________________
अनेकान्त
[वर्ष ८
वे रागादिमान देवों में भी है।"
नहीं किया किन्तु उसको अलक्षण मानकर उसके ग्रहणका
प्रबलतासे निषेध किया है। न्यायाचार्य जीकी इस तर्कपरम्पराके अनुमार क्षुधादि ३ रस्नकरंडसम्मत प्राप्तके लक्षणोंपर विचार वेदनाय वास्तव में मोहनीय जन्य' 'वस्तुत-मोहनीय महकृत वेदनीयजन्य' और 'अमल में घातिकर्मजन्य' होती होती (३ क) लक्षण और उपलक्षण में विवेकहोती अन्नतः उनका अभाव सिद्ध हुआ एक और केवल- यहां तककी अपनी ही उत्तरोत्तर असंगत तर्क-परंपरा ज्ञानके अतिशयम और दूसरी ओर सरागी देवोंके महोदय के उक्त परिणामसे भयभीत होकर न्यायाचार्यजीने रत्नसे | और इसी कारण उनका श्रभाव प्राप्त की कोई ख़ास करण्डो उस तपिपासादि वाले प्राप्तके लक्षणकी यह विशेषता ही नहीं रही और उसके लिये किसी घातिया व वकालत की है कि "रत्नकरण्ड (श्लोक ५) में प्राप्तका अधातिया कर्मके क्षयकी भी कोई आवश्यकता नहीं रही। स्वरूप तो सामान्यत. प्राप्तमीमांसाकी ही तरह प्राप्तेनोअव यदि क्षधादि मोहनीय या मोहनीय सहकृत वेदनीय च्छिन्नदोषेण' इत्यादि किया है। हो, प्राप्तके उक्त स्वरूप जन्य है तो उनका सद्भाव प्रथमसे लेकर दशवें में श्राय उरिछन्नदोष' के स्पष्टीकरणार्थ जो वहां 'क्षषिगुणस्थान होना चाहिये, ऊपर नहीं । किन्तु इमका तत्वार्थ- पामा' आदि पद्य दिया है उसमें लक्षण राग-द्वेपादिके सूत्रके 'सूक्ष्मसाम्पराय-छाम्यवीतरागयोश्चतुर्दश' सूत्र प्रभाव और उपलक्षण क्षुधादिके अभाव दोनोंको 'उच्छिन्न (E, १०) स विरोध प्राता है क्योंकि इस मूत्रके अनुसार दोषके स्वरूपकोटिम प्रनिष्ट किया है।" बारहवं गुणस्थान तक उनका मदाव पाया जाता है। यदि यहां जो क्षुत्पिपामादि श्लोकको उच्छिन्नदोष के स्पष्टी. वे घातिकमजन्य हैं व उनका अभाव केवलज्ञान जन्य करणार्य कहा गया, उसक लिये उस पद्यमें कोई प्राधार अतिशय तो उनका सद्भाव बारहवं गुणस्थान तक और दिखाई नहीं देता, बल्कि श्लोकक अन्त में जो 'आप्तः स उपर प्रभाव होना चाहिये । किन्तु इसका 'एकादश जिन' प्रकीत्यते' इस प्रकारका वाक्यांश है वह स्पष्टतः बतला (६. ११) और 'वेदनीय शेषाः' (१,१६) सूत्रोंसे विरोध रहा है कि उस पद्यमें कर्ताने अपनी रटिसे प्राप्तका पूरा भाता है जिनके अनुसार तेरहवें और चौदहवें गुयास्थानमें लक्षण देनेका प्रयत्न किया है, न कि दोषका स्पष्टीकरण । वे वेदनाय पाई जाती हैं। श्रीर यदि उनका प्रभाव सरागी
दूसरे श्लोकमें जो एक ही श्रेणीसे सुपिपासादि मोहपयंत देवोंक महोदयसे भी हो सकता है, तो देवकि संभव प्रयम प्रवृत्तियां गिनाई गई है उनमें से कुछको लक्षण और कुछ चार गुणस्थानोंमें भी उनका प्रभाव संभव मानना चाहिये, को उपलक्षण माननेके लिये भी कोई आधार नहीं है। किन्तु उसका विरोध 'बादरमाम्बराये सर्वे' (8, १२) खासकर जबकि पंडितजीके मतानुसार ही वे गुण रागियों सूत्रप पाता है जिसके अनुसार आदिम नौवें गुणस्थान में भी पाये जाते हैं और इसीलिये प्राप्त की कोई खाप तक सभी परीषह होते हैं । अब कृपया न्यायाचार्यजी विशेषतायें नहीं हैं. तब उन्हें भाप्तके प्रकीर्तनमें शामिल विचार तो करें कि उनक युक्ति, और तर्क उन्हें कहां लिये करने के लिये तो कोई भी हेतु दिखाई नहीं देता । पंडित जारहे हैं, उनमें कर्मसिद्धान्तकी व्यवस्थाओं की कितन। जीने लक्षण और उपलक्षण में भेद यह दिखलाया है कि दुर्दशा होरही है, और मारा विषय कैम झमेले में पड़ता "लक्षणतो नामें व्याप्त होता हा अलक्ष्यका पूर्णत: गया है। पाठक जरा सिर खुजला खुजला कर सोचे कि व्यावर्तक होता है। परन्तु उपजण लक्ष्यके अलावा न्यायाचार्यजीक तर्कोमे उन्हें नधापिपासादि वंदनामों को तत्महश दूसरी वस्तुओं का भी बोध कराता है ।" न्या. उपम करनेवाला कौनमा कर्म समझ पाया ? और फिर याचार्य जीक इस विवेकानुमार श्लोक गत लक्ष्य प्राप्त भी अन्नतः परिणाम वही निकला कि क्षपादि वेदनाओंका रागादिमान देके महश ही हुमा और प्राप्त द्वारा इनका अभाव अप्तका कोई लक्षण नहीं माना जा सकता, अतएव भी ग्रहण करना स्नकरण्डकारको अभीष्ट सिद्ध हुमा, प्राप्त मीमांसाकारने जय प्राप्त के लक्षण में न केवल प्राण ही तभी तो उन्होंने उन उपलक्षयोंको ग्रहण किया । शब्द