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पुरुषार्थसिधुपाय (१) जो नय भूतभविष्यत् पर्यायको ग्रहण न कर सिर्फ वर्तमान पर्यायको ग्रहण करे या ज्ञात करावे, उसको ऋजुसूत्रनय कहते हैं। जैसे यह पुरुष जवान है इत्यादि ।
(२) जो नय लिंग, वचन, कारक, काल, उपसर्ग आदिके भेदसे पर्याय में भेद करे या जतादे, उसको शब्दनय कहते हैं। जैसे-दार, भार्या, कलत्र इत्यादि भेद समझना, सभापतिउपसभापति इत्यादि।
(३) जो नम लिंगादिकका भेद न कर रूढिरूप अर्थ ( पर्याय ) को ग्रहण करे उसको समभिरूढ़ नय कहते हैं। जैसे-गाय, बैल, घोड़ी, घोड़ा यहाँ लिंग भेद होनेपर भी सबको पशु या तिर्यञ्च बताना। अथवा लिंगादिकका भेद न होनेपर भी जो नय, पर्याय शब्दके भेदसे अर्थात् वर्तमान समयको क्रिया देखकर भेद करता है उसको मनिला बहरे हैं। जैसे देकर { इन्द्र ) को रनवासमें शचीपति, राज्यसभा ( दरवार ) में इन्द्र, लड़ाई के समय पुरन्दर आदि कहना या जानना।
(५) जो नय शब्दका जैसा अर्थ हो वैसा परिणमते समय ( क्रिया करते समय ) हो वैसा माने या कहे, जिसको एवंभूतनय कहते हैं। जैसे पूजा करते समय ही पुजारी कहना, अन्य समय नहीं इत्यादि ।
ध्ययहारनय या उपनयके भेद (१) सद्भुत व्यवहारनय (२) असद्भुत व्यवहारनय : ३ ) उपचरित व्यवहारनय ( ४ ) अनुपचारित व्यवहारमय ये चार भेद हैं । अर्थात् मूल में न्यवहारके एक समूत व्यवहार, दूसरा असद्भुत व्यवहार दो भेद हैं पश्चात् सद्भूत व्यवहार के उपचरित व अनुपचारित ऐसे दो भेद होते हैं कुल ४ चार भेद समझना चाहिये । अथवा सामान्य संग्रह भेदक व्यवहार व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार, कारण कि संग्रहनय द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों में भेद करना, ग्रही एक मुख्य प्रयोजन व्यवहारमयका है। जैसेकि द्रव्ये ( संग्रहरूप ) जीव व अजीब दो भेद रूप हैं सथा जीव संसारी व मुक्त दो तरहके होते होते हैं इत्यादि भेद करना ।
(२) ऋजुसूत्रके दो भेद-एक सूक्ष्म ऋजुसूत्र, अर्थात् जो एक समय ही स्थित रहे। प्रतिक्षण विनश्वर पर्याय या अर्थपर्यायरूप। दूसरा स्थूल ऋजुसूसूत्र अर्थात् जो अनेक समयतक स्थित रहे । मनुष्य तिर्यञ्चादि व्यंजनपर्यायरूप।
{ ३-४-५ ) शब्द-समभिरूढ़-एवंभूत थे तीनों एक २ भेदरूप ही हैं । इनमें भेद नहीं है । इत्यादि।
१. पदार्थ के एकनय या अंशको ग्रहण करके उसको अनेक या अनेक तरहसे भेष या विकल्पों द्वारा जापित करना या कहना उपनय कहलाता है । यह मूलनयोंका सहायक या धापेक्ष रहता था होता है ।