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किरण १ ]
रत्नerre और आप्तमीमांसाका एक कर्तृव अभी तक सिद्ध नहीं
कर मैंने उनका जो अर्थ समझाया है उसमें पंडितजीको कोई दोष दिखानेको नहीं मिल सका तो भी पंजीक प्रेरणाकी मैं अवहेलना नहीं कर सकत। वे लिखते हैं-"जब मेने जन्मजराजदासया इस ४६ पथक धागे का 'वमुत्तमज्योतिरजः क्व निर्वृतः यह १० व पथ देखा तो वह मेरी विद्या मित्र गई जहाँ स्पष्टतः केवली अवस्था प्राप्त करने (स्वज्योति के साथ ही 'अन' पदका प्रयोग करके ग्रंथकारने उनके जन्मका प्रभाव प्रतिपादित किया है।" किन्तु पडितजी अपनी विवक्षा मिल जाने के हर्ष के आवेग 'अज:' पर हो रुक गये, उन्होंने आगे दृष्टि डालकर नहीं देखा जहां निर्वृतः विशेषण लगा हुआ है और अर्थको उनकी विवक्षासे परे ले जाता है, क्योंकि उसमें स्पष्ट है कि यह वर्णन भगवान्को सिद्ध श्रवस्थाका है। इससे यह भी पता चल जाता है कि उक्त दोपोंका केवलजिनमें अभाव मानने की आन्ति किस प्रकार उत्पन्न हुई जो विशेषण स्वामी समन्तभद्र जैसे मर्मज्ञोंने सिद्ध अवस्थाका ध्यान रखकर प्रयुक्त किये, उन्हें ही इतर लेखक भरत अवस्था ही प्रयुक्त करके उन्हें असके लक्षण मानना प्रारम्भ कर दिया । किन्तु जैसा में बतला चुका है, वह बात कर्मसमा असम्भव सिद्ध होती है। इस प्रकार स्वामी समन्तभद्रकी विवाि करनेके लिये न्यायाचार्यजीने जो उल्लेख प्रस्तुत किया उसीमे प्रमाणित हो जाता है कि जन्मजरामरणादिका अभवसिद्ध अवस्थामें ही घटित होता है, न कि अरहंत अवस्थामै ।
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पसीना नहीं आना आदि ये आसकी कोई व्यास विशेषताएँ नहीं है, क्योंकि वे रागादिमान् देवोंमें भी हैं इन विशेषता भी सबसे बड़ी सर्वोच्च एवं श्रसाधारण विशेपता रागादिरहितता है। वह जिय पाई जाती है वही इत्यादि । स्वयं इस विवेककं तु फिर भी उसी पद्यको केवली में सुधातृषाकं श्रभावकी सिद्धिके लिये, पेश करना कहां तक संगत है यह मर्मज्ञ पाठक स्वयं विचार कर देखें
'क्षुधादिदुःख रतिकारतः स्थितिः' वाले पथके अर्थका मैंने अपने पूर्व लेख में विस्तारसे विवेचन किया है जिसमें पंडिजी कोई जरा सा भी स्खलन नहीं दिखा सके । फिर भावे उसी को अपने पक्ष बिना कोई नई बात करें. प्रस्तुत किये ही जाते हैं। इस पद्धति में युक्ति, तर्क व प्रमाण नहीं, केवल दुराग्रह मात्रमा प्रदशन पाया जाता है। जिसका मेरे पास कोई इलाज नहीं। हां, अपनी तरफसे मैं बार बार भी विचार करने की तैयार | प्रथम तो उक्त पद्य में केवल के जुवादि दोपोंके अभावका प्रसंग ही नहीं बैला क्योंकि यहां भगवान् इस उपदेशका प्रतिपादन मात्र किया गया है कि न तो क्षुधा श्रादिक दुःखांके प्रति कारमात्रसे और न इन्द्रख शरीर व जवकी स्थिति व एक मी रखी जाती इन्हें शरीर या जीवकं स्वधर्म नहीं मानना चाहिये। यहां केवल उनके अभाव का तो कई प्रसंग हो नहीं बनता। दूसरे यदि क्षुधा तृषा जरा, ज्वर, जन्म मरण, भय, स्मय व रागद्वेषादिकं प्रतिकारसे शरीर व जीवका स्थिति नहीं रखी जा सकती इसलिये प्रतिकार जीव का गुण नहीं है किन्तु वस्तुस्थिति विपरीत है। रागद्वेष तथा जन्म मरण आदिका प्रतिकारही आम धर्म है और वही शाश्वतपद प्राप्तिका उपाय है । श्रतएव उसके विरुद्ध भगवान कैसे उपदेश दे रुकते हँ ? इन्ही जन्म-जरा श्रादिके निराकरण के लिये
तो मयोगिजिन अपने तीनों योगोंका निरोध करके प्रयोग होते हैं और फिर निवृत अर्थात् भिद्ध होकर
केवलीके क्षुधा तृपाका सद्भाव (५) स्वयंभू स्तोत्र में केवल के क्षुधा तृपाका अभाव नहीं केवली था और तृपाका अभाव सिद्ध करनेके ये क्षुधा पंडितजी फिर भी उन्ही 'श्रुधादिदुःखप्रतिकारतः स्थितिः' श्रादि तथा 'मानुपीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् ' आदि दो पचकी दुहाई दी है। मैं अपने पूर्वी पद्योंकी बतला ही चुका हूं कि इन दोनों पद्योंमें केवलीके सुधतृषाकं प्रभावका लेशमात्र भी उल्लेख नहीं है । 'मानुषीं प्रकृतिम्' आदि पथको प्रस्तुत करते हुए तो स्वयं पंडितजी जे ही कहा है कि 'खाना नहीं खाना, पानी नहीं पीना,
हो जाते हैं। कृपा कर पंडित स्वयं स्तोत्रके ४८, ४६ और १० पद्योंपर पथ ७४ को दृष्टिमें लेकर ध्यान ४८ पद्य भगवानके असं उल्लेख है दें । वें संयमका ।