Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
में विभक्त है। प्रथम उद्देश में सम्यक्वाद अर्थात् यथार्थवाद का विचार किया गया है। द्वितीय उद्देश में धर्मप्रावादुकों की परीक्षा का, तृतीय उद्देश में अनवद्य तप के आचरण का तथा चतुर्थ उद्देश में नियमन अर्थात् संयम का वर्णन है । इन सबका तात्पर्य यह है कि संयमी को सदैव सम्यक् ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र में तत्पर रहना चाहिए। पंचम अध्ययन का नाम 'लोकसार' है । यह छः उद्देशों में विभक्त है । इसका दूसरा नाम आवंति भी है क्योंकि इसके प्रथम तीन उद्देशों का प्रारम्भ इसी शब्द से होता है । लोक में धर्म ही सारभूत तत्त्व है । धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम एवं संयम का सार निर्वाण है । प्रस्तुत अध्ययन में इसी का प्रतिपादन किया गया है । प्रथम उद्देश में हिंसक, समारम्भकर्ता तथा एकल विहारी को अमुनि कहा गया है । द्वितीय उद्देश में विरत को मुनि तथा अविरत को परिग्रही कहा गया है। तृतीय उद्देश में मुनि को अपरिग्रही एवं कामभोगों से विरक्त बताया गया है। चतुर्थ उद्देश में अगीतार्थ के मार्ग में आनेवाले विघ्नों का निरूपण है। पंचम उद्देश में मुनि को हद अर्थात् जलाशय की उपमा दी गई है। छठे उद्देश में उन्मार्ग एवं रागद्वेष के परित्याग का उपदेश दिया गया है । षष्ठ अध्ययन का नाम 'धूत' है । इसमें बाह्य एवं आन्तरिक पदार्थों के परित्याग तथा आत्मतत्त्व की परिशुद्धि का उपदेश दिया गया है अतः इसका धूत ( फटककर धोया हुआशुद्ध किया हुआ) नाम सार्थक है । इसके प्रथम उद्देश में स्वजन, द्वितीय में कर्म, तृतीय में उपकरण और शरीर, चतुर्थ में गौरव तथा पंचम में उपसर्ग और सम्मान के परित्याग का उपदेश है । 'महापरिज्ञा' नामक सप्तम अध्ययन विच्छिन्न है-लुप्त है । 'विमोक्ष' नामक अष्टम अध्ययन
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