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अनकान्त
[ वर्ष
उपके पश्चात ४६ व पद्यमें उनके प्रयोग अवस्था प्रयोग (ख) पातंजल योगशास्त्र और जैन कर्मशास्त्रकी बनने का प्रयत्न वणित है। और ५. व पद्य में प्रयोगसे व्यवस्था में भेद-- कार निवृत अवस्थामै उत्तमज्यानि' और अज' गुणांका पंडितजीने पातंजल योगदर्शनका 'कण्टकृपेनुत निरूपण पाया जाता है। इसी ज्योनिक प्रक शमे यदि पानिर्वात्तः सत्र भी पश किया है. यह सिद्द करनक पंक्तिी उन मब उसलेम्बाको दबंगे जिन्हें वे प्राप्तम जन्म लिये कि जीवन्मक अवस्थामै भृग्व-प्यापकी बाधा नही अरादिपक अभावक पक्षमें पेश करते हैं तो नका रहती। किन उन्होंने उस सिद्धान्तकी और जैनम्पिद्धान्तकी समस्त अंधकार और धुपलापन दूर हो जायगा और
कार्य कारण परम्परापर विचार नहीं किया जिसकी प्रकृ में उन्हें विश्वास हो जायगा कि स्वयंभूम्तीत्रकार कवली में
अत्यन्त आवश्यकता थी। उक्त. पातंजल सूत्रकी वृत्ति हैजन्म, जर। और मरणका प्रभाव नहीं मानते किन्तु उनके
जिह्वानन्ताग्धस्तान कण्ठया कृपाकार: प्रदेशोनिगकरणका प्रयानमात्र स्वीकार यरते हैं तथा जि क्षधाद
स्ति यत्र प्रागादेः संघपणाक्षुतापास भवतः । तत्र - दुःखप्रतिकारत: स्थिति: श्रादि पद्यमें वे अष्टादश दापोंकी
संयत्तनिवृत्तिभवतीत्यर्थः।" कल्पना करते हैं वहीं यथार्थतः तुधादि वाइस परीषहीका संकत है जिनकी पहन करना प्रत्येक साधुका धर्म है। और
अर्थात्-जिह्वा और तन्तुक नाचे कगठ।। कृपाकार प्रदेश यही भगवान ।। उपदेश है।
है। इस प्रदेशमें प्राणवायु आदि के संघर्ष में आधा और
तृषा पन्न होता हैं। श्रतएव जब योगी उन सघर्षण। इसके पश्चात पायाचार्य जीको पात्रकेशरी अादके
संयम कर लेता है तब उ उक बाधा नही होती। अवतरण दनका लाम' उत्पन्न हश्रा है, जिस वे सवरण महीं कर सके। किन्तु उनके उस लोभक प्रदर्शन मिळू.
इम व्याख्यानमें मुम्पष्ट है कि पानंजल योगशास्त्र में श्रमिद्ध कुछ नहीं हश्रा क्यों प्रस्तुन विषय तो केवा
जोक्षधा और तृपाकी वेदना उत्पन्न होने का कारगा दिया
गया है वह जैन सिद्धान्तम पलभ्य उक्त वेदनाांक यह है कि क्या प्राप्तमीमांपाकारको नगद श्रावकाचारा.
कारण सर्वथा भिन्न है। योगशास्त्र अपनी व्यवस्थाम न्तर्गत त्पिपामादि पप वाले प्राप्तका लक्षण मान्य है ? प्राप्तमीमामाको प्रथम कारिका परसे न्यायाचार्यजी जमक
मुसंगत है, क्यों कि वहीं बंधा-नृपाका जो कारण स्वीकार काका यह अभिप्राय प्रकट करते हैं कि- "हम युकिवादी
किया गया है उसके अभाव होन पर तजन्य कार्यका भी परीक्षाप्रधानी मात्र देवागमादिका हेतु नहीं बना सकते हैं
प्रभाव माना जाना स्वाभाविक है किन्तु जैनसिद्धान्तमै तो क्योंकि देशागमादि विभूतियां मायावियाम पायी जान
सुधा तृपादि वदनाय वेदनीय कर्मक उदयम् उत्पन्न होने व्यभिचारी हैं।" और पंडिनजीके मतानुपार इन्हीं विभू
वाला मानी गई है, और इस कर्मका उदय मांगी और तियोंक भीतर रहन्तक ३४ अतिशय भा गभित हैं । तब
अयोगी केवलीम भी स्वीकार किया गया है । तब फिर फिर यह कैसे माना जा सकता है कि उन व्यभिचारी
कारण रहते कार्यका प्रभाव कम माना जा सकता है? विभूतियों को प्राप्तमिद्धिमें अहेतु और अलक्षण टहराने वाले
न्यायाचार्यजीक इस अप्रकृत व अनपेक्षित परिभ्रमणम प्राप्तमीमायाकार ही अन्यत्र उन्हीं अतिशयों को प्राप्तका
उनका गृहीत पक्ष कैप सिद्ध होगा यह वे ही जने । हां. लक्षण बना कर प्रकट करेंगे और कहेंगे कि जिन ये है वे
यदि न्यायाचार्यजी यह कहें कि रनकरण कारको जुधा. ही प्राप्त कहलाते हैं-यस्यानः स प्रकीत्यन ? इस
तृषाका वही कारण स्वीकृत है जो पातंजल योगशास्त्र में सम्बन्ध में जितना हतुवाद न्यायाचायजाने प्रस्तुत किया है
माना गया है, और उनके प्राप्त भी वे ही हैं जो उसी वह सब इसी बातकी परिपुष्टि करता है कि प्राप्तमीमांसाकार
'कण्ठ कृप संयम' का अभ्यास किया करते हैं, तो बात सुपिपासादिक अभावको प्राप्तका लक्षण नहीं स्वीकार करते दूसरा है। किन्तु उसका प्रबलतासे निषेध करते हैं।
(अगले अङ्कम समाप्त)