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अनेकान्त
[ वर्ष ८
सम्बन्ध में मैंने अपने पूर्वलेख में कहा था कि यदि इस है, विरताविरत प्रयत् श्रावक बा पंडित मरण करते हैं, मान्य नाक। यह तात्पर्य हो कि कंवनी हो जाने पर सिद्ध पंडतमरण यथोक चारित्र साधुका, बालमरण अविरतअवस्थामें फिर उन्हें कभी जन्म, घर, जरा और मरणकी सम्पदृष्टिका, तथा बाल बाल मरण मिथ्यादृष्टि जीवका बाधाएं नहीं होगी तब तो इससे कहीं विरोध उत्पन्न नहीं होता है । यथा-- होता, क्योंकि केवजीने कोई नया भायुबन्ध किया ही नहीं पंड परिदमरणे वीणकसाया मरति केवलिणा। है. इसलिये पिद्धगतिको छोड़ किमी संसार गति में उन्हें विरदाविरदा जीवा मरंति तदिएण माणेण ॥२८॥ जाना ही नहीं है।" हर्ष है कि पडित जीने अपने लेखमें पयोपगमणमरण भत्तप्पण्णा य इंगिणी चेव । यही व्यवस्था स्वीकार करली है। किन्तु उसे रम्बनेका तिविहं पंडिदमरणं साहुस्स जहुत्त चरियस्स ॥२६॥ उन्होंने ऐसा प्रयत्न किया है जिससे जान पड़े कि वह अविरदसम्मानिठ्ठी मरंति बाजमरणे च उत्थाम्म । उनकी कोई नई सूझ है और उन्होंने स्वयं एक रहस्यका मिच्छादिछी य पुणो पचमए बाल बाल रिम ॥३०॥ उद्घाटन कर मेरा समाधान किया हो । मेरे ऊपर उद्धत मूलाचार में मरण के तीन भेद बतलाये हैं - बालमरण, वाक्य अनन्तर वाक्य था किन्तु जिस शरीरसे केवली बालपंढतमरण और पडितमरण, तथा केवतियोंके मरण अवस्था उत्पन्न हुई है उसका मनुष्य योनिमें जन्म हुश्रा को 'पंडितमरणा' कहा है। यथा-- ही है........" इत्यादि । पडितजीने इमाक्यका भी 'किंतु तिविह भणं त मरणं बालाणं बाल पंडियाणं च । छोड़कर शेष प्रश्नात्मक वाक्य ही उद्धृत किया है और
तइयं पंडियमरणं जं केलियो अरामरंत ।।५।। फिर कहा है-"उपका रहस्य यह है कि केवलीके मोह.
श्रय कृपाकर पंडितजी बतला कि यदि केवली होने नीयका नाश होजानेस अब पुनर्जन्म न होगा" इत्यादि ।
पर मरण का प्रभाव होजाता है तो ये पंडिसपंडित या यह रहस्य मेरे ऊपर उद्धन वाक्यमें मुव्यवस्थित रूपसे
पं.डनमरणसे मरनेवाले कवली कौनसे है ? भा चुका है। पंडितजीन उममें जो मौलिकता लानेका प्रयत्न किया है उममें उन्होंने सैद्धान्तिक भूल पर डाली,
पंडितजीने 'अन्तकः कन्दको नृणां' श्रादि पद्यको और वह यह कि जन्म-मरण में कारणीभूत होनेवाला कर्म
पुन: उद्धत किया है और उसका मेरे द्वारा दिया गया मोहनीय नहीं, किन्तु श्रायुकर्म है, जिसके क्षीण होनेसे ही भावाथ प्रस्तुत करते हुए उसपर 'श्राश्चयं' प्रकट किया है मरण और उदयमें श्राने से जन्म होता है। मोहनीय कर्मके
तथा उसे 'अपने पक्षको पुष्ट करनेके लिये इच्छानुकूल तो सर्वथा क्षोण होजानेपर भी मरण नहीं होता और न
भावार्थ' कहा है। किन्तु उन्होंने यह बतलाने की कृपा नहीं
की कि उम अर्थ में दोप क्या है व उनके प्राश्चर्य का श्राधार मरण व पुनर्जन्म होने में मोहनीयको शृंखलामें कोई भेद पढ़ता। प्रतएव जन्म-मरण का साया सम्बन्ध मोहनीयसे
क्या है, सिवाय इसके कि वह उनकी इच्छाके अनुकूल
नहा। उनके या मेरे अर्थ के ठीक होने का निणय उन्होंने न होकर आयुकर्मसे है। (४ ख) शास्त्रक.रोंने केवलीका भी मरण माना है
मर्मज्ञ विद्वानों पर छोड़ा है, अतएव मैं भी उसे उसी केवलीको कोई दूसरा संसार जन्म धरण नहीं करना
प्रकार छोड़ता हूं। है, इस अपेक्षामे उनमें जन्मका प्रभाव मान लेनेपर भी (४ग) केवलीमें जन्म-मरणादिके अभावकी अपेक्षाकेवजीके मरण का प्रभाव किस प्रकार स्वीकार किया जा श्रागे पंडितजीने स्वयंभूस्तोत्रके चार और अवतरण सकता है, यह न्यायाचार्यजीने बतलाने की कृपा नहीं की। प्रस्तुत किये हैं जिनमें भगवान्के 'अज' और 'अजर' भायु के क्षय होनेपर केवलीका मरण तो अवश्यम्भावी है विशेषण पाये जाते हैं। इन उल्लेखोंके ही प्रकाशमें
और उस मरणका प्रकार भी शास्त्रकारोंने बतलाया है। पंडितजीने अपने पूर्वोल्लिखित 'जन्म-जराजिहासया' और उदाहरणार्थ, भगवती माराधनामें मरणके अनेक प्रकार 'जन्म-जरा-मरणोपशान्त्यै' वाक्यांशोंको भी देखनेकी बतलाये हैं जिनमेंसे पंडित पंडित मरण केवलीका होता प्रेरणा की है। किन्तु इन उल्लेखों वाले पूरे पोंको उद्धत