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किरण १
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमामाक एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
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स्तोममहानिधि में उपलक्षणका स्वरूप निम्न प्रकार कभी नहीं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो समन ल में नहीं समझाया गया है
रहने, और कुछ ऐसे होते हैं जो तीनों कान में, ममग्र लक्ष्य "ममी स्थस्य स्वसम्बन्धिनश्च लक्षणं ज्ञानं में रहते हैं।.. ....... .." उपलक्षण और लक्षण का स्तर यस्मात । सस्य म्वान्यस्य च अजहन-स्वार्थया लक्ष- यह है कि जो प्रत्येक लपमें सर्वाग्मभावम तीनों हाल में एणया बोधक शब्द यथा 'काभ्यो दवि राताम' पाया जाय-अग्निमें उष्णत्व-बह लक्षगा, और जो किमी इत्यत्र काकादं स्वस्य स्वान्यादः श्वादेश्वबोधकम ।" लपमें हो किपीम न हो; कभी हो कभी न हो, और
इसके अनुसार जिस शब्दके ग्रहणसे उके वाच्य स्वभावाबद्ध न हो वह उपलक्षण जैसे अग्निके लिये धूम । अर्थका भी ग्रहण हो और उसी समान अन्य पदार्थों का भी जीव को छोड़ कर प्रारमा बावन भेद आत्माक ग्रहण हो, उसे उपलक्षण कहते हैं । जैसे किसी ने कहा पलक्षण ही है।" 'काग्रॉप दहीकी रक्षा करी तो यहां कोनों पदस दहावा इस मत अनुसार उपलक्षण भी लपका प्राधानुकसान पहुंचाने वाले कुत्ते-बिल्ली ग्रादि जानवको भी रण धर्म ही होता है परन्तु वह द्रव्य श्रीर काल दोनोंकी ग्रहण करना चाहिये । अतएव यहां कीश्रा शब्द अपेक्षा प्रानयत है, लक्षगाके समान नियत नहीं। अब उपलक्षण है। मैं न्यायाचार्य जीस पूछता हूं कि क्या इसी न्यायाचार्यजी स्पष्ट करें कि उनके मनानुपार क्षधादि उपजक्षण शक्तिके इनु गर नकरण्डके कर्ताको श्राप्तके बदन श्रीको अभाव प्राप्त का किस प्रकारका उपलक्षण है सदृश रागादिमान जीवोंका भी ग्रहण करना अभए है, और स्नकराहकार उसके द्वारा प्राप्तकी क्या विशेषता क्योंकि उपलक्षण प्रकृतका ही बोध कराता है, अप्रकृतका बताना चाहता है ? उसके द्वारा प्राप्तको मरागी देयोंकि नहीं?
सदृश बतलाना उन्हें श्रभाष्ट है या उनम पृथक ? उपजक्षण का एक और प्रकारमे अर्थ मुझ पचाध्यायी (३ ख) रताकरगड में दो विचारधाराओंका ममावेशमें देखने को मिला, जिसके अनुसार
मैं जब ग्नकरण्डक क्षपामादि नोकको उम्मे अस्त्युरल नणं वनक्षा प लक्षणम् ।
पूर्ववर्ती प्राप्तनामिछानपिण' श्रादि पद्यक साथ पढ़ता है तत्तथाऽन्यादिलक्षम्य लक्षणं चोत्तरस्य तन ।।
तो मुझे यही मालूम पता है कि यहां रायनाने प्राप्तक यथा मम्यक्वभावस्य वेगा लक्षणं गुगमः।
सबमें प्रचलिन अपने ममयको दानी परिभाप.श्रीका म चापलक्ष्यते भक्त्या वात्मल्ये नायवाहताम।।। अलग अलग रख दिया है-- पहले पद्यम ममन्तभद्रमामा
(उत्तराध, ४६८-४६६) का प्राप्तमामाया-मम्मत लक्षगा है और दृ रमे कुन्न अर्थात् --जो लक्षणका भी लक्षण होता है वह उप. चाय प्रतिपादित लक्षगा । दानी पद्योंकी अपन अपन रूप लक्षण कहलाता है, जैस सम्यक्त्र भावका मवेग गुण ।
में पूर्ण बनाने के उददेश्यमे ही रयिताने एके अन्तम लक्षण है, और अद्भिक्ति तथा वाल्मल्य संवेगके लक्षणा नान्यथ ह्याता भवन' श्रीर दूसंरक अन्त में 'यस्यात होनेम सम्यक्च उपलक्षण कहलाये। उपलक्षणकी हम म प्रकीर्यने रखकर उनमें परम्पर किसी मे व परिभाषाके अनुसार भी उपलक्षण लचयको छोड़कर बक्षगा-उपलक्षण श्रादिकी कपना के लिये कोई गाइश अन्यत्र नही पाया जा सकता।
नहीं रहने दी है। ये वे ही दा विचारधारय हैं जिन। उपलक्षण और लक्षणका एक तीसरे प्रकार स्वरूप
उल्लेख मैं अपने पूर्व लंग्व में विद्यानन्दक सम्बन्ध कर मुझे प० मुख लालजीके तरवार्थमूत्र विवेचनमें (पृ. ८४.
पाया है। ८५) देखनेको मिला जहाँ कहा गया है कि
४-कंवलामें जन्म-मरणादिका मद्भाव "अमाधारण धर्म सब एकमे नहीं होते । कुछ तो (क) जन्म मा मोहनीय नहीं. किन आय कम जन्य हैंऐसे होते हैं जो लयमें होते हैं सही, पर कभी होते हैं, केवलीम जन्म, ज्वर. जरा और मरगा के अभावक