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एक बार पोतापणुं चला गया, तो समझो वह हमेशा के लिए चला गया।
'ज्ञान' प्राप्त होने के बाद चार्ज अहंकार चला जाता है लेकिन डिस्चार्ज अहंकार रहता है, उसे पोतापणुं कहते हैं और वह भी जब खत्म हो जाता है, तब कहते हैं कि 'उसका पोतापणुं चला गया।'
जितनी जागृति है उतनी मात्रा में पोतापणुं खत्म होता है। पोतापणुं खत्म होने के लिए किस प्रकार की जागृति की ज़रूरत है? कि 'यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ', 'खुद' कौन है वह निरंतर जागृति में रहता है, ज्ञानीपुरुष की आज्ञा का पालन होता है, सामने वाला व्यक्ति निर्दोष, अकर्ता दिखाई देता है...
चाहे कैसे भी परिणाम आएँ, फिर भी 'यह मैं नहीं हूँ' कहा कि छूट जाते हैं!
जहाँ पोतापणुं खत्म हुआ, वहाँ पर गर्व या गारवता नहीं होती। ____ अहंकार के पक्ष में, अज्ञानता के पक्ष में बैठना, उपयोग चूक जाना, वह सब पोतापणुं कहलाता है।
व्यवस्थित के अनुसार उदय में तन्मयाकार नहीं होना ही पुरुषार्थ है। प्रज्ञा प्रकृति के उदय में तन्मयाकार नहीं होने देती, जबकि अज्ञा प्रकृति के उदय में तन्मयाकार कर देती है।
सभी को उदय में पोतापणुं बरतता है। 'ज्ञान' प्राप्ति के बाद जैसे-जैसे उदय आते हैं और पुरुष बनकर उनमें पुरुषार्थ करते हैं, वैसे-वैसे पोतापणुं खत्म होता जाता है।
जिसे ज्ञानीपुरुष का 'मेरापन' जा चुका है, ऐसा दिखाई देता है उसका काम हो गया।
जिसका मेरापन गया, वह बन गया परमात्मा ! फिर 'व्यवस्थित' उनका चला लेता है!
- डॉ. नीरूबहन अमीन