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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
बिजली इत्यादि का प्रादुर्भाव होता देखने को मिलता है। यहां बिलजी, मेघ इत्यादि कार्य स्वरुप है। क्योंकि बिजली चमकती है, मेघ गर्जना करता है। यहां बिजली मेघ आदि कार्य है । कुछ खास सन्निवेशबनावटवाले भी है, पहले चमकती नहीं थी वह चमकने लगी और पहले गर्जना करता नहीं था वह गर्जना करने लगे। इस तरह से बिजली, मेघ इत्यादि में हेतु रहने पर भी उसका बुद्धिमान् कर्ता नहीं है। इसलिए कार्यत्व हेतु व्यभिचारी बनता है। तथा स्वप्नादि अवस्था में जो कार्य दिखते है, उसके कर्ता भी बुद्धिमान होते नहीं है। इसलिए कार्यत्व हेतु व्यभिचारी बनता है। ___ तथा ये कार्यत्वादि हेतु कालात्ययापदिष्ट भी है। क्योंकि प्रत्यक्ष और आगम से बाधित है। उसकी चर्चा पहले निकट में प्रयोजित हुए ही है। अर्थात् सभी कार्यत्वादि हेतु बाधित है, वह पहले बताया ही है।
वैसे ही सब कार्यत्वादि हेतु प्रकरणसम है। क्योंकि यहां प्रकरण की विचारणा के अप्रवर्तक दूसरे हेतुओ का सद्भाव है। अर्थात् जगत् को अकर्तृक सिद्ध करनेवाले दूसरे अनेक विपरीत अनुमान विद्यमान होने से आपका हेतु प्रकरणसम भी है। (उसको सत्प्रतिपक्ष भी कहा जाता है।)
अकर्तृत्वसाधक अनुमान इस तरह है- ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है, क्योंकि उनके पास जगतनिर्माण के उपकरण = कारण सामग्री नहीं है। जैसे दंड, चक्र, चीवरादि सामग्रीरहित कुम्हार घट का अकर्ता कहा जाता है। वैसे ईश्वर भी जगत्कर्ता नहीं है। उसी तरह से ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है। क्योंकि व्यापी होने से क्रियाशून्य है। जैसे कि, आकाश व्यापक होने से क्रियाशून्य है। इसलिए वह निष्क्रिय ऐसे ईश्वर जगत का निर्माण किस तरह से कर सकेंगे? ___ इसी तरह से ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है, क्योंकि एक है। जैसे आकाश एक स्वभाववाला होने से किसीका कर्ता बनता नहीं है, वैसे ईश्वर एकस्वभाववाले होने से विचित्र जगत के कर्ता किस तरह से बन सकेंगे?
ईश्वर की सिद्धि करने के लिए नित्यत्व, सर्वज्ञत्व आदि विशेषणो को उपस्थित करना निरर्थक और हास्यास्पद है, क्योंकि जैसे नपुंसक को खुश करने के लिए कामिनी के रुप का वर्णन करना वह निरर्थक
और हास्यास्पद है। वैसे मूलतः ईश्वर की सिद्धि नहीं हुई, वहां नित्यत्व, सर्वज्ञत्व विशेषणो की विचारणा करना निरर्थक - हास्यास्पद है।
फिर भी ईश्वर का नित्यत्व, सर्वज्ञत्व आदि विशेषण ईश्वरसिद्धि के विचारमार्ग में सह्य बनते नहीं है, वह बताने के लिए कुछ कहा जाता है। अर्थात् उस विशेषणो की निरर्थकता बताते है।
प्रथम नित्यत्व का विचार किया जाता है। ईश्वर में नित्यत्व होता नहीं है। ईश्वर नित्य नहीं है। क्योंकि पृथ्वी आदि कार्यो को स्वभाव भेद से बनाते है । यदि ईश्वर का स्वभावभेद माना न जाये तो विचित्रकार्य उत्पन्न नहीं हो सकेंगे। जो वस्तु हमेशा एकस्वरुप में रहती है, कभी भी उसका नाश नहीं होता और कभी भी वह उत्पन्न नहीं होती, उस वस्तु को नित्य कहा जाता है ।
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