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सरस्वती
[भाग ३६
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जब लौं नृपाल एक तुच्छ वस्तु के ही हेतु, "एहो प्रजा-पीडक पतित पृथिवी के पति !
___ मरते हुओं को देखते हैं आँख भर के। आपके लिए ही पूतनायें ध्वजा धारतीं। तब लौ सहानुभूति-संयुत न होगी सृष्टि, भ्राता की द्वितीया का सु-बत छुट जाता हाय !
तब लौं रुकेगी न कृपाण नाश करके ॥" वीर-बहनों की श्रेणियाँ 'धिक' पुकारतीं। खोकर असंख्य प्यारे पुत्र संगरस्थल में, आपके लिए ही मायें हृदय विदारतीं। "हत ! वह काल
"हंत! वह काल जब शोणित-पिपासुओं ने, मसक कलेजा आँसू कसक निकालती हैं,
संयम हिलाकर स्वभाव को डुला दिया। आपके लिए ही विधवायें धाड़ मारतीं।"
संगर-निशा में नर-नाह-नीति-नायिका को,
भीति-कुट्टिनी ने नाश-नायक बुला दिया ॥
भेंट भूत-नाथ को दे जब भूमि-नायकों की, "आदिम अनादि में कि इस ब्रह्म-मंडल में,
भूमियों को भूमि में निधन ने सुला दिया । ज्योति भी न जब थी, तमिस्र भी न छाया था। प्यारी शान्ति ! सुखद हमारी शान्ति ! तूने तब, जब सार-संचित असार में-अभाव में-यों,
कैसे वह प्रेम-पूर्ण जीवन भुला दिया ॥" ___ भाव उत्तरोत्तर प्रवर्धमान छाया था। ऐसे एक विपुल विकास को शरीर दे के,
(१०) ___ जब श्री मुकुन्द ने जगत उपजाया था। "आगे मूर्तिमान भय सारथी-समान डटा, युद्ध का प्रचार न किया था अवनीतल पै,
मृतक-मही को पार करता दिखाता है। ऐसा नारकीय कृत्य ध्यान में न आया था।" क्रोश का, प्रहार का, विरोध और संगर का,
चार चक्रवाला रथ जोते लिये जाता है । "तब तो नृलोक-मौलि-मंडित महीप-वृन्द !
धूल के समान संज्ञा उड़ती मनुष्यता की,
ध्वस्त प्रलयानिल से ध्वज फहराता है। एहो भौम ईश्वर ! तुम्हारा यह काम है। .. अपने कुकृत्य का प्रचंड परिणाम लखो,
। भू पै शव-भार और शव पै निधन-भार, . पहुँची पताकिनी समस्त स्वर्ग-धाम है।
निधन पै भार प्रलयाग्नि का गिराता है।" हाय ! वह सुदिन उदित कब होगा नाथ !
. देखें कब होता पारतन्त्र्य का विराम है। "दाह युद्ध-भू की, भग्न-चाह मृत सैनिकों की, माने कब होता न विनाश भू का भूभुजों से,
आह भी अनाथों की, कराह विधवाओं की। जानें कब मिटता नृशंसता का नाम है ॥” चढ़ के समुच्च शव-शैल से प्रकाशती है, (८)
__ अग्नि जलते-हुए गृहों की और गाँवों की॥ "जब लौं क्षितीश ईश-अंश कहलानेवाले, । घोर हाहाकार के विघात से नृपालकों के,
___ होते हैं अनीश अवनीश नाम धर के। हिल उठी चूल है सिंहासनों के पाँवों की। एक शक्ति-मत्त की रहेगी शक्ति भूतल में, ज्ञात होता फिर से विरंचि विश्वामित्र बन,
जब लौं धरेंगे बाण वेष विषधर के॥ रचने लगे हैं सृष्टि प्रथित प्रजाओं की॥"
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