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मरणकण्डिका - १८
हैं ही; शेष जो संसार से भयभीत हैं, 'सर्वज्ञ की वाणी के विपरीत उपदेश देने से या शास्त्र लिखने से मुझे अनन्त संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा' इस विवेक से युक्त हैं, संसार-शरीर और भोगों से पूर्णतया विरक्त हैं, लौकिक प्रयोजन से निरपेक्ष हैं, यश, पूजा, ख्याति की चाह से रहित हैं, पिण्डशुद्धि पूर्वक आहार ग्रहण करते हैं, निज स्वार्थ के वशीभूत नहीं हैं, लोक को रंजायमान करने के इच्छुक नहीं हैं; ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरक्त रह कर आत्महित के उद्यम में प्रयत्नशील हैं; आरम्भ, परिग्रह और विषयों की आशा से दूर हैं तथा जिन्होंने गुरुमुख से आगमज्ञान प्राप्त किया हैं उनके वचन भी प्रामाणिक हैं किन्तु जो उपर्युक्त गुणों में मन्द तथा निर्दोष आचरण में शिथिल हैं उनके वचन यदि आगमानुकूल हैं तो शंका करने योग्य नहीं हैं, यदि वे वचन आगम के प्रतिकूल हैं तो अमान्य हैं।
आज्ञाश्रद्धानी भी सम्यक्त्व का आराधक है धर्माधर्म-नभः काल, पुद्गलाञ्जिन-देशितान् ।
आज्ञया श्रद्दधानोऽपि, दर्शनाराधको मतः ।।३९ ।। अर्थ - जिनोपदिष्ट धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य और पुद्गल द्रव्य को आज्ञा मात्र से श्रद्धान करने वाला भी सम्यक्त्व का आराधक होता है ।।३९ ।।
प्रश्न - जिसे छह द्रव्यों का ज्ञान नहीं है वह श्रद्धा मात्र से सम्यक्त्व का आराधक कैसे हो सकता है?
उत्तर - श्रुतज्ञानावरण कर्म प्रकृति का मन्द क्षयोपशम होने से जो प्रमाण-नय, निक्षेप एवं सत् संख्या आदि के द्वारा ऊहापोह करके छह द्रव्यों का स्वरूप स्वयं नहीं जान पाते, धारणा शक्ति कमजोर होने से गुरु द्वारा पढ़ाया हुआ स्मृति में नहीं रख सकते, तर्कणा करके भी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते वे इन द्रव्यों का आप्त की आज्ञा मात्र से श्रद्धान कर लेते हैं तो भी सम्यक्त्वाराधना के आराधक हैं। अर्थात् इन तत्त्वों और द्रव्यों का स्वरूप या इनका अस्तित्व जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ है और जिनेन्द्र कभी अन्यथावादी होते नहीं हैं, ऐसे विश्वासपूर्वक जो आज्ञामात्र से तत्त्व में रुचि रखते हैं, वे भी सम्यक्त्वी हैं अतः दर्शनाराधना के आराधक हैं।
जीय द्रव्य का श्रद्धान भी नियम से करना चाहिए सिद्धाः संसारिणो जीवाः, प्रयाताः सिद्धिमेकधा ।
आज्ञया जिननाथानां, श्रद्धेयाः शुद्धदृष्टिना ।। ४० ।। अर्थ - सिद्धि को प्राप्त सिद्ध जीव एक प्रकार के और संसार अवस्था को प्राप्त संसारी जीव छह प्रकार के हैं। जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के बल से इन जीवों पर श्रद्धा रखने वाला भी सम्यक्त्व का आराधक है ।।४० ।।
प्रश्न - संसारी और सिद्ध जीव किसे कहते हैं और वे कितने प्रकार के हैं?
उत्तर - चतुर्गति-परिभ्रमण का नाम संसार है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से यह संसार पाँच प्रकार का है। ऐसे संसार को जो प्राप्त करता है वह संसारी जीव है। संसारी जीव अच्छे-बुरे शरीर को ग्रहण करने एवं छोड़ने में लगे रहते हैं। अपने मन, वचन, काय रूप योग द्वारा बाँधे गये पुण्य-पाप के उदय से होने वाले सुख-दुख को भोगने में लीन रहते हैं। बस और स्थावर नामकर्म के वशवर्ती हो उन्हीं में जनमते-मरते