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जाते हैं। जिसे जागृति उत्पन्न हुई, उसे सामायिक-प्रतिक्रमण कर-करके दोषों का क्षय करने के लिए जागृति का फायदा उठा लेना चाहिए।
'दादा' के बालक बनकर सीधे-सीधे चलते रहने में ही मज़ा है। दादा के बालक बन गए तो दादा संभाल लेंगे और बड़े बनने गए तो अपने आप चलना और फिर रोना! वह तो जब मार पड़ेगी तब वापस आएगा।
पूजे जाने की कामना एक भयंकर रोग है, आत्मघाती है, कोई जय जय करे, तो फिर उसकी आदत पड़ जाती है।
आत्मा तो पूज्य है ही और देह की राख हो जाएगी, उसकी पूजा करवाना चाहता है! उसी रोग से तो मोक्ष रुका हुआ है।
ज्ञानी से अलग ज़रा सा भी स्वतंत्र मार्ग निकाला तो भयंकर भूलभूलैया में घुस जाएगा। ज्ञानी के पीछे-पीछे चलते जाने को कहा है, वहाँ दूसरी गलियाँ कैसे पुसाएँगी? वह जोखिम क्यों मोल लें? वह सभी पतन करवाता है अंत में!
मोक्षमार्ग में बाधा डालने वाली जो-जो चीज़ आकर खडी रहे उसे तुरंत ही उखाड़कर फेंक देना चाहिए, तो ध्येय को पकड़कर रख सकेंगे। ध्येय मोक्ष का रखने जाए, लेकिन अंदर दानत खराब हो तो ध्येय को खत्म कर देगी। जो ध्येय को तुड़वाए, वही दुश्मन।
मोक्ष में जाना हो तो खुद को इतना मज़बूत हो जाना पड़ेगा कि 'इस देह का जो होना हो वह हो लेकिन मोक्षमार्ग नहीं चुकूँगा, काम निकाल ही लेना है', तो उसका काम पूर्ण होगा। इतना ही भाव करना है, दृढ़ निश्चय करना है।
ज्ञानी से मोक्षमार्ग के ये भयस्थान समझकर वहाँ पर निरंतर सावधान रहना है।
जो कुछ भूलें हुई हों, ज्ञानी से उनकी आलोचना करके वापस लौटकर छूट जाना चाहिए। मोक्षमार्ग में पूजे जाने के लिए नहीं जाना चाहिए। जगत् कल्याण करने का ध्येय कर्ताभाव से नहीं रखना चाहिए और अहंकार नहीं करना चाहिए। मोक्षमार्ग में तो गुप्तवेश से चलकर निकल जाना है। अंत तक ज्ञानीपुरुष का सत्संग और ज्ञानीपुरुष का आसरा नहीं छोड़ना चाहिए।
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