचार क्यों विच्छिन्न हो गया ? हम धवलाकारके परिचयमें ऊपर कह ही आये हैं कि उन्होंने, उनके शिष्य जिनसेनके शब्दों में, चिरकालीन पुस्तकों का गौरव बढ़ाया और इस कार्यमें वे अपनेसे पूर्वके समस्त पुस्तक-शिष्योंसे बढ़ गये । जान पडता है कि इसी टीकाके प्रभावमें उक्त सब प्राचीन टीकाओंका प्रचार रुक गया । वारसनाचार्यने अपनी टीकाके विस्तार व विषयके पूर्ण परिचय तथा पूर्वमान्यताओं व मतभेदोंके संग्रह, आलोचन व मंथनद्वारा उन पूर्ववती टीकाओंको पाठकोंकी दृष्टिसे ओझल कर दिया । किन्तु स्वयं यह वीरसेनीया टीका भी उसी प्रकारके अन्धकारमें पडनेसे अपनेको नहीं बचा सकी। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने इसका पूरा सार लेकर संक्षेपमें सरल और सुस्पष्टरूपसे गोम्मटसारकी रचना कर दी, जिससे इस टीकाका भी पठन-पाठन प्रचार रुक गया। यह बात इसीसे सिद्ध है कि गत सात-आठ शताब्दियोंमें इसका कोई साहित्यिक उपयोग हुआ नहीं जान पड़ता और इसकी एकमात्र प्रति पूजाकी वस्तु बनकर तालोंमें बन्द पड़ी रही। किन्तु यह असंभव नहीं है कि पर्वकी टीकाओंकी प्रतियां अभी भी दक्षिणके किसी शास्त्रभंडारमें पड़ी हुई प्रकाशकी बाट जोह रही हों । दक्षिणमें पुस्तकें ताडपत्रोंपर लिखी जाती थीं और ताडपत्र जल्दी क्षीण नहीं होते । साहित्यप्रेमियोंको दक्षिणप्रान्तके भण्डारोंकी इस दृष्टि से भी खोजपीन करते रहना चाहिए।
सत्प्ररूपणामें स
९. धवलाकारके सन्मुख उपस्थित साहित्य धवला और जयधवलाको देखनेसे पता चलता है कि उनके रचयिता वीरसेन आचार्यके
सन्मुख बहुत विशाल जैन साहित्य प्रस्तुत था । सत्प्ररूपणाका जो भाग अब
प्रकाशित हो रहा है उसमें उन्होंने सत्कर्मप्राभृत व कषायप्राभृतके नामोल्लेख उल्लिखित
व उनके विविध अधिकारोंके उल्लेख व अवतरण आदि दिये हैं। इनके अति
रिक्त सिद्धसेन दिवाकरकृत सन्मतितर्कका 'सम्मइसुत्त' (सन्मतिसूत्र ) नामसे १ पृ. २०८, २२१, २२६ आदि
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