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गोविन्दचन्द्रिका
बाराबंकी जिले के शाहपुर के श्रीमान् कुँवर भूषणसिंह गोविन्दचन्द्रिका नाम के एक अप्रकाशित प्राचीन काव्य का पता इस प्रकार देते हैंगोविन्दचन्द्रिका महाकवि इच्छाराम की प्राप रचना है। इसकी रचना विक्रमीय संवत् १६८४ में हुई है। केशवदास के समकालीन होने के कारण केशव की कविता का प्रभाव इच्छाराम जी की कविता पर काफ़ी पड़ा है और इन्होंने रामचन्द्रिका की भाँति ही गोविन्द - चन्द्रिका की रचना की है।
जिस प्रकार रामचन्द्रिका में अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है, वैसे ही इस पुस्तक में भी अनेक प्रकार के छन्द प्रयुक्त हुए हैं। दोनों पुस्तकों का प्रारम्भिक भाग भी बहुत कुछ एक-दूसरे से मिलता-जुलता है ।
परन्तु गोविन्दचन्द्रिका की कविता प्रसाद-गुण-पूर्ण है, रामचन्द्रिका की कविता की भाँति क्लिष्ट नहीं है । इसके सिवा इसका प्रबन्ध प्रशंसनीय है । कथाप्रवाह सम्यक् रूप से चलता है और वह अन्त तक समान रहता है, कहीं शिथिलता दृष्टिगोचर नहीं होती ।
महात्मा सूरदास जी की कविता मुक्तक रूप में है । उनके सूरसागर में सब कथाओं का पूरा वर्णन नहीं है । व्रजवासीदास-कृत व्रजविलास में कथायें पूर्ण तो हैं, पर उनमें साहित्यिक छटा का अभाव है । गोविन्दचन्द्रिका में इन दोनों बातों का सम्यक योग है । प्रबन्ध खूब गठा हुआ तथा साहित्यिक छटा से परिपूर्ण है । अतएव जो स्थान 'रामचरितमानस' को प्राप्त है, वही स्थान कृष्णकाव्य में 'गोविन्दचन्द्रिका' को प्राप्त होना चाहिए |
यहाँ हम उसके कुछ पद्य उदाहरण स्वरूप उद्धृत करते हैं
कुण्डलिया भाषा प्राकृत संस्कृत, बानि विभेद अनेक | बहुत रंग सुरभीन जस, हरि जस पय सम एक ॥ हरिजस पय सम एक विशदभव श्रामयहारी । गावहिं सुनहिं सुजान दसा मुदमंगलकारी ॥
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सत्र पूत जल वंग, गंग सँग सुचि सिर राखा । हरि गुन गान प्रमान, करहि काउ कौनिहु भाखा ॥६०॥ हरिगीत
हरिचरित नुपम कथ सब कह कोउ न पावत पार है । बिधि शंभु शारद नारदादिक को मति अनुसार है ॥ तहँ बापुरो मैं कौन गनती काम किल्विष मति भरे । लघु डारन को कमठ कैसा मंद मंदर गिरि धरै ॥ ६१ ॥ श्रीकृष्ण लीला अमृत अर्णव भरयो पूरण ब्रह्म है । तिहि ते कछू ले बुंदन किय यथामति प्रारम्भ है | हरिजन सुपारावार के करतार र आधार है । ले हैं सँवारि विचारि जन सुखसील के भंडार है ॥६२॥ तेहि उदधिते गोविन्द जसु सोई इन्दुपरिपूरन जन्यो । de चन्द्र की यह चन्द्रिका लखि नाम हरिभक्तन भन्यो । खल कमल एक बिहाइ सब कँह सुखद होइ अनादि की । हरिदास है भवरोग औषधि सुधा श्रम श्रवनादि की ॥ गोपाल पुंज प्रताप रवि लखि होइ नहिं छबि छीनता । हरि कृपापूरन छपा छिति बसिन है है हीनता ॥ ६४॥ गोविन्दचन्द्र प्रकाशिका हरि ग्रासिका अविकार है । सुख- रासिका भवनासिका को जान जाननहार है ॥ ६३॥ दोहा हरि की कीरति चंद्रिका, चारों फल की दानि । चारयो जुग श्राश्रमवरण, चारयो श्रुति नवखानि ||६५|| दंडक सुधा सिंधु सोमसेस संत श्री गणेसदंति
ऐरावति रविबाजि विसद बड़ाई है। देवधुनी धारापार नारद श्री शारदाऊ
हरिजू के हाथ शोभा शंखचक्र पाई है | हंस हीराहिमि शंभु शंभुसैल कुन्द कंद
चंदन मदार क्षीर बुद्धि सुद्धि ताई है । कृष्ण जू की कीरति ते सूरति ले एक कन
जग में कनि अनेक छबि पाई है || ६६ ॥ आशा है, कुँवर साहब या कृष्ण - काव्य-भक्त कोई प्रकाशक इस अप्राप्य प्राचीन काव्य ग्रन्थ का प्रकाशन कर साहित्य का उपकार करेंगे ।
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