Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE NYAYASĀRA OF BHĀSARVAJNA - A Critical and Analytical Study L. D. SERIES - 113 GENERAL EDITORS DR. H. C. BHAYANI DR. RAMESH S. BETAI BY, DR. GANESHILAL SUTHAR M.A., Ph.D. L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY, AHMEDABAD-380 009 For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE NYAYASARA OF BHĀSARVAJŇA - A Critical and Analytical Study दलपत लपत The L. D. SERIES - 113 GENERAL EDITORS DR. H. C. BHAYANI DR. RAMESH S. BETAI भारतीय tubes D अहमदाबाद Churne BY: DR. GANESHILAL SUTHAR M.A., Ph.D. L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY, AHMEDABAD-380 009 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by : Dr. R. S. Betai Hon. Prof. and Director-in-Charge L. D. Institute of Indology Ahmedabad-380 009. All rights reserved PRICB : RUPEES 150/Oct., 1991 FIRST EDITION Printed by: Shri Swaminarayan Mudran Mandir, Pro. K. Bhikbalal Bhavsar, 21, Purushottamnagar, New Wadaj, Ahmedabad-380 013. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासर्वज्ञ के 'न्यायसार' का. समालोचनात्मक अध्ययन कर्ता। डा. गणेशीलाल सुथार एम.ए., पीएच.डी. भारतीय लालभाई दलपतभाई भारतीय प्राच्यविद्यामन्दिर, अमदावाद-९ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD We are so very happy to place in the hands of scholars and researchers, a critical and analytical study of the Nyāyasāra' of the renowned author Bhäsarvajña who is one of the foremost authorities on Nyāya. He has raised and answered fully so many subtle questions. His style is fairly simple though deep in content. He rises to the highest philosophical heights, with Nyāya in which he reveals his full mastery. The present work is a Ph.D. Thesis. It was received by us for printing several years back but could not be taken up for printing due to several reasons. However, the present editors are happy the Thesis is being published. It is sincerely hoped that the work will be accorded a welcome that other research publications had in the world of scholars, researchers and academicians at large. Editors Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन एम.ए. (संस्कृत) के छात्र रूप में भारतीय दर्शनशास्त्र का अध्ययन करते समय न्यायवैशेषिक दर्शन के प्रति मेरी विशेष मचि जागरित हुई। तत्पश्चात् एम. ए छात्रों को 'न्यायभाष्य' और 'प्रशस्तपादभाष्य' पढ़ाते रहने से न्यायवैशेषिक के प्रति मेरी रुचि इतनी बढ़ी कि इसी दर्शन के किसी विषय पर शोधकार्य करने का निश्चय किया। म. म. गोपीनाथ कविराज का 'Gleanings from the History and Bibliography of the Nyaya-Vaisesika Literature ' यह प्रन्थ पढ़ते समय निम्नलिखित पंक्तियों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया-"As far as our present knowledge extends it may be said with justice that Bhāsarvajña's Nyāyasāra stands unique in the history of the Mediaeval School of Nyāya Philosophy in India. But the work has not been thoroughly examined yet,......, ......” भारतीय दर्शन के अन्यान्य ग्रन्थों तथा लेखों में भी आचार्य भासर्वज्ञ के अभिनव दृष्टिकोण की विशेष चर्चा पढ़ने को मिली । इस अध्ययनक्रम के पश्चात् मैंने “भासर्वज्ञ के 'न्यायसार' समालोचनात्मक अध्ययन" यह विषय शोध के लिये चुना। जहाँ तक इस विषय पर किये गये अध्ययन का प्रश्न है, भारतीय दर्शन तथा न्यायशास्त्र के इतिहास-सम्बन्धी ग्रन्थों में न्यायसार की विषयवस्तु तथा भासर्वज्ञ का सामान्य परिचय प्राप्त होता है। प्रो. देवघर तथा श्री वी. पी. वैद्य ने स्वसम्पादित न्यायसार के संस्करणों में 'नोट्स' मंयोजित किये हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित कतिपय लेखों में भासर्वज्ञ के काल तथा उनकी कृतियों पर प्रकाश डाला गया है । कृत और क्रियमाण अनुसन्धानसम्बन्धी प्राप्य सूचनाओं और न्यायवैशेषिक के विद्वानों से विचारविमर्श से मुझे विदित हुआ है कि प्रस्तुत विषय पर इस रूप में कोई अनुसन्धान नहीं किया गया है। अपि च, उपर्युक्त लगभग समस्त सामग्री न्यायसार की स्वोपज्ञ विवृति 'न्यायभूषण' के प्रकाशन से पहिले लिखी गई थी, अतः भासर्वज्ञ के मत का सम्यक् विवेचन नहीं हो सका । 'न्यायभूषण' के प्रकाशन के पश्चात इस विषय पर शोध की महती आवश्यकता प्रतीत हुई। इसी दिशा में यह लघु प्रयास है। यह शोधप्रबन्ध नौ विमर्शो में विभक्त है। 'परिचय' नामक प्रथम विमर्श में आचार्य भासर्वज्ञ के नाम, देश-काल, जयन्त भट्ट, वाचस्पति मिश्र तथा भासर्वज्ञ के पूर्वापरकालवर्तित्व, विद्यास्रोत, व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने तथा कृतिपरिचय देने का प्रयास किया गया है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] 'प्रमाणमामान्यलक्षण' नामक द्वितीय विमर्श में प्रमाणलक्षण, संशय तथा विपर्यय का विवेचन किया गया है। इसी विमर्श में ऊह अंर अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव, प्रमाणों का सम्प्लव तथा व्यवस्था आदि विषयों का विवेचन किया गया है। 'प्रत्यक्षप्रमाण' नामक तृतीय विमर्श में भासर्वज्ञसम्मन प्रत्यक्षलक्षण, प्रत्यक्षशब्द के व्युत्पत्तिनिमित्त तथा प्रवृत्ति नमित्त का भेद. निर्विकल्पक-सविकल्प भेद, आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव, समवाय का यौक्तिक प्रत्यक्षत्व, द्रव्यादिप्रत्यक्ष आदि का विवेचन किया गया है। 'अनुमान प्रमाण' नामक चतुर्थ विमर्श में अनुमान के सौत्र लक्षण के सम्बन्ध में भ सर्वज्ञमत का प्रतिपादन करते हुए भासर्वज्ञसम्मत अनुमानलक्षण का विवेचन किया गया है। इसी विमर्श में व्याप्तिस्वरूप, व्याप्तिमहोपाय, अनुमान के भेद, प्रतिज्ञादि पांच अवयव, दृष्टान्ताभासों तथा हेत्वाभासों का विवेचन करते हुए भासर्वज्ञ के वैशिष्ट्य का दिग्दर्शन किया गया है । 'कथानिरूपण तथा छल- जाति-निग्रहस्थाननिरूपण' नामक पंचम विमर्श में वाद, जल्प, विनण्डा, और छल का विवेचन किया गया है । इस विमर्श में जातिभेदों तथा निग्रहस्थानों का निरूपण किया गया है ।। ___ 'आगमप्रमाणनिरूपण' नामक षष्ठ विमर्श में आगम प्रमाण के लक्षण, उसके भेद आदि का प्रतिपादन किया गया है । इसी विमर्श में भासर्वज्ञमतानुसार उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण प्रस्तुत कर उसकी समीक्षा की गई है। __ 'प्रमेयनिरूपण' नामक सप्तम विमर्श में प्रमेयविशेष का लक्षण देते हुए द्वादश प्रमेयों का संक्षेप में निरूपण किया गया है। भासर्वज्ञसम्मत प्रमेयचातुर्विध्यविभाग तथा आत्मसिद्धि आदि का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। _ 'अपवर्गनिरूपण' नामक अष्टम विमर्श में भासर्वज्ञमतानुसार अपवर्गस्वरूप का निरूपण तथा उसकी समीक्षा की गई है। 'परवर्ती प्रन्थकारों पर भासर्वज्ञ का प्रभाव' नामक नवम तथा अन्तिम विमर्श में परवर्ती दार्शनिकों पर भासर्व के प्रभाव का विवेचन किया गया है। अन्त में उपसंहार के रूप में मासर्वज्ञाचार्य की विशेषताओं का दिग्दर्शन करते हए उपलब्धियों का उल्लेख किया गया है। वैदिक विज्ञान, साहित्य, व्याकरण तथा भारतीय दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान, परम पूज्य गुरुवर्य परिव्राजक श्री सुरजनदासजी स्वामी के चरणों में मैं प्रणतिपूर्वक कृतज्ञताज्ञापन करता हूँ, जिनकी प्रेरणा से ही भारतीय दर्शन के अध्ययन में मेरी प्रवृत्ति हुई । आपके कुशल निर्देशन से हो मैं इस शोधकार्य को सम्पन्न कर सका हूँ। विश्वविद्यालय-सेवा से निवृत्त होने के पश्चात वैदिकविज्ञानसम्बन्धी लेखनात्मक कार्य में अत्यधिक व्यस्त होने पर भी अपना अमूल्य समय देकर मेरी शोधकार्य: सम्बन्धी समस्याओं का समाधान किया है । एतदर्थ मैं उनका अत्यन्त अभारी हूँ। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] वाराणसी-प्रवास-काल में मुझे भारतीय दर्शनशास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान् परम पूज्य उदासीनवर्य स्वामी योगीन्द्रानन्दजी के चरणों में बैठकर न्यायसम्बन्धी अनेक समस्याओं के समाधान का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । 'अद्वैतसिद्धि के सम्पादनकार्य में अत्यधिक व्यस्त होने पर भी उन्होंने अपना अमूल्य समय दिया । एतदर्थ मैं पूज्य स्वामीजी महाराज का अत्यन्त आभारी हूँ। न्यायशास्त्र के उद्भट विद्वान् परम आदरणीय प्रो. बदरीनाथजी शुक्ल के चरणों में बैठकर मुझे-'न्यायभूषण', 'न्यायमुक्तावली,' 'न्यायतात्पर्यदीपिका' आदि ग्रन्थों के कठिन स्थलों के अभिप्राय समझने का सुन्दर अवसर प्राप्त हुआ है । एतदर्थ मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। अपि च, प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के लिये सामग्री-संग्रह हेतु पटना, कुरुक्षेत्र आदि स्थानों की यात्रा करने तथा वहां न्यायवैशेषिक के अधिकारी विद्वानों से विचारविमर्श करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। स्नेहमूर्ति स्वर्गीय डॉ. दशरथ शर्मा (भूतपूर्व प्रोफेसर, इतिहास-विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर), आदरणीय डॉ. रसिक विहारी जोशी (हमारे भूतपूर्व अध्यक्ष तथा वर्तमान प्रोफेसर, संस्कृत-विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय) ने शोधकार्य के लिये प्रेरणा और सुझाव दिये । एतदर्थ मैं उनका आभारी हूँ। श्रद्धेय डा. नागरमल सहल (अध्यक्ष, अंग्रेजी-विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय) तथा आदरणीय डॉ. राजकृष्ण दूगड़ (प्राध्यापक, हिन्दी-विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय) की निरन्तर प्रेरणा व सहयोग के लिये में अत्यन्त आभारी हूँ। केन्द्रीय ग्रन्थालय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी पुस्तकालय, श्री उदासीन संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी, श्री गोयनका संस्कृत पुस्तकालय, वाराणसी, केन्द्रीय ग्रन्थालय, काशी हिन्दु विश्वविद्यालय, वाराणसी: श्री सुमेर सार्वजनिक पुस्कालय, जोधपुर, केन्द्रीय ग्रन्थालय, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर तथा राजस्थान प्राच्यविद्या-प्रतिष्ठान, जोधपुर में शोधोपयोगी सामग्री के लिये अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ है। इन सभी संस्थाओं के अधिकारियों के सहयोग के लिये मैं उनके प्रति आभारी हूँ। अन्त में मैं उन सभी कल्याण-मित्रों के प्रते कृतज्ञताज्ञापन करता हूँ जिनसे मुझे शोधकार्य वेधि में सहायता प्राप्त हुई है। - गणेशीलाल सुथार Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची न्या.भू. न्या.मु. न्यायभूषणं न्यायमुक्तावली म्यायवार्तिक न्या.वा. न्या.सू. न्यायसूत्र पा.सू. पाणिनिसूत्र प्र.पं. प्रकरणपब्चिका प्र.पा.भा. प्रशस्तपादभाष्य JBRS The Journal of the Bihar Research Society Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठ ... १-२० प्राक्कथन संकेत-सूची प्रथम-विमर्श-परिचय नाम देश काल भास और जयन्त का पौर्वापर्य वाचस्पति और भासर्वज्ञ का पौर्वापर्य वाचस्पति मासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती भासर्वज्ञ वाचस्पति के पूर्ववर्ती विद्यास्रोत व्यक्तित्व कृतिपरिचय न्यायभूषण ::::::::::: ... २१-४६ द्वितीय विमर्श-प्रमाणसामान्यलक्षण प्रमाणलक्षणविमर्श संशयनिरूपण संशय के भेद निष्कर्ष जह का संशय में अन्तर्भाव अह के पृथक् अभिधान का प्रयोजन अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव निष्कर्ष विपर्यय निरूपण स्वप्न के पृथग्रहानत्व का निराकरण अख्याति आदि आठ ख्यातियाँ प्रमाण-संख्या प्रत्यक्ष प्रमाणवादी चार्वाक के मत का खण्डन प्रमाणसमलव तथा प्रमाणविप्लव प्रमाणसम्पलत्र-तत्संबंधी बोडो की आशंका का निराकरण :::::::::::: 0 C0mm SCENG SM NAGM. :: Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ...४७-८० तृतीय विमर्श-प्रत्यक्ष प्रमाण प्रत्यक्षलक्षणविमर्श प्रत्यक्ष शब्द के व्युत्पत्ति-निमित्त तथा प्रवृत्ति निमित्त का भेद प्रत्यक्षत्वादि के जातित्व की व्यवस्था न्यायसूचकारकृत लक्षण का प्रयोजन प्रत्यक्षभेदनिरूपण अयोगिप्रत्यक्ष द्रव्यप्रत्यक्षनिरूपण घटादिगत जाति तथा गुणादि का प्रत्यक्ष शब्द तथा शब्दत्वादि सामान्य का प्रत्यक्ष शब्द का द्रव्यत्वानुमान और उसका निरास शब्द के आश्रय का निरूपण भाकाश की श्रोत्ररूपता अमावप्रत्यक्ष संयोगनिरूपण समवायप्रत्यक्ष योगिप्रत्यक्ष आय॑ज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव सविकल्पक प्रत्यक्ष निर्विकल्पक ज्ञान ...८१-१४४ चतुर्थ विमर्श-अनुमान प्रमाण भषिनामाव अविनाभावनिश्चय की सामग्री व्याप्तिग्रहण के विषय में भासर्वज्ञ का स्वमत लि वैविध्य स्वार्थ-परार्थ भेद अवयवनिरूपण प्रतिज्ञा-निरूपण हेतुनिरूपण हेत्वाभासनिरूपण असिद्ध विस हेत्वाभास अनकान्तिक मध्यवसित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) पृष्ठ ... ११९ ... १२५ ... १२७ १२७ कालात्ययापदिष्ट प्रकरणसम विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासत्वाशंका शंका-निरास उदाहरण उदाहरणाभास साधोदाहरणाभास वैधम्योदाहरणाभास उपनयनिरूपण निगमननिरूपण १३४ ... १३५ ... १३८ पञ्चम विमर्श-कथानिरूपण तथा छल-जाति-निग्रहस्थान निरूपण ... १४५-१८६ कथा-बाद-निरूपण १४५ जल्पनिरूपण १५० वितण्डा १५१ १५३ वाक्छल ... १५४ सामान्यच्छल ... १५५ उपचारच्छल जातिलक्षणविमर्श जातिभेदनिरूपण निग्रहस्थाननिरूपण ... १७५ १५६ ... १५८ ... १८७-२०४ ... १९० ... १९१ ... १९३ षष्ठ विमर्श-आगमप्रमाण निरूपण आगमद्वैविध्य वर्णनित्यता का निराकरण अर्थापत्ति का प्रमाणान्तरस्वनिराकरण संभव का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण अभाव का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण ऐतिह य का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण चेष्टा का प्रमाणान्तरस्वनिराकरण उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण सूत्रविरोधपरिहार आलोचना १९६ १९६ १७७ ... २०१ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) पृष्ठ ... २०५-२२२ सप्तम विमर्श-प्रमेयनिरूपण प्रमेण विशेषलक्षण शरीर इन्द्रिय अर्थ बुद्धि मन प्रवृत्ति दोष प्रेत्यभाव फल २१० २१० २११ २११ २११ २ २१६ अपवर्ग प्रमेयों की मोक्षोपयोगिता . प्रमेयों का हेयादिचातुर्विध्यविभाग आत्मा ईश्वरसिद्धि २११ अपरात्मविचार आत्मनित्यत्व आत्मविभुत्व आत्मज्ञान का प्रयोजन २२० परमात्मा अष्टम विमर्श-अपवर्गनिरूपण नवम विमर्श-परवर्ती ग्रन्थकारों पर भासर्वज्ञाचार्य का प्रभाव उपसंहार सहायक-ग्रन्थ-सूची २१८ २२० ... २२२-२३० २३१-२४३ ... २१४-२४९ ... २५०-२५६ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम विमर्श परिचय कुमकुम - केसर को प्ररोहस्थली काश्मीर प्रदेश जिस प्रकार अपनी अनुपम प्राकृतिक सुषमा के कारण पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल में बौद्ध, ब्राह्मण, न्याय, शैव प्रत्यभिज्ञादर्शन तथा अन्य दर्शनसम्प्रदायों के परिपक्व चिन्तन की दृष्टि से प्रज्ञावानों के लिये स्पृहणीय रहा है । न्यायशास्त्र के विकास के मध्यकालीन युगमें वहां बौद्ध और ब्राह्मण न्याय की साथ-साथ समृद्ध होने लगे । काश्मीर न्यायसम्प्रदाय के नैयायिकोंने एकान्तः वात्स्यायन और वार्तितकार का अनुगमन नहीं किया है, उनमें स्वतन्त्र चिन्तनप्रवृत्ति का विकास हुआ । उस सम्प्रदाय में आचार्य भाज्ञ के पूर्ववर्ती नैयायिक भट्ट साहट, जयन्त भट्ट. विश्वरूप, प्रवर आदि थे । उनके साथ आचार्य भासर्वज्ञ का सम्बन्ध अब तक स्पष्टतया परिज्ञात नहीं हो पाया है । न केवल काश्मीर न्यायसम्प्रदाय में, अपितु मध्यकालीन समस्त नैयायिको में आचार्य भासर्वज्ञका क्रान्तिकारी नैयायिक के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान है । गुरु, आचार्य, परमाचार्य तार्किक सार्वभौम, 8 वार्तिककृत् *, भूषणकार, " न्यायालङ्करण, न्यायसारतर्क सूत्र विधायक, ' शाखकारचक्रचक्रवती, पाशुपताचार्य, १ – इन सन्मानसूचक 1. ( अ )... इत्याह नो गुरुः । -- -न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ २३ (ब) सम्यक् पदादि वदति स्म गुरु: कृपालुः ॥ - वही, पृ. ११४ 2. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. ५७,८०,०३, १७६ इत्यादि. 3. परमाचार्यतार्किक सार्वभौमश्रीमा सर्वज्ञ प्रणीते न्यायसारप्रकरणे आगमपरिच्छेदः समाप्तः न्यायसार, निर्णयसागर संस्करण, १९१०, पृ. ३२ 4. तदेतद्विचारासहतया तितुच्छ मितिज्ञापनार्थ प्रतिज्ञामात्रमेवात्र वार्तिककृता कृतं सम्यगिति । -- न्यायसारविचार, पृ. २८. 5. भूषणकारस्तु तथाभूतार्थं निश्च" स्वभावत्वं सम्यक्त्वम् । - न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ५६. 6. न्यायालङकरण त्रिलोचनवचस्पत्याह्वयान् हेलया । —ज्ञान श्रीनिबन्धावलि, पृ. १५६. 7. भासर्वज्ञो न्यायसारतर्कसूत्र विधायकः । - षड्दर्शनसमुच्चय ( राजशेखरकृत) 8. ...शास्त्रकारचकचक्रवर्ती श्रीभासर्वज्ञाचार्यः प्रथमपद्येन प्रतिजानीते । — न्यायतात्पर्यदपिका, पृ ४४. 9. पाशुपताचार्य श्रीभासर्व ज्ञप्रणीत न्यायभूषणोपलब्ध्या अनया लोकोत्तरमानन्दसन्दोहमनुबो मबीत्ययम् । - म.म. गोपीनाथ कविराज -- न्यायभूषण का उपादुघात, भान्या - १ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार पदों से न्यायसार के टीकाकार तथा अन्य तार्किकों ने उनका समादर किया है। परिचय नामक प्रथम विमर्श में उन्हीं के नाम, देश, कल, विद्यास्तोत्र, व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करने का प्रयाय किया जा रहा है। नाम भासर्वज्ञ नाम अत्यन्त विलक्षण प्रतीत होता है । वास्तव में उनका पूरा नाम भावसर्वज्ञ था । गणकारिका की प्रस्तावना में चिमनलाल डी. दलाल महोदयने यह उल्लेख किया है कि वैरावल प्रशस्ति (बलभी संवत् ८५०). और अचलगढ़ शिलालेख में उल्लिखित पाशुपत आचार्यो के भावबृहस्पति, भावज्ञ और भावशंकर आदि नामों से यह ज्ञात होता है कि 'भाव' शब्द पाशुपत आचार्यों के नाम से पहिले प्रयुक्त होता था । अपि च, न्यायभूषण के प्रथम परिच्छेद के अन्त में भावसर्वज्ञ नाम का उल्लेख किया गया है। अतः यह प्रतीत होता है कि भा' भाव का संक्षिप्त रूप है। भासर्वज्ञ नाम ही लोकप्रिय है, क्योंकि न्यायसार के टीकाकारों तथा अन्य ग्रन्थकारों ने इसी नाम का प्रयोग किया है । देश संस्कृत-वाङ्मय के अधिकांश प्राचीन विद्वानों की यह प्रवृत्ति रही है कि उन्हों ने अपने ग्रन्थों में देश-काल का उल्लेख नहीं किया है। भासर्वज्ञ भी उनके अपवार नहीं है। परन्तु उनके देश के विषय में विद्वानों की प्रायः सुनिश्चित धारणा है कि वे काश्मीर प्रदेश के निवासी थे । उनकी शिवभक्ति से भी इसकी पुष्टि 1. गणकारिका, भूमिका, पृ. १ 2. इति श्रीमदाचार्यभावसर्वज्ञविरचिते । न्यायभूषणे संग्रहवाति के प्रथमः परिच्छेद: समाप्तः । -न्यायभूषण, पृ. १८७. 3. (अ) The curtain rises with the appearance on the scene of Bhasarvajna, the author of Nyayasara, in Kashmir....Kaviraj, Gopinath. Glean. ings from the History and Bibliography of the Nyāyavaiserika Literature, P. 2 (ब) He seems to me to have been a native of Kashmir. - Vidyabhusana, S.C. -A History of Indian Logic, P. 357. (स) ...Bhasarvajna, who very probably belonged to Kashmir,... -Bhatta. ____charya, D.O. -History of Navya-Nyaya in Mithila. P. 37. (द) भासर्वज्ञ प्रायः काश्मीरी ब्राह्मण थे । -न्यायदर्शनपरिचय, प्रथमखण्ड, १ १७. 4. (अ) प्रणम्य शम्म जगतः पतिं परम् ।-न्यायसार, मंगलाचरण- श्लोक (ब) तस्माच्छिवदर्शनान्मोक्ष इति ।-न्यायसार, पृ. ३९, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय है, क्योंकि उन दिनों काश्मीर में शैवमत का प्रचुर प्रचलन था । प्रो. राधाकृष्णन ने उनको काश्मीर शैवसम्प्रदाय से सम्बद्ध बतलाया है। उनकी काश्मीर निवासिता की पुष्टि हेतु प्रमाण देते हुए प्रो. विद्याभूषण ने कहा है कि काश्मीर-निवासी सर्वज्ञमित्र (७७५ ई.) और सर्वज्ञ देव (१०२५ ई.) के नाम से अत्यधिक साम्य के कारण भासर्वज्ञ भी काश्मीर निवासी थे, ऐसा प्रतीत होता है । यह भी मुझे ज्ञात हुआ है कि एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता के ग्रन्थालय में किसी ग्रन्थ में 'काश्मीर. जातेन' ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भासर्वज्ञ काश्मीरी थे । काल भासर्वज्ञ और वाचस्पति मिश्र के पूर्वापरकालवर्तित्व के विषय में विद्वानों में मतभेद है, जिसका उल्लेख आगे किया जायेगा, परन्तु स्वयं भासत्रज्ञ का काल दसवीं शताब्दी है, यह नि सन्दिग्ध है। प्रो. राधाकृष्णन, महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण, प्रो. दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य, महामहोपाध्याय विन्ध्येश्वरीप्रसाद, श्री सी. डी. दलाल' आदि विद्वानों ने भासर्वज्ञ का काल दसवीं शताब्दी माना है। स्वामी योगीन्द्रानन्द ने भासर्वज्ञ के काल के विषय में म.म. विद्याभूषण के मत का समर्थन करते हुए निम्नलिखित तर्क दिये हैं -- (१) आचार्य उदयन का समय ९८४ ई. है। उसके द्वारा आलोचित बौद्ध दार्शनिक ज्ञानश्री का समय ९६० ई. है । ज्ञानश्री के द्वारा समालोचित भासर्वज्ञ का काल ९३० ई. है। ८२२ ई. में विद्यमान श्री मण्डनमिश्र का खण्डन करते हुए कर्णकगोमी का समय नवम शताब्दी का अन्तिम भाग होना चाहिए । कणकगोमो द्वारा सांख्या चार्य माधव को दिये गये सांख्यनाशक विशेषण पद का विवरण देते हुए से भासर्वज्ञ कहते है- 'माधवमताभ्युपगमे तु सांख्यनाश एव' (न्याय भूषण, पृ. ५६९) । अतः उससे परवर्ती यह आचार्य दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में होना चाहिए । 1. (अ) न्यायसार, (मद्रास गवर्नमेण्ट ओरियण्टल सीरीज, १६.६१) English Intro, P. 7. (a) He shows a marked Shaiva influence: and so it is further premised of him that he was a native of Kasbmir where Shaiva-belief was always strong --Nyāyasāra (Poona, 1922), Introduction, P. 4. 2. He is a Saivite, perhaps of the Kashmir Sect,... 3. A History of Indian Logic, P. 351.- Indian Phil., Vol. II. p. 40. 4. Indian Philosophy, Vol. II, P. 40. 5. A History of Indian Logic, P. 358. 6. History of Navya-Nyāya in Mitbila, P. 37. 7. गणकारिका, भूमिका, पृ. १.. 8. न्यायभूषण, प्राम्बन्ध, पृ. ६,७. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ न्यायसार भासर्वज्ञ ने न्यायभूषण में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और प्रज्ञाकरगुप्त इन बौद्ध दार्शनिकों के मतों का विस्तारपूर्वक निराकरण किया है । महापाल के समय, जिनका देहावसान ९४० ई. में हुआ, प्रज्ञाकर गुप्त विद्यमान थे । ' भासर्वज्ञ के सिद्धान्तों का सर्वप्रथम खण्डन करनेवाले बौद्धों में ज्ञानश्री थे । उनको अतीश अथवा दीपंकर श्रीज्ञान (९८२ - १०५५ ए. डी.) का समकालवर्ती बतलाया है । " अतः यह कहा जा सकता है कि भासर्वज्ञ के काल की उत्तरसीमा दसवीं शताब्दी से आगे नहीं हो सकती । भारतीय दर्शन के इतिहासविदों के पूर्वसंकेतित मतों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि उनमेंसे कतिपय भासर्वज्ञ का काल दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानते हैं और कुछ अन्य दसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध । परन्तु इतना निश्चित है कि भासज्ञ का काल दसवीं शताब्दी है और इसके मध्यकाल में वे विद्यमान थे । भासर्वज्ञ और जयन्त का पौर्वापर्य भासर्वज्ञ जयन्तभट्ट के परवर्ती थे । उनके परवर्तित्व को प्रमाणित करने के लिये अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं । उनमें से कतिपय यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं : १. भासर्वज्ञ यदि जयन्त के परवर्ती न होते, तो जयन्त त्रिप्रमाणवादनिरूपण के प्रसंग में अवश्य भासर्वज्ञ का मत देकर खण्डन करते, परन्तु जयन्त ने केवल सांख्य की चर्चा की है - त्रीणि प्रमाणानीति सांख्याः । * B २. दिक्काल के समर्थन के अवसर पर जयन्त ने दिक्काल की भासर्वज्ञकृत अवहेलना का खण्डन नहीं किया है, अतः भासर्वज्ञ परवर्ती थे । ३. यदि भासर्वज्ञ जयन्त के पूर्ववर्ती होते, जयन्त भासर्वज्ञकृत उपमान प्रमाण की अवधीरणा के तो उपमाननिरूपण के प्रसंग में अपराध को क्षमा न करते । ४. 'नित्यं सुखमात्मनो महत्त्ववन्मोक्षे व्यज्यते' (न्या भा १११।२२ ) इस न्यायभाष्यकार लक्षित पक्ष को जयन्त ने वेदान्तियों का ही बतलाया है - 'तत्र वेदान्तवादिन आहु:'" । मोक्ष में नित्यसुखाभिव्यक्ति पक्ष को मानने वाले भासर्वज्ञ के मत का जयन्त ने निर्देश नहीं किया है, अतः भासर्वज्ञ की परिवर्तिता सिद्ध होती है । 1. Vidyabhusana, S. C. - A History of Indian Logic, P. 336. 2. Bhattacharya, D. C. - History of Navya - Nyaya in Mithila, P. 36. 3. Ibid, P. 15. 4. न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. २६. 5. तस्मादेकोऽव्ययं कालः क्रियाभेदाद्विभिद्यते । एतेन सदृशन्यायान्मन्तव्या दिक्समर्थिता ॥ -न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १२७. 6. न्यायमंजरी, उत्तरभाग, पृ. ७७. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय ५ भासर्वज्ञ ने अनेक स्थलों पर जयन्त के मतवादों का अनुवाद किया है ।। उदाहरणार्थ एक प्रस्तुत है। 'यथा बाह्यकेलिप्रदेशादाबूलत्वविशिष्टधर्मिदर्शनात् पुरुषेणानेन भवितव्यमिति प्रत्ययः ।1 'यथा बाह्यालिप्रदेशे पुरुषेणानेन भवितव्यमित्यूहः ।। भासर्वज्ञ ने जयन्त के मतवादों का अनुवाद ही नहीं किया है, अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि निराकरण भी किया है । जैसे-'तत्पूर्वक मत्यादि, अनुमानमिति लक्ष्य. निर्देशः, तत्पूर्वक मेति लक्षणम, 5 इस वार्तिककारादि तथा जयन्तमत का निराकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है- ' अत्र तत्पूर्वकमित्येतावदेवानुमानलक्षणमिति न बुध्यामहे।' ६. भासर्वज्ञने जयन्ताभिमत सामग्रीकारणतावाद को उद्धृत किया है, इससे भी भासर्वज्ञकी परिवर्तिता सिद्ध होती है। वाचस्पति और भासर्वज्ञ का पौर्वापर्य भासर्वज्ञ वाचस्पति के पूर्ववर्ती थे या परवर्ती, यह विवादास्पद विषय है। इस विषय को लेकर दर्शनेतिहासविदों में दो मान्यताएं हैं । वाचस्पति मिश्र द्वारा 'न्यायसूचीनिबन्ध' में उल्लिखित 'वस्वंकवसुवत्सरे (८९८) में वत्सर को कतिपय विद्वान शक संवत् मानते हैं और कुछ विक्रम संवत् । वस्वंकवसुवत्सर के बारे में इन दो मान्यताओं के कारण वाचस्पति के काल को लेकर दो मान्यताएं प्रचलित हैं। इन दो मान्यताओं तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर भासर्वज्ञ और वाचस्पति के पूर्वापरकालवर्तित्व के विषय में भी दो मत प्रचलित हैं। परवर्ती दर्शनेतिहासविदों के शोध के अनुसार वाचस्पति भासवज्ञ के परवतीं हैं, परन्तु अभी तक इस विषय में वे एक सुस्थिर मान्यता नहीं बना पाये हैं । अतः दोनों मान्यताओं का यहां संक्षेप से अलग अलग उल्लेख किया जा रहा है 1. वही, पृ. १४५. 2. न्यायभूषण, पृ. २०. 3 न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. ११३. 4. न्यायभूषण, पृ. १९.. 5. अन्ये तु वैलक्षण्यमात्रेण कारकाणाम् अतिशयानुपपत्ति मन्यमानाः सामग्र्या एव साधकतम त्वमाहुः ।-न्यायभूषण, पृ. ६०. 6. न्यायसूचीनिबन्धोऽसावकारि सुधियां मुदे । श्रीवाचस्पति मिश्रेण वस्वंकवसुबत्सरे ॥-न्यायसूचीनिबन्ध, Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार वाचस्पति भासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती प्रो० दासगुप्त', महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण' प्रो० राधाकृष्णन्। म० म० गोपीनाथ कविराज, प्रो० सर्यनारायण शास्त्री तथा प्रो० कुन्हन राजा,, प्रो० सात्काड़ मुखोपाध्याय, डें। धर्मेन्द्र नाथ शास्त्री' आदि विद्वानों ने वाचस्पति मिश्र द्वारा उल्लिखित वत्सर को विक्रम संवत् माना है और तदनुसार ८४१ इ प्राप्त होता है । भासर्वज्ञ का काल दसवीं शताब्दी निश्चित है, अतः इन विद्वानों के अनुसार भासर्व वाचस्पति से परवती सिद्ध होते हैं। इन विद्वानों का मुख्य तर्क यह है कि उदयन ने लक्षणावली में 'तर्काम्बरांक' ऐसा निर्देश कर लक्षगावली का रचनाकाल ९०६ शक संवत बतलाया है। वाचस्पति के वस्त्रंकत्रसुवत्सर को ८९८ शक संवत् मानने पर दोनों समकालीन हो जाते हैं, जो कथमपि संभव नहीं । क्योंकि उदयनाचार्य ने वाचस्पति मिश्र की न्यायवार्तिक. तात्पर्यटीका पर परिशुद्धि टीका लिखी है, अ: दोनों के बीच पर्याप्त समय का अन्तराल होना चाहिए । (२) ८९८ विक्रम संवत् मानने पर वाचस्पति का परिवती बौद्ध रत्नकीर्ति उदयन से लगभग १०० वर्ष प्राचीन हो जायेगा। उदयन ने बौद्ध पर आ प्रहार किया, पण्डितों में प्रचलित इस मान्यता के भी यह अनुकूल पड़ता है ।10 (३) स्वामी योगीन्द्रानन्द का कथन है कि यद्यपि भासर्वज्ञ ने वाचस्पति का नामोल्लेख नहीं किया है, तथापि उनके मतकी चर्चा की है। अपनी इस मान्यता की सम्पुष्टि में स्वामीजो ने न्यायभूषण को भूमिका में न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका और न्यायभषण दोनों से कतिपय समानविषयक उद्धरण दिये हैं।11 निदशेन 1. A History of Indian Philosophy, Vol. I, P. 307. 2. A History of Indian Logic, P. 133. 3. Indian Philosophy, Vol. II, p. 40. 4. Gleanings from the History and Bibliography of the Nyāya-Vaise şika . Literature, P. 14. 5. The Bhāmati of Vacaspati, Introduction, P. ix. 6. The Buddhist Philosophy of Universal Flux, P. 33. 7. भारतीय दर्शनशास्त्र-न्यायवैशेषिक, पृ. ११९, १२०. 8. ताम्बरांक मितेष्वतीतेषु शकास्ततः । वर्षेषदयनश्च के सुबोधां लक्षावलीम् ॥-लक्षणावली, अंतिम श्लोक. 9. The Bhamati of Vacaspati, Introduction, P. ix. 10. The Buddhist Philosophy of Universal Flux, P. 33. 11. न्यायभूषण, प्राग्बन्ध, पृ. १०, ११. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय यहां प्रस्तुत किये जा रहे है : १. "लक्षणस्य व्यतिरेकिहेतुत्यं प्रतिपादितं वाचस्पतिमिश्रेण-'लक्षणं' नाम व्यतिरेकिहेतुवचनम् (ता टी. पृ. ९८) तदेतदुपन्यस्य न्यायभूषणे ‘लक्षणस्यापि निश्चय. साधनत्वेन प्रमाणत्वात् । अथ लक्षणं किं प्रमाणपर्याय उत प्रत्यक्षादीनामन्यतमात्, तदर्थान्तरं का ? केवलव्यतिरेकीत्येके (न्यायभूषण, पृ. ९) ।। २. 'संशयलक्षणे 'अनवधारणात्मकश्च प्रत्ययश्च' (न्या.वा. पू. १२) इति वार्तिकोक्तस्य विरोधं मिश्र पर्यहार्षीत् -परमार्थतस्तु प्रत्ययशब्दो ज्ञानप यः, ज्ञानवं तु सामान्यं संशयादिष्वप्यस्तीति न विरोध इति' (ता.टी , पृ २४४) । तन्मनसि कृत्वा प्रोक्तम 'अनवसाधारणज्ञानं संशयः (न्या. सा. पृ. १२) । तन्न तमेव विरोधमुद्भाव्य तदेव समाधानमभ्यधाद् भासर्वज्ञः –'अनवधारणं च तज्ञानं चेति व्याघातान्न युक्त मति चेन् न; गोश दादिवज्जातिनिमित्तत्वाज्ञ शब्दश्या...सा च ज्ञानवजातिनिश्चयानिश्च यस्वभावासु व्यक्तिषु वर्तते' (न्या भू. पृ १२) ।' भासर्वज्ञ वाचस्पति से पूर्ववर्ती प्रो. दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य आदि विद्वानोंने वाचस्पति के वम्बंकवसुवत्सर को ८९८ शक संवत् माना है । तदनुसार भासर्वज्ञ वाचस्पति के ज्येष्ठ समसामयिक सिद्ध होते हैं । इन विद्वानों के मुख्य तर्क इस प्रकार हैं १. काश्भीर नरेश शंकर वर्मा (८८२-९०२ ई.) के समकालीन जयन्त का काल सुनिचित है। तात्पर्यपरिशुद्धि में उदयन ने लिखा है कि वाचस्पति ने उपमानफल के सम्बन्ध में विप्रतिपति के निराकरणार्थ जयन्तमत को उद्धृत किया है। इससे यह प्रमाणित है कि बाचस्पति जयन्त के परवर्ती थे और ऐसी स्थिति में वाचस्पति का काल ८४१ इ. नहीं हो सकता । अतः ८९८ शक (संवत् ९७६ इ) ही मानना होगा । तदनुसार वाचस्पति की अपेक्षा कुछ भासर्वज्ञ पूर्ववतो हो जाते हैं। (२) यद्यपि उदयन की लक्षणावली का रचनाकाल ६०६ (तर्काम्बराङ्क) शक संवत् एकमात्र सरस्वतीभवन की हस्तलिपि में उल्लिखित है और उदयन ने तात्पर्यपरिशद्धि में तात्पर्यटीका के पाठान्तरों का विवेचन किया है। वाचस्पति (९७६ ई०) को उदयन (९८४ ई) के समकालीन मानने पर यह सम्भव नहीं होता । तथापि तर्कस्वराङ्क पाठ होना चाहिये । ऐसा मानने पर ७० वर्ष और प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार प्रो० भट्टाचार्यने उदयन का जन्मकाल लगभग १०२५ ई. तथा उनका कार्यकाल 1. वही, पृ. १०. 2. वही, पृ. १०, ११. 3. अत्रोपमानस्य फले विप्रतिपद्यमानान् प्रति साशंक जरन्नैयायिक जयन्त प्रभृतीनां परिहारमाह ...। -तात्पर्यशुद्ध, - 11६. 4. Bhattacharya, D, C. : History of Navya-Nyaya in Mithila, P. 2. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार १८५०-११०० ई. माना है। अतः वाचस्पति का काल ६७६ ई.) मानने पर भी उदयन के समकालीन होने को आपत्ति का निराकरण हो जाता है। ३. ज्ञानश्री के अनुसार चार विभिन्न दिक्प्रदेशों से आनेवाले न्यायशास्त्र के दिग्गज विद्वान शंकर, भासर्वज्ञ, त्रिलोचन और वाचस्पति हैं। छन्दोभंग न हो, इस दृष्टि से न्यायभूषण के स्थान पर पर्याय शब्द न्यायालंकरण का त्रिलोचन से पहले प्रयोग किया गया है । परन्तु ज्ञानश्री के क्षणभंगाध्याय और रत्नकीति की क्षणभंगसिद्धि में स्पष्टतया न्यायभूषण नाम दिया है और वह भी त्रिलोचन के बाद तथा वाचस्पति के पहले। इस नामक्रम को एतिहासिक समझ कर भासर्वज्ञ को वाचस्पति से पूर्ववती' माना जाता है। (३) भासर्वज्ञ ने द्वित्व के पृथग्गुणत्व का खण्डन किया है। अतः श्री वल्लभाचार्यने न्यायलीलावती में भासर्वज्ञ की आलोचना करते हुए कहा है - "तदिदं चिरन्तनवैशेषिकमतदूषणं भूषणकारस्यातित्रपाकरम् । तदियमताम्नातता भासर्वज्ञस्य यदयमाचार्यमध्यवमन्यते । तथा च तदनुयायिनस्तात्पर्याचोर्यस्य सिंहनादः 'संविदेव हि भगवती'त्यादि ।"" यहां आचार्यपद से उद्योतकर अभिप्रेत हैं, जिनकी द्वित्वस्थापना का भासर्वज्ञनने खण्डन किया है । तात्पर्याचार्य वाचस्पति मिश्र हैं, जिन्होंने भासर्वज्ञ की आलोचना का खण्डन तथा उद्योतकरपक्ष का समर्थन करते हुए कहा है - 'संविदेव हि भगवती ।' तात्पर्यटोका में इसी संदर्भ में यह पंक्ति मिल गई है - 'संविदेव भगवती वस्तूपगमे नः शरणम् ।' इस प्रकार वाचस्पतिकृत भासर्वज्ञमतखण्डन से वाचस्पति का भासज्ञ की अपेक्षा परवर्तित्व ज्ञात होता है। __ भासर्वज्ञ त्रिलोचन के परवती थे, क्योंकि उन्होंने उदाहरणाभासों के प्रसंग में त्रिलोचनसम्मति का उल्लेख किया है, जैसा कि भट्ट राघव के कथन से स्पष्ट हो जाता है । त्रिलोचन वाचस्पति के गुरु थे, जैसा कि तात्पर्यटीका में उन्होंने स्पष्ट निर्देश किया है - 'त्रिलोचनगुरून्नीतमार्गानुगमनोन्मुखः । यथान्यायं यथावस्तु व्याख्यातमिदमोदृशम् ॥' इससे यह ज्ञात होता है कि भासर्वज्ञ त्रिलोचन के कनिष्ठ समसामयिक थे और वाचस्पति के ज्येष्ठ समसामयिक । 1. Ibid, P. 51. 2. lbid, P. 36. 3. lbid, P. 36. 4. न्यायलीलावती, पृ. ४१. 5. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, कलकत्ता, १९४४, पृ. ५०६. 6. अन्ये तु सन्देहद्वारेणापरानष्टावुदाहरणाभासान् वर्णयन्ति ।-न्यायसार, पृ. १३. 7. अत्राद्याः षडित ये तु दृष्टान्तदोषद्वारेणाभासा अभिहितास्ते यथा दृष्टान्तदोषनिश्चयात निश्चितास्तथा तदोषसन्देहात् सन्दिग्धा इति मत्स्वमतं तत्रिलोचनाचार्यसम्मतमित्याह । न्यायसारविचार, पृ. ५९, 8. न्यायदर्शन-प्रथम भाग (मिथिला विद्यापीठ, १९६८), पृ. २२६. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय . किन्तु प्रो. दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य आदि ने भासर्वज्ञ को वाचस्पति के ज्येष्ठ समसामयिक सिद्ध करने के लिये जो तर्क प्रस्तुत किये हैं. वे ग्राह्य नहीं हैं। प्रथम तर्क में यह बतलाया गया है कि न्यायमञ्जरीकार जयन्त भट्ट का काल काश्मीर नरेश शङ्कर वर्मा (८८३ - ९०२ ई.) के समकालिक होने से सुनिश्चित है। उपमानकाल के सम्बन्ध में विप्रतिपद्यमान पुरुषों के प्रति आशङ्कःपूर्वक जरन्नैयायिक जयन्त आदि का परिहार 'यपि यथो गौरव गवयः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा बतलाया है, एतदर्थक तात्पर्यपरिशुद्धि में उदयनाचार्य की उकि से सिद्ध होना है कि वाचस्पति ने जयन्त भट्ट के मत को अर्थतः ग्रहण किया है। इस रीति से जब वाचस्पति मिश्र जयन्त भद्र से परवता हैं, तब वाचस्पति का काल ८९८ विक्रम संवत् अर्थात् ८४१ ई. सिद्ध नहीं होता । यह तर्क इसलिये असंगत है कि केवल तात्पर्यपारशुद्धिकार की उपर्युक्त उक्ति से ही यह नहीं माना जा सकता कि तात्पर्यटीकाकार ने जयन्त का मत उद्धृत किया है। - न्यायमंजरी के उपमानप्रकरण को देखने से यह स्पष्ट है कि न्यायमंजरीकार ने उपमान-फल के विषय में दो मत बतलाये हैं। प्रथम यह है कि 'यथा गौस्तथा गवयः' यह वाक्य अप्रसिद्ध गवय का प्रसिद्ध गो के साथ सादृश्य बतलाता हआ अप्रसिद्ध गवर्यापण्ड गवय शब्द का संज्ञी है यह बतलाता है और यह उपमान का फल है । यद्यपि यह ज्ञान 'यथा गौस्तथा गवयः' इस वाक्य से भी हो सकता है, तथापि वक्ता पुरुष 'गवयपिण्ड गवय शब्दवाच्य है' इसके ज्ञान के लिये 'यथा गौस्तथा गवयः' इत्याकारक सादृश्यज्ञान को उसका उपाय बतला रहा है । अतः आरण्यक पुरुष के वाक्य से गवय शब्द गवयपिण्ड का वाचक है इस अर्थ को नागरिक प्रतिपत्ता नहीं जानता, किन्तु अरण्य में गवयपिण्ड को देखकर गाय के साथ उसका सादृश्य देखता है और 'यथा गौस्तथा गवयः' इस अतिदेश-वाक्यका स्मरण कर उसके द्वारा ही उपर्युक्त उपमानफल का ज्ञान करता है । उपमानफल के सम्बन्ध में इस मत का उल्लेख वृद्ध नैयायिकों के नाम से किया है। उपमानफल के सम्बन्ध में दूसरा मत जयन्त ने यह बतलाया है कि 'यथा गौस्तथा गवयः' इस अतिदेशवाक्य को सुननेवाला पुरुष वन में जाता है और इन्द्रिय द्वारा अप्रसिद्ध गवयपिण्ड में प्रसिद्ध गो के सादृश्य का ज्ञान करता है और गो के समान गवय होता है इस अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण होता है । स्मरण होते ही यह गत्रय शब्द गवयपिण्ड का वाचक है ऐसा संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानरूप फल उत्पन्न हो जाता है । अतः इन्द्रियजन्य गवय में गोसादृश्यज्ञान 'यही गवयपिण्ड गवयशब्दवाच्य है' इस प्रतीतिरूप फल का जनक होने से उपमान है। इस मत को जयन्त ने 'अद्यतनास्तु' पद से बतलाया है। 1. अत्र वृद्धनैय यिकास्तावदेवमुपमा नस्वरूपमाचक्षते संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतीतिफलं प्रसिद्धतरयोः सारूप्यप्रतिपादकमतिदेशवाक्यमेवोपमानम्...इत्यादि । -न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १२८-१२९ 2. न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १२९, भो.न्या--२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० न्यायसार इस द्वितीय मत का 'प्रत्यक्षमयी च (प्रसिद्धः), यथा गोसादृश्यविशिष्टोऽयमीदृशः पिण्ड इति । तत्र प्रत्यक्षमयी प्रसिद्धिरागमाहितस्मृत्यपेक्षा समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिहेतुः, इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा निरूपण किया है। किन्तु यह मत जयन्त का है, इसमें कोई प्रमाण नहीं । यदि जयन्त का स्वयं का होता, तो 'वयं तु ब्रमः' रूपसे उल्लेख करते । जयन्त ने तो उपमानफल के सम्बन्ध में वृद्ध नैयायिका तथा अद्यतनों के मत का उल्लेख किया है । वस्तुतः यह मत तात्पर्यटीकाकार का है। उसीका 'अद्यतनास्तु' से जयन्त भट्ट ने उल्लेख किया है, क्योंकि यह मत प्रथम वाचस्पति के द्वारा ही तात्पर्यटीको में बतलाया गया है। जयन्त भट्ट वाचस्पति के परवती थे, यह आगे बतलाया जानेवाला है । अतः जयन्त के द्वारा उसका उल्लेख उपयुक्त है। २ क्षणभङ्गाध्याय तथा क्षणभङ्गसिद्धि में वाचस्पति से पूर्व न्यायभूषण (भासर्वज्ञ) का उल्लेखरूप द्वितीय तर्क भी भासर्वज्ञ के वाचस्पति से पूर्व होने में तात्त्विक प्रमाण नहीं हो सकता, जब तक किसी प्रमाण से भासर्वज्ञ का वाचस्पति से पूर्व अस्तित्व सिद्ध नहीं हो जाता । अपि तु वाचस्पति मिश्र ही भासर्वज्ञ से पूर्ववर्ती हैं, जसा कि आगे बतलाया जानेवाला है। तृतीय तरूप संख्यानिरूपण में 'संवि देव हि भगवती वस्तूपगमे नः शरणम्' यह वाचस्पति की उक्ति केवल उद्योतकारमतसमर्थनार्थ तथा संख्या के पृथग्गुणत्व की स्वीकृति में प्रमाणरूप से उपन्यस्त है। इसके द्वारा भासर्वज्ञ के मत का निराकरण नहीं है। अन्यथा द्वित्वसंख्या के खण्डन के लिये प्रस्तुत भासर्वज्ञ के तर्कों का वे निराकरण करते। न्यायलीलावतीकार श्री वल्लभाचार्य ने भी द्वित्वसंख्यानिराकरण परक भासर्वज्ञमत की आलोचना करते हुए वाचस्पति की इस उक्ति को द्वित्वसंख्यासिद्धि में प्रस्तुत किया है। भामर्वज्ञमत के निराकरणार्थ वाचस्पति ने यह तर्क उपन्यस्त किया हैं, यह उन्होंने नहीं कहा है । अतः भासर्वज्ञ को वाचस्पति से पूर्व सिद्ध करने के लिये प्रस्तुत सभी तर्क तकाभास हैं। वस्तुतः वाचस्पति मिश्र न्यायमञ्जरीकार जयन्त भट्ट से भी पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि जयन्त भट्ट ने अपनी न्यायमंजरी में दो प्रकरणों में स्पष्टरूप से वाचस्पति के मत को उद्धृत किया है। __पहिला प्रकरण वह है, जिसमें यह बतलाया गया है कि इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न आलोचनाज्ञान का हानोपादानादि फल नहीं हो सकता, क्योंकि पहले इन्द्रियजन्य कपित्थविषयक आलोचनाज्ञान, तदनन्तर पूर्वानुमतकपित्थादि की सुखसाधनता का स्मरण, ततः यह भी कपित्थजातीय है इत्याकारक परामर्शज्ञान, तदनन्तर इस कपित्थ में सुखसाधनता का निश्चय, तदनन्तर उसमें उपादेयताज्ञान होता है। अतः उपादानज्ञान के 1. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ. १९८. 2. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ. १९८. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय समय इन्द्रियसंनिकर्षजन्य कपित्थालोचन को सत्ता न होने से उसे उपादानादिबुद्धिरूप फल के प्रति कारण कैसे माना जा सकता है - इस आशंका का समाधान करते हुए न्यायमंजरीकार ने कहा है कि तात्पर्याचार्य ने इसका समाधान किया है कि ज्ञानों का क्रम तो उपर्युक्त हो है, किन्तु कपित्थोत्पादान-बुद्धिरूप फल के प्रति वे इन्द्रियसंनिकर्षजन्य आलोचनज्ञान को प्रमाण नहीं बतला रहे हैं । वह आलोचनाज्ञान इन्द्रियसंनिकर्षादिरूप प्रत्यक्षप्रमाण का फल ही है, स्मृत्तिजनक होने से स्वयं प्रमाण नहीं, किन्तु उससे उत्पन्न होने वाली सुखसाधनतास्मृति स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि 'यह कपित्थजातीय है' इत्याकारक परामर्श को वह इन्द्रियार्थसंनिकर्षसहकृत होकर उत्पन्न कर रही है । प्रत्यक्षजनित वह परामर्शज्ञान भी जिस प्रकार प्रत्यक्ष जनित धूमज्ञान परोक्ष अग्नि की सत्ता को बतलाने से अनुमान प्रमाण है, उसी प्रकार कपित्थजातीय पदार्थ सुखसाधन है, इसका जनक होने से अनुमान प्रमाण है। और कपित्थजातीय में आनुमानिक सुखसाधनताज्ञान भी इन्द्रियसंनिकर्ष की सहायता से कपित्थादि में उपादेयताज्ञान को उत्पन्न करता हुआ प्रत्यक्ष प्रमाण है। और वह प्रत्यक्ष प्रमाण कपित्थ में उपादेयताज्ञानरूप फल को उत्पन्न करता है। इस प्रकार कपित्थादिविषयक सुखसाधनताज्ञानरूप अनुमान प्रमाण कपित्थादि में इन्द्रियसंनिकर्ष के साथ उपादेयताज्ञान को उत्पन्न करता हुआ प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है। यहां न्यायमंजरीकार ने तात्पर्याचार्य के मत को अर्थतः उद्धृत किया है, शब्दतः नहीं । तात्पर्यटीका में यह समाधान न्यायसूत्र के तृतीय सूत्र की व्याख्या में स्पष्ट उपलब्ध है। दूसरा प्रकरण न्यायदर्शन, द्वितीय अध्याय, प्रथम आनिक के 'न चैकदेशोपलब्धिरवयविसद. भावात 'ठ सूत्रकी व्याख्या में अनिष्पन्न अवयव्यादि का अवयवादिक रण से सम्बन्ध हो नहीं सकता, क्योंकि सम्बन्ध द्विष्ठ होता है तथा कार्यकी पूर्वनिष्पत्ति मानने पर अवयव-अवयवो में युतसिद्धता आ जाती है, इस दोष का परिहार तात्पर्याचार्य ने 1. अत्राचार्यास्तावदाचक्षते साधु चोदित सत्यामीदृश स्वार्थ ज्ञानानां क्रमः, न वयं प्रथमा. लोचनज्ञानस्य उपादानादिषु प्रमाणतां ब्रमः ..प्रत्याक्षप्रमाणं भवति । -न्ययायामंजरी, पूर्वभाग, पृ. ६२. 2 तत्र तोयालोचनमथ तोयविकल्पोऽथ च तज्जातीये दृष्टचरपिपासोपशमनहेतुभावस्य स्मृति. बीजसंस्कारोबोध, अथ तस्य स्मरणम् अथ लिङ्गमरामर्शः तजातीय चेदमिति । तदिदं लिङ्गमरामर्शविज्ञानं साक्षात्कारवत् लिहे विनश्यवस्थव्याप्तिस्मरणसहकारि दृश्यमानस्य सलिलस्य पिपासोपशमनहेतुतया अनुमानमुखेनोपादानबुद्धिरुच्यते । -न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ. १०२, 3. न्यायसूत्र, २-१-३३ . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार 'जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः' इस उक्ति के द्वारा कर दिया है। यह जयन्त भट्ट ने कहा है। तात्पर्यटीकाने में यह उक्ति अथासम्बन्धस्य विद्यमानत्वं (युतसिद्धिः), तत्सत्यपि पृथग्गतिमत्वे नावयविनोऽस्ति, जातः सम्बद्धश्चेत्येकः कालः' इस रूप से शब्दतः उपलब्ध होती है। इससे यह भी स्पष्ट सिद्ध है कि जयन्त भट्ट ने 'आचार्याः' या 'आचार्य.' पद तात्पर्याचार्य के लिए प्रयुक्त किये हैं ओर बहुवचन द्वारा वह सम्मान उनके मत को उद्धृत करता है। न्यायमञ्जरीग्रन्धभङ्ग के रचयिता चक्रधर का 'आचार्याः' के विषय में “इह च सर्वत्राचार्यशब्देन उद्द्योतकरविवृतिकृतो रुचिकारप्रभूतयों विवक्षिताः। यह स्पष्टीकरण भी प्रस्तुत निष्कर्ष में बाधक : साधक है, क्योंकि उनके मतानुसार 'आचार्याः' पद से उद्योतकरीय न्यायवार्तिक के व्याख्याकार रुचिकार आदि अभिप्रेत हैं और उद्योतकरीय न्यायवार्तिक के व्याख्याकारों मैं वाचस्पति मिश्र भी अन्यतम हैं । उपमानप्रकरण में भी जयन्त भट्ट ने 'अद्यतनास्तु' से वाचस्पतिमत का ही अर्थतः प्रतिपादन किया है, क्योंकि उस मत का प्रतिपादन तात्पर्यटोका में स्पष्टरूप से उपलब्ध होता है । अतः वह भी वाचस्पति मिश्र जयन्त से पूर्ववती है इसी को सिद्ध कर रहा है, न कि जयन्त वाचस्पति मिश्र से पूर्ववर्ती है इसको । तात्पर्यपरिशुद्धिकार उदयनाचार्य की 'अत्रोपमानस्य फले विप्रतिपद्यमानान् प्रति साशङ्क जरन्नैयायिकजयन्तप्रभृतीनां परिहारमाह'। यह उक्ति सर्वथा भ्रान्त है और ऐसो भ्रान्ति प्रायः दिग्गज पण्डितों में भी देखी जाती है। जैसे, तत्त्वचिन्तामणि में उपमानखण्ड में 'तस्मादागमप्रत्यक्षाभ्यामन्यदेवेदमागमस्मृतिसहितं सादृश्यज्ञानमुपमानप्रमाणम् इति जरन्नैयायिकजयन्तप्रभृतयः' यह लिखा है, किन्त यह उदधरण न्यायमंजरी में उपमानप्रकरण में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता, जबकि उपमानसूत्र की व्याख्या में तात्पर्यटीका में अक्षरशः मिलता है।' ___उपर्युक्त अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट सिद्ध है कि वाचस्पति मिश्र जयन्त से पूर्ववर्ती हैं । अतः 'न्यायसूचीनिबन्ध' में 'वस्वङ्कवसुवत्सर' में वत्सर से विक्रमाब्द का ग्रहण ही सर्वथा उपयुक्त है, शक संवन् नहीं । और यह भी 1. न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. २४५. 2. न्यायबार्तिकतात्पर्यटीका, २-१-३२. 3. न्यायमजरीग्रन्थिमा, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति निद्यामन्दिर, अहमदाबाद, १९७२, पृ. ४४ 4. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ. १६८ 5. तात्पर्यपरिशुद्धि, १-१-६. 6. तत्वचिन्तामणि, एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता, पृ. ६१. 7. तस्मादागमप्रत्यक्षाभ्यामन्यदेवेदमागमस्मृतिसहितं सादृश्यज्ञानमुपभान.ख्थं प्रमाणमास्थेयम् । . -न्यायवार्तिक्तात्पर्यटीका, पृ. १६८. 8. This can not be Saka 898, for apart from the decisive use of वत्सर, which by this time had come to signify the Samvat era. -Seal, B. N. The Positive Sciences of the Ancient Hindus, p.51. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय सुनिश्चित है कि प्राचीन काल में शकाब्द के उल्लेख के अभाव में विक्रमाब्द का ही ग्रहण होता रहा है । उदयनाचार्य के द्वारा लक्षणावली में उल्लिखित 'तर्काम्बराङ्क' में शक संवत् का ग्रहण तो इसलिये किया गया है कि उन्होंने स्वयं 'शकान्ततः' का स्पष्ट उल्लेख कर दिया है । अतः वहां शक संवत् का ग्रहण किया गया है । अतः वाचस्पति का काल निश्चित रूप से ८४१ ई. है और जयन्त तथा भासर्वज्ञ दोनों ही उनके परवर्ती हैं, दोनों ने ही अनेक स्थलों में उनके मत को उद्धृत किया है । जयन्त ने 'आचार्य' पद से उनका उल्लेख किया है, किन्तु भासर्वज्ञ ने उनका किसी भी प्रकार से उल्लेख न कर उनके विषय को ग्रहण किया है, जैसाकि पहले स्वामी योगीन्द्रा नन्दजो के दिए हुए दो उदाहरणों से स्पष्ट है । वाचस्पति का काल ८४१ ई. मानने से उदयन जो कि ९८४ ई के हैं, उनके बीच में पर्याप्त समय का अन्तराल उपपन्न हो जाता है । वाचस्पति को जयन्त का पूर्ववर्ती मानने से वाचस्पति का काल ८४१ ई. मानने पर वे जयन्त के पूर्ववती हो जायेंगे, यह दूषण भी नहीं रहता । अतः उस अन्तराल के उपपादन के लिये तर्काम्बराङ्क' के स्थान में काल्पनिक अत एव अप्रामाणिक 'तर्कस्वराङ्को' पाठ की कल्पना भी अनावश्यक है। उपर्युक्त रीति से वाचस्पतिकाल ८४१ ई. (नवम शताब्दी का पूर्वार्ध) जयन्तभट्ट का काल ८८३ ई. (नवम शताब्दी का उत्तरार्ध) भासर्वज्ञ का काल ९३० ई. (दशम शताब्दी का पूर्वार्ध) उदयन का काल ९८४ ई. (दशम शताब्दी का उत्तरार्ध) इस प्रकार सभी समजस व चतुरस्न हो जाता है। विद्यास्रोत भास ने अपने ग्रन्थों में कहीं भी गुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया है। केवल 'न्यायसार' के अन्त में भासर्वज्ञ ने लिखा है कि अक्षपाद आदि पूज्य आचार्यों ने देवताओं द्वारा अप्राप्य रत्न (न्यायरत्न) को देकर समुद्रों को भी जीत लिया, तिरस्कृत कर दिया, क्योंकि समुद्र द्वारा देवों का दीयमान रत्नभोग से नष्ट होनेवाले हैं तथा उनसे दुःखभावविशिष्ट परमानन्दरूप मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती, 1. जिता: सुमुद्रा गुरुभिर्मदीयः रत्नं दददभिस्त्रिदशरलभ्यम् । प्रदीयमानं सततं द्विजेभ्यः प्रवद्धते चैव करोति मुक्तिम् ।। आचार्यमाराध्य मयापि लब्धं तन्नायायरत्नं स्वपरोपकारि । उत्सर्गित स्वल्पपदैनिबध्य, संसारमुक्त्ये खल्ल सज्जनानाम् ॥-न्यायसार (कलकत्ता, १९१०), पृ. ११. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ न्या. सार किन्तु अक्षपादादि द्वारा द्विजों को दीयमान रत्न निरन्तर बढ़ता रहता है, क्योंकि वह उनमें सुतीक्ष्ण बुद्ध (तार्किकप्रज्ञा) का आधान करता है और तीक्ष्ण बुद्धि से सम्पन्न होकर वे अन्यान्य ग्रन्थों की रचना करते हैं । तथा प्रमाणादि पदार्थों के तत्त्वज्ञान उत्पन्न सम्यग् ज्ञान द्वारा मिध्याज्ञान का नाश हो जाने से दुःखाभावविशिष्ट परमानन्दरूप मुक्ति की भी प्राप्ति होती है । अक्षपादादि पूज्य गुरुओं के द्वारा प्रादुर्भावित न्यायरत्न को मैंने भी आचार्य ( अपने गुरु ) की सेवा द्वारा प्राप्त किया । स्वल्पाक्षर पदों से उसका निबन्धन कर संसार से मुक्ति प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठ अधिकारियों को प्रदान किया अर्थात् उसका वितरण किया । 4 इन श्लोकों में 'गुरुभिः' पद से न्यायशास्त्र के पूज्य प्राचीन आचार्य अक्षपादादि का ग्रहण है, जैसाकि इत्येवं तत्पूर्वक पदमेव केवलमनुमानलक्षणक्षम मिति गुरवो वर्ग याञ्चक्रुः " जयन्त के इस कथनमें 'गुरवः' पदसे न्यायशास्त्र के प्रवर्तक प्राचीन आचार्यों का ग्रहण किया है । जयसिंह सूरि ने 'गुरुभि' पद की 'अध्यापकैः " इस व्याख्या के द्वारा भासर्वज्ञ के अध्यापकों का ग्रहण किया है, वह समुचित नहीं, क्योंकि भासर्वज्ञ ने अपने गुरु का उल्लेख उत्तरश्लोक में 'आचार्यमाराध्य' आचार्यपद के द्वारा किया है । यदि भासर्वज्ञ गुरुओंने भी न्यायरत्न का प्रादुर्भाव किया होता, तो उस न्यायरत्न की उन गुरुओं द्वारा प्राप्ति हो जाने पर तद्भिन्न आचार्य की आराधना से उसकी प्राप्ति का उल्लेख नहीं होता और वस्तुतः न्यायरत्न का प्रारम्भिक प्रदान अर्थात् आविर्भाव भासर्वज्ञ के गुरुओं द्वारा न होकर उनके पूर्ववर्ती पुज्य न्यायसूत्रकार, भाष्यकार, वार्तिककारादि से ही हुआ है । इसलिए 'गुरुभिः' इत्याकारक बहुवचन का प्रयोग किया गया है । गुरुओं ने रत्न ( न्यायरत्न) के प्रदान द्वारा समुद्रों को जीत लिया है, इस प्रकार रत्नप्रदान के द्वारा समुद्र का गुरुओं से साम्य बतलाया गया है । वह साम्य न्यायशास्त्र के उद्भावक अक्षपादादि आचार्यो के साथ ही उपपन्न होता है, क्योंकि जैसे समुद्र अनेक रत्नों का उद्भवस्थान है, उसी प्रकार अक्षपादादि पूज्य पूर्वगुरु ही न्यायशास्त्ररूपी रत्न के उद्भावक हैं, न कि भासर्वज्ञ के अध्यापक । यद्यपि 'मदीयैः' विशेषण से यह सन्देह अवश्य होता है कि यहां भासर्वज्ञ सम्बन्धित गुरुओं का बोध है और अक्षपादादि भी परम्परया भासर्वज्ञ से सम्बन्धित हैं ही, अतः 'गुरुभिः' से अक्षपादादि आचार्यों का ग्रहण करने में कोई बाधा नहीं है । व्यक्तित्व स्वतन्त्र चिन्तक : महाम्बुधिकल्प प्रौढग्रन्थ न्यायभूषण उनके व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करने के लिए स्वच्छ आदर्शतुल्य है । वे न्यायशास्त्र के प्रौढ़ और उद्भट विद्वान् थे । 1. न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. ११५. 2. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. २६४. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय इसीलिए न्यायशास्त्र के आधारस्तम्भभूत नैयायिकों में उनकी गणना की गई है। न्यायशास्त्र में नूतन और क्रान्तिकारी विचारधारा प्रवाहित करने के कारण उनके व्यक्तित्व की यह विशेषता व्यक्त होती है कि वे रूढिवादी नेयायिक नहीं थे, उनकी अपनी स्वतन्त्र विचारधारा थीं। प्राचीन आचार्यों के प्रति श्रद्धा रखते हुए भी उन्होंने 'बाबाबाक्यं प्रमाणम्' इस रूप में अपरीक्षणपूर्वक उनका ग्रहण नहीं किया, जैसाकि निम्न उद्धरण से स्पष्ट है :-- "सूत्रकृतैव खल्वेवमुपदिष्टत्वादिति चेत्, न खलु वै सूत्रकारनियोगभयात्पदार्थाः स्वधर्म हातुमर्हन्ति । यदि चाविचारितमेव सूत्रकारवचः प्रमागं, परीक्षासूत्राणां ताह वयथ्यं स्यात् ।" शुद्ध नैयायिक : न्यायभाष्यकार तथा उनके अनुयायी सभी नैयायिकों ने वैशेषिक दर्शन के सिद्धान्तों का कोई विरोध नहीं किया है, अपितु उनको यथावत् अपनाया है । किन्तु आचार्य भासर्वज्ञ ने वैशेषिक-शास्त्र के सिद्धांतो का विस्तारपूर्वक खण्डन किया है । वे शुद्ध नैयायिक थे । उनका उद्देश्य था-न्यायशास्त्र की व्याख्या । अतः वैशेषिक शास्त्र से विरोध को वे दोष नहीं मानते, जैसा कि उन्होंने स्पष्ट कहा है 'न्यायशास्त्रं च व्याख्यातुं वयं प्रवृत्तास्तेनास्माकं वैशेषिकतन्त्रेण विरोधो न दोषाय । अतः हम कह सकते हैं कि भासर्वज्ञ न्यायशास्त्र के रूढिवादी व्याख्याकार नहीं, प्रत्युत स्वतन्त्र चिन्तक और समालोचक नैयायिक थे । कृति-परिचय: आचार्य भासर्वज्ञने कुल चार प्रन्थों की रचना की। उनके नाम इस प्रकार हैं(१) नित्यज्ञानविनिश्चय (२) गणकारिका (३) न्यायसार और (४) न्यायभूषण । १. नित्यज्ञानविनिश्चय यह ग्रन्थ अप्राप्य है। इसका उल्लेख आचार्य भासर्वज्ञ ने न्यायभूषण में किया है-' यदत्रानुक्तं परोक्तचोद्यप्रतिसमाधानं प्रतिपक्षबाधनं च तत् नित्यज्ञानविनिश्चये द्रष्टव्यम् ।" इससे यह प्रतीत होता है कि न्यायभूषण की रचना से पूर्व भासर्वज्ञ ने 'नित्यज्ञानविनिश्चय' नामक ग्रन्थ की रचना की थी जो सौगतसिद्धान्तरूप पर्वत के लिए वज्रपात की तरह था । J. दुर्मीताश्रमवेदिकाढरस्तम्भानमून् शंकर--- न्यायालहरणत्रिलोचनवचस्पत्याहयान् हेलया । उन्मूल्य क्षणभंग एष विहितो यत्पुण्यमाप्तं मया तेन स्तात् परपारगस्त्रिभुवने ज्ञानधियोऽयं जनः ।। --ज्ञानश्रीनिबन्धावलि, पृ. १५९. 2. न्यायभूषण, पृ. १८. 3 वही, पृ. १९३. 4. न्यायभूषण, पृ. १६६. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार २. गणकारिका पाशुपत पूत्र और पळवार्थ भाष्य को तरह पगारका भी लकुलोश पाशुपतमत का प्रमुख प्राथ है। गगहारिक की रत्नटीका में पाशुपत-मत के अन्य ग्रन्थों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। सर्वदर्शनसंग्रह में अन्य दर्शनों की तरह पाशुपतमत का स्वरूप भी वर्णित है। गणकारिका में कुल आठ कारिकाएँ हैं जिनकी रत्नटीका में विस्तार से व्याख्या को गई है । इन आठ कारिकाओं में गुरुस्वरूप आदि का निरूपण किया गया है। इस तथ्य की और संकेत करते हुए सर्वदर्शनसंग्रहकार ने भी कहा है -'गुरुस्वरूपं गणकारिकायां निरूपितम्'। यह ग्रन्थ गायकवाड ओरियण्टल सीरीज के अन्तगर्त चिमनलाल डी. दलाल महोदय के सम्पादकत्वमें सन १९६६ में प्रकाशित हो चुका है। ३. न्यायसार न्यायदर्शन में सर्वप्रथम सूत्रानुसारी ब्याख्यापद्धति अपनायी गई और सौगत. सिद्धान्त के खण्डन हेतु उस पद्धति के अनुसार न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटीका, न्यायभाष्यवातिक टीकाविवरणपजिका आदि ग्रन्थ लिखे गये। सूत्रानुसारी व्याख्या. पद्धति को छोड़कर स्वतन्त्र ग्रन्थ-रचना की पद्धति प्रारम्भ में नहीं थी, परन्तु दसर्वी शताब्दी में न्यायशास्त्र में स्वतन्त्र रूप से प्रकरण ग्रन्थों की रचना को जाने लगी। न्यायदर्शन में आचार्य भासर्वज्ञ को इस शैली का प्रवर्तक कहा जा सकता है। उनके बाद में अन्य नैयायिकों तथा वैशेषिकों ने भी प्रकरण ग्रन्थ लिखे । 'प्रकरण' एक पारिभाषिक शब्द है जिसको लक्षण पराशर उपपुराण में इस प्रकार किया गया है 'शास्त्रैक देशप्तम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम् । आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चित ॥' । अर्थात् जिस ग्रन्थ में किसी शास्त्र के एक अंश का प्रधानतया प्रतिपादन होता है और प्रयोजनानुसार अन्य शास्त्र के उपयोगी अंश का भी समावेश कर किया जाता है. उसे प्रकरणग्रन्थ कहते हैं। न्यायवैशेषिक के प्रकरण प्रन्थों के चार विभाग किये जा सकते हैं--- (१) प्रथम प्रकार के वे प्रकरण हैं जिनमें प्रधानतया प्रमाण और गौण रूप से प्रमेय, संशय आदि पन्द्रह पदार्थो का वर्णन किया गया है। (२) दूसरे प्रकार के वे प्रकरण ग्रन्थ हैं जिनमें न्यायदर्शन के प्रमाण, प्रमेय आदि 1. तत्क्रमश्च संस्कारकारिकायां दृष्टव्यः ।-गणकारिका, रत्नटीका, पृ. ९. 2. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. ७१ से ७७ तक 3. वही, पृ. ७१. 4. प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में म. म. विद्याभूषण-सम्पादित न्यायसार के संस्करण का मुख्यतया उपयोग किया गया है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय सोलह पदार्थों के साथ वैशेषिक दर्शन के द्रव्यादि पदार्थ भी वर्णित होते हैं, परन्तु स्वतन्त्ररूप से नहीं, अपितु उनका प्रमेय में अन्तर्भाव कर दिया गया है। (३) तीसरे प्रकार के वे प्रकरण ग्रन्थ हैं जो मुख्यत वैशेषिक के ग्रन्थ हैं, परन्तु न्याय के प्रमाण पदार्थ का पूर्ण रूप से उनमें समावेश कर दिया गया है। (४) चोथे प्रकार के वे प्रकरणग्रन्थ हैं जिनमें न्याय और वैशेषिक दर्शन के कतिपय विषयोंका उन दर्शनों की शैली से पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया है । प्रकरण ग्रन्थों की उपयुक्त चतुम्कोटि में आचार्य भासर्वज्ञ का न्याय सार प्रथम कोटे के अन्तर्गत आता है । इसमें प्रमाण पदार्थ का प्रधान रूपसे प्रमाण परिच्छेदों में यथाप्रसंग प्रतिपादन किया गया है। भारतीय न्यायशास्त्र के मध्यकालीन युग में बौद्ध और जैन न्याय में क्रमशः दिङ्नाग तथा सिद्धसेन दिवाकर ने उस ग्रन्थ शैलीका सम्प्रवर्तन किया था । परवर्तीकाल में बौद्ध तथा जैन न्यायशास्त्र में इस शैली के अनुसार अनेक प्रन्थ लिखे गये। सूत्रानुसारी व्याख्यापद्धति का अनुसरण करनेवाले कर, वाचस्पति आदि ब्राह्मण नैयायिक इस शैली से प्रभावित नहीं हुए । ब्राह्मण नैयायिकों में इस शैली से सर्वप्रथम प्रभावित होनेवाले आचार्य भासर्वज्ञ थे, जिन्होंने तदनुसार न्यायसार की रचना की ।' भासर्वज्ञ ने न्यायसार में केवल प्रमाणों का निरूपण किया है, प्रो. विद्याभूषण के इस कथन पर आपत्ति उठाते हुए म. म. गोपीनाथ कविराज ने उसे निराधार बतलाया है, क्योंकि पुस्तक (न्यायसार) के उत्तरभाग में प्रमेयों का निरूपण किया गया है। जैसा कि अभी कहा जा चुका भासन ने बौद्ध और जैन न्यायप्रन्थों की शैली अपनाकर-प्रमाण पदार्थ को प्रधानता दी, परन्तु उन्होंने न्यायशास्त्र के अन्य पदार्थो का भी न्यायसार के प्रमाण परिच्छेदों में प्रतिपादन किया है। स्वयं आचार्य भासर्वज्ञ ने न्यायसार के मंगल-लोक के "शिशुप्रबोघाय मयाभिधास्यते । प्रमाणतभेदतदन्यलक्षणम् ॥" 1 (A)..and there is probably only one Hindu work of importance on Nyaya in the Buddhist style namely Nyāyasāra of Bhasarvajina. -Dasgupta S. N., A History of Indian Philoso phy, Vol. I, p. 309, (B) Among the Brahmans there was only one person who imbibed the influence of the Buddhist and Jain Logicians. This person was Bhasarvajña, the celebrated author of Nyāyasära. -Vidyabhusana's Introduction to Nyayasara, p. 2. 2. न्यायसार, प्रस्तावना, प्र. २. 3. Gleanings from the History and Bibliography of the Nyāya-vaiseşika Literature. p. 2. भान्या-३ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार -इस उत्तरार्ध में स्पष्ट कर दिया है। अतः भासर्वज्ञ ने न्यायसार में केवल प्रमाणों का ही प्रतिपादन किया है, यह कथन संगत प्रतीत नहीं होता। आचार्य भासर्वज्ञ के इस प्रकरण ग्रन्थ का न्यायशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने इसे 'संग्रह, 'न्यायसदर्थसंग्रह' संज्ञा से भी व्यवहृत किया है। यह ग्रन्थ प्रत्यक्ष. अनुमान और आगम-इन तीन परिच्छेदों में विभक्त है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में पाशुपताचार्य भासर्वज्ञ ने मंगलाचरण इस प्रकार किया है 'प्रणम्य शम्भु जगतः पति परं, समस्ततत्त्वार्थविदं स्वभावतः । शिशुप्रबोधाय मयाऽभिधास्यते, प्रमाण-तभेदतदन्यलक्षणम् ॥ प्रमाणों के त्रिविध विभाग (प्रत्यक्ष-अनुमान-आगम) के कारण यह ग्रन्थ सांख्य' और जैन दर्शन के अनुरूप तथा उपमान प्रमाण के साथ उक्त तीन प्रमाण माननेवाले अक्षप गद-दशेन तथा प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानने वाले बौद्ध दर्शन के विरुद्ध है। इस ग्रन्थ में प्रयोजन और सिद्धान्त इन दो को छोड़कर अन्य सभी अक्षपादोक्त पदार्था का निरूपण किया गया है। उपनय, निगमन. निर्णय, छल, जाति, निग्रहस्थान का निरूपण प्रायः सत्रकार के अनुसार ही हैं । अन्य पदार्थों के निरूपण में आचार्य भासर्वज्ञ की अनेक विशेषताएं अभिव्यक्त हुई हैं जिनका विवेचन. प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में आगे के विमर्शो में किया जा रहा है। आचार्य भासर्वज्ञ के इस प्रकरण ग्रन्थ पर कुल १८ टीकाएँ लिखी गई, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। इससे यह ज्ञात होता है कि परवर्तीकाल में इसके अध्ययनअध्यापन की समृद्ध परम्परा रही है । ये सभी १८ टीकाएं उपलब्ध हैं उनमें भी कुछ प्रकाशित हैं और अन्य भाण्डागारों में मातृकापि हत हैं । न्यायभूषण 'न्यायभूषण' 'न्यायसार' की प्राचीनतम तथा विस्तृत स्वोपज्ञ व्याख्या है। आचार्य भासर्वज्ञ ने इसे 'संग्रहवार्तिक' नाम से भी अभिहित किया है। दार्शनिक 1 संग्रहे स्वस्याप्यनभिधानं विस्तरपरिहारार्थम् ।-यायभूषण, पृ. ३ ४ ५ 2. प्रवक्ष्यते न्यायसदर्थसंग्रहः [---न्यायभूषण, पृ. 1. 3. न्यायसार, पृ. १. 4. भासर्वज्ञश्च सांख्यस्त्रितयम् ।- मानमेयोदय, पृ. १०. 5. (अ) न्यायसाराभिधे तक टीका अष्टादश स्फुटाः ।-षड्दर्शनसमुच्चय (राजशेखरकृत) (ब) मासर्वज्ञप्रणीते न्यायसारेऽष्टादश टीकाः - षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति, पृ. ९४. 6 न्यायभूषणे संग्रहवार्तिके -न्यायभूषण, पृ. १८७ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ परिचय जगत् में यह ग्रन्थ 'भूषण' तथा 'न्यायभूषण" नाम से विश्रुत है । दार्शनिकों ने न्यायसार की अठारह टीकाओं में इसी को मुख्य तथा प्रसिद्ध बतलाया है । इस पर गदाधर मिश्र ने 'न्यायभूषणप्रकाश' तथा वासुदेवसूरि ने 'न्यायभूषणभूषण' नामक टीका लिखी, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है । * वासुदेव सूरिने इसको गम्भीरता और प्रौढ़ता को लक्षित कर 'महाम्बुधि० संज्ञा दी है । कई शताब्दियों से यह ग्रन्थ लुप्त-सा था । प्राचीनन्याय के विशाल साहित्य में इस ग्रन्थरत्न का अभाव असह्य था, अतः जरद्गवीगवेषणा निष्णात विद्वान् इसकी खोज में लगे रहे। 'जिन खोजा तिन पाइया इस उक्ति के अनुसार भूषण की गवेषणा में सतत संलग्न विद्वानों को सफलता मिली और सन् १९६८ में पहली बार स्वामी योगीन्द्रानन्द के सम्पादकत्व में षड्दर्शनप्रकाशन प्रतिष्ठान, वाराणसी से इस ग्रन्थ का प्रकाशन हो गया है । वस्तुतः न्यायदर्शन में यह उल्लेखनीय उपलब्धि है । 'न्यायभूषण' आन्वीक्षिकीविद्या का भूषण है । इसमें प्राञ्जन्ट भाषा में विषयों का प्रतिपादन किया गया है । आचार्य भासर्वज्ञ ने इसमें अपनी समस्त अभिनव मान्यता ओंका युक्तिपुरःसर स्पष्टीकरण किया है । यहां उनकी दार्शनिक प्रौढ़ता पूर्णतया परिलक्षित होती है । इसमें मङ्गलाचरण करते हुए आचार्य भासर्वज्ञ ने कहा है 2 उमापतिं सर्वजगत्पति सदा, प्रणम्य निर्वाणदमीश्वरं परम् । गुरुंश्च सर्वाननुमोक्षसिद्धये, प्रवक्ष्यते न्याय सदर्थसंग्रहः ॥ वस्तुतः न्यायशास्त्र में यह एक विशिष्ट ग्रन्थ है । न्यायशास्त्र के परम्परागत सिद्धांतों की नूतन तथा समालोचनात्मक व्याख्या इसमें की गई है । समानतन्त्र वैशेषिकशास्त्र से विरोध न्यायशास्त्र में सबसे पहले इसी प्रन्थ में प्राप्त होता है । दिङ्नाग, नागार्जुन धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर आदि धुरन्धर बौद्ध विद्वानों के सिद्धांतों का प्रखरतर तर्कों से प्रचण्ड खण्डन किया गया है । जैन और चार्वाक आदि दार्शनिकों के मतों का 1. भूषणे त्वाचष्टे । -न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. १९. 2. तथा च न्यायभूषणः । ज्ञानश्रीनिबन्धावली, पृ. ८७. 3. (अ) तासु मुख्या न्यायभूषणाख्या । षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति, पृ. ९४. (ब) न्यायभूषणनाम्नी तु टीका तासु प्रसिद्धिभाक् । षड्दर्शनसमुच्चय ( राजशेखरकृत) 4. ( अ ) न्यायभूषण प्रकाशेऽभिहित गदाधर मिश्रेण । न्यायरत्नद्युतिमालिका, पृ. ५४. (ब) प्रतिज्ञाविशेषणहान्यादयोऽस्माभिर्न्यायभूषणभूषणेऽभिहितास्तत्रैव ज्ञातव्याः । - न्यायसारपदपश्चिका, १. ८१. 5. न्यायभूषण महाम्बुधौ बुधा येऽलमाचरितुं न जानते । कृता न्यायसारपञ्चिका ॥ न्यायसारपदपञ्चिका, पृ. ९८. तत्कृते कृतिरियं मया 6. न्यायभूषण, पृ. १. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० न्यायसार भी खण्डन इसमें है। उनके प्रति भासवंज्ञाचार्य के कटाक्षपूर्ण आक्षेपो के कतिपय उद्धरण यहां निदर्शनार्थ प्रस्तुत हैं_ (१) "तस्मादिमें सौगताः शून्यताभिधानेनासारतां प्रदर्श्य बुद्धाय देयम्, धर्माय देयम्, संघाय देयम्, इत्येवं लोकान् प्रतार्य मिष्टान्नपानाद्युपभोगं कुर्वन्तः पूर्वसंस्काराविशेषेऽपि अमेध्यभक्षणादिकं परिहरन्तः चक्रभ्रमणवदस्माकं पूर्वसंस्कारादेव प्रवृत्तिरित्येवं ब्रुवाणाश्च धूततामेवात्मनः प्रकटयन्तीति ।" ___(२) "को हि जिनस्यातिशयो यः खरोष्ट्रादौ नास्त्येव १ को वा खरोष्ट्रादेनिकृष्ट भावो यो नास्त्येव जिने यतः खरोष्ट्रादिपरिहारेण स एवोपास्यते ?" (३) "नाप्रत्यक्ष प्रमाणमस्ति इति अभ्युपगम्य परप्रत्यायनार्थ शास्त्रं प्रणयन् वाक्यं वोच्चारयन् स्वामेव प्रवृत्ति स्ववाचा विडम्बयतीत्यहो भद्रं पाण्डित्यमात्मनः प्रकटितवानिति ।"3 परवर्ती औत तथा अौत दर्शन-वाङ्मय में 'न्यायभूषण' विशेष चर्चा का विषय रहा है । ज्ञानश्री, रत्नकीर्ति, वादिदेव सूरि आदि दार्शनिक पूरी शक्ति लगाकर इसके खण्डन में प्रवृत्त हुए । 1. न्यायभूषण, पृ. १५२. 2. वही, पृ. ५५७. 3. वही, पृ. ८०. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय विमर्श प्रमाणसामान्यलक्षण प्रमाणलक्षणविमर्श यद्यपि न्यायसूत्रकार महर्षि अक्षपाद ने प्रमाणसामान्य का लक्षण नहीं दिया है, तथापि न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ने 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि '' इस सूत्र की व्याख्या करते हुए 'प्रमीयतेऽनेन' इत्याकारक प्रमाण शब्द के निर्वचन से 'उपलब्धिसाधनं प्रमाणम्' यह प्रमाणसामान्य का लक्षण बतलाया है । इसी का स्पष्टीकरण उन्होंने 'स (प्रमाता) येनार्थ प्रमिणोति विजानाति तत् प्रभाणम्' 4 यह किया है । वार्तिककार ने भी 'उपलब्धिहेतुः प्रमाणम् यह प्रमाणसामान्य का लक्षण किया है । उपर्युक्त लक्षणों की प्रमाता और प्रमेय में अतिप्रसक्ति इसलिये नहीं है कि प्रमाता ओर प्रमेय तो कर्तृत्वेन या विषयत्वेन प्रमाण में चरितार्थ हो जाते हैं, परन्तु प्रमाण अचरितार्थ रहता है, अतः वही अर्थोपलब्धि का साधन है । लक्षण में हेतु पद साधकतम का बोधक है और उपलब्धि में प्रकृष्ट उपकारत्वरूप हेतुता प्रमाण में ही है न कि प्रमाता और प्रमेय में, क्योंकि प्रमाता और प्रमेय के विद्यमान होने पर भी प्रमाण के अभाव में अर्थोपलब्धि नहीं होती और उसके होने पर हो जाती है । अर्थोपलब्धि कभी-कभी भ्रमात्मक अथवा संशयात्मक भो हो सकती है । इसलिए जयन्त भट्ट ने वार्तिककारोक्त लक्षण का परिष्कार करते हुऐ अव्यभिचारी और असन्दिग्ध इन दो विशेषणों का उसमें सयोजन किया हैं ।" आचार्य भासर्वज्ञ ने भी इसी आधार पर अपने प्रमाणसामान्य के लक्षण में सम्यक् पद का संयोजन कर 'सम्यगनुभव साधनं प्रमाणम्" यह प्रमाणसामान्य का लक्षण प्रस्तुत किया है । 1. न्यायसूत्र १।११३ 2. उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानीति समाख्यानिर्वचनसामर्थ्याद् बोद्धव्यम् । न्यायभाष्य, १२१/३ 3. The Lacuna caused by the omission of general definition of 'Pramana' in the aphorist Akṣapada's series of definitions was filled by Vatsyayana with his etymological interpretation of the word Pramaņa'. — Sanghvi, Sukhlal, Advanced Studies in Indian Lcgic & Metaphysics, p. 34. 4. न्यायभाष्य, १1१1१ 5. न्यायवार्तिक, १1१/१ 6. अव्यभिचारिणोम् असन्दिग्धाम् अर्थोपलब्धिम् ... । -न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १२. 7. न्यायसार, पृ. १. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ न्यायसार इस लक्षण में भी साधन पद पूर्ववत् साधकतम का उपलक्षण है । अतः प्रमाता और प्रमेय में प्रमाणलक्षण अतेव्याप्त नहीं है। अन्य आचार्यो ने 'प्रमाकरण प्रमाणम्' 'प्रमाणं हि प्रमाकरणम्' इस प्रकार के लक्षण प्रस्तुत किये हैं। इन लक्षणों में साधन या हेतु के स्थान पर करणपद का निवेश कर देने से 'साधकतमं करणम् इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार साधकतम अर्थ का स्वतः लाभ हो जाता है, साधन पद को साधकतम का उपलक्षक नहीं मानना पड़ता । लोक और शास्त्र दोनों में ही प्रमाण शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रपूर्वक माङ् धातु से ल्युत् प्रत्यय करने पर प्रमाण शब्द निष्पन्न होता है । ल्युद् प्रत्यय भाव, करण और अधिकरण तीनों अर्थो में होता है । अतः प्रमाण शब्द का यौगिक अर्थ प्रमा या प्रमा का साधन या प्रमा का आश्रय है। प्रमाणलक्षण में साधन पद का प्रयोग न करने पर इस लक्षण की प्रमाता, प्रमेय तथा प्रमारूप फल में अतिव्याप्ति है, क्योंकि 'अनुभवति' इस व्युत्पत्ति से प्रमाता, 'अनुभूयते' इस व्युत्पत्ति से प्रमेय तथा 'अनुभूतिः' इस व्युत्पत्ति से प्रमारूप फल भी समीचीन अनुभवरूप हैं, अतः लक्षण में साधन पद दिया है । प्रमातादि समीचीन अनुभवरूप हैं किन्तु उसके साधन नहीं हैं, अतः उनमें अतिव्याप्ति नहीं है। यद्यपि साधन शब्द का प्रयोग करने पर भी प्रमातादि में प्रमाणलक्षण की अतिव्याप्ति पूर्ववत् ही विद्यमान है, क्योंकि 'साधयति,' 'साध्यते,' -इन व्युत्पत्तियों से प्रमाता तथा प्रमेय क्रमशः प्रमाकर्तृत्वेन और प्रमाविषयत्वेन समीचीन अनुभव के साधन हैं, तथापि शाब्दिकों के अनुसार साधन शब्द करणव्युत्पत्तिपरक ही है। अतः उसीका आश्रयण होने से प्रमातादि में अतिव्याप्ति नहीं है। करण का अर्थ पाणिनि ने 'साधकतमं करणम्' सूत्र के द्वारा साधकतम माना है, अर्थात् क्रियासिद्धि में प्रकृष्ट उपकारक कारण करण कहलाता है। जिसके अव्यवहित उत्तरकाल में फल की निष्पत्ति हो, वही प्रकृष्ट कारण कहलाता हैं । इन्द्रियादिव्यापार के बाद ही प्रमारूप फल की निष्पति होती है, अतः वे ही कारण हैं न कि प्रमोता और प्रमेय । प्रमाणलक्षण में अनुभव पद से अज्ञानरूप* यागादि कर्म तथा स्मृति की व्यावृत्ति की गई है, क्योंकि ये दोनों ही अनुभवरूप नहीं हैं। न्यायमतानुसार स्मृति अनुभवभिन्न ज्ञान है तथा संस्कारजन्य है, जबकि अनुभव प्रमाणों द्वारा प्रसूत अभिनव ज्ञान होता है । यागादि भो ज्ञानभिन्न क्रियारूप होने से अनुभव नहीं हैं। ___ लक्षण में सम्यक् पद 'सम्यक् चासौ अनुभवः' इस कर्मधारय समास के द्वारा अनुभव का विशेषण है। यह पद स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक संशयज्ञान तथा शुक्तिरजतादि 1. तर्कभाषा, पृ. १८ 2. तात्पर्यपरिशुद्धि, ११/१ 3. पा.सू. ११४१४२ 4. विद्यां चाविद्यां च (ईशावास्योपनिषद्, ११)। यहां अविद्या शब्द से यागादि कर्म का ग्रहण है। 5. स्मरणाज्ञानव्यवच्छेदार्थमनुभवमहणम् ! -न्यायसार, प. २ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण શરૂ विपर्ययज्ञान की व्यावृत्ति के लिये दिया गया है। ये दोनों सम्यक् ज्ञान नहीं है, अतः इनके साधन इन्द्रियसंनिकर्षादि प्रमाणाभासों में प्रमाणलक्षण की अतिव्याप्ति नही, क्योंकि प्रमाणों का सम्यक्त्व तथा प्रमाणाभासों का असम्यक्त्व उनसे जन्य फल पर हो आधारित है। संशयनिरूपण 'सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्' इस प्रमागलक्षण में 'सम्यक्' पद से संशय और विपर्यय की व्यावृत्ति बतलाई गई है। अतः यह सिद्ध है कि सम्यक् ज्ञान तथा असमीचीन ज्ञान भेद से ज्ञान द्विविध है और संशय असम्यक् ज्ञान है । अतः प्रसंगप्राप्त संशय का स्वरूपज्ञानार्थ निरूपण किया जा रहा है, क्योंकि बिना रूरूपज्ञान के किसोका ग्रहण अथवा परित्याग नहीं हो सकता । भाष्यकार तथा वार्तिककार का अनुसरण करते हुए भासर्वज्ञ ने 'अनवधारणज्ञानं संशयः' यह संशय का लक्षण किया है। यहां 'अनवधारणं च तजज्ञानमः - यह कर्मधारय समास है। अर्थात् अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय कहलाता है । यद्यपि यह लक्षण व्याघात दोष से युक्त प्रतीत होता है, क्योंकि ज्ञानशब्द 'ज्ञायते प्रमीयतेऽवधार्यतेऽर्थोऽनेन' इस व्युत्पत्ति से तथा 'ज्ञानं मोक्षककरणम्, मोक्षे धीनिम् इत्यादि वचनों से निश्चयज्ञानपरक हैं। तथापि यहां ज्ञान शब्द व्युत्पत्ति से निश्चयज्ञान का बोधक न होकर सामान्यतः ज्ञानवजातिभान् ज्ञानसामान्व का बोधक है, जैसे कि गो शब्द व्युत्पत्ति से गमनशील अर्थ का बोधक न होकर गोत्वजातिमान अर्थ का बोधक है । ज्ञानत्व जाति निश्चयात्मक तथा अनिश्चयात्मक दोनों ज्ञानों में समवेत है। अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय होता है - यह संशय का लक्षण मानने पर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में भी लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं है, क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी उससे होने वाली स्मृति के निश्चयात्मक होने से निश्चयात्मक ज्ञान है। 'यह वस्तु वहां नहीं है, इसके समान ही वह वस्तु है' - इत्याकोरक निश्चयात्मक स्मृति से यह स्पष्ट है कि जिस निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का यह स्मरण है वह भी निश्चयात्मक है । यद्यपि प्रथम क्षण में विशेषदर्शनादि निमित्त के बिना इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न होने वाले ज्ञान को संशयात्मक या निश्चयात्मक कहना संभव नहीं, अतः ज्ञान की अनवधारणात्मकता का निश्चय नहीं होने से 'अनवधारणज्ञानं संशयः' यह संशय-लक्षण अनपपन्न है, तथापि विशेषदर्शनादि कारणों के न होने पर भी अदृष्टादिसामग्री के कारण ज्ञान को संशयात्मक या निश्चयात्मक मानना पड़ता है। 1. सम्यग्ग्रहण संशयविपर्ययापोहार्थम् । -वही, पृ. १. 2. न्यायसार, पृ. १. 3. कोलोपनिषद, पृ. २, तान्त्रिक टेक्स्स , कलकत्ता । 4. अमरकोश, १८५।६. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ न्यायसार अन्यथा प्रथम ज्ञान को संशयात्मकता या निश्चयात्मकता के लिये विशेष-दर्शन को निमित्त मानने पर उस विशेष-दर्शन को अपनी निश्चयात्मकता अथवा संशयोत्मकता के लिये द्वितीय विशेष-दर्शन की तथा द्वितीय विशेष-दर्शन को अपनी संशयात्मकता अथवा निश्चयात्मकता के लिये तृतीय विशेषदर्शन की अपेक्षा होने से अनवस्थाप्रसक्ति होगी । अतः अदृष्टादि निमित्त से भी ज्ञान की संशयात्मकता अथवा निश्चयात्मकता माननी होती है । इस प्रकार प्रथम क्षणोत्पन्न ज्ञान भी अदृष्टादि निमित्त से संशयात्मक हो सकता है और अनवधारणात्मक ज्ञान संशय है, यह लक्षण उपपन्न हो जाता है। 'अनवधारणज्ञानं संशयः' इस लक्षण में किसी प्रकार का दोष नहीं है, अधिक की आवश्यकता नहीं, तथापि इससे सूत्रकारकृत समानानेकधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः' इस सूत्र को अनर्थकता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि यह सूत्र संशय के विभाग और विशेष लक्षणों के बोधन के लिये है। भासवज्ञ ने भी 'स च समानधर्मानेकधर्मविप्रति. प्रत्युपलब्ध्यनुपलब्धिकारणभेदात् पंचधा भिद्यते ५ यह कहकर उपर्युक्त तथ्य को स्पष्ट कर दिया है। समानधर्म या अनेक-धर्मादि की उपलब्धिमात्र से संशय लोक में नहीं होता, फिर सत्र में समानधर्मादि की उपलब्धि को संशय को कारण कैसे बतलाया गया है, इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि समानधर्मादि संशय के सामान्य कारण नहीं, अपि तु इनका निर्देश संशय के विशेष कारण के रूप में किया गया है । अर्थात् संशयसामान्य के ये कारण नहीं, किन्तु संशयविशेष के कारण हैं और इन असाधारण कारणों का निर्देश संशय को समानजातीय अन्य संशयों से व्यावृत्त करने के लिये है। तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु के असाधाण कारण का कथन उस वस्तु को समानजातीय वस्तुओं से व्यावृत्त करता है और उसके सामान्यकारण का कथन विजातीय वस्तुओं से । जैसे-इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्न प्रमा प्रत्यक्ष प्रमा है। यहां पर इन्द्रियार्थसन्निकर्षरूप असाधारण कारण का कथन प्रत्यक्ष प्रमा को सजातीय अनुमित्यादि प्रमाओं से व्यावृत्त करता है तथा 'प्रमा' यह सामान्यलक्षण प्रत्यक्ष प्रमा को विजातीय संशयविपर्ययादि से पृथक् करता है । अनुमित्यादि ज्ञान प्रमात्वेन प्रत्यक्ष प्रमा के सजातीय हैं और संशय-विपर्यय ज्ञान अप्रमात्वेन प्रत्यक्ष प्रमा के विजातीय हैं। इसी प्रकार संशय के लक्षण में भी 'अनवधारणज्ञानं संशयः' यह सामान्य लक्षण संशय का प्रमाज्ञान से व्यवच्छेद बतलाता है तथा समानधर्मादि की उपलब्धिरूप विशेष कारणादि का कथन एक संशयज्ञान को दूसरे संशयज्ञान से भिन्न बतलाता है । 1. न्यायसूत्र, ११११२३ 2. न्यायसार, पृ. १. 3. वही, पृ. १. 4. न्यायभूषण, पृ. १४. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण २५ सत्रकार ने 'उपलमध्यनुपलब्ध्यव्यवस्था' इत्यादि का उपादान कुतर्करूप आशंका का परिहार करने तथा सहकारियों के उदाहरण के लिये किया है, न कि इसके द्वारा संशय की सम्पूर्ण सामग्री का उपस्थापन किया गया है, क्योंकि इनसे भिन्न भी अदृष्ट, अन्तःकरणादि संशय को सामग्री है, जिसका यहां अभिधान नहीं किया गया है, । जैसे--कोई व्यक्ति यह कहे कि समानधर्मोपलम्भ संशय का कारण नहीं, क्योंकि समानधोपलम्भ होने पर भी रास्ते चलते हुए पुरुष को तृणादि में संशय नहीं होता । इसका उत्तर यही है कि केवल समानधर्मोपलब्धि ही संशय में कारण नहीं है, किन्तु विशेष धर्मों को स्मृतिरूप आकांक्षा भी संशय में कारण है। समानधर्मोपलब्धि विशेषाकांक्षा के अभाव में संशय की जनक नहीं है, तो उसे कारण कैसे माना जायेगा, यह कथन उपयुक्त नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सहकारि कारण के अभाव में किसी भी कारण के कार्य का जनक न होने से उसमें अकारणतापत्ति दोष आयेगा । इसी प्रकार दूरस्थ प्रियतमा में समानधर्मोपलब्धि तथा विशेषाकांक्षा होने पर भी संशय क्यों नहीं होता? इस शंका के निवारणार्थ 'उपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातः' यह पद दिया गया है। अर्थात् केवल समानधर्मोपलब्धि और विशेषाकांक्षा ही संशय में कारण नहीं है, किन्तु उपलब्धि तथा अनुपलब्धि को अव्यवस्था भी कारण है । दूरस्थ प्रियतमा में इन कारणों के न होने से संशय नहीं हो रहा है, क्यों यदि विद्यमान प्रियतमा की उपलब्धि के समान अविद्यमान प्रियतमा की उपलब्धि होती, तो उपलभ्यमान प्रिया में संशय हो सकता था । जैसे-सज्जल तथा मृगमराचिकारूप असज्जल दोनों की उपलब्धि होने के कारण सत् की ही उपलब्धि होती है, इस व्यवस्था के न होने से वहां संशय बन जाता है। इसी प्रकार वेग से जाते हुए मनुष्य को पनसादि वृक्षों में वृक्षत्व की उपलब्धि और उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था होने पर भी विशेषकांक्षा न होने से संशय नहीं होता है। अतः सकलसहकारियुक्त समानधर्म ही संशय में कारण है न कि एक सहकारी से युक्त । यद्यपि उपर्युक्त सहकारियों से भिन्न अष्टादि भी संशय में सहकारिकारण हैं, तथापि वे सभी कार्यों में सहकारी हैं. उनका उपादान न करने पर भी उनमें सहकारिकारणता प्राप्त है । अतः सत्र में सहकारिकारण रूप से उपादान नहीं किया गया है। संशय के सामान्यकारणों के निर्देश के पश्चात् सत्र में निर्दिष्ट संशय के विशेष कारणों के निर्देशपूर्वक संशय के भेदों का निरूपण किया जा रहा है। १ समानधर्मोपलब्धि सूत्र में समानधर्मपद मे 'समानश्चासौ धर्मः' तथा 'समानानां धर्मः' इस प्रकार कर्मधारय तथा षष्ठी तत्पुरुष दोनों समासे का अवलम्बन है । 'समानश्चासौ I. न्यायभूषण, पृ. १४. 2. वही. भान्या-४ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ न्यायसार धर्मः' इस कर्मधारय समास से दो वस्तुओं में पृथक्-पृथक् विद्यमान सहश परिणा. मादि धर्मों का ग्रहण है तथा षष्ठो तत्पुरुष से दोनों वस्तुओं में अभिन्नरूप से विद्यमान सामान्य अवयवसंयोगादिलक्षण धर्मो का ग्रहण है । जसे - स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इस संशयोदोहरण में स्थाणु तथा पुरुष में विभिन्न रूपेण विद्यमान समान परिणाम आदि समान धर्मो की तथा स्थाणु और पुरुष दोनों में विद्यमान एक ही अवयव. संयोगादिरूप सामान्य धर्म को उपलब्धि है। २ अनेकधर्मोपलब्धि अनेकधर्मोपलब्धि अनवधारण का कारण होती है । अनेकधर्म पद में 'अनेकस्माद् व्यावर्तको धर्मः, अनेकस्यासम्बन्धी वा अनेकस्मिन् प्रतिषिद्धो वा अनेकप्रत्यय. हेतुर्वा धर्मः 1 इस प्रकार से अनेकधा मध्यमपदलोपी समास है । सभी समासों द्वारा वस्तु के असाधारण धर्म का लाभ है । जैसे-'आकाशविशेषगुणत्व' शब्द का असाधारण धर्म है, जो कि उसे अनित्यपृथिव्यादि से तथा नित्य आत्मादि से पृथक करता है। यद्यपि यह असाधारण धर्म संशय का कारण नहीं बन सकता, क्योंकि संशय में विशेष की अपेक्षा है अर्थात विशेष स्मरण को भी कारण मान गया है और असाधारण धर्म यदि परस्पर विरुद्धविशेष प्रथिव्यादि तथा आत्मादि पदार्थो के साथ रहता हो, तो उससे उनका स्मरण होकर संशय में वह कारण बन सकता है, किन्तु वह उन विरुद्धविशेषों के साथ रहता नहीं। अतः विरुद्धविशेषों का स्मारक न होने से सशय में कारण कैसे हो सकता है ? दूसरी बात यह है कि असाधारण धर्म से संशय को निवृत्ति होती है न कि उद्भव । यदि असाधारण धर्म संशय में कारण होता, तो वह संशय का निवर्तक कैसे बनता? अतः असाधारण धर्म संशय का कारण नहीं बन सकता, ऐसा प्रशस्तपाद का कथन है। - इसका समाधान यह है कि असाधारण धर्म भी विरुद्वविशेषों को स्मृति कराकर संशय का कारण बन सकता है । जैसे-शब्द आकाशविशेषगुणत्व धर्म के कारण अनित्य घटादि तथा नित्य आत्मादि दोनों से भिन्न है । अतः शब्द नित्य आत्मादि से व्यावृत्त होने के कारण घटादि की तरह अनित्य है अथवा अनित्य घटादि से व्यावृत्त होने के कारण आकाशादि की तरह नित्य है। नित्यत्व अनित्यत्व रूप दो विरोधी धर्मों का एक अधिकरण शब्द में संभव नहीं, अतः उपर्यत रीति से आकाशविशेषगुणत्व धर्म शब्द में नित्यत्व व अनित्यत्व रूप संशय का जनक हो जाता है। असाधारण धर्म को संशय का कारण मानने पर संशय की निवृत्ति नहीं होगी-यह कथन भी संगत नहीं क्योंकि शब्द में कृतकत्वादि विशेषधर्मो के ज्ञान से संशय को निवृत्ति बन सकती है। श्रावणत्वादि की तरह कृतकत्वादि विशेषधर्म को शब्द के नित्यत्व-अनित्यत्व संशय में कारण मानना संगत नहीं, क्योंकि कृतकत्वादि धर्म लोक में निश्चित रूप से अनित्यत्व सहचारी घटादि में ही उपलब्ध है। 1 न्यायभूषण, पृ. १५. 2. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९५. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण २७ अथवा अनेक धर्म पद में 'अनेकश्चासौ धर्मः' यह कर्मधारय समास मानने पर वस्तु में विरुद्ध अनेक धर्मों की उपलब्धि सशय का कारण है, यह सिद्ध होता है। जसे मन क्रियावान् होने से क्रियावान् शरादि की तरह मूर्त है अथवा अस्पर्शवान होने से अस्पर्शवान् आकाश की तरह अमूर्त है, इस प्रकार मन में क्रियावत्व तथा अस्पर्शवत्व-इन विरुद्ध धर्मों को उपलब्धि से उसमें मूर्तत्व और अमूर्तत्व का सन्देह बन जाता है। क्योंकि दोनों विरुद्ध धर्मों का परस्पर व्याघात होने से उनकी एकत्र स्थिति संभव नहीं । मन में क्रियावत्व तथा अस्पर्शवत्त्व इन विरुद्ध अनेक धर्मो की उपलब्धि के सदा रहने से उसमें मूर्तत्व और अमूर्तत्व का सन्देह सदा ही बना रहेगा, यह शंका भी उचित नहीं, क्योंकि केवल वि द्ध अनेक धर्मों की उपलब्धि ही संशय में कारण नहीं, किन्तु उसके साथ उपलब्धि की अव्यवस्था आदि भी सहकार कारण है। उसके न होने से सर्वदा संशय नहीं हो सकता । क्रियावत्त्व तथा अस्पर्शवत्व-इन दो तुल्य बल वाले धर्मों की प्रक्ति मन में मूर्तत्व यो अमूर्तत्व के निर्णय की अनुत्पादिका है, न कि संशय की उत्पादिका -यह प्रशस्तपाद का कथन' भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि निर्णय का न होना ही संशय है । निर्णय के न होने पर अचेतन वुड्यादि की तरह मनुष्य बैठा नहीं रहता, किन्तु उसका पर्यालरोचन करता है और पर्यालोचन बिना संशय के नहीं हो सकता । किसी भी धर्म का निर्णय न होने पर अनध्यवसाय होता है, न कि संशय, यह कथन भी समुचित नहीं । क्योंकि जैसे अनेक धर्मों के होने पर निर्णय न होने से अनध्यवसाय माना जायेगा, तो दो विरुद्ध धर्मो की स्थिति भी वन्तु में किसी एक धर्म के निर्णय की अनुत्पादिक होने से अनध्यवसाय कोटि में ही आयेगी न कि संशयकोटि में, जबकि विरद्ध धर्मो की स्थिति को प्रशस्तपाद भी संशय का कारण मानते हैं । प्रशस्तपाद ने कर्मप्रकरण में यह प्रश्न उठाया है कि गमनत्व धर्म कर्मत्व का पर्यायवाची है अथवा कर्मत्व से भिन्न कोई सामान्य । उत्क्षेपणादि क्रियाओं में कर्मप्रत्यय की तरह गमनप्रत्यय के भी समान रूप से होने के कारण गमनत्व कर्मत्वपर्यायवाचो है, यह प्रतीत होता है और गमन को उत्क्षेपणादि की तरह गमनरूप विशेष संज्ञा से अभिहित किया गया है, इससे यह प्रतीत होता है कि वह उक्षेपणादि की तरह कर्मत्व से भिन्न अपर सामान्य है । इस प्रकार का संशय विरुद्धधर्मद्वय की स्थिति में प्रशस्तपाद ने बतलाया है तथा वक्ष्यमाण रीति से अनध्यवसाय भी संशय ही है, उससे भिन्न नही । अतः विरुद्धधर्मोपलब्धि की सरह अनेकधर्मोपलब्धि भी संशय का हेतु है यह सिद्ध हो जाता है । 1. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९३. 4. न्यायभूषण, पृ. १७. 2. न्यायभूषण, पृ. १७ 5. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. २५२, 3. प्रशस्तपादभाध्य, पृ. 1९२. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ न्यायसार ३ विप्रतिपत्ति विप्रतिपत्ति अर्थात् परस्पर विरुद्ध धर्मों के प्रतिपादक वाक्य भी संशय के कारण हैं । जैसे - नैयायिक इन्द्रियों को भौतिक मानते हैं और सांख्य दार्शनिक अभौतिक । यहां पर इन्द्रियों में भौतिकत्व तथा अभौतिकत्व-इन दो विरुद्ध धर्मों के प्रतिपादक-'भौतिकोनि इन्द्रयाणि,' 'अभौतिकानि इन्द्रियाणि-ये दोनों वाक्य इन्द्रियों में भौतिकत्व- अभौतिकत्व रूप संशय के उत्पादक हैं । परस्पर व्याहत वाक्य को सुनने वाले सभासद् को विशेषापेक्षा तथा उपलब्धि आदि की अव्यवस्थारूप सहकारिकारणों के सद्भाव में इन्द्रियाँ भौतिक हैं अथवा अभौतिक- यह सन्देह हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा शरीरादि से भिन्न है अथवा नहीं-इत्यादि भी विप्रतिपत्ति के उदाहरण हैं। उपलब्धि __ उपलब्धि भी संशय में कारण है । जैसे, तडागादि में विद्यमान जल की उपलब्धि होती है तथा मृग मरीचिकारूप अविद्यमान जलादि को भी । अतः जल की उपलब्धि से क्या यह जल विद्यमान है अथवा अविद्यमान-इत्याकारक संशय होता है। अनुपलब्धि इसी प्रकार अनुपलब्धि भी संशय में कारण है । जैसे, विद्यमान पिशाच की भी उपलब्धि नहीं होती तथा अविद्यमान शशशृंगादि की भी । अतः भूगर्भ में विद्यमान मूलक, कीलक, उदकादि की अनुपलब्धि से अनुपलभ्यमान मूल कीलकादि सत् हैं अथवा असत्-यह सन्देह उत्पन्न हो जाता है। भासर्वज्ञ ने संशयसूत्र में उपलब्धि तथा अनुपलब्धि पदों की तन्त्र द्वारा द्विग. वृत्ति मानकर उपलब्धि को पृथक् संशय का कारण माना है तथा उनको अव्यवस्था का विशेषण मानकर उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था को संशयसामान्य का सहकारिकारण भी माना है। अतः उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था सभी पांच प्रकार के संशयों में सहकारिकारण है। इसी प्रकार विशेषापेक्षा भो। इसलिये १. उपलब्ध्युपपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । २ अनुपलब्ध्युपपत्तरुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । ३ समानधर्मोपपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातों विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । ४. अनेकधर्मोपपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । ५. विप्रतिपत्तेरुपलभ्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण संशय की उपर्युक्त पंचसूत्री का निर्देश भासर्वज्ञ ने किया है। उपलब्धि-अनुपलब्धि की अव्यवस्था तथा विशेषापेक्षा-ये पांच प्रकार के संशयों में सहकारिकारण हैं । अतः उपलब्धि तथा अनुपलब्धि को संशयविशेष का कारण मानने पर जो कुछ वस्तु उपलब्ध अथवा अनुपलब्ध होगी, उन सभी में संशय की प्रसक्ति है, ऐसा वातिककार का कथन' असंगत हैं, क्योंकि केवल उपलब्धि तथा अनुपलब्धि ही संशय के कारण नहीं हैं, अपितु उनके साथ उपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्था तथा विशेषापेक्षा भी संशय के सहकारिकारण हैं । अतः उन सहकारिकारणों के न होने से सर्वत्र संशय की प्रसक्ति नहीं होती। उपलब्धि तथा अनुपलब्धि को संशय का कारण मानने पर उपलब्धिविनय वस्त में जहां सत्व तथा असत्व का सन्देह है, वहां उपलब्धित्व तथा अनपर सामान्य धर्म रहेगा, अतः इन दोनों का समानधर्म में ही अन्तर्भाव हो जायेगा, पृथक् संशयकारण मानने की क्या आवश्यकता है ? इस विषय में भाष्यकार का कथन है कि समानधर्म तथा अनेक धर्म ज्ञेय वस्तु में रहते हैं और उपलब्धि तथा अनुपलब्धि ज्ञाता के धर्म हैं। इस प्रकार ज्ञेयस्थता तथा ज्ञातृस्थता के भेद से उनका समानधर्म से पृथक् उपादान किया गया है। भासर्वज्ञ ने यहां अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि केवल ज्ञेयस्थता तथा ज्ञातृस्थता का भेद होने से ही इनका समान धर्म से पृथक प्रतिपादन नहीं किया है, किन्तु प्रयोजनवशात् ।' चार्वाकादि दार्शनिक स्वर्ग, अपूर्व, देवतादि की असत्ता उनको अनुपलब्धिमात्र से मानते हैं। इसी प्रकार मीमांसक उपलब्धिमात्र से शब्द में स्थायित्व मानते हैं और चार्वाक उपलब्धिमात्र से शरीर में चैतन्य की सत्ता मानते हैं, बौद्ध उपलब्धिमात्र से सामान्य आदि का आश्रय द्रव्य से अभेद मानते हैं । अतः उनके मत का निराकरण करने के लिये उपलब्धिमात्र और अनुपलब्धिमात्र को सन्देह का कारण कहा है । अर्थात् केवल उपलब्धि-अनुपलब्मिात्र से वस्तु का निर्णय नहीं होतो, अपितु सन्देह होता है। निष्कर्ष भासर्वज्ञसम्मत संशयनिरूपण से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि सन्देह का पांचविध्य न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के मत से बतलाया गया है । उद्योतकर के मतानुसार संशय समानधर्मज, अनेकधर्मज तथा विप्रतिपत्तिजन्य भेद से त्रिविध ही 1. न्यायभूषण, पृ. १८. 2. उपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थानात् संशयो भवतीति ब्रुवाणो लोकं बाधते । __ कथमिति ? यत्किञ्चित्यमुपलभते सर्वास्य संशयेन भवितव्यम् ।-न्यायवार्तिक, ११॥२३. 3. न्यायभाया, १११।२३. 4. न्यायभुषण, पृ. १८. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार है।' उपलब्धि तथा अनुपलब्धि से जन्य सम्देहय समानधर्मजन्य संशय में अन्त. भूत है । रहस्य यही है कि उपलब्धि-अनुपलब्धि का समानधर्म से भेद न होने पर सूत्रकार ने 'समानाने कधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तेरुपलभ्यनुपलब्ध्यव्यवरथातश्च.............' इस सूत्र में प्रयोजनवशात् उपलब्धि का पृथक् कथन किया है । सूत्रकार का अनुसरण करते हुए भासर्वज्ञ ने भो इनका प्रयोजनवशात पृथक् कथन किया है और वह प्रयोजन परपक्ष का प्रतिक्षेप है, जिसका निरूपण पहिले किया जा चुका है। उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था को संशयसामान्य में कारण मानना भासर्वज्ञ की अपनी विशेषता है, जिसका उल्लेख प्राचीन भाष्यकार, वार्तिककार आदि ने नहीं किया है तथा उपलब्धि व अनुपलब्ध का समान धर्म से पृथक् कथन क प्रयोजन परपक्षप्रतक्षेप भी इनकी अपनो विशेषता है। ऊह का संशय में अन्तर्भाव 'सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्' इस प्रमाण सामान्य के लक्षण में सम्यक् पद का व्यावर्त्य अह भी है । अतः व्यावय॑त्वेन प्रसक्त होने से स्वरूपज्ञानार्थ ऊह का निरूपण किया जा रहा है। ऊह तर्क का अपर पर्याय है, जैसा कि तर्क के 'अविज्ञाततत्त्वेऽथै कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तकं.' इस सौत्र लक्षण से ज्ञात होता है । नैयायिकों ने इस तर्क को प्रमाण का भेद माना है। न्यायसार में भासर्वज्ञ ने ऊह का 'बाह्यालीप्रदेशे पुरुषेणानेन भवितव्यमित्यूहः' यह लक्षण किया है । जयन्त ने भी ऊह का यही लक्षण किया है। संभवत भासर्वज्ञ ने उसी से प्रभावित होकर उसी लक्षण को अपना लिया है । उपर्युक्त ऊहलक्षण का स्पष्टीकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने 'न्याय भूषण' में कहा है कि संशय और निर्णय के मध्यकाल में होने वाली 'भवितव्यम' इत्याकारक प्रतीति ऊह है। यह ऊह अनवधारणात्मक ज्ञान होने से संशय में अन्तर्पत है । 'सम्यगनुभवसाधन प्रमाणम्' इस प्रमाणलक्षण में 'सम्यक्' पद का उपादान संशय और विपर्यय के निराकरण के लिये है, यह कहा है, न कि ऊह तथा अनध्यवसाय की निवृत्ति के लिये भी, क्योंकि वाह्याली प्रदेश में इस पुरुष को होना चाहिये' इत्याकारक ऊह तथा इस वृक्ष का क्या नाम है' इत्याकारक अनध्यवसाय भी अनिश्चयात्मक होने से 'अनवधारणज्ञानं संशयः' इस संशय-लक्षण 1. तत्र समानधर्मोपत्तोरनेकधर्मोपत्तोविप्रतिपत्तोश्च त्रिविध एव संशय इतरपदविशेषणाद् भवतीति सूत्राथ: ।--न्यायवार्तिक, 11 (२३. . 2. न्यायसूत्र, १४०. 3 न्यायसार, पृ. २. 4. यथा बायकेलिप्रदेसादाबूयत्वविशिष्टधर्मिदर्शनात पुरुषेणानेन भवितव्यमिति प्रत्ययः । -न्यायमंजरी, एत्तर भाग, पृ. १४५. 5. ऋश्वायमूहः? संशयनिणयान्तरालमावी भवितव्यात्मकः प्रत्यक्षः ।-न्यायभूषण, पृ २०, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण ३१ से आकान्त हैं ।' न्यायसूत्रकार ने भी इसी कारण से संशय में प्रमात्व का व्यावर्तन करने के लिये प्रत्यक्ष - लक्षण में 'व्यवसायात्मक' पद का प्रयोग किया है, ऊह तथा अनध्यवसाय की व्यावृति के लिये किसी अन्य पद का प्रयोग नहीं किया है. क्योंकि उनको भी ऊइ तथा अनध्यवसाय के अनिश्चयात्मक ज्ञान होने से उन दोनों की संशयान्तर्भूतता अभिप्रेत है । यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अनवधारणज्ञानरूप समानता के कारण ऊह, अनध्यवसाय तथा संशय - तीनों को यदि एक ही माना जायेगा, तो प्रत्यक्षादि चारों प्रमाणों को भी प्रमासाधनतारूप समानता के आधार पर एक ही मानना चाहिये । इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि प्रत्यक्षादि चारों प्रमाण प्रमासाधनत्वेन एक ही हैं, केवल प्रत्यक्ष प्रमासाधनत्वादि अवान्तर विशेषताओं के कारण उनमें भेदव्यवहार है. उसी प्रकार सशय, ऊह तथा अनध्यवसाय अवधारणात्मक होने से एक ही हैं, केवल अवान्तर भेद उनमें है । प्रमासाधनत्वेन प्रत्यक्षादि प्रमाणों के एक होने पर भी प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम की भिन्नता का व्यवहार समाप्त नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष व्यवहार का विशिष्ट निमित्त इन्द्रियार्थसंनिकर्ष अनुमान और आगम में नहीं है, इसलिये प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन प्रमाणों का अवान्तर भेद बना रहता है | " ऊह का संशय में अन्तर्भाव स्वीकार न करने वाले नैयायिकों तथा वैशेषिकों की यह आशंका है कि संशय 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक विकल्पात्मक कोटिद्वय का अवगाहन करता है, परन्तु ऊह में 'स्थाणुरयं पुरुषो वा' इत्याकारक पदार्थद्वयाश्रित विकल्पात्मकता का अभाव है । क्योंकि अश्ववाहूयप्रदेश में स्थाणु की संभावना अनुपपन्न है" इस बाधक प्रमाण से स्थाणुत्व - कोटि की आशंका जब निवृत्त हो जाती है, तब 'पुरुषेणानेन भवितव्यम्' इत्याकारक एककोटिक संभावनात्मक ज्ञान ऊह कहलाता है । अत इसे संशय नहीं माना जा सकता तथा पुरुषत्वसाधक शिरःपाण्यादिरूप साधक प्रमाण के अभाव से इसे निर्णय भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि निर्णय के लिये प्रतिपक्ष का निषेधमात्र ही अपेक्षित नहीं है, अपितु स्वपक्षसाधन भी जैसाकि सूत्रकार ने बतलाया है- संशयानन्तर स्वपक्ष की स्थापना तथा परपक्ष के निराकरण द्वारा जो अर्थविनिश्चय होता है, उसे निर्णय कहते हैं । ऊह में केवल परपक्षप्रतिषेध प्रतीत होता है, न कि पुरुषत्वरूप पक्ष का साधन । इसलिये ऊह निर्णय में अन्तर्भूत नहीं हो सकता । इसीलिये सूत्रकार ने संशय तथा निर्णय से इसका पृथक् कथन किया है । 1. अनवधारणत्वाविशेषादहा नध्यवसाययोर्नी संशयादर्थान्तरभावः । न्यायसार, पू. २. 2 न्यायभूषण, पृ ११. 3 तुरंगमाणां गमने योग्यदेशावमर्शतः । शैथिल्यात् स्थाणुकोटिर्हि नैव संभावनास्पदम् ॥ न्यायभूषण, पृ. २२. 4. बाधकप्रमणात् कोटयन्तराशंकायां निवृत्तायाम् । न्यायभूषण, पृ. २०. 5. विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः । न्यायसूत्र, ११११४१. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ न्यायसार उपयुक्त आशंकाओं का समाधान भासर्वज्ञ ने इस प्रकार किया है कि यह नियम नही कि संशय में विकल्पात्मक दो कोटियों का उल्लेख हो ही । विकल्पात्मक दो कोटियों के उल्लेख के बिना भी संशय होता है। जैसे- जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है, यह निश्चय कर अपनी मृत्यु के विशिष्ट काल को न जानता हुआ कोई सन्देह करता है कि मेरी मृत्यु कब होगी ? आज मृत्यु होगी या कलये दो कोटियां यहां अर्थतः प्राप्त हैं, किन्तु 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' की तरह उसका उल्लेख नहीं किया गया है । अतः जिस प्रकार 'मृत्युमें कदा भविष्यति ?' यह अविकल्पात्मक, संशय है, वैसे ही 'पुरुषेणानेन भवितव्यम' यह एककोदिक ऊह भी विकल्परहित संशय ही है । इसमें स्थाण्वादिपक्ष की उपेक्षा पुरुषपक्ष में अधिक कारणों के होने से द्रष्टा पुरुषपक्ष की संभावना करता है, किन्तु पक्षान्तरों का सर्वथा अभाव वहां नहीं बतलाया गया है । अतः पक्षान्तर की भी आशंका संभावित है और इस प्रकार अर्थतः वहां भी संशय की तरह द्विकोटिक ज्ञान है । दूसरी कोटि का सर्वथा निरास करने पर तो फिर ऊह संशय न रहकर निर्णय ही हो जायेगा क्योंकि समस्त पक्षान्तराभावोपलक्षित ऊर्ध्वत्वादि परुष का विशेष धर्म होकर निर्णय का निमित्त बन जाता है । इसलिये ऊह में कोट्यन्तर का स्पष्ट कथन भले ही न हो, परन्तु उसकी आशंका तो बनी रहती है । अन्तर इतना ही है कि ऊह में एक कोटि उत्कट होतो है और संशय में दोनों कोटियां समान ।' इसी आधार पर उसे संशय न मानना असंगत है। सूत्रकार द्वारा ऊह को पृथक् उपादान भी ऊह की संशय से पृथक्ता का साधक नहीं, क्योंकि प्रतिज्ञादि अवयवों के प्रमाणरूप होने पर भी जैसे परानुमितिप्रतिपत्यर्थ उनका प्रमाण से पृथक् कथन किया है तथा जिस प्रकार हेत्वाभासो का निग्रहस्थानों में अन्तर्भाव होने पर भी प्रयोजनमेद से उनका पृथक् कथन किया हैं उसी प्रकार संशय मे अन्तभूत होने पर भी प्रयोजनविशेष के लिये ऊहरूप तर्क को पृथक् कथन है। ऊह के पृथक् अभिधान का प्रयोजन वात्स्यायनआदि पूर्वाचार्यों ने ऊह का संशय से पृथक् कथन का प्रयोजन प्रमाणों का अनुग्रह माना है। भासर्वज्ञ के परवर्ती किरणावलीकार उदयन ने भी तर्क की प्रमाणानुग्रोहकता का निर्देश किया है तथा अनियत जिज्ञासा के विच्छेद से नियत 1. न्यायभूषण, पृ. २०. 2. सत्य, संशयतासाम्येऽप्यन्तरालिकभेदभाक् । ऊहोडयमुत्कट: कोटावेकस्या मस्तु का क्षतिः ।।-न्यायमुक्काबली, प्रथम भाग, पृ २२. 3. तर्कविविक्ते विषये प्रमाणानि प्रवर्तमानानि तर्केण अनुगृह्यन्ते इति पूर्वाचार्याः । -न्यायभूषण, पृ. २१, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण जिज्ञासा का जनन ही तर्क द्वारा प्रमार्णो का अनुग्रह बतलाया है। किन्तु भासर्वज्ञ ने वादादि में वादी, प्रतिवादी की प्रवृत्ति को तर्क को प्रयोजन मान है। तात्पर्य यह है कि कतिपय दार्शनिकों का कथन है कि नैयायिक की वादादि में प्रवृत्ति उचित नहीं है, क्योंकि विचारक की निश्चय के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती और इस साधन अथवा दूषण से मुझे प्रतिवादी को पराजित करना है. ऐसा निश्चय वादी को वादप्रवृत्ति से पूर्व नहीं होता, क्योंकि दूसरे के अभिप्राय को जानना अत्यन्त दुष्कर है । परीक्षित प्रज्ञा वाले पुरुष में भी कदाचित् उपाध्याय आदि द्वारा समझाये जाने पर अज्ञान या विरुद्ध ज्ञान देखा जाता है, यह वस्तुस्थिति है । अतः निश्चय के बिना वादी, प्रतिवादी की वादादि में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इस आशंका का परिहार करने के लिये भासर्वज्ञ ने वादादि में प्रवृत्ति के लिये तर्क की उपयोगिता मानी है । अर्थात् जिनमें जयपराजय-हेतुता प्रमाण से निश्चित हो अथवा तर्क से सुसंभावित (अनुगृहीत) हो, उन साधनों और दूषणों का नैयायिक को वादादि में प्रयोग करना चाहिए। उन्हीं से विजयसिद्धि और पराजयपरिहार संभव होते हैं। अर्थात् वादी तथा प्रतिवादी स्वपक्षसिद्धि के लिये तथा परपक्षखण्डन के लिये जिन साधनों और दूषणों का प्रयोग करना चाहता है, वे यद्यपि प्रमाण द्वारा निश्चित नहीं हैं, तथापि तर्क द्वारा कारणोपपत्ति से संभावित हैं, तो उनसे भी स्वविजय तथा परपराजय संभावित है। इस प्रकार तर्क वादादिप्रवृत्ति में कारण है । इसीलिये तर्क का पृथक् कथन किया है। इसी तथ्य का अपरार्क ने भी प्रतिपादन किया है । अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव वैशेषिक संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, स्वप्नभेद से चार प्रकार की अधिया मानते हैं। उन्होंने अनध्यवसाय को संशय से पृथक् माना है। किसी वृक्ष को देखने पर वृक्षसामान्य के व्याप्य आम्रपनसादि विशेष संज्ञाओं का स्मरण कर 'इस वृक्ष का क्या नाम है', इत्याकारक ज्ञान अनध्यवसाय कहलाता है, क्योंकि उसमें आम्रादि मंज्ञाविशेष का निश्चय नहीं है। इसे संशय में अन्तभूत नहीं 1. अनियतजिज्ञासाविच्छेदेन नियतं जिज्ञासाजननमनुग्रहः । सैव संभावनेत्युच्यते । -किरणापली, पृ. १७१. 2. जयपराजयहेतुत्वेन प्रमाणनिश्चितौ वा साधनोपालम्भी तर्कविषयीकृतौ वा वादादिषु नगायिके. नाभिधातन्यो ।-न्यायभूषण, पृ. २२. 3. वयं तु प्रतिपद्यामहे-त्रादादिप्रवृत्ति-विशेषणार्थः तक: पृथगुपदिष्टः।-न्यायभूषण, पृ. २१. 4. न्यायमुकावली, प्रथम भाग, पृ. २३. 5. तत्राविधा चतुर्विधा संशयविपर्ययानध्यवसायस्वप्नलक्षणा-प्र.पा.मा.. पृ. १३७, भान्या-५ नामि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार किया जा सकता, क्योंकि संशय में स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इस प्रकार दोनों विकल्प विशेषविषयक हैं, जबकि अनध्यवसाय में विशेषविषयक विकल्प न होकर 'इस वृक्ष की संज्ञा क्या है' ऐसा सामान्यरूप से अनिश्चयात्मक ज्ञान होता है। इसे संशय से पृथक् मानने में निम्नलिखित युक्तियां वैशेषिक ग्रन्थों में प्राप्त होती हैं :१. अनध्यवसाय प्रसिद्धार्थक तथा अप्रसिद्धार्थविषयक होता है, जबकि संशय प्रसिद्धार्थ विषयक ही होता है। २. प्रसिद्धार्थ का ज्ञान होने पर भी अनध्यवसाय देखा जाता है। जैसे. राजा का ज्ञान होने पर भी इस राजा का क्या नाम है', ऐसा नामविषयक अनध्यवसाय होता है। ३. संशय सामान्यधर्मोपलम्भ से उत्पन्न होता है, जबकि अनध्यवसाय सामान्य धर्मोपलम्भ के बिना भी होता है। ४, संशय उभयोल्लेखी होता है, जबकि अनध्यवसाय उभयोल्लेखो विकल्प के बिना भी 'किं संज्ञकोऽयं वृक्षः' इत्यादिरूप से होता है । ५. अनध्यवसाय में किमित्याकारक उल्लेख होता है, जबकि संशय में ऐसा उल्लेख नहीं होता । अतः अनध्यवसाय को संशय से पृथक् मानना चाहिये। भासर्वज्ञ ने वैशेषिक मत को निराकरण करते हुए ऊह की तरह अनध्यवसाय का भी संशय में अन्तर्भाव बतलाया है। उनका कथन है कि अनध्यवसाय उदाहरण 'किं संज्ञकोऽयं वृक्षः' प्रस्तुत किया गया है, वहां उस पुरोदृश्यमान पदार्थ को वृक्ष इस सामान्य संज्ञा के अतिरिक्त आम्र, पनस, आमलकादि में से कोई विशेष संज्ञा भी है। उन विशेष संज्ञाओं में से इस वृक्ष में कौनसी विशेष संज्ञा है, उसका ज्ञान न होने से तद्विषयक सन्देह होता है और उसी संशय को 'किसंज्ञकोऽयं वृक्षः?' इस रूप से व्यक्त किया गया है । पदार्थद्वय विषयक संशय में 'स्थाणुर्वां पुरुषो वा' इस रूप से विशेष विषय का उल्लेख संभव होने पर भो अनेककोटिक संशय में विशेषविषयक उरलेख संभव न होने से वहां सामान्यतः 'किमिदम्' इस प्रकार का ही उल्लेख किया गया है । जैसे, हजारों गायों के अधिपति को उन गायों की भद्रा, नन्दा आदि संज्ञाओ का ज्ञान होने पर भी 'तुम्हारी एक गाय ब्याई है' यह कहने पर 'कतमा गौः प्रसूता' अर्थात् कौनसी गाय ब्याई है, इत्याकारक ही संशय होता है, न कि भदा व्याई है या नन्दा इत्यादि विशेष विकल्पोल्लेखी संशय ।' अनध्यवसाय के सम्बन्ध में प्रशस्तपाद और व्योमशिवाचार्य के कथन का खण्डन करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है-'एतेन व्यासंगादर्थित्वाच्च इषुकारादीनामनध्यवसायः संशयान्तर्भावितो द्रष्टव्यः ।' 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक 1. गौः प्रस्तेति गोपालसामान्यवचनश्रुतेः । ___ कतमा गौः प्रसूतेति सन्देह इति लौकिका. न्यायमुक्तावलो, प्रथम भाग, पृ. २५. 2. न्यायभूषण, पृ. २३. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण विकल्पोल्लेखी संशयस्थल में भी 'न जानीमः किमिदम्' इस प्रकार का मानस उल्लेख होता ही है, अतः अनध्यवसाय में 'किमिदम्' इत्याकारक उल्लेख भी उसे संशय से पृथक् सिद्ध नहीं कर सकता ।' 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक संशय में जिस प्रकार स्थाणु व पुरुष दोनों में ऊर्ध्वत्व, परिणाहत्वादि सामान्य धर्मों का ज्ञान है, उसी प्रकार ‘किसंज्ञकोऽयं वृक्षः' इस अनध्यवसाय में भी आम्र, पनस, आमलकादि विविध संज्ञाविषयक संशयज्ञान का जनक पर्णशाखास्कन्धत्वादि सामान्यधर्म का ज्ञान विद्यमान है। संशय सर्वत्र प्रसिद्धार्थविषयक ही होता है, यह नियम भी नहीं, क्योंकि स्थाणुपुरुषस्थल में ही 'क्या यह पुरोदृश्यमान वस्तु स्थाणु है या एतत्समान कोई अन्य वस्तु है, ऐसा संशय होता है । अतः सविकल्पक तथा निर्विकल्पक दोनों ज्ञानों में अवान्तर भेद होने पर भी जैसे 'सम्यगपरोक्षानुभवसाधन प्रत्यक्षम्' इस प्रत्यक्षलक्षण के अनुगत होने से उन्हें प्रत्यक्ष ही माना जाता है उसी प्रकार अनवधारणत्वरूप समानता के कारण अनध्यवसाय भी संशय से भिन्न नहीं है। निष्कर्ष : वैशेषिक दार्शनिक उभयोल्लेखी विमर्श को संशय मानते हैं, जैसा कि प्रशस्तपादाचार्य ने कहा है-'कि स्यात् इत्युभयावलम्बी विमर्शः संशयः। संशय की तरह अनध्यवसाय उभयोल्लेखी नहीं होता, अतः वैशेषिक उसे संशय से पृथक् मानते हैं । भासर्वज्ञ ने तर्क के संशयान्तर्भाव-निरूपण में ही स्पष्ट कर दिया है कि संशय में दो कोटियों का उल्लेख अनिवार्य नहीं है। 'मृत्युमें कदा भविष्यति' इत्याकारक कोटिद्वयानवलम्बी संशय भी होता है। 'किमिदम' इत्याकारक उल्लेख के आधार पर भी अनध्यवसाय को संशय से पृथक् नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानस उल्लेख संशय में भी होता है। 1. न्यायमुक्कावली, प्रथम भाग, पृ. २५. 2. न्यायसार, पृ. २. 3. भासज्ञ के इस समाधान १२ प्रस्न अस्थित होता है। निर्विकल्पक तया सविकल्पक प्रत्यक्ष मे प्रत्यक्षलक्षण के अनुगत होने पर भी दोनों की अवान्तर भेद के आधार पर भिन्न भिन्न संज्ञा है, उसी प्रकार संशयलक्षण की अनध्यवसाय तथा ऊह मे' व्याप्ति होने पर भी अवान्तर भेद के कारण ऊह और अनध्यवसाय संज्ञाभेद उचित क्यों नहीं? समाधानअवान्तर भेद सविकल्पक और निर्विकल्पक प्रत्यक्ष मे है, न कि प्रत्यक्ष व सविकल्पक या निर्विकल्पक में । अतः सविकलक व निर्विकल्पक ज्ञानों का परस्पर भेद है, किन्तु प्रत्यक्ष से उनका भेद नहीं। उमी प्रकार अवान्तर भेद उह तथा अनध्यवासय ज्ञान में है, किन्तु संशय से उन दोनों का भेद नहीं है। दोनों ही अनवधारणतमक होने से संशयान्तर्गत है। अतः यह शंका निराधार है। 4. प्रशस्त्पादभाष्य, पृ. १... Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार भासर्वज्ञ के परवर्ती वैशेषिक दार्शनिक श्रीमद्वल्लभाचार्य ने अनध्यवसाय के संशयान्तर्भाव का खण्डन करते हुए कहा है- 'संशय एवायमिति भूषणः मैत्रम् | सामान्यतोऽवगते विशेषतोऽज्ञाते जिज्ञासते वाच्यविशेषे यदा किं शब्दाभिलापः तदानध्यवसायः । अव्यवस्थितनानावाचकवाच्यत्वप्रतिभासे तु संशय इति' ।' लीलावतीकारकृत अनध्यवसाय के संशयान्तर्भाव का यह प्रत्याख्यान भी निराधार है, क्योंकि अनध्यवसाय में भी संशय की तरह वस्तु का सामान्यधर्मपुरःसर ज्ञान है तथा करचरणादिमत्त्वादिरूप विशेषधर्मपुरःसर नहीं | तथा 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक संशय में भी 'किमिदम्' इत्याकारक मानस उल्लेख होता है, अतः यह भेदकथन निराधार है । ३६ विपर्यय-निरूपण महर्षि गौतम ने निम्नलिखित न्यायसूत्र में विपर्यय का मिथ्याज्ञान शब्द से निर्देश किया है ". 'दु' खजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः । "" आत्मादि अपवर्गपर्यन्त प्रमेयों में मिथ्याज्ञान की अनेकप्रकारता का संकेत करते हुए भाष्यकार ने उसके स्वरूपपरिचायक अनेक उदाहरण दिये हैं । जैसे- ' आत्मनि तावन्नास्ति, 'अनात्मनि आत्मेति इत्यादि । वार्तिककार ने विपर्यय का स्वरूप बतलाते हुए कहा है- 'अतस्मिंस्तदिति प्रत्ययः ।" अर्थात् भिन्न वस्तु में भिन्न वस्तु की प्रतीति विपर्यय है । जैसे, सर्प-भिन्न रज्जु में सर्पप्रतीति, रजतभिन्न शुक्ति में रजत को प्रतीति । आचार्य भासर्वज्ञ ने विपरीत अर्थ के निश्चय को अर्थात् भिन्न वस्तु में भिन्न वस्तु के ज्ञान को विपर्यय कहा है । जैसे- - एक चन्द्र में 'द्वौ चन्द्रौ' इत्याकारक ज्ञान । चन्द्रमा के एक होने पर भी तर्जनी से नेत्रपुत्तलिका को निष्पीडित करने से दो चन्द्रमाओं का अनुभव किया जाता है । चन्द्रमा के उत्तरकालभावी एकत्वज्ञान से चन्द्रद्वित्वज्ञान के बाधित होने के कारण उसकी विपर्यस्तता स्फुट है । यह जाग्रदवस्था का विपर्यय है । सोये हुए व्यक्ति का गजादिदर्शन भी विपर्यय है । यह स्वप्नावस्था का विपर्यय है ।" ' द्वौ चन्द्रौ' इस उदाहरण से विपर्यय का स्वरूप स्पष्ट हो जाने पर भी सोये हुए पुरुष का गजादिदर्शन1. न्यायलीलावती, पृ. ५७. 2. न्यायसूत्र, १११/२. 3. न्यायभाष्य, १/१/२. 4. न्यायवार्तिक, १|१|२. 5. मिध्याध्यवसायो विपर्ययः । न्यायसार, १२. 6. विपर्ययो द्विधा - अनुभूयमानारोपः स्मर्य्यमाणारोपश्च । - न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ६६. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमाणसामान्यलक्षण ૨૭ यह उदाहरणान्तर सभी प्रकार के विपर्ययों का संग्रह करने तथा मतान्तर का निषेध करने के लिये दिया गया है । अर्थात् एक चन्द्रमा में द्विचन्द्रत्वज्ञान से जागरणकालिक विपर्ययों का संग्रह हो जाने पर भी स्वप्नकालिक स्वप्नरूप विपर्यय का संग्रह नहीं होगा । अतः तत्संप्रहार्थ यह उदाहरण दिया गया है । स्वप्न के पृथक्ज्ञानत्व का निराकरण वैशेषिक स्वप्न को विपर्ययज्ञान से भिन्न मानते हैं, जैसा कि प्रशस्तपादभाष्य में कहा है- 'अविद्या चतुर्विधा संशयविपर्ययानध्यवसायस्वप्नलक्षणा' | किन्तु यहां 'सुप्तस्य गजादिदर्शनम्' को विपर्यय के उदाहरण रूप में प्रस्तुत करने से स्वप्न गजादि ज्ञान विपर्यय ही है, यह सिद्ध किया है । क्योंकि स्वप्न में गजादि के न होने पर भी गजादिज्ञान होना विपरीतार्थज्ञान ही है । इतना ही अन्तर है कि स्वप्नगजादिज्ञानरूप विपर्यय उपरत इन्द्रिय वाले तथा प्रलीनमनस्क पुरुषों को होता है और लोक में सवादिसंमत रज्जुसर्पादि विपर्ययज्ञानों में इन्द्रियों की उपरति तथा मन का प्रलय नहीं होता । अवान्तर वैधर्म्यमात्र के होने पर भी विपरीतार्थ का ज्ञान जामद्विपर्यय तथा स्वाप्नविपर्यय दोनों में समान है । अतः विपर्ययलक्षणाक्रान्त होने से स्वप्नज्ञान भी विपर्यय ही है । जिन स्वप्नज्ञानों में निश्चयात्मकता नहीं होती, उन ज्ञानों के अनवधारणात्मक होने से उनका संशय में अन्तर्भाव हो जाता है । कार्य संशय को देखकर कारण के सामर्थ्य का अवधारण किया जाता है, अतः स्वाप्नसंशय में समानधर्मादि का सम्यग् ज्ञान न होने से भ्रान्त समानधर्मादिज्ञान को भी संशय में कारण मानना पड़ता है । * इस प्रकार अनवधारणात्मक स्वप्नज्ञान का भी संशय में अन्तर्भाव है । अवधारणात्मक तथा विपरीत निश्चयात्मक स्वप्नज्ञान से भिन्न अनुभूत अर्थ का प्रकाशक स्वप्नज्ञान स्मरणकोटि में आ जाता है तथा स्वप्न में उपर्युक्त तीनों प्रकारों से भिन्न जो सम्यक् अनुभवात्मक स्वप्नज्ञान है, वह प्रत्यक्षप्रमारूप होने से प्रत्यक्ष 1. वैशेषिकदर्शन में स्वप्न को विपर्यय से पृथक् माना गया है । किरणावलीकार उदयनाचार्यने प्रशस्तपादप्रोत विपर्ययलक्षण में' ' प्रत्ययः शब्द से स्वप्न को व्यावृत्ति की है, क्योंकि प्रत्यय पद जागरावस्था के ज्ञान का बोधक है और स्वप्नगजा दिज्ञान जागरावस्था का ज्ञान नहीं है । इसीलिये उन्होंने कहा है ' प्रत्यय इति जागरावस्थात्वं तेन स्वप्नव्यवच्छेद इति । एतदुक्तं भवति अयथार्थ निश्चयात्मकं जागरावस्थाज्ञानं विपर्यय इति, लोके तथैव प्रसिद्धेः' (किरणावली, पृ. १७४ ) - 11 2. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १३७ 3. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. ६३ 4. तच्च समानधर्मादिज्ञानं सम्यग्वा भवतु भ्रान्तं वा इत्युभयथापि सहकारिसहकृतं संशयकारणत्वेनेष्यम्, कार्यदर्शनाद्धि कारणस्य सामर्थ्यमवधार्यत इति । - न्यायभूषण, पृ. २५. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ न्यायसार है । जैसे-सुखादि का संवेदन । इस प्रकार सभी स्वप्नादिज्ञानों का संशय, विपर्यय, स्मृति तथा प्रत्यक्ष प्रमा में अन्तर्भाव हो जाने से स्वप्नज्ञान को मंशय, विपर्यय, स्मृत्यादि से भिन्न मानना असंगत है। उपर्युक्त रोति से विपर्यय जामत्कालिक विपर्यय तथा स्वाप्न विपर्यय भेद से दो प्रकार का है। बाह्य तथा आध्यात्मिक निमित्तों के भेद से विपर्यय के अनेक भेद हो जाते हैं१. रज्जु में 'सर्प' इत्याकारक तथा स्थाणु में 'पुरुष' इत्याकारक विपर्यय सादृश्य.... हेतुक है। २ शुक्ल पट में रक्तादिज्ञान द्रव्यान्तरसंसर्गहेतुक है। ३. स्फटिकादि में रक्तादिज्ञान जपाकुसुपरूप उपाधिसंनिधानमात्र हेतुक है । ४ क्रमशः होने वाले कार्यों में योगपथ का ज्ञान आशुभाविताहेतुक है। ५. स्थिर पदार्थो में चलने का ज्ञान नावादियानगतिमूलक है। ६. इन्द्रजालादि का ज्ञान मन्त्र-औषधादिसामर्थ्य हेतुक है। ये भेद बाह्य-निमित्तप्रधान विपर्यय के हैं। १. चश्वरादे के पित्तादि से अभिभूत होने पर शंखादि में पीतिमा का ज्ञान, २. तिमिर दोष के कारण केशाभाव होने पर भी केशोण्डुक (केशसमूह) का ज्ञान तथा एक चन्द्र में अनेकत्व का अवभास, ३. संस्कारातिशय के कारण युवति आदि विषय के अभाव में भी युवति आदि का अवभास, ४. असत् शाख के अभ्यास से अश्रेयस् में श्रेयस्त्व का तथा माक्षााद के अनुपायों में उपायत्वज्ञान, ५. अदृष्टसामर्थ्य के कारण दिग्भ्रम, ६. निद्रासहित संस्कारातिशयादि से स्वप्नज्ञान । से विपर्ययज्ञान आध्यात्मिक निमित्तहेतुक हैं। स्मर्यमाणारोप विपर्यय के उदाहरण ‘सुप्तस्य गजादिदर्शनम्' का प्रयोजन जयसिंहसरि ने अविवेकख्याति (स्मृतिविप्रमोष), अख्याति, असख्याति, प्रसिद्धार्थकयाति. आमख्याति, अनिर्वचनीयख्याति, अलौकिकार्थख्याति-इन सात विपर्ययप्रकारों का निरास तथा स्वमतानुसार विपरीतार्थख्याति का प्रस्थापन माना है। विपर्ययज्ञान सभी दार्शनिकों को स्वीकृत है, किन्तु उसके स्वरूप में दार्शनिकों में परस्पर महान् वैमत्य है । क्योंकि विपर्यय में जिस वस्तु की प्रतीति होती है. उस प्रतीयमान वस्तु के स्वरूप को लेकर दार्शनिकों का मतभेद है और उसी के कारण विपर्यय के स्वरूप में भेद हो जाता है। प्रतीयमान वस्तु किसी के मत में 1. न्यायभूषण, पृ. २५-२६ - 2. न्यायतात्पर्य दीपिका, पृ. ६७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण ३९ असत् , किसी के मत में सत् , किसी के मत में अलौकिक, किसी के मत में प्रसिद्ध वस्तु तथा किसी के मत में अनिर्वचनीय आदि है । और इन्हीं आधारों पर असख्याति आदि नामों से दार्शनिकों ने उन्हें व्यवहृत किया है। भासर्वज्ञ ने 'न्यायभूषण' के “विपर्ययप्रकरण' में ८ प्रकार की ख्यातियों का प्रतिपादन किया है। उपर्युक्त सभी ख्यातियों को दो प्रधान विभागों में विभक्त किया जा सकता है-१ निरालम्बन ख्याति, २ सालम्बन ख्याति । जिसमें विपर्यय का कोई आलम्बन नहीं होता, अपितु बिना आलम्बन विपर्यय की प्रतीति होती है, उसे निरालम्बनख्याति कहते हैं । इस निरालम्बनख्याति को मानने वाले अख्यातिवादी माध्यमिक बौद्ध हैं । वे भ्रमज्ञान का कोई आलम्बन स्वीकार नहीं करते । दूसरी सालम्बन ख्याति है। इसमें भ्रमज्ञान का आलम्बन होता है, क्योंकि निरालम्बन ज्ञान नहीं होता । किन्तु उन आलम्बनों का भिन्न-भिन्न स्वरूप होने से यह सालम्बन ख्याति, असतख्याति, प्रसिद्धार्थख्यानि आदि भेद से ७ प्रकार की है । भ्रमज्ञान का विषय असत्पदार्थ है, ऐसा मानने वाले असख्यातिवादी माध्यमिकैकदेशी बौद्ध हैं । भ्रमज्ञान का आलम्बन प्रसिद्ध प्रतीयमान पदार्थ है, ऐसा मानने वाले प्रसिद्धार्थख्यातिवादी चार्वाक हैं। अलौकिक अर्थ भ्रमज्ञान का आलम्बन है ऐसा मानने वाले अलौकिकार्थख्यातिवादी भद्र उम्बेक आदि हैं। तत्ताज्ञानरहित रजत का स्मरण भ्रमज्ञान का आलम्बन है, ऐसा मानने वाले प्राभाकरमीमांसक हैं। रजतरूप ज्ञानाकार आत्मा ही भ्रम का आरम्बन है. ऐसा मानने वाले आत्मख्यातिवादी सौत्रान्तिक वैभाषिक बौद्ध हैं। सत और असत् से विलक्षण अनिर्वचनीय विषय ही भ्रम का आलम्बन है. ऐसा मानने वाले अनिर्वचनीय-ख्यातिवादी वेदान्तो हैं । विषय की अन्य रूप से प्रतीति भ्रम में होती है, ऐसा मानने वाले न्यायनिपुण नैयायिक हैं । स्वरूपज्ञानार्थ इन सभी ख्यातियों को यहां संक्षेप में निरूपण किया जा रहा है-- अख्याति माध्यमिक बौद्धों के अनुसार शुक्तिरजतादिभ्रमज्ञान का कोई भी आलम्बन नहीं है, क्योंकि रजतसत्ता को रजतज्ञान का आलम्बन मानने पर जल में जलज्ञान होने से वह सम्यगज्ञान होगा न कि भ्रमज्ञान । रजताभाव की वहां प्रतीति नहीं, अतः वह आलम्बन हो नहीं सकता । शुक्ति भी आलम्बन नहीं हो सकती, क्योंकि शुक्ति की प्रतीति मानने पर वह ज्ञान शुक्ति में शुक्तिविषयक होने से समीचीन ज्ञान होगा और अप्रतीयमानशुक्ति आलम्बन नहीं हो सकती । रजताकार से शुक्ति 1. Bhāsarva jña discusses 8 different theories regarding the status of the contect of erroneous judgment. This is rather interesting because Vacaspati Misra, in a similar context in Tātparyatıkā, mentions only 5 different theories or Khyatis. - "The Encyclopedia of Indian Philosophers, Vol. II (Summary of Nyayabhusana by B. K. Matilal), Matilal Banarasidass, Delhi, 1977, p. 411. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यायसार की भ्रम में प्रतीति होती है, यह कथन भी समीचीन नहीं, क्योंकि भिन्न वस्तु का भिन्नाकार से ग्रहण लोक में अनुभूत नहीं है, अन्यथा पट का भी घटाकार से ग्रहण होने लग जायेगा । अतः शुक्तिरजतादि ज्ञान सर्वथा निरालम्बन है । यही अख्याति है। किन्तु बौद्धों का भ्रमस्थल में निरालम्बनवाद सर्वथा असमीचीन है, क्योंकि किसी पदार्थ के आलम्बन न होने पर उस ज्ञान में रजतज्ञान, जलज्ञान इत्याकारक विशेषता की प्रतीति अनुपपन्न होगो तथा भ्रान्तिज्ञान को निरालम्बन मानने पर सुषुप्तिदशा से इसका कोई भेद न होगा। प्रतीयमान अर्थ से भिन्न कोई आलम्बन नहीं है, यह मानने पर प्रतीयमान अर्थ के आलम्बन होने से ख्याति को निरालम्बनता व अख्यातित्व का विघात होगा । अतः अख्यातिवाद अनुपपन्न है । असख्याति बौद्धैकदेशी भ्रमस्थल में असत्पदार्थ को आलम्बन मानता है, क्योंकि शुक्ति. रजतादिभ्रमस्थल में शुक्ति में रजत अर्थ की प्रतीति होती है और सत् रजतरूप अर्थ का शुक्ति में अभाव है । अतः असत् रजतरूप अर्थ को शुक्ति का आलम्बन मानने से इसे असख्याति कहना उचित है। किन्तु यह मत भी असमीचीन है, क्योंकि असत् आकाशकुसुमादि की प्रतीति लोक में अनुभूत नहीं है । अतः असत् की प्रोते मानना लोहानुभयविरुद्ध है तथा असत् अर्थ को भ्रम का आलम्बन मानने पर उसमें किसी प्रकार के वैचित्र्य की सत्ता न होने से भ्रम-ज्ञानों में अनुभूयमान वैचित्र्य की भी अनुपपत्ति होगी। प्रसिद्धार्थख्याति चार्वाक असत् को प्रतीते की अनुपपन्नता के कारण शुक्तिरजतादिभ्रमस्थल में प्रमागसिद्ध रजतादि अर्थ को ही उसका आलम्बन मानता है। क्योंकि भ्रम की निवृत्ति के बाद भ्रमस्थल में रजत को प्रतीति न होने से भ्रमकाल में भ्रमस्थल में रजता दे की प्रतीति अनुभवसिद्ध है। अतः उस काल में उसकी सत्ता मानना भी आवश्यक है, क्योंकि पदार्था की सत्ता प्रतीति से ही सिद्ध होती है। करतलादि के अस्तित्व में भी प्रतीति ही प्रमाण हैं । अतः प्रतीतिसिद्ध प्रसिद्ध अर्थ के भ्रम का आलम्बन न होने से वह शुक्तिरजतादि भ्रमस्थल में प्रसिद्धार्थरूयाति मानता है। किन्तु यह मत भो अविचारितरमणीय ही प्रतीत होता है, क्योंकि प्रमाणसिद्ध अर्थ की भ्रमस्थल में प्रतीति मानने पर समीचीन जलादिज्ञान की तरह मरीचिजल में भी प्रमाण-सिद्ध अर्थ की प्रतीति होने से वह समीचीन ज्ञान कहलायेगा न कि भ्रमज्ञान । तथा उत्तरकाल में उदक की प्रतीति न होने से उदक के अभाव में भी पूर्वकाल में प्रसिद्ध जलजन्य भूस्निग्धता का उपलम्भ होना चाहिए । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण अलौकिकार्थख्याति चार्वाकाभिमत प्रसिद्धार्थस्याति में उपर्युक्त दोष के कारण भट्ट उम्बेक भ्रमस्थल में अलौकिक अर्थ को प्रतीति मानते हैं। उनके मतानुसार भ्रमस्थल में शुक्तिरजतादिज्ञान में लौकिक रजत तो आलम्बन हो नहीं सकता, क्योंकि वहां उसका अस्तित्व नहीं है और बिना विषय के उसका मान या प्रतीति अनपपन्न है। स्थलों में अलौकिक अर्थ की प्रतीति मानना उचित है । लौकिक रजत के वहां न होने पर भी अलोकिक रजत का अस्तित्व वहां माना जा सकता है और वही भ्रम ज्ञान का आलम्बन है । यही अलौकिकार्थख्याति है । किन्तु यह मत भी समीचीन नहीं, क्योंकि वस्तु का अस्तित्व प्रमाणों से सिद्ध होता है। भ्रमस्थल में अलौकिक अर्थ किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है । प्रत्यक्षादिप्रमाणों से सिद्ध न होने पर भी विपर्यय प्रमाण से यह सिद्ध है. क्योंकि विपर्ययदशा में ही अलौकिक अर्थ की प्रतीति होती है, यह मानना भी उचित नहीं, क्योंकि अलौकिकार्थ को प्रमाणसिद्ध मानने पर सम्यग् रजतादिज्ञान की तरह उत्तरकाल में उसके बाध की अनुपपत्ति होगी। तथा विपर्यय को अलौकिकार्थसाधक प्रमाण भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह स्वयं उत्तरकाल में बाध्यमान है और बाध्यमान प्रमाण नहीं होता। स्मृतिप्रमोष अलौकिकार्थख्याति में उपर्युक्त दोषों का सद्भाव होने से प्रभाकर शुक्तिरजतादिस्थल में स्मृतिविप्रमोष मानता है ! अर्थात् शुक्तिरजतज्ञान रजत का स्मरणात्मक ज्ञान हैं, किन्तु दोष के कारण उस ज्ञान में तत्ता की प्रतीति नहीं होती है। अर्थात् 'तदरजतम्' इस रूप से उसकी प्रतीति नहीं होती, यही स्मृतिप्रमोष है। किन्तु यह मत निर्दुष्ट नहीं है, क्योंकि दोष के कारण रजतस्मरण में तत्तांश का प्रमोष हो जाने पर भी 'रजतम्' इत्याकारक ही प्रतीति होनी चाहिये न कि 'इदं रजतम्' इत्याकारक । लेशतः भी अपूर्व अंश की प्रतीति मानने पर स्मृतित्व की अनुपपत्ति होगी । इसीलिये 'सोऽयं देवदत्तः' इत्याकारक अपूर्वांशप्रतिभासी ज्ञान को प्रत्यभिज्ञा माना जाता है न कि स्मृति । मनोदोष के कारण स्मृति शुक्तिरूप अर्थ की रजताकार. रूप से प्रतीति कराती है, ऐसा मानने पर तो अन्यथाख्याति ही हो जायगी, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्याकारता से प्रतीति ही अन्यथाख्याति है। तथा भ्रम संस्कारहित केवल मनोदोषों से भी होता है । अतः विपर्यय को स्मृति मानना उचित नहीं । दूध तथा जल के मिल जाने पर जैसे उनकी भेदेन प्रतीति नहीं होती उसी प्रकार शुक्ति के इदमित्याकारक अनुभवज्ञान तथा 'रजतम्' इत्याकारक स्मृतिज्ञान की भेदेन प्रतीति न होकर 'इदं रजतम्' इस रूप से अभेदेन प्रतीति को भी स्मृतिविप्रमोष नहीं माना जा सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर दो भिन्न ज्ञानों की भान्या-६ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ न्यायसार अभेदेन प्रतीति अन्यथाख्याति ही हो जायेगी तथा दोनों ज्ञानों के अभेदज्ञान को स्मृतिविप्रमोष मानने पर 'इदं रजतम्' इस ज्ञान के उत्तरकालभावी 'नेदं रजतम्' इस ज्ञान की बाधकता अनापन्न होगी। क्यों के दोनों ज्ञानों के अभेदज्ञान का बाधक ज्ञान तो दोनों का भेद कराने वाला होना चाहिये, न कि रजत का निषेध कराने वाला । अतः स्मृतिविप्रमोष भी भ्रमस्थल मैं अनुपपन्न है। आत्मख्याति विज्ञानवादी, सौत्रान्तिक तथा वैभाषिक बौद्व भ्रमस्थल में आत्मख्याति मानते हैं । उनका कहना है कि 'रजतज्ञानम्,' 'जलज्ञानम्' इत्यादि विशिष्ट व्यवहारज्ञान में ज्ञानगत या अर्थगत विशेषता मानने पर ही हो सकता है । भ्रमस्थल में रजतादि की सत्ता न होने से उनको उस व्यवहार का प्रवर्तक नहीं माना जा सकता। स्मृत्युपस्थापित रजत पूर्वकालिक अनुभव का ही विशेषक हो सकता है, वर्तमानकालिक 'इई रजतम्' इस ज्ञान का नहों, क्योंकि उसका पूर्व अनुभवात्मक ज्ञान से ही सम्बन्ध है, वर्तमानकालिक रजतज्ञान से नहीं । शुक्तिका को भी भ्रमज्ञान का विशेषक नहीं माना जा सकता, क्यों क उसकी प्रतीति होने पर रजत की प्रतीति ही नहीं होगी। अतः अर्थ रजतज्ञानादिविशिष्ट व्यवहार का प्रवर्तक नहीं हो सकता । परिशेषात् ज्ञान को ही विशिष्ट व्यवहार का प्रवर्तक मानना होगा । भ्रमस्थल में ज्ञानाकार अन्तःस्थ रजत ही अनादिविद्योपप्लववशात् बाह्य की तरह प्रतीत होता है। चूंकि यह रजत ज्ञान से भिन्न वस्तु नहीं, अपितु ज्ञानाकार हो है और क्षणिक विज्ञान ही बौद्धमत में आत्मा होता है, इसलिये ज्ञानाकार रजत की प्रतीति ही आत्मख्याति शब्द से व्यपदिष्ट हुई है। यह मत भी अनुपपन्न है, क्योंकि प्रथम तो अर्थ ज्ञान के आकारविशेष नहीं, अपितु ज्ञान से भिन्न स्वतन्त्र हैं. यह अनुभवसिद्ध है तथा उपर्युक्त रीति से सभी अर्थो के ज्ञानाकार होने से ज्ञानाकारता का किसी भी ज्ञान में व्यभिचार न होने से ज्ञानों में बाध्यबाधकभाव को अनुपपत्ति होगी। इसी प्रकार रजतादि अर्थों को ज्ञानाकार मानने पर ज्ञान की सुखादि की तरह अन्तःसत्तो होने से बाह्यत्वेन उनकी प्रतीति तथा ज्ञाता की रजतादिग्रहण के लिये बहिःप्रवृत्ति नहीं बनेगी। .. अनिर्वचनीयख्याति वेदान्ती म्रमस्थल में अनिर्वचनीयख्याति मानते हैं। उनका कथन है कि बिना विषय के ज्ञान नहीं होता और जिस ज्ञान में जिस वस्तु की प्रतीति होती है, वही उसका विषय होता है, जैसे समीचीन ज्ञान में । भ्रमस्थल में 'इदं रजतम्' इस ज्ञान में रजत की प्रतीति होती है, अतः रजत को ही उस ज्ञान का विषय मानना होगा । किन्तु वह रजत सत् नहीं हो सकता, क्योंकि सत् होने पर वह ज्ञान भ्रम नहीं कहलायेगा और उत्तरकाल में उसका वाध नहीं होगा । असत् मानने पर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण ४३ आकाशकुसुमादि की तरह उसका प्रतीति अनुपपन्न होगो । विरोधी वस्तुओं का समुच्चय तमः प्रकाश की तरह अनुपपन्न होने से वह प्रतीयमान रजत सदसत् स्वरूप भी नहीं है । अतः उस प्रतीयमान रजत के स्वरूप का किसी भी प्रकार निर्वाचन संभव न होने उसे अनिर्वचनीय माना जाता है और वह अनिर्वचनीय रजत ही शुक्तिरजतभ्रमस्थल में रजतज्ञान का विषय है । इसी लिये भ्रमस्थल में अनिर्वचनीय पदार्थ की प्रतीति होने से इसे अनिर्वचनीयख्याति कहा जाता है । यह मत भी समीचीन प्रतीत नहीं होता, क्योंकि भ्रमस्थल में नियत देश, काल, स्वभाव वाले रजत की सद्रूप से हो प्रतोति होती है । इसीलिये रजतार्थी पुरुष की प्रवृत्ति उसके ग्रहग में होती है । सदसद्विलक्षग वस्तु की प्रतीति तथा उसके ग्रहण में मानव की प्रवृत्ति नहीं होती । विपरीतख्याति उपर्युक्त रीति से भिन्न-भिन्न दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत सभी ख्यातियों में दोष होने से न्यायनिपुण नैयायिक भ्रमस्थल में विपरीत ख्याति मानते हैं । विपरीत ख्याति का तात्पर्यविपरीत अर्थ की प्रतीति नहीं है, अपितु पुरोविद्यमान अर्थ की विपरीत रूप से प्रतीति है । अर्थात् शुक्तिरजतस्थल मैं पुरोवर्ती शुक्ति की शुक्तित्व रूप से विपरीत रजतत्वरूप से प्रतीति विपरीत ख्याति है । अन्य प्रकार से प्रतीति होने के कारण ही इसे अन्यथाख्याति भी कहा जाता है । इस मत में रजतज्ञान का आलम्बन तो शुक्ति ही है जो कि सत् हैं, किन्तु दोषवशात उसकी प्रतीति रजतरूप से होती है । माणसंख्या प्रमाणादि पोड पदार्थो के तत्वज्ञान से अपवर्ग की प्राप्ति होती है और ज्ञान के लिये प्रमाणों का विवेचन तथा परिज्ञान नितान्त अपेक्षित है, क्योंकि प्रमाण ही सम्यक् अनुभव के साधन हैं । तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के लिये प्रमाणादि की संख्या तथा उनके विशेष लक्षण की जिज्ञासा होने से प्रमाणों की संख्या का निरूपण किया जा रहा है, क्योंकि प्रमाण के सम्बन्ध में संख्यादिविषयक विप्रतिपत्ति होने के कारण प्रमाणों के लक्षण, संख्या, विषय तथा फल की जिज्ञासा स्वाभाविक है । धर्मोत्तर तथा शालिकनाथ ने भी प्रमाणों के सम्बन्ध में उपर्युक्त चार प्रकार की विप्रतिपत्तियों का उल्लेख किया है । ' 1 (A) चतुर्विधा चात्र विप्रतिपत्तिः संख्या - लक्षण - गोचर - फलविषया । - धर्मोत्तर प्रदीप ( न्याय बिंदु तया न्याय बिंदुटीका सहित), पृ. ३५. (B) स्वरू' संख्यार्थ फलेषु वादिभिः । यतो विवाद बहुधा वितेनिरे ॥ प्र. प्र., पृ. ३८. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ भ्यायसार भासर्वज्ञ को तीन प्रमाण मान्य हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम, न इनसे न्यून और न अधिक । अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत उपमानादि का उन्होंने इन तीन प्रमाणों में ही अन्तर्भाव कर दिया है । प्रत्यक्षकप्रमाणवादी चार्वाक के मत का खण्डन चार्वाकमतानुसार प्रत्यक्ष से भिन्न अनुमान प्रमाण न मानने पर इतरव्यावृत्ति अथवा व्यवहार लक्षण का प्रयोजन होता है - इस सिद्धान्त का व्याकोप होगा, क्योंकि इतरव्यावृत्ति व व्यवहार की सिद्धि अनुमान द्वारा ही होती है तथा विप्रतिपन्न, अप्रतिपन्न तथा संदिग्ध व्यक्तियों के बोधार्थ प्रेक्षावान् की प्रवृत्ति भी नहीं होगी, क्योंकि परपुरुषगत विप्रतिपत्ति, अप्रतिपत्ति तथा सन्देह के ज्ञान के बिना उनका बोधन संभव नहीं और उनका ज्ञान उनके वचन, चेष्टादि लिंगों के द्वारा अनुमेय ही है । अतः अनुमान को प्रमाण मानना आवश्यक है। प्रमाणसंप्लव तथा प्रमाण विप्लव 'त्रिविधं प्रमाणम्' इस वाक्य में प्रमाण शब्द में एकवचन का प्रयोग कहींकहों प्रत्यक्षादि तीनों प्रमाणों का विषय एक होता है, इस प्रकार प्रमाणसंप्लव का बोधन करने के लिये किया गया है । जैसे, अतिदूरस्थ पर्वतादि प्रदेश में आप्त. वचन के द्वारा मानव को अग्नि का ज्ञान होता है । वहीं पर कुछ पाप्त आने पर पर्वत में धूम को देखकर अनुमान द्वारा भी अग्नि का ज्ञान करता है तथा अतिसमीप पहुंचकर वह पर्वत-प्रदेश में प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा भी अग्नि का ज्ञान कर लेता है । इस प्रकार पर्वतप्रदेश में अग्नि का ज्ञान प्रत्यक्षादि तीनों प्रमाणों से होने से यहां तीनों प्रमाणों का संप्लव है ।' किन्तु 'प्रत्यक्षमनुमानमागमः' में तीनों प्रमाणों का व्यस्तरूप से अभिधान किया है। उससे ग्रन्थकार यह ध्वनित कर रहे हैं कि कहीं-कहीं पर तीनों प्रमाणों का संप्लव न होकर उनकी व्यवस्थिति अर्थात् पृथक्-पृथक् विषयता भी होती है। जैसे-'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इस श्रुतिवाक्य में अग्निहोत्र के द्वारा प्राप्तव्य स्वर्ग को ज्ञान न प्रत्यक्ष से होता है और न अनुमान से, क्योंकि स्वर्ग के लोकान्तरस्थ तथा शरीरान्तर द्वारा प्राप्य होने से वह चक्षुरादिरूप प्रत्यक्षप्रमाण को विषय नहीं है तथा उसके कार्य का यहां प्रत्यक्षज्ञान न होने से अनुमान प्रमाण का भी विषय नहीं है। किन्तु श्रुतिरूप आगम प्रमाण के द्वारा ही अग्निहोत्रसाध्य स्वर्ग का ज्ञान होता है । मेघगर्जना सुनने पर उससे मेघ का ज्ञान न चक्षुरादिरूप प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा ही होता है और न किसी आप्तवचनरूप आगम प्रमाण से, अपि तु 1 न्यायसार, पृ. २. 2 न्यायभूषण, पृ ८१-८२. 3 न्यायभूषण, पृ. ८२. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण ४५ मेघगर्जनरूप कार्य के द्वारा अनुमान प्रमाण से ही होता है। इसी प्रकार प्रत्यक्ष दृष्ट करपादादि का ज्ञान प्रत्यक्षरूप प्रमाण द्वारा ही होता है, क्योंकि प्रत्यक्ष द्वारा उनका ज्ञान हो जाने पर अनुमान व आगम प्रमाणो की आकांक्षा न होने से उनकी वहां प्रवृत्ति नहीं है । इस प्रकार प्रत्येक प्रमाण का पृथक्-पृथक् व्यवस्थित विषय भी होता है। जयन्त भट्ट ने भी भाष्यकार के इस प्रमाणसम्प्लव तथा प्रमाण. व्यवस्था का उल्लेख किया है । प्रमाणसंप्लवसंबन्धी बौद्धों की आशंका का निराकरण बौद्ध दो प्रकार का प्रमेय मानते हैं-स्वलक्षण और सामान्य । उनकी यह मान्यता है कि प्रत्यक्ष स्वलक्षणविषयक होता है, अर्थात् वस्तु का असाधारण स्वरूप प्रत्यक्ष का विषय होता है । वस्तुओं का समारोप्यमाण साधारण स्वरूप सामान्यलक्षण होता है। सामान्यलक्षण अनुमान के द्वारा ग्राह्य होता है । इस प्रकार प्रमेयानुसार प्रमाण व्यवस्थित विषयक हैं, उनका किसी भी विषय में संप्लव नहीं । अतः बौद्ध व्यवस्थित प्रमेयप्रमाणवादी कहलाते हैं। परमार्थिक और सांवृतिक-दो प्रकार की सत्ताओं को लेकर बौद्धों ने अपना समस्त वाग्व्यवहार माना है। जैसा कि कहा है-'द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना' : प्रत्यक्षप्रमाण पारमार्थिक है और अनुमान प्रमाण सांवृतिक है । स्वलक्षण तत्त्व पारमार्थिक है और सामान्य लक्षण काल्पनिक । प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण होने के कारण उसे पारमार्थिक कहते हैं और अनुमान का विषय सामान्य होने के कारण उसे सांवृतिक कहते हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि वस्तुदृष्टि से प्रमाण एकमात्र प्रत्यक्ष है, अनुमान नहीं, क्योंकि अनुमान का विषय कल्पना पर आश्रित है, वस्तु पर नहीं । 1 तदुदाहरणं तु भाष्यकार: प्रशित वान......, अग्निराप्तोपदेशात्प्रतीयतेऽमुत्रेति प्रत्यासीदता धूमदर्शनेन अनुभीयते प्रत्यासन्नतरेण उपलभ्यते इत्यादि क्वचित्त व्यवस्था दृश्यते यथा अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इत्यस्मदा देरागमादेव ज्ञानं न प्रत्यक्षानुमानाभ्याम्..., स्वहस्तो द्वौ इति तु प्रत्यक्षादेव प्रतीतिन शब्दानुमानाभ्यामिति, तस्मास्थितमेतत् प्रायेण प्रमाणानि प्रमेयमभिसंप्लवन्ते क्वचित्तु प्रमेये व्यवतिष्ठन्तेऽपोति ।-न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ ३३. 2 सामान्येन लक्षणं सामाम्यलक्षणम् । साधारण रूपमित्यथ:। समारोप्यमाणं हि रूपं सबल. बह्विसाधारणम् । तत् सामान्य लक्षणम् :-न्यायबिन्दुटीका, पृ. १५. 3 माध्यमिककारिका, २४१८. 4 शांकरवेदान्त संभवतः इन्हीं विचारों से प्रभावित होकर महावाक्यों को एकमात्र परमार्थिक प्रमाण और उनसे भिन्न प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, लौकिक शब्द और अर्थापत्ति-इनको व्यावहारिक प्रमाण मानता है । क्योंकि एकमात्र ब्रह्म वस्तु अवाधित तत्त्व है । अतः महावाक्य अबाधितविषयक है और प्रत्यक्षादि बाधितविषयक । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार - इनके विपरीत नैयायिक अव्यवस्थितप्रमाणवादी हैं। उनके अनुसार प्रमाणों का कहीं सम्लब तथा कहीं व्यवस्था ।' प्रमाणों के सम्बन्ध में इस मान्यता के औचित्य के लिये सूत्रकार का अवलम्ब लेते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है-'सूत्रकृताऽपि प्रमाणानां समस्तेनैकपदेनाभिधानादभिन्नविषयत्वं सूचितम्, बहुवचनेनाभिधानाद् व्यवस्थित विषयत्वं सूचितमिति' । अर्थात् सूत्रकार ने 'प्रमाण प्रमेय ..' इत्यादि दण्डकसूत्र में प्रमाणों का समस्त एकपद से अभिधान कर उनकी अभिन्नविषयता को सूचित किया है तथा 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि' इस सूत्र में बहुवचनान्त प्रयोग से प्रमाणों को व्यवस्थितविषयता का प्रतिपादन किया गया है। ऊपर यह बतलाया है कि प्रमाणों को संख्या व लक्षण नियत हैं। किन्तु लोकायत सूत्रों के व्याख्याकार उद्भट ने 'अथातस्तत्वं व्याख्यास्यामः,' 'पृथिज्यापस्ते जोवायुरिति' इन सूत्रों की व्याख्या अन्य प्रकार से करते हुए कहा है कि प्रमाण प्रमेयादि की संख्या व लक्षण का नियमन करना शक्य नहीं है । 5AB अतः पृथिवी, जल आदि चार ही तच्च चार्वाक मत में नहीं है, किन्तु इनसे भिन्न भी माने जा सकते हैं । द्वितीय सूत्र में 'इति' पद पृथिव्यादि चार तत्त्वों से भिन्न इसी प्रकार के अन्य तत्त्वों का भी बोधक है। इस तरह पृथिव्यादि प्रमेयों की संख्या का नियमन जैसे अशक्य है वैसे प्रमाणों की संख्या का नियमन भी अशक्य है, इसका समर्थन करते हुए उसने कहा है कि अन्धकार में या नेत्रों का निमीलन करने पर मानव की विरल अंगुलि वाले हाथ में वक्रांगुलित्व का ज्ञान होता है । इस ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता, क्योंकि नेत्र मूंद लेने पर हस्त से चक्षु का सम्बन्ध नहीं है तथा घोरान्धकार में भी चाक्षुष प्रत्यक्ष संभव नहीं है, क्योंकि चाक्षुष प्रत्यक्ष में आलोकसंयोग भी कारण है और त्वगिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष इसलिये नहीं माना 3 सकता कि हस्तस्थ त्वगिन्द्रिय का विषय हस्त नहीं', अन्यथा चक्षु भी अपने का प्रत्यक्ष करने लग जायगी । अतः यहां हस्त में अंगुलिवक्रता के ज्ञान के लिये किसी प्रमाणान्तर की आवश्यकता है। इसी प्रकार रात्रि में दूर से दीपशिखा के देखने पर प्रान्तभागों में फैली हुई प्रभाओं की प्रतीति होती है और वायुप्रकम्पित कमलसमूह से दूरस्थगन्ध का ज्ञान होता है। यहां भी पर्यन्त देशप्रसृत प्रभा तथा गन्ध के साथ चश्मरादि इन्द्रियों का सम्बन्ध नहीं है। अतः इनके ज्ञान के लिये भी प्रमाणान्तर की आवश्यकता है, अतः प्रमाणों की इयत्ता संभव नहीं ।. 1. तस्मादस्ति कवचित संप्लवः क्वचिद् व्यबस्था चेति । -न्या. म. पृ. ८३. न्या. मू घृ. ८३. 2 न्या. सू ।।३. 3 (अ) चार्वाकधूर्तस्तु अथातस्तच्वं व्याख्यास्याम इति प्रतिज्ञाय प्रमाण रमेयसंख्या लक्षणनियमा शक्यकरणीयत्वमेव तत्वं व्याख्यातवान्, प्रमाणसंख्यानियमाशक्यकरणीयत्वसिद्धये च प्रमिति भेदान् प्रत्यक्षादिप्रमाणानुपजन्यानीदृशानुपादर्शयत /-न्यायमञ्जरी, पूर्वभाग, पृ. ५.. (ब) चार्वाकल स्त्विति उभटः,...! -न्यायमञ्जरी ग्रन्थिभङ्ग, पृ. १३. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्य लक्षण किन्तु जयन्त भट्ट का कथन है कि उपर्युक्त दोनों स्थलों में क्रमशः त्वाच प्रत्यक्ष तथा अनुमान द्वारा हस्त में अंगुलिवक्रता तथा प्रान्तभागप्रसृत प्रभा में कमलखण्ड का ज्ञान संभव है। क्योंकि नेत्र मूंद लेने पर करस्थत्वग्गत इन्द्रिय का हस्त से संयोग संभव न होने पर भी त्वगिन्द्रिय के सर्वशरीरव्यापि होने से शरीरान्तर्गत स्वगिन्द्रिय का हस्त से संयोग उपपन्न है और त्वगिन्द्रिय शरीरान्तर्गत भी है अत एव तुषारजल पीने पर शरीर के अन्दर शैत्य का ज्ञान होता है। यदि यह कहा जाय कि अंगुलियोग का तो त्वगिन्द्रिय से ज्ञान संभव है, क्योंकि वहां त्वगिन्द्रिय का अंलि से सयोग है, किन्तु अंगुलिवक्रताज्ञान विरलांगुलिस्व के कारण होता है और विरलांगुलित्व अंगुलिसंयोगाभाव है, उसके साथ त्वगिन्द्रिय का सम्बन्ध न होने से वक्रांतुलित्व-ज्ञान त्वगिन्द्रिय से कैसे होगा, यहां आशंका भी समुचित नहीं । क्योंकि 'यो गुणो येनेन्द्रियेण गृह्यते तेनैव तनिष्ठा जातिस्तदभावश्चापि गृह्यते' इस न्याय के अनुसार अंगुलि संयोग की तरह अंगुलिसंयोगाभाव का भी त्वगिन्द्रिय से ग्रहण शक्य है। अतः विरलांगुलित्वरूप अंगुलिसंयोगाभाव का ज्ञान त्वक् से हो जाता है। अंगुलिसंयोगाभाव का घोरान्धकार में त्वगिन्द्रिय द्वारा उपर्युक्त रीति से ज्ञान होने पर भी अंगुलिवक्रता का ज्ञान कैसे होगा, क्योंकि वक्रता केवल संयोगाभावरूप नहीं है, यह शंका भी अनुपपन्न है, क्योंकि अंगुलि. वक्रता अंगुलिगत क्रियाविशेष है। अतः उसका भी त्वगिन्द्रिय से ज्ञान शक्य है क्योंकि त्वक् और चक्षु स्वसम्बद्ध गुण की तरह स्वसम्बद्ध किया का भी प्रत्यक्षज्ञान करती है। अतः सन्तमस में अंगुलिवकता का ज्ञान त्वाच प्रत्यक्ष से संभावित होने से तदर्थ किसो प्रमाणान्तर की आवश्यकता नहीं । इसी प्रकार दूरसे दीपशिखा को देखने पर प्रान्तभागों में प्रसृत प्रभा तथा पवनकम्पित कमल का ज्ञान भी अनुमान प्रमाण से हो जाता है । अतः तदर्थ भी प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं। इसीलिये सभी पदार्थो का ज्ञान नियत प्रमाणों से उपपन्न हो जाने के कारण प्रमाणगत संख्या की अशक्यकरणीयता संभव नहीं और प्रमाणों की संख्या नियत है।। 1. न्यायमञ्जरी, पूर्वभाग. पृ. ६०. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षलक्षण - विमर्श प्रत्यक्ष सभी प्रमाणों का मूल होने के कारण सर्वप्रमाणोपजीव्य है तथा ज्येष्ठ भी है, अतः सर्व प्रथम उसीका निरूपण किया गया है । न्यायसम्प्रदाय में प्रत्यक्ष का इतिहास सुदीर्घ है । अक्षपादकृत प्रत्यक्षलक्षण में समय-समय पर संशोधन किया गया । पुरातन लक्षण में नूतन विचारों की उद्भावना की जाने लगी । भासर्वज्ञाचार्य ने पुरातन परिभाषा का पूर्णतया परित्याग कर प्रत्यक्ष प्रमाण का 'तत्र सम्यगपरोक्षानुभवसाधनम् प्रत्यक्षम् | यह नया लक्षण किया है । इसमें 'प्रत्यक्षम् ' लक्ष्य है और शेषांश लक्षण । सम्यक् पदवद् अपरोक्षपदस्याप्यनुभवपदेन कर्मधारयः ४. 1 " सर्वज्ञ के इस निर्देश के अनुसार 'अपरोक्षानुभव' में 'अपरोक्षश्चासौ अनुभव - ' इत्याकारक कर्मधारय समास है । उस अपरोक्षानुभव के साधन श्रोत्र, रसन, त्वक्, चक्षु, घ्राण तथा मन हैं, अतः उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाता है । यागादि भी सभीचीन अपरोक्ष वस्तु स्वर्गादि के साधन हैं, उनमें प्रत्यक्ष लक्षण की अतिव्याप्ति के निवृत्त्यर्थ लक्षण में अनुभव शब्द दिया गया है। धूमादि द्वारा पर्वत में वहूनि ज्ञानरूप अनुभव का साधन तो व्याप्तिज्ञानादिरूप अनुमान भी है. उसमें लक्षण की अतिप्रसक्ति के निवारणार्थ अपरोक्ष शब्द दिया गया है । संशय विपर्ययादिरूप प्रत्यक्षाभास में अतिव्याप्ति की निवृत्ति के लिये 'सम्यकू' शब्द दिया गया है । इस प्रकार सम्यक् अपरोक्षानुभव अर्थात् यथार्थ साक्षात्कार की सिद्धि जिसके द्वारा होती है, उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । C 'प्रत्यक्षम् ' में कौन सा समास है, इस विषय पर विचार करते हुए भासर्वज्ञ कहा है कि बौद्ध दार्शनिक दिङ्गनाग ने अक्षम् अक्ष प्रति वर्तते 25 ऐसा अव्ययीभाव समास माना है । किन्तु अव्ययीभाव समास मानने पर पंचमी, तृतीया तथा सप्तमी से भिन्न विभक्तियों को ' नाव्ययीभावादतोऽम् त्वपंचम्याः तथा 1. (अ) न्यायसार, पृ. २ (ब) उदयनाचार्यने संभवत: इसी से प्रभावित होकर प्रमा का लक्षण परिष्कृत किया है ' नितिः सम्यक् परिच्छित्ति: ' ( न्याय कुसुमांजलि, चतुर्थ स्तवक, कारिका ५ ) । इसका खण्डनकार ने खण्डन किया है । 2. न्यायभूषण, पृ. ८४. 3. न्यायप्रवेश, भाग १, पृ. ७ 4. पाणिनि सूत्र, २/४ / ८३ तृतीय विमर्श प्रत्यक्ष प्रमाण 74 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षलक्षण-विमर्श 'तृतीयासप्तम्योर्वहुलम् 1 इस सूत्रद्वयो से अम्भाव की आपत्ति होती है। ऐसी स्थिति में 'प्रत्यक्षस्य लक्षगम्', 'प्रत्यक्षो घटः', 'प्रत्यक्षा नारी' इत्यादि व्यवहार नहीं होगा। अतः 'प्रतिगतमक्षं प्रत्यक्षम' यह व्युत्पत्ति मानकर 'कुगतिप्रादयः सूत्र से प्रादितत्पुरुष समास उचित है । प्रादितत्पुरुष मानने पर भी 'द्विगुप्राप्तापन्नालम्पूर्वगतिसमासेषु प्रतिषेधो वाच्य.' इस वचन द्वारा परिवल्लिगता का प्रतिषेध हो जाने से 'प्रत्यक्षस्य लक्षणम्' 'प्रत्यक्षा पुरन्ध्री', 'प्रत्यक्षो घटः' इत्यादि सभी प्रयोग उपपन्न हो जाते हैं । प्रत्यक्ष शब्द के व्युत्पत्तिनिमित्त तथा प्रवृत्तिनिमित्त का भेद प्रत्यक्ष शब्द 'अक्षं प्रतिगतम्' इस व्युत्पत्ति से इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षज्ञानरूप फल, प्रत्यक्षसाधनभूत इन्द्रियसन्निकर्ष तथा प्रत्यक्षज्ञानविषय घटादि इन तीनों का बोधक है, क्योंकि तीनों ही अक्षाश्रित हैं। इनमें प्रत्यक्षज्ञान जन्यत्व सम्बन्ध से, इन्द्रिय संनिकर्ष सहकारित्व सम्बन्ध से तथा घटादिविषय विषयत्व सम्बन्ध से अक्षाश्रित हैं। प्रत्यक्षज्ञान के साधनभूत प्रत्यक्ष प्रमाण मैं अक्षसहकारित्वेत प्रत्यक्ष प्रवृत्ति मानने पर इन्द्रिय में प्रत्यक्षप्रमाणता की अनुपपत्ति है, क्योंकि सहकारी तथा सहकार्य के भिन्न होने से प्रत्यक्ष प्रमाण ही प्रत्यक्ष प्रमाण का सहकारी नहीं हो सकता । प्रमाण-सहकारी पदार्थ प्रमाण से भिन्न होता है क्योंकि प्रमाण-सहकारी उपकारक होता है तथा प्रमाण-सहकृत उपकार्य होता है तथा प्रमाता में भी अक्षसहकारिता के कारण प्रमाणत्व की अतिप्रसक्ति है। जन्यत्वसम्बन्ध से तथा विषयत्वसम्बन्ध से अक्षाश्रित को प्रत्यक्ष मानने पर मिथ्याज्ञानत्वेन प्रत्यक्षप्रमाभिन्न मंशय, विपर्यय तथा विषयत्वेन प्रमाभिन्न सुखादि के भी इन्द्रियजन्य होने से उनमें प्रत्यक्षप्रमाणत्व की आपत्ति है। इस शंका का समाधान करते हुए भासर्वज्ञाचार्य ने कहा है कि 'अक्ष प्रतिगतम्' यह प्रत्यक्ष का व्युत्पत्त्यर्थमात्र है. प्रवृत्तिनिमित्तरूप अर्थ नहीं । व्युत्पत्त्यर्थ तथा प्रवृत्तिनिमित्तरूप अर्थ भिन्न होते हैं, एक नहीं। अर्थात् शब्दों का व्युत्पत्त्यथ' भिन्न होता है और प्रवृत्तिनिमित्त अर्थ भिन्न । जैसे, गो शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ 'गच्छतीति गौः' इस व्युत्पत्ति से गमनकर्तुत्व है और प्रवृत्तिनिमित्त अर्थ सास्नादिमत्व या गोत्व जाति है। उन दोनों अर्थों में गोशब्दप्रयोग का कारण व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ नहीं, अपि तु प्रवृत्तिनिमित्तलब्ध अर्थ होता है। अतः आसीन गो में भी गोशब्द का प्रयोग होता है तथा चलते हुए पुरुष में भी गोशब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि गो में 1. पाणिनीसूत्र २/४/८४ 2. वही, २/२/१८ 3. कात्यायनवार्तिक, १५४५ 4. कथं पुनरक्ष' प्रतिगतम् ! तज्जन्यत्वेन तत्सहकारित्वेन तद्विषयत्वेन चेति । फलं तावदक्षजन्यत्वेन I प्रतिगतम्, फलसाधनं च तत्सहकारित्वेन, तदर्थस्तु तद्विषयत्वेनेति । -न्यायभूषण, पृ. ८४-८५. भान्या-६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० न्यायसार गोव जाति है, पुरुष में नहीं । इसी प्रकार अक्ष प्रतिगतम् ' अर्थात् किसी भी सम्बन्ध से अक्षाश्रितत्व प्रत्यक्ष शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण शब्दकी प्रवृत्ति में कारण नहीं । प्रत्यक्ष प्रमाण शब्द की प्रवृत्ति का कारण तो सम्यगपरोक्षानुभव साधनत्वरूप लक्षण है, वह इन्द्रिय में विद्यमान है, संशयादि मिथ्याज्ञान में सम्यगपरोक्षानुभवत्व नहीं, सुखादि में भी सम्यगपरोक्षानुभवविषयत्व है, सम्यगपरोक्षानुभक्त्व नहीं । अतः कहीं भी लक्षण की अतिप्रसक्ति नहीं हैं । प्रत्यक्षत्वादि के जातित्व की व्यवस्था उद्योतकर ज्ञान में परोक्षत्व और अपरोक्षत्व जाति नहीं मानते । किन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि ज्ञानों में परोक्षत्व और अपरोक्षत्र जाति को स्वीकार न करने पर परोक्षज्ञान, अपरोक्षज्ञान इस व्यवहार की अनुपपत्ति होगी । इन्द्रियार्थ संनिकर्षजन्यत्व अपरोक्षत्वव्यवहार का उपपादक नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान में अपरोक्षत्व जाति की सिद्धि के बिना इन्द्रियार्थमनिक र्षजन्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय के अतीन्द्रिय होने से इन्द्रियार्थसन्निकर्ष का प्रत्यक्ष ज्ञान तो हो नहीं सकता, किन्तु ज्ञानगत अपरोक्षत्र जाति का मानस प्रत्यक्ष होने से उसके द्वारा 'इदम इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यम्, अपरोक्षानुभक्त्वान्' इस प्रकार से उसका अनुमिति-ज्ञान होता है । जो जो अपरोक्ष अनुभव होता है, वह इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य होता है । इस प्रकार अपरोक्षानुभवत्व जाति के द्वारा ही इन्द्रियार्थ संनिकर्ष जन्यत्व की सिद्धि होती है ।" अतः प्रथम अपरोक्षानुभवस्व जाति मानना आवश्यक है और वही अपरोक्षत्वव्यवहार का प्रवर्तक है । अपि च, प्रत्यक्ष आत्मानुभव और लैंगिक आत्मानुभव का भेद ज्ञानगत परोक्षत्व तथा अपरोक्षत्व जाति माने बिना उत्पन्न नहीं हो सकता । निर्विकल्पक सविकल्पक-भेदविशिष्टार्थावभासित्व को ज्ञानगत धर्म मानकर उसीसे अपरोक्ष व्यवहार के उपपन्न हो जाने से अपरोक्षत्व जाति मानने की क्या आवश्यकता है, यह कथन भी समुचित नहीं, क्योंकि निर्विकल्पक सविकल्पक भेद विशिष्टार्थावभासत्व भी ज्ञानगत जातिरूप धर्म ही है ।" इसे जातिभिन्न ज्ञानधर्म मानने पर भी यह अपरोक्ष व्यवहारका निमित्त नहीं बन सकता, क्योंकि इस लक्षण की निर्विकल्पक सविकल्पकभेदरहिन विशेषमात्र के अवभासक अपरोक्षज्ञान में अव्यांप्ति है । अतः अपरोक्षत्र जाति को ही अपरोक्ष व्यवहार का निमच मानना होगा । सूत्रकार को भी प्रत्यक्षलक्षणसूत्रस्य 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न' पद से प्रत्यक्ष प्रमा की अनुभवत्वविशिष्टता और अपरोक्षत्वविशिष्टता हो अभिप्रेत है, क्योंकि 'अपरोक्षानुभवत्वजातिमत्त्वं प्रत्यक्षप्रमात्वम्' ऐसा प्रत्यक्षप्रमा का लक्षण मानने पर 1 उदूघोतकर इति प्राचीनटिप्पणम् । - न्यायभूषण, पृ. ८५. 2 न्यायभूषण, पृ. ८५. 3 ननु तमभ्यवभासित्वशब्दवाच्यं ज्ञानस्यजातिविशेषादन्य धर्म न पश्यामः । न्यायभूषण, पृ. ८६. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण ५१ उस जाति का मानस प्रत्यक्ष होने के कारण इन्द्रियार्थनिकर्षोत्पन्नत्व लक्षण उपपन्न हो जाता है। अन्यथा प्रत्यक्षप्रमारूप फल की सिद्धि न होने पर इन्द्रियार्थसन्निकर्षजस्व को असिद्धि हो जायेगी, कयोंकि इन्द्रियार्थसनिकर्ष अतीन्द्रिय होने से प्रत्यक्ष का विषय तो है नहीं, अपरोक्षानुभवत्वरूप जाति के द्वारा उसकी अनुभिति होती है। इसलिये भासर्वज्ञ का कथन है कि जैसे 'योऽयं शुकलो गच्छति स गौः'. 'यस्योपरि अयं छत्री पुरुषो दृश्यते, सोऽश्वः' इस्यादि शब्दप्रयोग कर देने पर भी अनन्य. साधारण गोत्वादि जाति को हो गौ का लक्षण माना जाता है, क्योंकि गमनक्रिया। विशिष्ट शुकल गुणवाली वस्तु गो से भिन्न पुरुषादिवस्तु भी हो सकती है। इसी प्रकार चक्षुरादि इन्द्रिय तथा घटादि अर्थ का सम्बन्ध होने पर 'घटोऽयम्' इत्याकारक जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है, ऐसा कथन करने पर भी सन्निकर्षजत्वेन उपलक्षित अपरोक्षानुभवत्र को ही प्रत्यक्ष का लक्षण मानना होगा, क्योंकी वही लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोष से रहित है। अतः इन्द्रियार्थसंनिकर्ष जन्यत्व को प्रत्यक्ष प्रमा का लक्षण स्वीकार नहीं किया जा सकता।' न्यायसूत्रकारकृत लक्षण का प्रयोजन यदि अपरोक्षानुभवत्व ही प्रत्यक्ष प्रमा का लक्षण है, तो सूत्रकारने साक्षात् इस लक्षण का कथन न कर इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यत्वरूप उपलक्षण के द्वारा उसका बोधन क्यों किया, इस प्रश्न का समाधान करते हुए भासर्वज्ञने कहा है कि प्रत्यक्ष के योगिप्रत्यक्ष व अयोगिप्रत्यक्ष इन दो भेदों का उपपादन करने के लिये प्रत्यक्षप्रमो का अपरोक्षानुभवत्वरूप लक्षण न कर इन्द्रियासंनिकर्षोत्पन्न ज्ञान यह लक्षण किय है। क्योंकि यह लक्षण योगप्रत्यक्षभिन्न अस्मदादिप्रत्यक्ष का ही है, अयोगिप्रत्यक्ष ही इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से उत्पन्न होता है । योगिप्रत्यक्ष तो बिना इन्द्रियार्थमनिकर्ष के भी होता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि प्रत्यक्ष योगिप्रत्यक्ष व अयोगप्रत्यक्ष भेद से द्विविध है। अपरोक्षोनुभवत्वरूप लक्षण उभयसाधारण है। इसीलिये उसके आगे दो भेद बतलाये गये हैं। प्रत्यक्षप्रमा के अपरोक्षानुभवत्त्वजातिमत्त्वरूप लक्षण का परित्याग कर सूत्रकार द्वारा 'इन्द्रियार्थसनिकर्षोत्पन्नं ज्ञानम्' इत्यादि लक्षण करने का अन्य कारण यह भी है कि बौद्ध क्षणभंगवाद की सिद्धि के लिये प्रत्यक्ष में इन्द्रियार्थसंनिकर्ष को कारण नहीं मानते, क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध मानने पर पदार्थों की स्थिति दो या तीन क्षणों तक अवश्य माननी होगी और इस प्रकार क्षणभंगवादसिद्धान्त उपपन्न नहीं होगा । अतः इन्द्रिय र्थसंन्निकर्ष मानने में बौद्धोंकी प्रतिपत्ति है। इस विप्रतिपत्ति का प्रदर्शन कर परीक्षा द्वारा उस विप्रतिपत्ति का निराकरण करने के लिये भी यह लक्षण किया गया है। 1. न्यायभूषण, पू ९३. 2. किमर्थ तर्हि तदेवा परोक्षानुभवत्वं न साझादुक्त मति ? प्रत्यक्षभेदज्ञानाथ' यदस्मदादिप्रत्यक्ष तदिन्द्रियाथ संनिकर्षनमेवेति वक्ष्यामः । -न्यायभूषण, पृ. ९४ 3. न्यायभूषण, पृ. ९४. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ प्रत्यक्षभेद निरूपण प्रत्यक्षप्रमाण के लक्षण के निरूपण के अनन्तर भासर्वज्ञने प्रत्यक्ष भेदों का निरूपण किया है । उनके अनुसार प्रत्यक्षप्रमाण योगिप्रत्यक्ष तथा अयोगिप्रत्यक्ष भेद से द्विविध है ।" प्रकारान्तर से भी प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं- एक निर्विकल्पक तथा दूसरा सविकल्पक | उन भेदों का 'न्यायसार' में ग्रन्थकार ने आगे उल्लेख किया है । 'तद् द्विविधम्, योगिप्रत्यक्षम्, अयोगिप्रत्यक्षं चेति' इस भेदनिरूपणपरक वाक्य में 'च' पद के द्वारा उन भेदों का भी संग्रह कर लिया गया है, ऐसा उन्होंने स्वोपज्ञ व्याख्या भूषण में स्पष्ट कहा है । " योगिप्रत्यक्ष विशिष्ट और प्रकृष्ट है, अतः उसका उद्देश्य यद्यपि अयोगिप्रत्यक्ष से पहिले किया गया है, तथापि सामान्यजनों से सम्बद्ध अयोगिप्रत्यक्ष की सिद्धि होने पर ही उसके दृष्टान्त के बलसे योगिप्रत्यक्ष को सिद्धि हो सकती है अतः अयोगिप्रत्यक्ष का निरूपण पहले किया गया है । " न्यायसार अयोगिप्रत्यक्ष प्रकाश, देश, काल तथा धर्म आदि निमित्तों से इन्द्रिय तथा अर्थ के संयोग, संयुक्तसमवायादि सम्बन्धविशेष से स्थूल अर्थ की ग्राहक इन्द्रियां अयोगिप्रत्यक्ष प्रमाण कहलाती हैं । यहां प्रकाश से प्रदीपादिप्रकाश तथा अभीष्ट इन्द्रिय के साथ मनःसम्बन्ध का ग्रहण है । देश पद से अव्यवहित, पुरोत्रर्ती देश का तथा काल पद से वर्तमान आदि काल का ग्रहण है । प्रदीपादि के अतिरिक्त धर्म-अधर्मादि भी प्रत्यक्ष के निमित्त हैं । इष्ट पदार्थ के ज्ञानमें धर्म निमित्त होता है । इन कारणों के अतिरिक्त महत्त्व, उद्भूतत्त्र, ईश्वरेच्छा आदि निमित्तों का भी आदि पद से ग्रहण है । प्रत्यक्ष प्रमा में इन्द्रिय साधकतम ( प्रकृष्ट साधन ) अर्थात् करण है. शेष कारण हैं । 'साधकतमं करणम् इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार क्रियासिद्धि में प्रकृष्ट उपकारक को करण कहते हैं और स्वव्यापार के बाद क्रिया की अवश्यंभाविनी सिद्धि ही करण की प्रकृष्टता है । प्रकृत में इन्द्रियां इन्द्रियार्थसंनिकर्ष रूप व्यापार के बाद प्रत्यक्षप्रमारूप क्रिया को अवश्य उत्पन्न कर देती हैं, अतः वे करण कहलाती हैं । इसीलिये 'व्यापारवदसाधारणं कारणं करणम्' ऐसा करण का लक्षण किया गया है । ' अर्थग्राहकम् ' इतना मात्र कह देने पर तो परमाण्वादि अर्थो में प्रत्यक्षता की प्रसक्ति होगी, अतः स्थूल पद दिया गया है । यहां परमाणु तथा द्वयणुक रूप अर्थ की 1. न्यायसार, पृ. २ 2. च शब्दात्सविकल्पनिर्विकल्पकभेदेनापि द्विविधमिति प्रत्यक्षम् । - व्यायभूषण, १.१०१. 3. न्यायभूषण, पृ. १०२. 4. तत्रायोगिप्रत्यक्ष प्रकारदेिशका लधर्माद्यनुग्रहादिन्द्रियाथ 'सम्बन्धविशेषेण स्थूलार्थ प्राहकम् | - न्यायसार, पृ. २ 5. तर्कसंग्रह, पृ. ३८ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ प्रत्यक्षलक्षण-विमर्श अपेक्षा से अर्थ में स्थूलता अभिप्रेत है, अन्यथा सूक्ष्म रूपादि का भी प्रत्यक्ष नहीं होगा। स्थूलार्थग्राहकता अनुमान प्रमाण में भी पाई जाती है, अतः अयोगिप्रत्यक्ष प्रमाण की अनुमान प्रमाण में होनेवाली अतिव्याप्ति के निराकरणार्थ लक्षण में इन्द्रियार्थसंनिकर्ष का समावेश किया है। अनुमान प्रमाण भी यद्यपि सम्बन्धविशेष के द्वारा ही साध्यधर्म की प्रतिपत्ति कराता है, तथापि अनुमितिस्थल में इन्द्रिय और साध्यविषय का सम्बन्ध स्थापित नहीं होता । अत: वहां अतिव्याप्ति नहीं है। द्रव्यप्रत्यक्षनिरूपण प्रत्यक्ष प्रमाण इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्धविशेष के द्वारा स्थूल अर्थ का ग्राहक होता है, अतः जिन सम्बन्धों से इन्द्रियां अर्थ ग्रहण करती हैं, वे सम्बन्ध संयोग, संयुक्तसमवाय आदि हैं । चक्षु तथा त्वम् इन्द्रिय संयोगसम्बन्ध से घटादि स्थूल द्रषों को ग्रहण करतो हैं । अर्थ को स्थूलता परमाणुसमूह से भिन्न अवयवी की सत्ता मानने पर उत्पन्न हो सकती है, अतः अवयत्री घटादि, अअयवरूपपरमाणुः समूह से भिन्न है, यह बतलाने के लिये टादि पद दिया गया है। 'आदि' का ग्रहण सामान्य जनों के इन्दिय के विषयभूत समस्त अश्यविसमुदाय का संग्रह करने के लिये है । घटादि अवयत्री का रूपादि से अर्थान्तरभाव ज्ञापित करने के लिये द्रव्य पद दिया गया है। अर्थात् इन्द्रिय के सम्बन्ध और असम्बन्ध से 'घटोऽयम्' इत्याकारक अवय वेविषयक ज्ञान का भाव व अभाव सबको होता है, जो रूपादिज्ञान से विलक्षण है। इस प्रकार घटादि का रूपा द से भिन्न रूप में ग्रहण प्रत्यक्ष से ही हो जाता है । घटादिगत जाति तथा गुणादि का प्रत्यक्ष ___ चक्षुरिन्द्रिय से संयुक्त घटादि व्यों में समवेत अर्थात् समवाय सम्बन्ध से वर्तमान घटत्वादि सामान्यों, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोगविभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग इन गुणों तथा कर्मो का चक्षु द्वारा संयुक्तसमवाय सम्बध से चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार द्रव्य के सगिन्द्रिय से संयुक्त होने पर त्वक्संयुक्त घटादि में समवेत उपर्युक्त घटत्वादि तथा संख्यादि का त्वगिन्द्रिय द्वारा संयुक्तसमकायसम्बन्ध से स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार घटत्वादि, संख्यादि का ज्ञान दोनों इन्द्रियों से होता है, किन्तु रूप, रूपत्व तथा रूपाभाव का ज्ञान केवल चक्षुरीन्द्रिय से और स्पर्श, स्पर्शत्व, स्पर्शाभाव का ज्ञान केवल त्वगिन्द्रिय से होता है। रूपादि-प्रत्यक्ष नियतेन्द्रिय जन्य है । चक्षु. रसन, घ्राण, स्पर्शन, श्रोत्र तथा मन से युक्तसमवाय सम्बन्ध से क्रमशः रूप रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द तथा सुखादि का 1. घटादि अवयवी की रूपादि से अर्थान्तरता का ज्ञापन बौद्धमत की अपेक्षा से किया गया है। बौद्ध गुणों से भिन्न द्रव्य नहीं मानते। उनके मतानुमार पृथिवी पांच गुणों का समूह है। इस प्रकार वे द्रव्य को गुणात्मक मानते है । गुणों से भिन्न कोई द्रव्य नहीं है, जैसाकि प्रज्ञाकरगुप्त ने कहा है-'तथा नास्ति द्रव्यं गुणव्यतिरिक्तम्' (प्रमाणवातिकालंकार, पृ. ५४४)। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ न्यायसार प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । नियतेन्द्रिय से अतिरिक्त इन्द्रिय से रूपादिज्ञान की उत्पत्ति के निषेधाथ मूल में चक्षुसैन आदि पदों में एव का उपादान किया गया है । रूपाविज्ञान में यद्यपि मनोव्यापार होने से मनः सम्बन्ध भी रूपादि के ज्ञान में कारण है, अतः 'चक्षुषव' इत्यादि अवधारणा की अनुपपत्ति है, तथापि चक्षुरिन्द्रिय का रूप से साक्षात् सम्बन्ध है, न कि मन का । तथा रूपज्ञान चाक्षुष है न कि मानस, ऐसा शब्द. व्यवहार होता है। अतः रूपज्ञान में चक्षु की प्रधानता होने से 'चक्षुबीव' ऐसा अवधारण किया गया है। ऐसी स्थिति रसादि झानों में है। बौद्धों की मान्यता है कि ज्ञान व सुख-दुःखादि दोनों ही आत्मनः संयोगरूप तुल्यकारगजन्य होने से दोनों अभिन्न हैं । अतः जैसे ज्ञान स्वसंवेद्य है वैसे सुखादि भी स्वसंवेद्य हैं, इसलिये उनका मन के स्वसमवाय-सम्बन्ध से ज्ञान मानना उचित नहीं । प्रमाणवातिक में धर्मकीर्ति ने इस सिद्धान्तका समर्थन किया है। सुखादि स्वसंवेद्य हैं, इस बौद्धमत का निराकरण करते हुए भूषणकार ने कहा है कि सुखादि स्वसंवेद्य नहीं हैं, क्योंकि उनमें ज्ञानरूपता सिद्ध नहीं होती। आत्ममन संयोगरूप. समानहेतुजन्यता ज्ञान और सुखादि की अभेदसाधि का नहीं हो सकती, क्योंकि जो तुल्यहेतु जन्य हों, वे अभिन्न हों इस नियम का पाकज रूप, रस गन्ध, तथा स्पर्श में व्यभिचार है । पाकज गन्धादि के अग्नि योगरूप तुल्य हेतु से जन्य होने पर भी उनमें भेद स्वीकृत है । स्वयं बौद्धमत में भी तुल्यहेतुजन्यता अभेदसाधिका नहीं है, क्योंकि घटादिभंगजन्य शब्द और कपालखण्डों के घटादिभंगरूप एक हेतु से जन्य होने पर भी शब्द की कपालादिखण्ड से एकरूपता बौद्ध भो स्वीकार नहीं करते । तथा ज्ञान व सुखादि को सर्वथा तुल्यहेतुजन्यता भी असिद्ध है। सुखादि में अभिलाषा और अनभिलाषा आदि प्रतिनियत निमित्त हैं, जबकि ज्ञान में ऐसा कोई प्रतिनियत निमित्त नहीं । आनन्द (सुख) व ताप (दुःख, का भेद प्रत्यक्षसिद्ध है, अतः उनको ज्ञान से अभिन्न नहीं माना जा सकता । अन्यथा सुख व दुःख दोनों के ज्ञानरूप होने से उनमें भी परस्पर भेद नहीं होता । संशय, विपर्यय व निर्णय में अवान्तर भेद होने पर भी उनकी ज्ञानरूपता की तरह सुख व दुःख में अवान्तर भेद होने पर भी उनको ज्ञानरूपता उपपन्न हो सकती है, यह कथन भी उपयुक्त नहीं, क्योंकि संशयादि में संशयो ज्ञानम्', 'विपर्ययो ज्ञानम्' इत्याकारक अनुगत प्रतीति के कारण उनको ज्ञानरूप मानने पर भी सुखादि में सुखं ज्ञानम्' इत्याकारक प्रतीति के अभाव से उन्हें ज्ञान मानना निराधार है, प्रत्युत सुखादि की ज्ञानविषयत्वेन प्रतीति है । अतः सुखादि ज्ञानरूप 1. न्यायसार, पृ. २. 2. तदतरूपिणो भावास्तदतद्र पहेतुजाः। ...तरसुख दि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्न हेतुजम् ॥ -प्रमाणवार्तिक, २/२५१. 3. त्वन्मतेऽपि घटादिभंगजः शब्दः कालखण्डादितुल्य हेतुजो न च तद्रप इत्यनेकान्तः । -न्यायभूषण, पृ. १५ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षण नहीं हैं । सुखादि को ज्ञानविषय मानने पर उनमें घटादि की तरह बाह्यता तथा सर्वसाधारणता को प्रतोति की आशंका भी निराधार है, क्योंकि सुखादि ज्ञान-विषय होते हुए भी घटादि की तरह बाह्य पृथिव्यादिभूतात्मक या उनमें समवेत नहीं हैं, किन्तु आत्मा में समवेत हैं। संख्यादि में समवेत संख्यात्व, एकत्वादि सामान्यों का प्रत्यक्ष संख्यादि के आश्रय की ग्राहक चक्षुरादि इन्द्रियों द्वारा संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध से होता है। अर्थात् 'एतेषु आश्रितानां' इतना ही न कहकर 'एतेषु संख्यादिषु आश्रितानाम्'1 कहने का अभिप्राय यह है कि संख्यादि गुणों में समवेत संख्यात्वादि सामान्यों का ही संयुक्त समवेतसमवाय सम्बन्ध से चक्षुरादि इन्द्रियों से ग्रहण होता है. न कि घटत्वादि में समवेत सामान्यों का, क्योंकि अनवस्था दोष के कारण जात में जात्यन्तर नहीं मानी जाती । __'संख्यादिषु' में प्रयुक्त आदि शब्द के द्वारा सखादिपर्यन्त सभी का ग्रहण है। अर्थात् संख्या द में आदि पद से परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग, कर्म रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द तथा सुखादि का समावेश किया गया है। संख्यादि में समवेत सत्ता, गुणत्व, संख्यात्व आदि सामान्य तथा सुखादि में समवेत सुखत्यादि सामान्यों का प्रत्यक्ष यहाँ गृहीत है। इनमें भी संख्या से लेकर कर्मपर्यन्त में समवेत सामान्यों का प्रत्यक्ष संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध के द्वारा चक्षु तथा त्वगिन्द्रिय दोनों से होता है। अर्थात् ये द्वीन्द्रियग्राह्य हैं। रूप में आश्रित रूपत्व सामान्य का चक्षुरिन्द्रिय से ही प्रत्यक्ष होता है, स्पर्श में आश्रित स्पर्शत्व सामान्य का स्पर्शन से ही प्रत्यक्ष होता है. गन्ध में समवेत गन्धत्व सामान्य का प्रत्यक्ष घ्राणेन्द्रिय से ही होता है, रस में आश्रित रसत्व सामान्य का रसनेन्द्रिय से ही प्रत्यक्ष होता है और सुखादि में समवेत सुखत्वादि सामाग्यों का प्रत्यक्ष मन द्वारा ही होता है । इसी प्रकार संख्यादि में रहने गली सत्ता और गुणत्व जाति का प्रत्यक्ष भी चक्षुरादि इन्द्रियों से संयुक्त समवेतसमवाय सम्बन्ध के द्वारा ही होता है। ये दोनों जातियां सभी गुणों में आश्रित रहती हैं, अतः इनका ज्ञान (प्रत्यक्ष) सभी इन्द्रियों से होता है। सभी गुणों, में 'सत् सत्' इस अनुगत व्यवहार के प्रत्यक्ष होने से गुणों में सत्ता जाति प्रत्यक्ष से सिद्ध है, किन्तु रूपादिगुणों में 'गुणः' इस अनुगत व्यवहार के अभाव में प्रत्यक्ष प्रमाण से गुणत्व जाति की सिद्धि न होने पर भी 'अस्पर्शवत्वे सति सामान्यवत्त्वे च सति द्रव्याश्रितत्वरूप अनुमान' से गुणत्व जाति की सिद्धि है।' भासर्वज्ञ के अनुसार कर्मवर्ग के भी गुणान्तभूत होने से इस अनुमान की कर्म में अतिव्याप्ति मानना असंगत है । गुणत्व के अनुमेय होने पर भी उसका प्रत्यक्षज्ञान पूर्वाचार्यों के अनुसार बतलाया गया है, क्योंकि उन्होंने गुणस्व का प्रत्यक्ष माना है। 1. न्यायसार, पृ. ३ 2. न्यायभूषण, पृ. १५८ 3. सन्द्रिय प्रत्यक्षं तु गुणत्वं पूर्वाचार्यैरिष्टम् । तच्च तथास्तु मा भूदू वेति, नात्र निर्बन्धोऽ. स्माकम्, प्रयोजनाभावात् । -न्यायभूषण, पृ. १५८ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार शब्द तथा शब्दत्वादि सामान्य का प्रत्यक्ष शब्द की उपलब्धि समत्राय सम्बन्ध से होती है, क्यों के कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न आकाशरूप श्रोत्र में शब्द समवाय सम्बन्ध से रहता है । शब्द में आश्रित शब्दत्व, वर्णव, कन्वादि सामान्य का प्रत्यक्ष समवेतसमवाय सम्बन्ध से होता है, क्योंकि श्रोत्ररूप आकाश में समवेत शब्द में शब्दत्व जाति का समवाय है, क्योंकि वह शब्द में समवाय सम्बन्ध से रहती है। . आकाश प्रत्यक्षसिद्ध न होने पर भी 'क्वचित्समवेतः शब्दो गुणत्वात् , रूपादिवत्' अर्थात् शब्द गुण होने के कारण रूपादि को तरह कहीं समवेत है, जहां समवेत है, वही आकाश है -- इस अनुमान प्रमाण से सिद्ध है। अतः चार्वाकादि का आकाश को न मानना उचित नहीं हैं। उपर्युक्त अनुमान में हेस्वसिद्धि नहीं है, क्योंकि 'गुणः शब्दः, सामान्यत्रत्त्वे सति सामान्यवदनाधारत्वात्, रूपादिवदिति' इत्याकारक अनुमान से शब्द में गुणत्व की सिद्धि हो जाती है । वासुदेव सूरि ने शब्द की गुणत्वसिद्धि के लिए निम्न हेतु प्रस्तुत किया है- 'शब्दो गुणः, सामान्यवत्त्वात् स्पर्शवत्वे सति अस्पदा दबाह्यै केन्द्रियग्राह्यत्वात् ।। यहां यह ध्यातव्य है कि भूषणकार द्वारा प्रस्तुत शब्द का गुणत्वसाधक हेतु वर्म में भी अतिव्याप्त हो जाता है। अतः उन्होंने शब्द में गुणत्वसिद्धि के लिए सामान्यवत्त्वास्पर्शकत्वे सति अस्मदादिबायकेन्द्रियग्राह्यत्वात्', यह हेतु प्रस्तुत किया है । भूषणकारोक्त गुण लक्षण की कर्म में अतिव्याप्ति का निवारण करने के लिए वासुदेव सूरि ने 'सामान्यवत्त्व कर्मव्यतिरिक्तत्वे सति सामान्यवतामनाधारत्वाद् वा इस दूसरे हेतु में 'कर्मव्यतिरिक्तत्वे सति' संयोजित कर दिया है। किन्तु वासुदेव सूरि का यह संशोधन उचित नहीं. क्योंकि भूषणकार कर्मवर्ग वा गुणसमुदाय में ही अन्तर्भाव मानते हैं। अतः वहां अतिव्याप्ति का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । किरणावलीकार उदयनाचार्य ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कर्मवर्ग को गुणवर्ग में संवेष्टित करने वाले गुणलक्षण की रचना के लिये भूषण कार को साधुवाद दिया है-'वरं भूषणः कर्मापि गुणस्तल्लक्षणयोगात । शब्द का द्रष्यत्वानुमान और उसका निरास शब्द का प्रत्यक्ष समवाय सम्बन्ध से होता है, क्योंकि वह गुण है और कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न ओकाश में समवाय सम्बन्ध से रहता है। इसी प्रसंग में भासर्वज्ञ ने शब्द के पराभिमत द्रव्यत्व का भी निराकरण किया है। अन्यथा उसका सम्बन्ध से प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ।। 1. न्यायसारपदचिका, पृ १३ । २. बही 3. कर्मवर्गोऽपि पंचविंशतितमो गुणभेदः एवास्तु न कंचिदत्र विशेष पश्यामः । किमेषां गुणत्व. मिति चेत् , गुणलक्षणमेव, तच्चास्पर्शवत्वे सामान्यवरवे च सति द्रव्याश्रितत्व सर्वेषामस्ति रूपादीनाम् ।-न्यायभूषण, पृ. १५८ 4. किरणावली, पृ. १०४. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण शब्द में देशान्तरगमन की प्रतीति के कारण कतिपय विद्वान् श द को द्रव्य मानते हैं, परन्तु उनको यह मान्यता उपयुक्त नहीं, क्योंकि जैसे छाया में गति न होने पर भी सूर्य-किरणों की गति के कारण छाया में गति प्रतीत होती है, उसी प्रकार शब्द में गति न होने पर भी शब्दोत्पत्तिसन्तान के कारण शब्द में देशान्तर गमन की प्रतीति होती है। शब्द को द्रव्य मानने वालों का कथन है कि शब्दविशेष दुःख का कारण होता है। अतः वह स्पर्शवान है, क्योंकि स्पर्शवान् द्रव्य के सम्बन्ध से ही दुःख होता है । जैसे, करकादि से। अतः शब्द भी द्रव्य है। ___ इसका खण्डन करते हुए भासर्वज्ञ का कथन है कि शब्द दुःखविशेष का कारण नहीं है, अपितु शब्द में तीव्रत्वादविशेष दुःख के कारण हैं, अतः शब्द को स्पर्शवान मानना भ्रान्ति है। शब्द को स्पर्शवान् मानने पर वातप्रतिकूल दिशा में शब्द का आगमन नहीं होगा जैसे वातप्रतिकूल दिशा में पर्णादि का आगमन नहीं होता । तथा कुड्यादि-व्यवधान में उच्चारित शब्द का श्रवण नहीं होगो, क्योंकि जैसे स्पर्शवान् बाणादि का कुड्यादि-व्यवधान होने पर आगमन नहीं होता इसी प्रकार यदि शब्द स्पर्शवान होता, तो वेगवान् द्रव्य के सम्बन्ध से जैसे तृणादि में क्रिया होतो है, वैसे ही वेगवान् शब्द के संयोग से भी तृणादि में कम्पादि क्रिया होती । अतः शब्द स्पर्शवान नहीं है, अत एव द्रव्य भी नहीं है। 'शब्दो गुणः सामान्यवत्वे सत्यनित्यत्वे च सति बाह्यनियतैकेन्द्रियग्राह्यत्वात्' इस अनुमान से प्राचीन आचार्यों ने शब्द में गुणाव की ही सिद्धि की है। भासर्वज्ञ ने इस हेतु में 'अस्पर्शवत्त्वे सति' का संयोजन आवश्यक माना है। अन्यथा इस हेतु की वायु में । अतिव्याप्ति होने से यह अनैकान्तिक हो जायेगा । शब्द के आश्रय का निरूपण शब्द की गुणत्वसिद्धि के पश्चात् शब्दगुणाश्रयत्वेन आकाश की सिद्धि बतलाई गई है । शब्द पृथिवी आदि का गुण नहीं हो सकता, क्योंकि वह शब्दत्व की तरह श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य है, जबकि पृथिव्यादि के रूपादि गुणों में श्रोत्रम्राह्यता नहीं है तथा शब्द को भेादि रूप पृथिवी का गुण मानने पर उसे भेर्यादि में आश्रित माना जायेगा। ऐसी स्थिति में भेरी के दूर देश में या व्यवहित देश में स्थित होने पर तज्जन्य शब्द का श्रोत्रेन्द्रियसम्बन्ध के अभाव से श्रावण प्रत्यक्ष नहीं होगा। क्योंकि आश्रय के बिना इन्द्रिय तद्गगत गुण का ग्रहण नहीं करती। चम्पकादि के दूरदेशस्थ होने से उनके साथ घ्राणेन्द्रिय का संयोग न होने पर भी तद्गत गन्ध का ग्रहण जिस प्रकार होता है, वैसे ही दूरदेशस्थ व व्यवहित भेरी के साथ श्रोत्रेन्द्रिय का सम्बन्ध न होने पर भी शब्द का श्रवण प्रत्यक्ष बन जायेगा, 1. न्यायभूषण, पृ. १६५ 2. वही भान्या-८ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ न्यायसार यह समाधान भी असंगत है, क्योंकि वायु द्वारा घ्राणप्रदेश में आनीत गन्ध के साथ चम्पक पुष्प के सूक्ष्म अवयवों का आगमन है, अत वहां निराश्रय गन्ध का ग्रहण नहीं है, किन्तु भेरी के अवयवों का आगमन नहीं माना जा सकता, क्योंकि चम्पक के अवयचो में गन्धसत्ता की तरह भेरी के सूक्ष्म अवयवों में शब्द का अभाव है। क्योंकि स्थूल भेरी के साथ स्थूल दण्डादि के सम्बन्ध में स्थूल भेरी में शब्दोत्पत्ति है न कि उसके सूक्ष्म अवयवों में। तथा प्रतिकूल दिशा में वायुगति होने पर वायु द्वारा भेरी के अवयवों का आगमन न होने पर भी भेरीशब्द का श्रवण होता है, वह भी अनुपपन्न होगा । अत शब्द को भेर्यादि पृथिवी का गुण नहीं माना जा सकता । __दिक् तथा काल का भी गुण शब्द नहीं हो सकता, क्योंकि भासर्वज्ञ दिशा और काल की आकाश से भिन्न सत्ता नहीं मानते ।। अतः परिशेषात् शब्दाश्रयत्वेन आकाश की सिद्धि हो जाती है। आकाश की श्रोत्ररूपता घ्राणादि की तरह श्रोत्र ही आकाशीय इन्द्रिय मानने पर समवाय सम्बन्ध से शब्द का प्रत्यक्ष संभव नहीं। अतः श्रोत्र को आकाशरूपता का प्रतिपादन किया जा रहा है। ___ आकाश ही श्रोत्ररूप है, इसकी सिद्धि श्रोत्र के पार्थिवादिरूप न होने से पारिशेष्यात् होती है, क्योंकि थोत्र गन्ध का ग्राहक न होने से पार्थिव नहीं है। जो गन्ध का ग्राहक नहीं होती, वह इन्द्रिय पार्थिव नहीं होती । जैसे, रसनादि इन्द्रियां । श्रोत्र के पार्थिवत्व का निषेधक अनुमानवाक्य है-'पार्थिवं तावन्न श्रोत्रम्, इन्द्रियत्वे सति गन्धाग्राहकत्वात, रसादिवत् । इसी प्रकार रस, रूप तथा स्पर्श का ग्राहक न होने के कारण श्रोत्र को जलीय, तेजस तथा वायवीय भी नहीं माना जा सकता । परिशेषतः श्रीत्र आकाशरूप ही है । जैसे घ्राणादि इन्द्रियां अपने अपने भूतों के विशेष गुण गन्धा द का ही ग्राहक होने से पार्थिव, आप्य. तैजस व वायवीय हैं, वैसे श्रोत्र आकाश के विशेष गुण शब्द का ही ग्राहक होने से आकाशरूप है। जैसे तत्तद्गुण ग्राहक घ्राणादि इन्द्रियों में समवाय सम्बन्ध से गन्धादिगुण रहते हैं, प्रकार शब्दग्राहक श्रोत्रेन्द्रिय में समवाय सम्बन्ध से शब्दगुण रहता है, जैसा कि "श्रोत्रं बाह्येन्द्रियग्राह्यगुण समवायि बाह्यन्द्रियत्वात्, रसनादिवत्" इस अनुमान से सिद्ध है। घ्राणादि इन्द्रियों के साम्य से श्रोत्र को शब्दाश्रय मानने पर उससे स्वनिष्ठशब्दग्राहकता के अभाव की आपत्ति है, क्योंकि जैसे घ्राणादि स्वनिष्ठ गन्धादि गुण के 1. दिकालो वा शब्दस्याश्रय इति चेत्, न संज्ञाभेदमात्रत्वात । यदि हि दिक्कालौ शब्दा श्रयादभिन्नौ साधयितुं शक्ष्यामः ततस्तावदभ्युपगमिष्यामो नो चेत्तदा न ताभ्यां प्रयोजनम् । -न्यायभूषण, पृ. १६६. 2. न्यायभूषणम् १. १६६. ३. वही, पृ. १६५, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण ग्राहक नहीं है, अपितु वस्त्वन्तर में विद्यमान गन्धादि के ग्राहक हैं, उसी प्रकार श्रोत्र भी स्वनिष्ठ शब्द गुण का ग्राहक नहीं होगा । इस दोष का परिहार करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि यदि सामान्यतः अर्थात् 'इन्द्रियं न स्वगुणग्राहकं, बहिरिन्द्रिय त्वात्' इस रूप से बहिरिन्द्रियमात्र में स्वगुणग्राहकता का निषेध किया जाता है, वह स्वीकार्य है, क्योंकि घ्राणादि स्वगुणपाहक नहीं । केवल श्रोत्रेन्द्रिय में स्वगुणग्राहकता होने से विरोध आता है, किन्तु वह विरोध एक श्रोजेन्द्रिय में होने से विशेषरूप है और विशेष विरोध सामान्य नियम का व्याघातक नहीं होता ।' तथा 'श्रोत्र न स्वगुणग्राहकं बहिरिन्द्रियत्वात् रसनादिवत्' इस प्रकार श्रोत्र में विशेष रूप से स्वगुणग्राहकता का निषेधानुमान बाधित होने से अनुपपन्न है, क्योंकि ओत्र की सिद्वि ही शब्दग्राहक होने से होती है । श्रोत्रेन्द्रिय को निर्गुण मानकर यद्यपि स्वगुणाग्राहकत्व-नियम के दोष से बचा जा सकता है, तथापि निगुण मानने पर उसके भौतिक न होने से मन की तरह श्रोत्रेन्द्रिय को नियतविषय: ग्राहकता की अनुपपत्ति होगी, क्योंकि नियतविषयग्राहकता प्रदीप की तरह भौतिक पदार्थो में ही होती है । श्रोत्रेन्द्रिय को भौतिक मानने पर यद्यपि श्रोत्र के दिगरूपत्वप्रतिपादक 'दिशः श्रोत्रम्' इस आगम का विरोध आता है, तथापि. उपर्युक्त वचन का अन्यार्थ में तात्पर्य मानने से उस विरोध का परिहार हो जाता है । अर्थात् 'दिक् श्रोत्रम्' इस वचन में दिक् शब्द से उसकी अधिष्ठात्री देवता गृहीत है। जैसे-'मनश्चन्द्रमा.' इस श्रुतिका तात्पर्य मन का अधिष्ठाता चन्द्रमा है. इस अर्थ में है न कि मन चन्द्ररूप है।" शब्द में रहने वाली शब्दत्व जाति का प्रत्यक्ष श्रोत्रेन्द्रिय से समवेत-समवाय सम्बन्ध द्वारा होता है, क्योंकि श्रोत्ररूप आकाश में समवेत शब्द में शब्दत्व जाति का समवाय है। शब्दत्व जाति की सिद्धि 'शब्दाः असाधारणैकसामान्यवन्तः बाह्यकेन्द्रियप्राह्यगुणत्वात् रूपवदिति' इस अनुमान से हो जाती है। अभावप्रत्यक्ष संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय और समवेतसमवायइन पांच सम्बन्धों से सम्बद्ध अर्थो (विषयों के साथ अभाव तथा समवाय का विशेषणविशेष्यभाव नामक छठा सम्बन्ध है, अतः प्रत्यक्षयोग्य अभाव व समवाय का संयुक्तविशेषणविशेष्यभावादि सम्बन्ध से प्रत्यक्ष होता है। 1. बाह्येन्द्रियमाह्यगुणसमवायि श्रोत्रं बाह्येन्द्रियत्वात् , रसनादिवत् । तद्वत्स्वगुणग्राहकत्वसंग इति चेत, न, विशेषविरोधस्यादूषणत्वात् । -न्यायभुषण, पृ. १६७ 2. न्यायभूषण, पृ. १६७. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० न्यायसार संयुक्तविशेषणभाव सम्बन्ध से अभावप्रत्यक्ष का उदाहरण घटशून्यं भूतलम्' है। यहाँ चक्षुरिन्द्रियसंयुक्त भूतल के साथ घटाभाव का विशेषणता सम्बन्ध है, क्योंकि यहां घटाभाव की प्रतोति इन्द्रियसंयुक्त भूतल के विशेषणरूपमें होती है और 'भूतले घटो नास्ति' इस उदाहरण में इन्द्रियसंयुक्त भूतल के साथ घटाभाव का विशेष्यता का सम्बन्ध है, क्योंकि यहां घटाभाव भूतलविशेष्यत्वेन प्रतीत होता है । विशेषणता तथा विशेष्यता के नियत न होने के कारण दोनों प्रकार के उदाहरण दिये गये हैं।' इसी प्रकार 'अनुष्णोऽयं स्पर्शः' इसमें अभावप्रत्यक्ष संयुक्तसमवेतविशेषणभाव सम्वन्ध से होता है । 'तोयस्पर्श नास्त्योष्ण्यम्' इसमें संयुक्तसमवेतविशेष्यभाव से औष्ण्याभाव का ग्रहण होता है। इसी प्रकार 'अशुक्लं नीलत्वसामान्यम', 'नीलत्वे शौक्ल्य नास्ति', .. 'अतीव्रो वीणाशब्दः', 'वीणाशब्दे तीव्रत्वं नास्ति,' 'भेदशून्यं शब्दत्वम् 'शब्दत्वे भेदो नास्ति' इत्यादि भी उदाहरण दिये जा सकते हैं। विशेषणविशेष्यभाव एक विशेष सम्बन्ध है और वह अखण्ड है । संयोगादि सभी सम्बन्ध उसी विशेषणता के उपलक्षण हैं । उपलक्षण वस्तु का भेदक नहीं, अपि तु परिचायक होता हैं और विशेषण भेदक होता है । उपलक्षण से वस्तु में अन्तर नहीं होता, विशेषणों से वस्तु में अन्तर होता है । जैसे दण्डी देवदत्त, कुण्डली देवदत्त, छत्री देवदत्त में दण्डादि विशेषणों के भेद से देवदत्त में भेद मानना पड़ेगा, किन्तु दण्डोपलक्षित वस्तु में अन्तर नहीं आता । संयोगादि को उपलक्षण मानने पर संयोगादि सम्बन्ध विशेषणता और विशेष्यता के भेदक नहीं माने जा सकते । इसी लिये विशिष्ट के विषय में दो मत प्रचलित हैं १. विशिष्टं शुद्धात् अतिरिच्यते २. विशिष्टं शुद्धात् नातिरिच्यते । अर्थात् जहां विशिष्ट वस्तु में विशेषण होता है, वहां पर विशिष्ट और शुद्ध का भेद हो जाता है, किन्तु जहां पर विशेषण केवल उपलक्षण है. वहां विशिष्ट अर्थात् उपलक्षित वस्तु शुद्ध से भिन्न नहीं होती । संयोगादि सम्बन्धों को विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध का विशेषण मानने पर संयोगादिघटित विशेषणता ५ प्रकार की होता है और संयोगादिघटित विशेष्यता भी ५ प्रकार की । इस प्रकार केवल विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध १० प्रकार का हो जाता है। ये भेद उन लोगों ने किये हैं, जिनको दृष्टि में विशेष्यतादि के घटक संयोगादि को विशेषण माना जाता है। भूषणकार भासर्वज्ञ इसी बात को मानने वाले हैं और जो लोग संयोगादि को केवल उपलक्षकमात्र मानते हैं, विशेषणतादि उनके मत में दश प्रकार का नहीं हो सकता । केवल विशेषणता और विशेष्यतो-दो भेद ही होंगे । इस दृष्टि को मानने वाले अन्य नैयायिक आचार्य हैं । विशेषणता-विशेष्यता को पृथक्-पृथक् सम्बन्ध न मानकर विशेषणता और विशेष्यता अन्यतररूप से सम्बन्ध की विवक्षा होने पर वह सम्बन्ध एक ही प्रकार 1. विशेषणविशेष्यभावस्यानियतत्वादुभयथाप्युदाहरणं युक्तम् ।-न्यायभूषण, पृ. १६८. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण को होगा । इस तरह ५ संयोगादि सम्बन्ध तथा षष्ठ विशेषण-विशेष्यभाव संभूय षोढासंनिकर्षवाद सम्पन्न होता है, ऐसा उद्योतकरादि' प्राचीन आचार्य मानते हैं और उत्तरकालिक न्यायग्रन्थों में इसी पक्ष को स्वीकृत किया गया है। अभाव के लिये विशेषणता या विशेष्यता सन्निकर्ष मानने पर उसी सम्बन्ध से शब्द. रूप आदि का प्रत्यक्ष हो सकता है, अतः अन्य सम्बन्धों के मानने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि 'शब्दवदाकाशम्' में शब्द आकाशस्वरूप श्रौत्र का विशेषण है। 'रूपवान् घट:' में रूप घट के प्रति विशेषण है । अतः विशेषणता सम्बन्ध से ही उनका प्रत्यक्ष संभव है । इसी प्रकार पर्वतादिवृत्ति अग्नि का भी संयुक्तविशेषणता संनिकर्ष से प्रत्यक्ष संभव हो जाता है। अतः तदर्थ अनुमान की भी क्या आवश्यकता है? इसका समाधान भासर्वज्ञ के अनुसार यह है कि किसी रोग को देखकर उसके मल निदान की कल्पना की जाती है। किसी व्यक्ति को ज्वरग्रस्त देखकर इस व्यक्ति ने दधि का सेवन किया है, इस रोति से उसके कारण दधिसेवन की कल्पना की जाती है। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जो भी व्यक्ति दधि का सेवन करता है, वह ज्वर से अवश्य ही ग्रस्त हो जाता है । क्योंकि कारण व्यापक होता है और कार्य व्याप्य । अतः जहां जहां कारण होता है, वहां वहां कार्य का रहना आवश्यक नहीं । जहां जहां कार्य रहता है, वहां कारण का रहना आवश्यक है। जहां प्रत्यक्ष रूप कार्य है, वहां उसके नियामक सम्बन्ध को रहना चाहिये, न कि वह सम्बन्ध जहां-जहां है, वहां प्रत्यक्ष को होना चाहिये । भूतलादि में अभाव का प्रत्यक्ष देखकर जिस सम्बन्धविशेष की कल्पना की जाती है, वह एक विशिष्ट सम्बन्ध है, परोक्षादिस्थल पर वह सुलभ नहीं हो सकता, क्योंकि संयोगादिघटित विशेषणता इन्द्रियसंनिकर्षजन्य प्रत्यक्ष-स्थल में ही बन सकती है, परोक्ष स्थल में नहीं । ६ प्रकार के प्रत्यक्षभेदों को उपपत्ति करने के लिये ६ संनिकर्ष माने गये हैं । सभी प्रत्यक्षों की उपपत्ति एक सम्बन्ध से नहीं हो सकती । अभावप्रत्यक्ष में दृश्याभाव भी विशेषण रूप से उपात्त हैं । दृश्याभाव शब्द में 'दृश्यस्याभावः' तथा 'दृश्ये अभावः' ये दोनों प्रकार के समास अभिप्रेत हैं। अतः कही दृश्य को अभाव और कहीं दृश्य में अभाव अभावप्रत्यक्ष में कारण होता हैं । अर्थात् वहीं अभाव के प्रतियोगी की दृश्यता (प्रत्यक्षयोग्यता) अपेक्षित होती है और कहीं अभाव के अनुयोगो की । जैसे-वृक्ष में पिशाचात्यन्ताभाव का प्रत्यक्ष 1. (अ) सन्निकर्षः पुनः षोडा भिद्यते । सपोगः, संयुक्तसमवायः संयुक्तसमवेतसमवायः समवायः समवेतसमवायो विशेषणविशेष्यमावश्चेति । -न्यायवार्तिक, १/१/४ (ब) सन्निकर्षस्त्विन्द्रियाणामथैः सह षट्प्रकारः । -न्यायमंजरी, पूर्वभाग पृ. ६८ 2. न्यायसार, पृ. ३. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ न्यायसार इसीलिये नहीं माना जाता कि उस अभाव का प्रतियोगी पिशाच प्रत्यक्षयोग्य नहीं है | अतः अत्यन्ताभाव के प्रत्यक्ष में प्रतियोगी की योग्यता अपेक्षित है । किन्तु 'वृक्षो न पिशाचः ' इस अन्योन्याभाव के प्रत्यक्ष में अनुयोगी वृक्ष की प्रत्यक्ष योग्यता अपेक्षित है और वह प्रत्यक्षयोग्य है, अतः वृक्ष में पिशाचान्योन्याभाव का प्रत्यक्ष होता है । ६ सम्बन्धों की कल्पना जिस अन्वयव्यतिरेक के आधार पर होती है, उसी के आधार पर संयोगाभाव, समवायाभाव आदि में भी घटाभावादि के प्रति कारणता सिद्ध होती है । 'घट संयोगसत्त्वे घटाभावप्रत्यक्षाभावः, ' 'संयोगाभावसत्त्वे घटाभावप्रत्यक्षम् ' - इस प्रकार का अन्वयव्यतिरेक घटाभाव का संयोगाभाव के साथ है । संयोगाभाव, समवायाभाव - ये विषय नहीं, अपितु घटाभावरूप विषय की प्रत्यक्षता के नियामक सन्निकर्ष हैं। संयोगाभाव का घटाभाव के साथ सन्निकर्ष है - स्वप्रतियोगिक सम्बन्धाभावप्रयुक्तत्व स्व शब्द से इन्द्रिय का ग्रहण है, तत्प्रतियोगिक, घटादि-अनुयोगिक संयोग के न होने से घटाभाव का प्रत्यक्ष होता है । घटाभावप्रत्यक्ष का जनक घट संयोगाभाव है. अतः घटसंयोगाभाव आलोकसंयोगादि से सहवृत्त होकर घटाभावनिष्ठ विशेषणतादि सन्निकर्षो का सम्पादकमात्र होता है । 'आयुर्वै घृतम' में जैसे आयुः साधक घृत को आयु कह दिया जाता है, ऐसे ही विशेषणतादिसन्निकर्ष के सम्पादक संयोगाभावादि को भी विशेषणता सन्निकर्ष कह दिया जाता है । ऐसा व्यवहार उपचार कहलाता है । संयोगाभाव को विशेषणविशेष्यभाव कहने का तात्पर्य संयोगादि सम्बन्धों से उसका भेदबोधन भी है । ' संयोग निरूपण चक्षुरादि इन्द्रियों का घटादि द्रव्यों के साथ संयोग बतलाया है, क्योंकि द्रव्यों का युतसिद्धि के कारण संयोग सम्बन्ध है । इसी प्रसंग में सर्वद्रव्यानुगत संयोग का लक्षण बतलाया जा रहा है । भासर्वज्ञ ने 'युत सिद्धयोः संश्लेषः संयोगः " यह संयोग का लक्षण किया है ' तथा 'द्रव्ययोः पारम्पर्येण अवयवावयविभावरहित्वं युतसिद्धि: यह युतसिद्धि का स्वरूप बतलाया है । यह युतसिद्धि नित्य तथा अनित्य दोनों प्रकार के द्रव्यों में घटित हो जाती है, क्योंकि नित्य द्रव्यों में अवयवावयविभाव होता ही नहीं और अनित्य द्रव्यों में जहां युतसिद्धि है, वहां अवयवावयविभाव का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वे दोनों स्वतन्त्र द्रव्य हैं । प्रशस्तपादाचार्य ने अनित्य द्रव्यों में पृथक् 1. न्यायभूषण, पृ. १६८ 2. न्यायभूषण, पृ. १७० 3. वही Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण आश्रय में आश्रयित्वरूप युतसिद्धि मानी है तथा नित्य द्रव्यों में पृथग्गतिमत्तारूप युतसिद्ध । दोनों में से एक भी युतसिद्धि विभु नित्य द्रव्यों में घटित नहीं होती, क्योंकि वे विभु हैं, उनका कोई आश्रय नहीं है और विभु होने से ही उनमें गति का प्रश्न पैदा नहीं होता। अतः प्रशस्तपाद ने विभु द्रव्यों का संयोग स्वीकार नहीं किया है। भासर्वज्ञ द्वारा परिभाषित युतसिद्धि विभु द्रव्यों में भी घटित हो जाती है, क्योंकि विभु द्रव्यों में न तो परस्पर और न स्वयं में अवयवावयविभाव है । अत उनका संयोग होता है । इस प्रकार उन्होंने विभुओं का संयोग न मानने वाले प्रशस्तपादाचार्य के मत का खण्डन किया है। शरीर से संयुक्त होने के कारण आत्मा आकाश से संयुक्त है, क्योंकि शरीर पांचभौतिक है। "आकाशेन संयुक्त मात्मा शरीरसंयुक्तत्वात, भूतलादिवत्" इस अनुमान प्रमाण से विभु द्रव्य आत्मा और आकाश का संयोग सिद्ध है । संयोगादिजनक कर्मादि की विभु द्रव्यों में सत्ता न होने से विभुओं का संयोग नित्य होता है । न्यायवार्तिककार उद्योतकर ने ईश्वरसिद्धिप्रसङ्ग में-सम्बन्धाभाव के कारण ईश्वर आत्मान्तर (जीव) के धर्माधर्म का अधिष्ठाता नहीं हो सकता है-इस 'पूर्वपक्षशका' का निराकरण करते हुए कहा है कि कतिपय दार्शनिक (एके) जीवात्मा का ईश्वर के साथ अजसंयोग मानते हैं और उन्होंने (वार्तिककार ने) उपर्युक्त शङ्का के निराकरण के लिये प्रतिषिद्ध न होने के कारण अजसंयोग का उपादान किया है।' अजमंयोग के प्रतिपादन के लिये उनके द्वारा उपन्यस्त प्रमाण को भी वार्तिककार ने उद्धृत किया है-"व्यापकैराकाशादिभिः सम्बद्ध ईश्वरः मूर्तिमद्व्यसम्बन्धित्वाद् घटवदिति । वार्तिककार ने आगे यह भी सङ्केत किया है कि जिनको अजसंयोग अभीष्ट नहीं है, उनके मत में अणुमनःसंयोग की उपपत्ति होने से ईश्वर और जीवात्माओं का परम्परया सम्बन्ध हो जाता है और तदद्वारा ईश्वर का अधिष्ठातृत्व भी उपपन्न हो जाता है। आचार्य वाचस्पति मिश्र ने भी "संयुक्तसमवायो वा क्षेत्रज्ञेनेश्वरस्य संयोगात् अजसंयोगस्याप्युपपादितत्वात” यह कह कर अजसंयोग की 1. विभुनां तु परस्परत: संयोगो नास्ति युत सिद्ध्यभावात् । सा पुनद्वयोरन्यतरस्य वा पृथग्ग. तिमा पृथगाश्रयाययित्वं चेति ।। -प्रशस्तपादभ स्य, पृ. १०१ 2. 'एवं युतसिध्यभावान्नास्ति विभुनां संयोग' इत्ययुक्त', देतोरसिद्धत्वात् । प्रमाणसिद्धश्च विभुनां संयोगः । -न्यायभुषण, पृ. १७० 3. न्यायभूषण, पृ. १७० । तुलना- 'आकाशमात्मसंयोगि, मूतद्रव्यसंयोगित्वात् , घटवदित्यनु मानम् ।'- भामती, २.२.१७. 4. न्यायवार्तिक, ४/1/२१ 5. तत्रैव । 6. तत्रैव । 7. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १/१/२1. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ न्यायसार उपपत्ति स्वीकार की है। भासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती जयन्त भट्ट ने विभु द्रव्यों का अज. संयोग स्वीकार न करते हुए कहा है-"विभूनामपि सम्बन्धः परस्परमसम्भवा देव नेष्यते न परिभाषणात् , न संयोगस्तेषाम प्राप्तेरभावादप्राप्तिपूर्विका हि प्राप्तिः संयोगः”।' ऐसा प्रतीत होता है कि न्याय सम्प्रदाय में अजसंयोग को स्वीकार करने वाले नैयायिकों में भासर्वज्ञाचार्य प्रथम नहीं थे, अपि तु उनसे पहिले कतिपय नैयायिकों ने इसका प्रतिपादन कर दिया था। यह भी स्पष्ट है कि अज संयोग न्यायसम्प्रदाय मे सर्व सम्मत नहीं है। भासर्वज्ञाचार्य ने तो पूर्ववर्ती एकदेशीय नैयायिकों के द्वारा प्रतिपादित अजसंयोग का समर्थन किया है। प्रोफेसर कार्ल एच्. पाटर ने उल्लेख किया है कि अजसंयोग के प्रशस्तपादकृत प्रतिषेध का प्रायः सभी नैयायिकों और वैशेषिकों ने अनुमरण किया है, परन्तु अपरार्कदेव ने विभु द्रव्यों में संयोग को स्वीकार करते हए विलक्षणतापूर्वक असहमति व्यक्त की है। प्रोफेसर पाटर ने अजसंयोग के बारे में भासर्वज्ञ के मत का उल्लेख नहीं किया है । वस्तुस्थिति यह है कि अपरार्क ने तो अपने गुरु भासर्वज्ञ के मत का समर्थन किया है । न्यायलीलावतीकार श्रीवल्लभाचार्य ने भासर्वज्ञकृत युतिसिद्धिलक्षण का खण्डन किया है। उनके मतानुसार यदि अवयवावयविभाव के अभाव की युतसिद्धि माना जायेगा, तो गुणादि में भी असमवायिता को आपत्ति हो जायेगी, जो कि सर्वथा अनिष्ट है। समवायप्रत्यक्ष महर्षि कणाद ने समवाय का 'इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः स समवायः' यह लक्षण बतलाया है। प्रशस्तपाद के अनुसार समवाय सम्बन्ध कार्यकारणभूत पदार्थों का ही नहीं, अपि तु अकायकारणभूत पदार्थो का भी होता है, जैसाकि उनके द्वारा दी गई परिभाषा से स्पष्ट है- 'द्रव्यगुणकर्म सामान्यविशेषाणां कार्यकारणभूतानाम् अकार्यकारणभूतानां वाऽयुतसिद्धानाम् आधार्याधारभावेन अवस्थितानामिहेदमिति बद्धिर्यतो भवति यतश्चासर्वगतानामधिगतान्यत्वानामविष्वग्भावः स समवायाख्यः सम्बन्धः ।' भासर्वज्ञ ने समवाय की परिभाषा 'अयुतसिद्धयोः संश्लेषः समवायः यह की है। इससे यह स्पष्ट है कि उन्हें भी कार्यकारणभूत तथा अकार्यकारणभूत दोनों पदार्थो का समवाय अभीष्ट है। 1. न्यायमजरी, प्रथम भाग, पृ. २८५ 2. He is followed in this by most of our philosophers Characteristi cally, however, Apararkadeva disagrees, allowing contact between two ubiquitous substances such as akasa and time. -- Karl H. Potter, The Encyclopedia of Indian Philosophies, Vol. II, p. 122. अवयवावयविभावाभाव एव युतसिद्धिरिति चेन्न । गुणादेरसमवायित्वापत्तः । एषां स्वातन्त्रयेणा श्रयान्तरासमवायित्वमयुतसिद्धिरिति चेन्न । तुल्यत्वात् ।-न्यायलीलावतो. पृ १२५ 4. वैशेषिकसूत्र, ७/२/२६ 5. प्रशस्तपादभाष्थ, पृ. २८९ 6. न्यायमूषण, पृ. १७० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण ६५ समवाय का प्रत्यक्ष होता है या वह अनुमेय है, यह विचारणीय विषय है । वैशेषिक मतानुसार योगियों को समवाय का प्रत्यक्ष होता है, परन्तु अस्मदादि जनों के लिये वह अनुमेय है । प्रशस्तदेव ने प्रतिपादन किया है कि सत्ता आदि जातियों का प्रत्यक्ष घटादि विषयों में उनके समवाय सम्बन्ध से रहने के कारण संयुक्तसमवाय सम्बन्ध द्वारा होता है. परन्तु समवाय का प्रत्यक्षविषयभूत घटादि द्रव्य तथा रूपादि विषयों के साथ सम्बन्ध अन्य किसी सम्बन्ध से नहीं है । यदि समवाय के भी समवायियों के साथ सम्बन्ध के लिये सम्बन्धान्तर की कल्पना की जायेगी, तो अनवस्था दोष की 'प्रसक्ति होगी अतः समवाय समवायियों में स्वरूपतः ही रहता है, सम्बन्धान्तर से नहीं । अर्थात् इन्द्रिय जब किसी भाव पदार्थ का प्रत्यक्ष करती है, तब इन्द्रिय का उस भाव पदार्थ से संयोग या समवाय सम्बन्ध आवश्यक है और वह सम्बन्ध सम्बन्धियों से भिन्न होना चाहिए । जैसे- चक्षु द्वारा घटादि द्रव्यों के प्रत्यक्ष में घट के साथ इन्द्रिय का संयोग सम्बन्ध हैं, वह घट तथा चक्षुरिन्द्रिय दोनों से भिन्न है । यही स्थिति अन्य सम्बन्धों में है । किन्तु इन्द्रिय द्वारा समवाय का ग्रहण करते समय गृह्यमाण समवाय के साथ इन्द्रिय का न तो संयोग है और न समवाय । अतः ग्राहक संनिकर्ष के अभाव के कारण समवाय का प्रत्यक्ष नहीं होता | स्वात्मवृत्तित्व और वृत्त्यन्तराभाव के कारण ही वह अतीन्द्रिय कहलाता है । 1 इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हुए श्रीधराचार्य ने भी कहा है- 'संयोगसमवायापेक्ष स्यैव इन्द्रियस्य भावग्रहणसामर्थ्य मुपलभ्यते । यथा इन्द्रियेण संयोगप्रतिभासो नैवं समवायप्रतिभासो भवति, संबन्धिनोः पिण्डीभावेन उपलम्भात् ' । ' अतः वैशेषिकमतानुसार सामान्यजनों के लिये समवाय 'इहेति' बुद्धि से अनुमेय है, प्रत्यक्ष नहीं । व्योमशिवाचार्य के अनुसार सविकल्पकज्ञान में ही समवाय अनुमेय होता है, अवयव - अवयवी के निर्विकल्पक संश्लेषज्ञान में समवाय का प्रत्यक्ष होता है । " किन्तु नैयायिक अभाव की तरह समवाय की भी विशेषण - विशेष्यभाव सम्बन्ध से साक्षात्कारिणी प्रमा मानते हैं । इन्द्रियजन्य प्रमा साक्षात्कारिणी प्रमा कहलाती है ।' इन्द्रियजन्य प्रमा विषयग्रहण के लिये न केवल इन्द्रिय, अपितु इन्द्रियार्थसंनिकर्ष की 1. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. २९३ 2. न्यायकन्दली, पृ. ७८७-७८६ 3 निर्विकल्प के त्ववयववाक्यविनोः संश्लेषज्ञाने समवायः प्रत्यक्ष एव । - व्योमवती, पृ. ६९९. 4. वेदान्त शब्दजन्य प्रत्यक्ष भी मानता है, अनुपलब्धिजन्य प्रत्यक्ष भी मानता है और अर्थापत्तिजन्य प्रत्यक्ष भी । अतः इन्द्रियजन्य ज्ञान ही प्रत्यक्ष होता है, ऐसा नियम उनके अनुसार नहीं हो सकता । तथापि अपनी-अपनी परिभाषाओं की व्यूहरचना प्रत्येक दार्शनिक ने की है। एक के अनुसार दूसरे पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता । दोनों के मत में प्रत्यक्ष का स्वरूप भी कुछ भिन्नभिन्न हो जाता है । अतः नैयायिकों की अपनी परिभाषा के अनुसार कहा जा सकता है कि अयोगिप्रत्यक्ष ( अनीश्वर ज्ञान ) इन्द्रियजन्य होता है । भान्या- ९ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ न्यायसार 1 । उनका यह ज्ञान " भी अपेक्षा रखती है । क्योंकि नैयायिकों ने समवाय का भी प्रत्यक्ष स्वीकार किया है, अतः वहां भी इन्द्रियार्थसंनिकर्ष आवश्यक है और वह है - पंचविधसम्बन्धसम्बद्धविशेषणविशेष्यभाव | 'येनेन्द्रियेण यद्गृह्यते तेनेन्द्रियेण तद्गतं सामान्यं, तद्गतः समवायः, तद्गतोऽभावश्च गृह्यते' इस न्याय से भी न्यायशास्त्र में समवाय की प्रत्यक्षत्वस्वीकृति का ज्ञान होता है । आचार्य भासर्वज्ञ ने भी समत्राय के प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में 'न्यायसार' में 'एतत्पंचविध सम्बन्ध संबद्धविशेषणविशेष्यभावाद् दृश्याभाव समवाययोर्ग्रहणम् । तद्यथा घटशून्यं भूतलम्, इह भूतले घटो नास्ति । एवं सर्वत्रोदाहरणीयम् । समवायस्य तु क्वचिदेव ग्रहणम् । यथा - रूपसमवायवान् घटः घटे रूपसमवाय इति । - यह कहा है । इसका आशय भासर्वज्ञ ने 'न्यायसार' को स्वोपज्ञवृत्ति 'न्यायभूषण' में स्पष्ट किया है आशय है कि समवाय का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि जैसे 'दण्डी पुरुषः' दण्ड और पुरुष के संयोग का प्रत्यक्ष होने पर होता है, इसी प्रकार शुक्लः पद. इस रूप से शुक्लगुणविशिष्ट पट की प्रतीति भी शुक्ल गुण तथा गुणी पट के समवाय सम्बन्ध के प्रत्यक्ष के बिना अनुपपन्न है । इस प्रकार भासर्वज्ञ समवाय का प्रत्यक्ष स्वीकार करते हैं, परन्तु उसका प्रत्यक्ष अभावप्रत्यक्ष की तरह विशेषणत्वेन या विशेष्यत्वेन अक्षजन्य नहीं होता, क्योंकि विशेषणत्वेन या विशेष्यत्वेन समवाय का इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष मानने पर उसके विशिष्ट ज्ञान होने से और विशिष्ट ज्ञान में विशेषण, विशेष्य व सम्बन्ध तीनों के ज्ञान की अपेक्षा होने से समवाय तथा समवायी के सम्बन्ध का ज्ञान भी मानना होगा और सम्बन्ध समत्राय से भिन्न मानना होगा, क्योंकि सम्बन्ध सम्बन्धियों से भिन्न होता है । जैसे, दण्ड तथा पुरुष का संयोग दण्ड तथा पुरुष से भिन्न है और समवाय से भिन्न सम्बन्ध मानने पर अनवस्थादोष को प्रसक्ति होगी । तथा जैसे 'दण्डपुरुषयोः संयोगः' या 'पुरुषो दण्डसंयुक्तः' यह प्रतोति संयोग तथा दण्ड व पुरुषरूप संयोगी के सम्बन्धज्ञान का आक्षेपक है क्योंकि संयोग तथा संयोगियों के सम्बन्धज्ञान के बिना उपर्युक्त विशिष्ट प्रतोति नहीं हो सकती । उसी प्रकार यदि प्रत्यक्ष से 'घटरूपयोः समवायः' या 'रूपं घटे समवेतम्' इत्योकारक विशिष्ट प्रतीति होती, तो उस प्रतीति के आपादक समवाय तथा समवायियों के परस्पर सम्बन्ध का भी आक्षेप होता है, परन्तु ऐसी प्रतीति प्रत्यक्षतः नहीं है । अतः समवाय के प्रत्यक्ष न होने से उसके उपपादक सम्बन्धान्तर का आक्षेप भी नहीं होता | 2 ८ यद्यपि 'घटरूपयोः समवायः' इत्याकारक प्रत्यक्षज्ञान न होने पर भी घट तथा घटरूप का समवाय सम्बन्ध है, ऐसा यौक्तिक ज्ञान तो होता ही है और 'घटः रूपसमवायवान्' इस विशिष्ट ज्ञान की उपपत्ति के लिये भी घटरूप, समवाय तथा 1. न्यायसार, पृ. ३. 2. समवायस्य सम्बन्धग्रहणाक्षेपकत्वेनाप्रतिभासनात् । न हि प्रत्यक्षादनयोः समवाय इति इदमन्त्र समवेतमिति वा समवाय्येतदिति वा कस्यचित् प्रतीतिरस्ति, यथा भूतले घटो नास्ति इति सर्वेषामस्ति प्रतीति: ।-न्यायभूषण, पृ. १६९, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण इनसे भिन्न सम्बन्ध इन तीनों के ज्ञान की अपेक्षा है, क्योंकि विशिष्ट ज्ञान विशेषण, विशेष्य तथा सम्बन्ध तीनों के ज्ञान के बिना अनुपपन्न है । ऐसी स्थिति में घटरूप तथा समवाय से भिन्न सम्बन्ध को सत्ता मानने पर यौक्तिक प्रत्यक्ष में भी अनवस्था दोष को प्रसक्ति बनी रहेगी और यदि यौक्तिक विशिष्ट ज्ञान में सम्बग्धज्ञान की अपेक्षा नहीं मानी जाती है, तो विशिष्टज्ञान विशेषण-विशेष्यतत्सम्बन्धज्ञानपूर्वक होता है, इस नियम का व्यभिचार होता है। भासर्वज्ञ का कथन है कि जिस विशिष्ट ज्ञान का इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष होता है, यह विशेष्य, विशेषण तथा उनके सम्बन्ध के ज्ञान के बिना नहीं हो सकता, किन्तु परोक्ष प्रतिभासरूप यौक्तिक प्रत्यक्ष सम्बन्धानुभव का व्याप्य नहीं होता, वह सम्बन्धज्ञान के बिना भी हो जाता है और समवाय का यौक्तिक प्रत्यक्ष माना गया है, अतः यौक्तिक प्रत्यक्ष में विशेषणविशेष्यभावसम्बन्धपूर्वकत्वरूप साध्य के व्यभिचार का प्रश्न उपस्थित नहीं हो सकता ।' यद्यपि 'दण्डपुरुषयोः सयोगः' इत्याकारक विशिष्ट ज्ञान जैसे संयोग तया संयोगियों के सम्बन्धज्ञान के बिना अनुपपन्न है, उसी प्रकार 'घटरूपयोः समवायः' या 'घटे रूपं समवेतम्' इत्याकारक यौक्तिक विशिष्ट ज्ञान भी समवाय तथा समवायियों के सम्बन्यज्ञान के बिना अनुपपन्न है। अत: उनके सम्बन्ध का आक्षेप मानना ही होगा और समवायभिन्न सम्बन्ध मानने पर अनवस्थादोष की प्रसक्ति पूर्ववत विद्यमान है, तथापि समवाय तथा समवायियों का सम्बन्धज्ञान समवाय के स्वरूपभेद को मानकर हो सकता है, इसके लिये सम्बन्धान्तर . -कल्पना की आवश्यकता नहीं । जैसे एक ही सत्ता में स्वरूपभेदकल्पना से द्रव्यादि में सद्व्यवहार सती सत्ता अर्थात् समवाय सम्बन्ध से सत्ता जाति की स्थिति से और सामान्य में सद्व्यवहार असती सत्ता अर्थात् स्वरूपतः सत्ता जाति की स्थिति से माना जाता है, उसी प्रकार 'दण्डषुरुषयोः संयोगः' इस विशिष्ट ज्ञान में संयोग तथा संयोगियों के सम्बन्धज्ञान के लिये उससे भिन्न समवाय सम्बन्ध की अपेक्षा है, किन्तु 'घटरूपयों समवायः' इत्याकारक विशिष्ट ज्ञान में समवाय को अपने समवायियों से सम्बन्ध के लिये समवाय से भिन्न सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं, अपितु समवाय स्वयं ही स्वरूप से अपने समवायियों से सम्बद्ध है । अर्थात् अष्टादिसहित प्रत्यक्षयोग्य घट तथा रूप इन दोनों से सम्बन्धित इन्द्रियसंनिकर्ष द्वारा ही समवाय सम्बन्ध का ज्ञान हो जाता है, उसके लिये किसी पृथक संनिकर्षरूप सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है। 1. न्यायभूषण, पृ. १६९ 2. सत्ता के दो भेद कल्पित किये गये है-(१) स्वरूपत: सत्ता और (२) सत्वेन सत्ता । जैसे - ब्रह्म सत्ता से सत् नहीं, अपितु स्वरूपतः अर्थात् सद्रप होने से सत् है । प्रकृत्यतिरेकेण प्रत्ययार्थो न गम्यते ।। सत्यत्र तत: स्वार्थस्तद्धितोऽत्र भवन्भवेत् ॥ -बृहदारण्यकोपनिषदभाष्यवार्तिक, का. १६८८, पृ. १६७८ 3. न्यायभूषण, पृ. ।६९ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार तात्पर्य यह है कि 'दण्डपुरुषयोः संयोगः', 'पुरुषो दण्डसंयुक्तः' इत्याकारक संयोग. प्रत्यक्ष के समान 'घटरूपयोः समवायः', 'रूपं घटसमवेतम्' इत्यायारक प्रत्यक्षज्ञान नहीं है । अतः समवाय की विशेषणतया व विशेष्यतया प्रतीति न होने से उनका विशेष्य. विशेषणभाव से प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु घट तथा रूप के समवाय सम्बन्ध का ज्ञान अनुमान से होता है। उसीको भासर्वज्ञ ने यौक्तिक प्रत्यक्ष माना है। समवाय का विशेषणविशेष्यभाव से अक्षज प्रत्यक्ष उनको मान्य नहीं है । ऐसी स्थिति में 'समवायस्य क्वचिदेव ग्रहणम् । यथा-रूपसमवायवान् घटः, घटे रूपसमवायः' इस उक्ति द्वारा न्यायसार में विशेषणविशेष्यभाव द्वारा उसका जो प्रत्यक्ष बतलाया है, वह अविचारित अभिधान ही है। अर्थात् 'भूतले घटो नास्ति' की तरह प्रत्येक को विशेषणतया या विशेष्यतया उसका ज्ञान नहीं होता, अपि तु असदुपदेश से विपर्यस्त बुद्धि वालों को ही ऐसा होता है। अतः समवाय का विशेषणविशेष्य - भाव से अक्षम प्रत्यक्ष न होकर यौक्तिगत प्रत्यक्ष ही होता है और वह युक्ति 'शुक्ल: पट इत्यादि प्रत्यक्षप्रत्ययः प्रत्यक्षेण ज्ञायमानसम्बन्धपूर्वकः, प्रत्यक्षात्मकविशिष्ट प्रत्ययत्वाद् दण्डो तेप्रत्य यवत्' इत्याकारक अनुमान है, जिससे समवाय के प्रत्यक्ष का अनुमान होता है । . ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायसार की रचना के समय समवाय का विशेषणविशेष्यभाव सम्बन्ध से प्रत्यक्ष भासर्वज्ञ को क्वचित् अर्थात् कतिपय स्थलों (स्थानत्रय) में अभिमत था, परन्तु बाद में चिन्तासन्तति के फलस्वरूप उनको मान्यता परिवर्तित हो गई और न्यायभूषण में यह प्रतिपादित किया कि समवाय का यौक्तिक प्रत्यक्ष होता है न कि विशेष्यतया व विशेषणतया अक्षज प्रत्यक्ष । योगिप्रत्यक्ष देश को दृष्टि से विप्रकृष्ट सत्यलोकादि, अतिदूरस्थ और व्यवहित नागभुवनादि. काल की दृष्टि से विप्रकृष्ट अतीत और अनागत, स्वभावविप्रकृष्ट परमाणु आकाशादि-इन तीन प्रकार के विप्रकृष्टों में समस्त अथवा व्यस्त का ग्राहक प्रत्यक्ष योगिप्रत्यक्ष कहलाता है । 1. क) ममेव वा स्खलितमेतद्, अपर्यालोचित ग्रन्थकरणात् ।-न्यायभूषण, पृ. १६९ ख) आचार्य: पुनरौत्र स्खलित बास्त्विद ममेत्यवोचत। -न्यायमुक्तावली (प्रथम भाग), १. १७६ ग) भासर्वज्ञस्तु केनाभिप्रायेण ममेव बावस्खलितमेतदिति व्याख्यातमिति चिन्त्यम् । -न्यायसारबिचार, पृ. २१ 2. समवायस्य बुद्धौ तथा ग्रहणं क्वचिदेव भवति । अर्थात् असदुपदेशविपर्यासित-- बुद्धावेव समवायम् तथा गृह्यते, न तु अभाववत् लौकिकबुद्वौ सर्वव्यवहतृ बुद्धौ वा । -न्यायभूषण, पृ. १६९ 3. तम्माद् यौक्तिकमेव समवायस्य प्रत्यक्षत्वम् ।-न्यायभूषण, पृ. १६९ 4. न्यायसारपदपंचिका, पृ. १६ 5. (अ) न्यायसार. पृ. ३ (ब) न्यायभूषण, पृ. १७० Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ६९ प्रत्यक्ष प्रमाण उसकी दो अवस्थाएं हैं - (१) युक्तावस्था और (२) वियुक्तावस्था । युक्तावस्था में धर्मादिसहित आत्मा और अन्तःकरणादि के संयोग से ही समस्त विषयों का ग्रहण होता है । अशेषार्थग्रहण परमयोगी की दृष्टि से बतलाया गया है, क्योंकि योगिसामान्य को अशेष अर्थों का ग्रहण नहीं होता है । आत्मा और अन्तःकरण के संयोग से ही होता है, यह अवधारण अर्थसन्निकर्ष के निषेध के लिये है । इससे सहकारिमात्र का निषेध नहीं किया गया है, क्योंकि 'धर्मादिसहितात्' के द्वारा उसका कथन कर दिया गया है । वियुक्तावस्था में अर्थसंनिकर्ष होता है । सर्वज्ञ ने आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में ही अन्तर्भाव माना है । अतः यहां आर्षज्ञान के योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव का विवेचन किया जा रहा है । आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव प्रशस्तदेव तथा उनके अनुयायी वैशेषिक आचार्यों ने प्रत्यक्ष, लैंगिक, स्मृति और आर्षज्ञान भेदभिन्न चतुर्विध विद्या में आर्षज्ञान को माना है ।" वैशेषिक इस आज्ञान को योगिप्रत्यक्ष से भिन्न मानते हैं । वे प्रातिभापरपर्याय आर्षज्ञान की सत्ता मानते हैं । सर्वप्रथम 'पदार्थधर्मसंग्रह' में श्री प्रशस्तपाद ने इसका प्रतिपादन किया है। उनका कथन है कि वेद-निर्माता त्रिकालदर्शी ऋषियों को अतीन्द्रिय, अतीत, अनागत, वर्तमान विषयों का ज्ञान धर्मविशेष के साहाय्य से आत्ममनःसंयोग से होता है, उसे ही आर्पज्ञान कहते हैं । इस ज्ञान को स्मृतिज्ञान की तरह अप्रारूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह यथार्थानुभवरूप है । प्रमारूप ज्ञान मानकर भो उसे धूमदर्शनजन्य वहूनिज्ञान की तरह परोक्ष भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह ज्ञान लिंगानुसन्धान के बिना होता है । अपरोक्ष इसलिये नहीं माना जा सकता कि अतीन्द्रिय तथा अतीत, अनागत वस्तुओं के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध नहीं है और अपरोक्षज्ञान विषयेन्द्रियसन्निकर्षजन्य होता है । आत्ममनः संयोगजन्य इसलिये नहीं हो सकता कि बाह्य विषय में अन्तःकरण की प्रवृत्ति नहीं होती । प्रमाणान्तर मानने पर प्रत्यक्ष, अनुमान दो ही प्रमाण हैं, इस वैशेषिकसिद्धान्त का व्याघात होता है । अतः इस आर्षज्ञान को उन्होंने धर्मविशेषसहकृत आत्ममनः - संयोग से जन्य प्रत्यक्ष माना है । धर्मविशेष संस्कृत अन्तःकरण की प्रवृत्ति उसी प्रकार बाय विषय में संभव है, जैसे योगजधर्म सहकृत अन्तःकरण की । योगिप्रत्यक्ष में योगजधर्मानुगृहीत अन्तःकरण की बाहूय अतीन्द्रियः अतीत अनागत विषयों में 1. एतच्च परमयोगिविवक्षयोक्तम्, न तु योगिमात्रम्या शेषार्थग्रहणं भवति । -न्यायभूषण, पृ. १७० 2. विद्यापि चतुर्विधा । प्रत्यक्ष लैङ्गिकस्मृत्यार्षलक्षणा । -- प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १५३ 3. आम्नाय विधातूणामृषीणामतीतानागतवर्तमानेष्वतीन्द्रियेषु धर्मादिषु ग्रन्थोपनिबद्धेषु अनुपनिबद्वेषु चात्ममनसोः संयोगाद् धर्मविशेषाच्च यत्प्रातिमं यथात्मनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यते तद् 'आम्' इत्याचक्षते । -- प्रशस्तपादभाध्य, पृ. २०८, २०९ - Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० न्यायसार प्रवृत्ति सभी मानते हैं, उसी प्रकार आर्यज्ञान में भी तपासमाधिजन्य-धर्मानुगृहीत अन्तःकरण की बाह्य विषय में प्रवृत्ति संभव है और इस प्रकार धर्मविशेषानुगृहीत आत्मनः संयोग से अतीत, अनागत, आदि विषयों का प्रत्यक्ष होने से आर्षज्ञान प्रत्यक्ष ही है। यह ज्ञान बाहत्येन देवता. ऋषि आदि को होता है. किन्त कर्म कभी लौकिक व्यक्तियों को भी होता है । जैस, कोई कन्या कहती है-कल मेरा भाई आयेगा, ऐसा मेरा मन बतलाता है और कन्या का यह ज्ञान यथार्थ निकलता है। यहां कन्या के इस ज्ञान में इस जन्म के किसी तपःसमाधिजन्य धर्म के अनुग्राहक तथा अनागत विषय के साथ इन्द्रिय सम्बन्ध तथा किसी लिंगादि का प्रतिसन्धान न होने पर भी उस ज्ञान को यथार्थता को देखकर जन्मान्तरीय तपःप्रभाव-प्रभावित धर्मविशेष द्वारा अनुगृहीत मन के द्वारा ही उसको ज्ञान हुआ है, यह बात माननी पड़ती है। अतः वह भी तप आदि प्रभावप्रभावित धर्मविशेष से जन्य होने से आर्षज्ञान ही है। इसी ज्ञान को प्रतिभाजन्य होने से प्रातिभ कहा जाता है। __ यह आषज्ञान योगिप्रत्यक्ष से भिन्न हैं, ऐसा प्रशस्तदेव को अभिमत है। इसीलिये उन्होने पहिले प्रत्यक्षनिरूपण में योगज धर्म से होने वाले योगिप्रत्यक्ष का निरूपण करने के पश्चान् पृथक रूप से आर्षज्ञान का प्रतिपादन किया है। किन्तु भासर्वज्ञ इसका यो प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव करते हैं । उनकी मान्यता है कि योगिप्रत्यक्ष को तरह आर्षज्ञान भी प्रकृष्टधर्मजन्य है, प्रकृष्टधर्मजन्यत्व दोनों में समान धर्म है। अतः दोनों एक हैं, पृथक् नहीं । आषज्ञान को भी धर्मविशेष जन्य माना ही जाता है, इस प्रकार योगिप्रत्यक्ष से आषज्ञान संगृहीत हो जाता है। भासर्वज्ञ ने योगिः प्रत्यक्ष का लक्षण 'योगिप्रत्यक्षन्तु देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थग्राहकम्' यह किया है। 'न्यायभूषण' में इसका विशदीकरण करते हुए कहा है 'देशादिविप्रकृष्टेष्वर्थेषु सम्यग. परोक्षानुभवो हि योगिप्रत्यक्षस्य लक्षणम्' । व्यास आदि आर्ष पुरुषों को प्रकृष्ट धर्म से आईज्ञानरूप योगिप्रत्यक्ष होता है । अतः योगिप्रत्यक्ष और आर्षज्ञान में प्रकृष्ट धर्म साधन है, वह प्रकृष्ट धर्म चाहे योगांगानुष्ठान से हो अथवा तपःप्रकर्ष से अथवा यज्ञादि साधनों के प्रकर्ष से । इन अवान्तर कारणभेदों से प्रमाणभेद सिद्ध नहीं होता। जैसे पण्डितराज जगन्नाथ ने प्रतिभा को अनुपहसनीय काव्य का कारण मानकर विलक्षण व्युत्पत्ति, काव्यव्याकरणाभ्योसादि में काव्यकारणता का निराकरण किया है अर्थात् प्रतिभा चाहे देवता-महापुरुष-प्रसादादिजन्य हों, 1. प्रशस्तपादभाध्य पृ २०९ 2. न्यायसार, पृ. ३ 3. वही 4 न्यायभूषण, पृ. १७१ 5. न्यायभूषण. पृ. १७१ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण चाहे विलक्षण व्युत्पत्ति से या काव्यव्याकरणाभ्यासादि कारण से जन्य हो, किन्तु काव्य के प्रति कारण प्रतिभा ही है, उसी प्रकार अलौकिक योगि-प्रत्यक्ष तथा आप प्रत्यक्ष का कारण प्रकृष्ट धर्म है, वह धर्म चाहे योगज हो या तजन्य, विद्याजन्य हो या समाधिजन्य । इसलिये अपरार्क ने न्याययुक्तावली में कहा है 'साधनं तु धर्मः समाधिसाध्यो वा, तपःप्रभृतिसाधनीयो वाऽस्तु । नैतावता प्रमाणभेदः ! कारणानामान्तगणि कभेदेन प्रमाणानन्त्यप्रसक्तेः । योनिप्रत्यक्ष में अनेक आगमवचन प्रमाण हैं। योगिसद्भाव की आशंका का निराकरण करते हुए आचार्य भासर्वज्ञ ने बतलाया है कि वे श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास तथा अनेक योगशास्त्रों में प्रसिद्ध हैं । उनका अपलाप पापातिशय ही है, जो नरकादि अनन्त यातनाओं को उत्पन्न करता है । योगिसद्भाव का ज्ञापक अनुमान इस प्रकार है-'धर्मादि केषांचित्प्रत्यक्षं प्रमेयत्वात् करतलवदिति ।” भासर्वज्ञ के परवर्ती उदयनाचार्य ने आर्षज्ञान के योगिप्रत्यक्षान्तर्भाव का खण्डन किया है । उदयनाचार्य का तर्क यह है कि योगिप्रत्यक्ष के कारण योगजन्य धर्म तथा आर्षज्ञान के कारण तपोजन्य धर्म दोनों के प्रकृष्टधर्मशब्दवाच्य होने से प्रकृष्ट धर्मशब्दवाच्यत्वरूप से समानता होने पर भी उन दोनों धर्मों में प्रकर्षा की प्रवृत्तिनिमित्तता में भेद है। योगिप्रत्यक्ष के कारणभूत धर्म में उस प्रकर्ष का प्रवृत्तिनिमित्त योग है तथा आज्ञान के कारणभूत धर्म में प्रकर्ष का प्रवृत्तिनिमित्त तप या विद्या या समाधि आदि हैं। अतः दोनों के कारणभूत धर्मो के भिन्न होने से तज्जन्य योगिप्रत्यक्ष व आर्षज्ञान में भी भेद है। योगिप्रत्यक्ष में भी आर्षज्ञान की तरह धर्मविशेष को कारण माना नहीं जा सकता, क्योंकि वहां धर्मविशेष की उपलब्धि नहीं । कन्या के ज्ञान में अनागत भ्राता के साथ इन्द्रियसम्बन्ध न होने से तथा उस ज्ञान के यथार्थ होने से अनुपलभ्यभान जन्मान्तरीय धर्मविशेष की कल्पना समुचित है, किन्तु योगिप्रत्यक्ष में योगज धर्म के द्वारा अतीत, अनागत, व्यवहित, विप्रकृष्ट वस्तुओं का ज्ञान संभव होने से धर्मविशेष की कल्पना नहीं मानी जा सकती । अतः धर्मविशेषरूप सामान्यकारणजन्यता को लेकर भी योगिप्रत्यक्ष व आर्ष प्रत्यक्ष को एक नहीं माना जा सकता । अतः दोनों प्रत्यक्ष भिन्न हैं। आर्षज्ञान धर्मविशेषजन्य है, जबकि योगिप्रत्यक्ष योगजधर्मजन्य है। किन्तु किरणावलीकार उदयन का यह भेदप्रतिपादन समीचीन प्रतीत नहीं होता, क्योंकि योगि-प्रत्यक्ष व आर्ष प्रत्यक्ष में प्रकृष्ट धर्मरूप कारण के समान होने से उनका कार्य प्रत्यक्ष भी समान हो होगा । प्रकृष्ट धर्मरूप कारण में विशेषणीभूत प्रकर्ष के कारणों के भिन्न 1. तस्य च कारण कविगता केवला प्रतिमा । ......... न तु त्रयमेव । -रसगंगाधर, पृ. ८ 2. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, १७९ 3. वही 4. किरणावली, पृ. २४६ 5. किरणावली, पृ. २४६ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ न्यायसार भिन्न होने पर भी तज्जन्य प्रकृष्ट धर्म में किसी प्रकार का भेद नहीं माना जा सकता । तथा जैसे तपोजन्य, विद्याजन्य, समाधिजन्य धर्म सभी धर्मविशेष-- पदवाच्य हैं, उसी प्रकार योगजन्य धर्म भी धर्मविशेष ही है। अतः योगिप्रत्यक्ष व आप प्रत्यक्ष दोनों में धर्मविशेषजन्यत्वरूप समानता होने से दोनों प्रत्यक्ष अभिन्न हैं। सूत्रकार कणोद ने भी आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव अभीष्ट होने के कारण उसका पृथक् कथन नहीं किया है, जैसाकि वैशेषिकसूत्रोपस्कार' में शंकर मिश्र ने कहा है, 'आर्ष ज्ञान सूत्रकृना पृथङ् न लक्षितं योगिप्रत्यक्षान्तर्भावितम्' । प्रशस्तपादाचार्य ने आर्षज्ञान को प्रातिभज्ञान अर्थात् प्रतिभाजन्य ज्ञान माना है और प्रातिभज्ञान योगिप्रत्यक्षज्ञान हो है, जैसा कि 'प्रातिभाद्वा' 'ततः प्रानिभप्रावणवेदना. दर्शास्वादवार्ता जायन्ते'* इन योगसूत्रों से स्पष्ट है ।। भासर्वज्ञ के परवर्ती मानमनोहरकार वादिवागीश्वराचार्य ने भो धर्मविशेष से प्रसूत होने के कारण आपज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव क्यों नहीं हो सकता-इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि आर्षज्ञान सर्वत्र धर्मविशेष से जनित नहीं होता। यदि किसी एक आर्पज्ञान में धर्मविशेषजन्यता होने से उसका अन्तर्भाव धर्मविशेषजन्यत्व के आधार पर योगिप्रत्यक्ष में भी मान लें, तब भी आर्षज्ञान में सर्वत्र धर्मविशेषजन्यता . न होने से आपज्ञान को योगिप्रत्यज्ञान्तभूत न मानकर पृथक ही मानना पड़ता है ।' . प्रशस्तपाद ने स्पष्टतया धर्मविशेष को आर्षज्ञान के प्रति कारण बतलाया है। कदाचित् लौकिकों को होने वाले ( यथा कन्यका बयोति -श्यो में भ्राता आगन्ता ) आर्षाज्ञान के प्रति भी धर्मविशेष हो कारणत्वेन माना गया है ।' ऐसी परिस्थिति में - मानमनोहरकार का यह कथन कि आर्षज्ञान कहीं धर्मविशेषजन्य होता है, सर्वत्र नहीं, विचारणीय है। एसा प्रतीत होता है कि धर्मविशेषजत्वरूप साम्य से आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव करने वाले भासर्वज्ञाचार्य के मत का खण्डन करने का उनका आग्रह है और उपर्युक्त रोति से धर्मविशेषजन्यत्व के कारण उसका निराकरण हो नहीं सकता । अतः उन्होंने आर्षज्ञान का स्वकल्पित नया ही लक्षण प्रस्तुत किया 1. न्यायभूषण, पृ. ११ 2. वैशेषिकसूत्रोपस्कार, पृ. ५१३ 3. गेगसूत्र. ३/३३ 4. वही, ३/३६ 5. धर्मविशेषजत्वाद योगिरत्यक्षान्त त मिति चेत्, न धर्मविशेषजत्वा सिद्धेः । धर्मविशेषमात्रजन्यत्वस्य ध्यभिचारात् । अविनाभावनिरपेक्षः सम्यक् परोक्षानुभव आर्षः । -मानमनोहर, पृ. ९० 6. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. २०८-२०९ कन्यायाश्च ज्ञानसन्दर्शनेन कारणान्तरानुपलम्मेन जन्मान्तरीयतप:प्रभावप्रभावितधर्मविशेषानस्मरणं न्याययम् ।-किरणाबली, पृ. २४६ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण है-'अविनाभावनिरपेक्षः सम्यक् परोक्षानुभवः आर्षः 1 जिससे कि उसका योगि. प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव न हो सके । योगिप्रत्यक्ष और अयोगिप्रत्यक्ष दोनों सविकल्पक-निर्विकल्पक भेद से दो प्रकार के होते हैं । यहां प्रथम सविकल्पक प्रत्यक्ष का निरूपण किया जा रहा है सविकल्पक प्रत्यक्ष भारतीय दर्शन की दो मुख्य धाराएं हैं-वैदिक और अवैदिक । अन्य विषयों की तरह प्रत्यक्ष प्रमाण, उसके भेदों, स्वरूप तथा लक्षण के विषय में भी उनमें पर्याप्त मतभेद प्राप्त होता है । वैदिक दर्शन परम्परा में न्यायवैशेषिक आदि दर्शनों में प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद माने गये हैं -निर्विकल्पक और सविकल्पक । नैयायिक होने के नाते आचार्य भासर्वज्ञ ने भी प्रत्यक्ष प्रमाग के दो भेदों का निर्देश किया है। प्रत्यक्ष प्रमाण के सम्बन्ध में बौद्धों का अपना विशिष्ट मत है । वे केवल निर्विकल्पक को ही प्रत्यक्ष मानते हैं । आचार्य दिङ्नाग ने 'प्रमाणसमुच्य' में कहा है-'प्रत्यक्षं' कल्पनापोडं नामजात्याद्यसंयुतम् ।' दिङ्नाग की तरह धर्मकोति: आदि आचार्यों ने भी केवल निर्विकल्पक को ही प्रत्यक्ष माना है। बौद्धमत में अर्थजन्य ज्ञान हो प्रमाण होता है। यहां अर्थ से उनको परमार्थसत् अर्थ अभिप्रेत है । स्वलक्षण (वस्तुमात्र ) ही परमार्थसत् है । इस प्रकार स्वलक्षणविषयक होने से निर्वि- . कल्पक हो एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण है । निर्विकल्पक कल्पनापोढ अर्थात् कल्पनास्वभाव .. से रहित होता है । कल्पना का स्वरूप यहां विचारणीय है, क्योंकि सविकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण की यही आधारभित्ति है । नामजात्यादियोजना अथवा नामादिसंसर्ग को कल्पना कहते हैं। कल्पना की पांच विधाएं सोदाहरण प्रस्तुत हैं१ देवदत्तः - नामयोजना जातियोजना ३ गच्छति क्रियायोजना ४ शुक्ल गुणयोजना ५ दण्डी द्रव्ययोजना कल्पना की यह पंचविधता नैयायिकों की दृष्टि से है। बौद्धमतानुसार तो यह सब शब्द (नाम) कल्पना ही है, जैसाकि शान्तरक्षित तथा धर्मकीर्ति ने कहा है '....................... अभिलापिनी । प्रतीतिः कल्पना क्लुप्तिहेतुत्वाद्यात्मिका || 'अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीतिः कल्पना । 1. मानमनोहर, पृ. ९० 4. तत्त्वसंग्रह, कारिका १२१३ 2. प्रमाणसमुच्चय, प्रथमाध्याय, पृ. 5. न्यायबिन्दु, पृ १ 3. न्यायबिन्दु, पृ. १ भान्या-१० - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ न्या सार बौद्ध मत में शब्दसंसर्ग कि योग्यता से रहित निर्विकल्पकज्ञान ही वास्तव में प्रमाण है । सविकल्पक प्रत्यक्ष निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा उपस्थापित वस्तु को नाम जात्यादिकल्पित पदार्थों से संसृष्ट करता है, वह सत्य स्वलक्षण वस्तु को असत्य पदार्थो से संवृत कर ग्रहण करता है । इसीलिये उसे संवृतिसत्य कहते हैं । सविकल्पक अर्थजन्य न होने के कारण अप्रमाण है। वैदिक दार्शनिक सविकल्पक शब्द के द्वारा प्रमाण और प्रमा दोनों का अभिधान होता है। जैसे इन्द्रिय को प्रत्यक्ष प्रमाण और इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमा कहा जाता है, उसी प्रकार सविकल्पक अर्थ को सविकल्पक प्रमाण और उससे जनित ज्ञान को संविकल्पक प्रमा माना जाता है। सविकल्पक प्रमा को प्रायः वैदिक मताबलम्बी दार्शनिक एकमत से प्रत्यक्ष ही मानते हैं। ऐतिहासिक क्रम की दृष्टि से सर्वप्रथम सविकल्पक के विषय में कुमारिल भट्ट के मत का दिग्दर्शन किया जा रहा है। आचार्य कुमारिल ने सविकल्पक को निर्विकल्पक से उत्पत्ति मानते हुए परम्परया उसके अक्षजत्व की स्थापना की है। 'वस्तु' पद के द्वारा निर्विकल्पक की तरह सविकल्पक की अर्थोत्पन्नता स्वीकार की है । सविकल्पक प्रत्यक्ष में जात्यादि धर्मो से विशिष्ट अर्थ का बुद्धि के द्वारा निश्चय होता है। सविकल्पक ज्ञान के प्रामाण्य में उसका बोधकत्व हेतु है और यह सविकल्पक ज्ञान के प्रामाण्य में उसका बोधकत्व हेतु है। और यह सविकल्पक झान भी प्रत्यक्ष है, इस बात को कुमारिल ने 'सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता' इस वचन से स्पष्ट कहा है। ___'देवदत्तोऽयम'. स एवायम्' इत्यादि सविकल्पक प्रत्यक्षज्ञानों में स्मरण को अपेक्षा होती है और इन्द्रिय का स्मरण में सामर्थ्य नहीं होता, इस आशंका का निवारण करते हुओ वार्तिककार ने आत्मा में स्मरणसामर्थ्य बतलाकर समाधान किया है। इसी प्रसंग में एक शंका उठ खड़ी होती है कि आत्मा की स्मरणादि में सामर्थ्य मानकर विकल्पसहित वस्तु की प्रत्यक्षता मानने पर निवृत्तेन्द्रियव्यापार वाले पुरुष को भी शब्दस्मरण से 'गौरयम' इत्याकारक जो ज्ञान होता है. वह भी प्रत्यक्ष प्रमाण हो जायेगा । कुमारिल ने यहाँ स्पष्ट कर दिया है कि इसीलिये तो इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष बतलाया है। निवृत्तोन्द्रियव्यापारवाले पुरुष में इन्द्रिद्य का गोपिण्ड से सम्बन्ध नहीं है, अतः शब्दस्मरणोत्पन्न 'गौरयम' इत्याकारक ज्ञान में प्रत्यक्षत्वप्रसक्ति नहीं है । 1 ततः परं पुनर्वस्तु धर्मर्जात्यादिभिर्यया ।। बुष्यावसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ॥ - मीमांसाश्लोकवार्तिक, पृ. १७३ :सू ४, का. १२०) 2 तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धे विद्यमाने स्मरन्नपि । विकल्पयन् स्वधर्मेण वस्तुप्रत्यक्षवान् नरः ॥ - प्रत्यक्षसूत्र, का. १२३ तच्चतदिन्द्रियाधीनमिति तैयपदिश्यते । तदसम्बन्धजातं तु नेव प्रत्यक्ष भिष्यते ॥-प्रत्यक्षसूत्र का. १२४, मीमांसाश्लोकवार्तिक. १७३ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण आचार्य कुमारिल ने बौद्धों के आक्षेपों का खण्डन करते हुए सविकल्पक की प्रत्यक्षता स्थापित को है । सामश्यन्तर से उत्पन्न होने पर भी अर्थ की असाधारणकारणता के कारण जिस प्रकार निर्विकल्पक अक्षजन्य ही होता है, उसी प्रकार सविकल्पक भी अक्षजन्य है । सविकल्पक के लिये प्रयुक्त प्रत्यक्ष शब्द चाहे यौगिक हो अथवा रूढ (अव्युत्पन्न), प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग तो निःसन्दिग्ध है, इसलिये उसकी प्रत्यक्षता भी निःशंका है। . प्रभाकरमतानुयायी शालिकनाथ ने साक्षात् प्रतीत को प्रत्यक्ष कहा है।' निर्विकल्पक और सविकल्पक प्रत्यक्ष की इन दो विधाओं का निर्देश करते हुए उन्होंने बतलाया है कि सविकल्पक बुद्धि का विषय विशिष्ट पदार्थ होता है और निर्विकल्पक बुद्धि का विषय स्वरूपमात्र। दूव्य, जाति तथा गुण में सर्वप्रथम इन्द्रियसंनिकर्षजन्य वस्तुमात्र का ग्राहक विकल्पावस्था से पूर्ववती' निर्विकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है, वह स्वानुभवसिद्ध है। विषयान्तर के अनुसंधान से शून्य और समाहित चित्त वाला व्यक्ति इन्दिय संयुक्त वस्तु का साक्षात् ज्ञान करता है । इस प्रकार स्वानुभव हो निर्विकल्प कज्ञान को सत्ता में प्रमाण है । मीसांसाश्लोकवार्तिक में इस प्रसंग में लिखा है 'अस्ति ह्यालोचनाज्ञान प्रथमं निर्विकल्पकम् । बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥ अपि च 'आलोच्यते वस्तुमान ज्ञानेनापात जन्मना । अचेत्यमानो भेदोऽपि चकास्तीत्यतिसाहसम् ॥5 निर्विकल्पक से अनन्तरवर्ती मविकल्पकज्ञान सासान्य को सामान्य रूप से और विशेष को विशेष रूप से विषय करता है। निर्विकल्पक द्वारा सामान्य ओर विशेष की प्रतिपत्ति होने पर भी उनके भेद का ग्रहण नहीं होता । वस्तुभेदपात्र से भेदबुद्धि नहीं होती, अपि तु पटत्वादि धर्मान्तर का ग्रहण भी भेदबुद्धि में सहकारी होता है। 1. सर्वथा प्रत्यक्षशप्रयोगादस्ति प्रत्यक्षत्वं सविकल्पकस्य । ___-तात्पर्यटीका (श्लोकवार्तिकव्याख्या), पृ. १५३ 2. साक्षात्प्रतातिः प्रत्यक्षम् ।- प्रकरणपंचिका, पृ. ५) 3. आद्या विशिष्ट विषया स्वरूपविषयेतरा ।- वही, पृ. ५४ 4. मीमांसाश्लोकवातिक, पू १६८ (प्रत्यक्षसूत्र, का. ११२) 5. ब्रह्मसिद्धि, २/२७, पृ. ७० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार सामान्य व विशेष में भेद होने पर भी अनुवृत्ति और व्यावृत्ति का ग्रहण न होने के कारण निर्विकल्पकज्ञानदशा में भेदबुद्धि उदित नहीं होती है। सामान्य तथा विशेष वस्तु से भिन्न अनुवृत्ति व व्यावृत्ति के ग्रहण में इन्द्रियों का सामर्थ्य न होने के कारण सामान्य और विशेष के अनुवृत्ति तथा व्यावृत्ति अंश प्रत्यक्षविषय कैसे हो सकते हैं, इस आशंका का अपाकरण करते हुए शालिनाथ ने बतलाया है कि इन्द्रियां अथवा ज्ञान ही यदि चेतन होते, तो यह आपत्ति उपस्थित होती. किन्तु ऐसी बात नहीं । अतः समस्त अनुभवितव्य का अनुभविता आत्मा संस्कार द्वारा अन्य वस्तु का अनुसंधान करता हुआ इन्द्रिय के द्वारा सामान्य विशेष रूप से वस्तु को प्रतीति कर ही सकता है। पटादि अन्य वस्तु के अनुसन्धान के पश्चात् ही भिन्नता का निश्चय होता है । यह सविकल्पदशा में ही संभव हो सकता है, निर्विकल्पक में नहीं । सविकल्पक प्रत्यक्ष की ऐन्द्रियकता का स्पष्टतया समर्थन करते हुए शालिकनाथ ने कहा है 'न चेदलमनिन्द्रियजं ज्ञानम्, इन्द्रियाधीनप्रवृत्तित्वात् । अपरोक्षावभासो ह्ययं सविकल्पकप्रत्ययः । तादृशो नेन्द्रियव्यापारमन्तरेणास्ति । 1 अनुवृत्ति और व्यावृत्ति से अन्वय और व्यतिरेक अभिमत हैं। अन्वयव्यतिरेक दो प्रकार का होता है-एक तार्किकसम्मत और दूसरा मीमांसकाभिमत । तार्किकसम्मत अन्वयव्यतिरेक कार्यकारणभावग्रहण में उपयोगी होता है, क्योंकि 'यत्सत्वे यत् सत्त्वम्' यह अन्वय का स्वरूप माना जाता है और 'यभावे यदभावः' यह व्यतिरेक का स्वरूप । 'दण्डसत्वे घटसत्वम्' 'दण्डाभावे घटाभावः' इस प्रकार अन्वयव्यतिरेक दण्ड और घट के कार्यकारणभावग्रहण का उपयोगी है । मीमांसकाभिमत, विशेषत: अद्वैत वेदान्तियों ने जिसका उपयोग किया है, अन्वय व्यतिरेक भेदग्रह का उपयोगी माना जाता है । 'यस्य अन्वये यस्य व्यतिरेकः, स ततो भिन्नः' इस पद्धति के आधार पर घटत्वजाति का सभी घटो में अन्वय और घटव्यक्तियों का परम्पर व्यतिरेक या भेद देखकर यह निश्चित होता हैं कि घटत्व जाति और घटव्यक्ति दोनों परस्पर भिन्न है। इसी प्रकार घटस्टादिज्ञान सर्वानुगत होने से अनुवृत्ति का विषय है और घटपटादि विषय परस्पर व्यावृत्त होने के कारण व्यावृत्ति के विषय हैं । अनुवृत्त व्यावृत्त से भिन्न होता है, अतः ज्ञान और विषय का भेद, आत्मा और अनात्मा का भेद स्थिर किया जाता है। एवं अन्वित वस्तु में एकता और व्यतिरिक्त वस्तु में अनेकता भी अन्वय व्यतिरेक से सिद्ध की जाती है। 2. ननु वस्त्वन्तरानुसन्धाने नेन्द्रियं समर्थम् । इन्द्रियसामर्यसमुत्थञ्च प्रत्यक्षमिति कथं सामान्यविशेषात्मकं प्रत्यक्षस्य विषय: ।-प्रकरणपंचिका, पृ. १६४. 3. भवेदेतदेवं यदिन्द्रिया येव चेतनानि स्युः, ज्ञानानि वा । आत्मा त्वेक: सर्वानुभवितव्यानुभविता संस्कारवशेन वस्त्वन्तरमनुसन्दधदिन्द्रियेण सामान्यविशेषात्मना वस्तु शक्नोत्येव प्रत्येतुम् । -प्रकरणपंचिका, पृ. १६४-१६५. 4. सविकल्पकन्तु विशेषणविशेष्यमावमनुगच्छति । -वही, पृ. ५५. 5. प्रकरणपंचिका, पृ. ५६. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण न्यायमंजरीकार जयन्त जिस पंचविध-कल्पनास्मक सविकल्पक को बौद्धों ने प्रत्यक्ष प्रमाण कोटि से बहिष्कृत किया है, वही न्याय-वैशेषिक में सविकलपक प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में स्वीकृत है। जयन्तभट्ट ने सविकल्पकज्ञान की प्रत्यक्षता को स्थापित करते हुए कहा है कि समयस्मरण की अपेक्षा होने पर भी सविकल्पविज्ञान सन्निकर्षजन्य न होने के कारण अप्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता । विशेषण विशेष्यज्ञानादि सामग्री की अपेक्षा होने से अधिक आयाससाध्यत्त्र को सविकल्पक के अप्रामाण्य का प्रयोजक नहीं माना जा सकता । जयन्त ने इस दूषण को भूष ग बतलाने के लिए एक सुन्दर तर्क दिया है कि गिरिशिखर पर चढ़कर जो वस्तु का ग्रहण किया जाता है, वह अप्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता । वाचस्पति मिश्र सर्वदर्शनकाननपञ्चानन वाचस्पति मिश्र ने भी सविकल्पक ज्ञान की प्रत्यक्षता की सुरक्षा के लिये युक्तियाँ दी है। उनका कथन है कि स्मरणसहकृत इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न होने के कारण उनकी इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यता का विलोप नहीं होता। इसकी मानसत्वसिद्धि की अपेक्षा इन्द्रियजत्व में ही प्रयास उचित होगा। सविकलपक ज्ञान निर्विकल्पक ज्ञान की अपेक्षा पश्चात् उत्पन्न होने पर भी इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य होने के कारण प्रत्यक्ष तो होता ही है । भासर्वज्ञ सविकलपक प्रमा के प्रत्यक्षत्व के विषय में भासर्वज्ञ भी सभी के साथ है। इसीलिये सविकल्पक को प्रत्यक्ष के विभागों में स्थान दिया है । सविक पक की परिभाषा इस प्रकार की गई है 'तत्र संज्ञादिसंबन्धोल्लेखेन ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं सविकल्पकम् । यथा देवदत्तोऽयं दण्डीत्यादि । 1 तदेवं एमयस्मरणसापेक्षत्वेऽपि नेन्द्रियार्थसन्निवर्षात्पन्नतामतिवर्तते सविकल्पकं विज्ञानमिति कथमप्रत्यक्षम् ? .. न हि वहुक्लेशसाध्यत्वं नाम प्रामाण्यमुपहन्ति, उक्तं च न हि गिरि. शृंगमारुह्य यद गृह्यते तदप्रत्यक्षम् | --न्यायमजरी, पूर्वभाग 1, पृ. ८९. 2 न च तस्मरणसहकारिणेन्द्रियार्थसन्निकर्षणोपजनितं तदिन्द्रियार्थसन्निकर्षणोत्पन्न न भवति । यस्तु भवताम-य मानसत्वे प्रयासः स वरमिन्द्रियजत्व एव भवतु । तथा सति दर्शनव्यापारत्वमस्य साक्षात्समर्थित भवति ।...पश्चाज्जायमानमपि इन्द्रियार्थसन्निकर्षप्रभवतया प्रत्यक्ष भवत्येव ।-न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, 1.1.४...... 3. न्यायसार, पृ. ३-१. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ न्यायसार एक ही निर्विकलपक वस्तु नाम आदि विकल्पों से सम्बन्धित होकर वैसे ही सविकल्पक बन जाती है, जैसे शुक्ति रजतकल्पना से सम्बद्ध होकर रजततादात्म्यापन्न हो जाती है। रजतसम्बन्धरहित शुल्क निर्विकल्पक और रजतसम्बन्धविशिष्ट सविकल्पक जा सकती है। विकल्प. विशेषण या प्रकार कभी यस्त का स्वाभाविक अर्थात अनारोपित धर्म होता है और कभी औपाधिक अर्थात् आरोपित । जैसे 'रक्तः पटः' इत्यादि स्थानों पर पटगत रक्तिमा अनारोपित धर्म है, किन्तु 'रक्तः स्फटिकः,' 'इदं रजतम्' इत्यादि प्रतीतियों में रक्तिमा आदि धर्म आरोपित हो होता है । आरोपित वस्तुविषयक प्रतीति को भ्रम माना जाता हैं । भ्रम प्रत्यक्षज्ञान का ही एक प्रकार माना जाता है। रक्त स्फटिक प्रत्यक्षात्मक भ्रम का विषय होने के कारण आरोपित या मिथ्या कहलाता है । इस दृष्टि से सविकल्पक पदार्थ के विषय में विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि सत् और असत् दो भागों में पदार्थों का वर्गीकरण करने वाले विज्ञानवादियों ने स्वलक्षण को सत तथा सामान्यलक्षण या सविकल्पक को असत् माना है। वहूनित्व धूमसहचरितत्त्र आदि विकल्पकों से संवलित वहनिरूप सविकलपक से जनित अनुमान ज्ञान को भ्रमात्मक इसीलिये माना जाता है कि वह तदभाववति तत्प्रकारक रूप है अर्थात् नाम, जाति, गुण, द्रव्य और क्रिया इन पांच कल्पनाओं से रहित अग्नि में नामादिवैशिष्ट्यावगाही होने के कारण अनुमान ज्ञान पैसे हो भ्रम है. जैसे कि अरजतभूत शुक्ति में रजतावगाहो ज्ञान । यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सविकल्पकत्रस्तुविषयकनकज्ञान और सविकल्पकवस्तुजन्य ज्ञान ये दो पदार्थ हैं। जैसे शुक्तिरजतविषयक 'इदं रजतम्' इत्याकारक ज्ञान तथा 'इदं रजतम्' इत्याकारक शुक्तिरजतज्ञान से जनित 'इदं मदिष्टसाधनम्' इत्याकारक इष्टसाधनत्वादिज्ञान । सविकल्पकप्रस्तुजनित ज्ञान सविकल्पक प्रत्यक्ष है, यह सभी दार्शनिक मानते हैं । अन्तर केवल इतना है कि कुछ लोग उसे प्रमात्मक मानते हैं और कुछ लोग भ्रमात्मक, जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है। सविकल्पक पदार्थ भ्रमात्मक प्रत्यक्ष का विषय होने के कारण आरोपित माना जाता है, बौद्धों ही इस उद्घोष गा के तल में प्रविष्ट होकर आचार्य भासर्वज्ञ सविकल्पक प्रमाण को अतीन्द्रिय कह देते हैं 'तच्चातीन्द्रियत्वात्साक्षाद उदाहर्तुं न शक्यते, तत्फलमेव उदाहियते - यथा देवदत्तः । उनका सीधा प्रहार बौद्धसिद्धान्त पर है । उनका कहना है कि किसी अतीन्द्रिय वस्तु को प्रत्यक्ष भ्रम का विषय मानकर आरोपित कहना कैसे संभव हो सकता है? घटादि वस्तु का प्रत्यक्ष करता हुआ कोई भी व्यक्ति उसमें शब्दसम्बन्ध का प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। अतः उसे अतीन्द्रिय कहा जा सकता है न कि आरोपित । 1. न्यायभूषण, पृ. १७३. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण यहाँ एक अवान्तर विचार अनिवार्य-सा उठ खड़ा होता है कि श दार्थसम्बन्ध का प्रमात्मक प्रत्यक्ष कौन लोग मानते थे, जिनको ध्यान में रखकर बौद्धों ने उसके ो भ्रमात्मक माना है। विचार करने पर स्पष्ट है कि शब्दार्थ-सम्बन्धको प्रमा मानने वालों में जैमिनिदर्शन और वाक्यपदीयकार का विशिष्ट स्थान है। जैमिनि ने 'औत्पत्तिकस्तु शब्दस्याथन सम्बन्धस्तस्य ज्ञानमुपदेशोऽव्यतिरेकश्चार्थेऽनुपलब्धे तत्प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात्' इस सूत्र में कहा है कि शब्द का अर्थ के साथ सम्बन्ध औत्पत्तिक होता है । औत्पत्तिक शब्द का अर्थ करते हुए शबरस्वामी ने लिखा है-'औत्पत्तिक इति नित्यं बमः' । वे शब्दार्थसम्बन्ध के ज्ञान को अव्यतिरेक या अव्यभिचारी बताते हुए प्रमात्मक मानते है. क्योंकि वह इतरप्रमाण की अपेक्षा के बिना ही अपने अर्थ का बोध कराता है । बादरायण की साक्षी देकर यह भी सिद्ध कर दिया है कि ब्रह्मसूत्र के रचयिता महर्षि व्यास को भी यह सम्मत है। यद्यपि वह सूत्र धर्मप्रमाणपरक है, तथापि उसके पदविन्यास से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि वह शब्दार्थसम्बन्धज्ञान को प्रमा भी बतला रहा है। ___ जाति और आकृति दोनों मीमांसकमत में पर्याय माने जाते हैं, जबकि जाति और आकृति को तार्किक भिन्न-भिन्न मानते हैं । जैसा कि-- 'जातिमेवाकृति प्राहुः व्यक्तिराक्रियते यया । इस वचन से स्पष्ट हो रहा है । गो में सास्नादिमत्व आकार सभीको प्रत्यक्षसिद्ध है और शब्द का सम्बन्ध उसकी जाति से माना जाता है । क्रिया का योग 'ब्रीहीन् अवहन्ति' और गुण का सम्बन्ध 'अरुणया पिंगाक्ष्या एकहायन्या...' इत्यादि स्थलों पर स्पष्ट किया गया है। ये ही वे विकल्प हैं, जिनके विषय में बौद्धों का कहना है कि ये स्वलक्षण में काल्पनिक हैं, किन्तु मीमांसकों ने उन्हें वास्तविक और प्रत्यक्षप्रमाण का विषय माना है । कुमारिल भट्ट ने स्पष्ट लिखा है 'लतः परं पुनर्वस्तु धमॆर्जात्यादिभिर्यया । बुद्ध्यावसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ।' इस प्रकार मीमांसकों ने शब्दसम्बन्ध को प्रत्यक्ष माना है । वाक्यपदीयकार भर्तृहरि ने भी 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाद् ऋते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते ॥" 1. जैमिनिसूत्र, ५/१/५. 2 शाबरभाष्य, १/१/५. 3. मीमांसाश्लोकवार्तिक, आकृतिवाद, का० ३. 4. मीमांसाश्लोकवार्तिक, पृ. १७३ (सूत्र ४, का. १२०) 5. बाक्यपदीय (ब्रह्मकाण्ड), कारिका १२३, पृ. १०२, fall Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार ऐसा कहकर प्रत्येक पदार्थ का भान शब्दसंसृष्ट माना हैं । अतः प्रदार्थ का प्रत्यक्ष होने के साथ-साथ शब्दसंसर्ग का भान भो प्रत्यक्ष से ही होता है । मण्डन मिश्र ने ब्रह्मसिद्धि में 'सर्वप्रत्ययवेद्येऽस्मिन् ब्रह्मरूपे व्यवस्थिते' ऐसा कहकर प्रत्येक ज्ञान को ब्रह्मसंसृष्ट पदार्थविषयक माना है । उनका (मण्डन का) भी ब्रह्म शब्दात्मक ही माना गया हैं। शब्दब्रह्म और परब्रह्म का ताद त्म्य मानते हुए उन्होंने कहा है र 'सर्वप्रत्ययवेद्ये वो ब्रह्मरूपे व्यवस्थिते । प्रपचस्य प्रवलयः शब्देन प्रतिपाद्यते ।।1 'अक्षरमिति शब्दात्मतामाह ।' इस सम्बन्ध में भासर्वज्ञ का स्पष्ट मतभेद झलक रहा है। उनकी मान्यता है कि शब्दादिविकल्पजाल का सम्बन्ध यद्यपि उपर्युक्त रीति से प्रत्यक्षग्राह्य है, किन्तु वस्तुतः उन विकल्पों की सत्ता अपने में वैसे ही नहीं है, जैसे कि शुक्ति को रजत में । अतः सविकल्पज्ञान भ्रममात्र है, बौद्धों की इस व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए आचार्य भासर्वज्ञ ने उसे अतीन्द्रिय माना है। सविकल्पकज्ञान जिन शब्दादि विकल्पों को अपने में समेटे हुए प्रतीत होता है, उनका सम्बन्ध अतीन्द्रिय इसलिये है कि वे अन्य इन्द्रियग्राहय हैं और धर्मों अन्य इन्द्रिय से प्राह्म है । अतः वैशिष्ट्य का ग्रहण इन्द्रिय से संभव न होने के कारण अतीन्द्रिय कहा गया है। उनका कहना है कि घटादि वस्तु को देखकर जैसे चक्षु घट एवं घटगत रूपादि पदार्थो का ग्रहण करती है, वैसे यब्दसम्बन्ध का भान पदार्थग्राहक इन्द्रिय से नहीं होता। निर्विकल्पकज्ञान निर्विकल्पक का 'वस्तुमात्रावभासकं निर्विकल्पकम' यह लक्षण किया है । अर्थात वस्तुमात्र का अवभासक निर्विकल्पक ज्ञान होता है । जैसे, जो प्रथम नेत्रसंनिपात से झान उत्पन्न होता है, वह निर्विकल्पक कहलाता है। युक्तावस्था में योगिज्ञान भी निर्विकल्पक ज्ञान होता है। योग से समाधि (एकाग्रता) अभिप्रेत है उसमें स्थित योगी को निर्विकल्पक ही प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है, क्योकि विकल्पता में एकाग्रता की उपपत्ति नहीं हो सकती । 1. ब्रह्मसिद्धि, चतुर्थकाण्डः कारिका ३, पृ. १५७. 2. ब्रह्मासिद्धि, प्रथम काण्ड, पृ. १६. 3. न्यायसार, पृ. ४ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ विमर्श अनुमान प्रमाण सा अनुमानादि प्रमाणों के उपजीव्यत्वेन तथा ज्येष्ठत्वेन प्रत्यक्ष निरूपणानन्तर उद्देशकमप्राप्त अनुमान का निरूपण किया जा रहा है। सूत्रकार के 'अथ तत्पूर्वक त्रिविधमनुमान पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च'1 इस अनुमानसूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार, वार्तिककार तथा जयन्त आदि ने सूत्रस्य 'तत्पूर्वकम्' को अनुमान क लक्षण तथा शेष भाग को अनुमान का विभाग माना है ।' 'तत्पूर्वकम' में सत्य पद केरल प्रत्यक्ष का ही वोधक नहीं, अपितु 'ते च तानि चेति तानि' इस एकशेष द्वारा 'ते' अविनाभाव-सम्बन्धदर्शन तथा लिंगदर्शन का बोधक है और 'तानि' प्रत्यक्ष, अनुमान आदि सभी प्रमागों का बोधक है । अतः प्रत्यक्षजनित संस्कार व संशयादि ज्ञान में अनुमान-लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं, क्योंकि वे अविनाभावदशन तथा लिंगदर्शन से जन्य नहीं हैं। 'तानि' पद से सभी प्रत्यक्षादि प्रमाओं के अनुमानमलक अनुमान में लक्षण की अव्याप्ति भी नहीं है। देश, काल, जाति आदि के भेद से अनन्त होने पर भी वह (अनुमान) तीन भेदों में ही विभक्त है, यह नियम बतलाने के लिये सूत्र में त्रिविध पद दिया गया है । अनुमान के तीन प्रकार अन्य नहीं, किन्तु पूर्ववत्, शेषवत् व सामान्यतोदृष्ट हैं, इसके लिये पूर्ववत् आदि पद दिये गये हैं। कारण से कार्य की अनुमिति पूर्ववत, कार्य से कारण की अनुमिति शेषवत् तथा कार्यकारण से अन्य अविनाभून लिंग से अर्थान्तर की अनुमिति सामान्यतोदृष्ट है अथवा पूर्ववत् पद से केवलान्वयी अनुमान का, शेषवत् से केवल व्यतिरेकी और सामान्यतोदृष्ट पद से अन्वयव्यतिरेको अनुमान का ग्रहण है । ____ भासर्वज्ञ ने अनुमानसूत्र की पूर्वाचार्यो द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त व्याख्या का उल्लेख कर कहा है कि केवल 'तत्पूर्वकम्' अनुमान का लक्षण नहीं हो सकता, 1 न्यायसूत्र, १/१/५ 2. (अ) न्यायभाष्य, १/१/५ (ब) तत्पूर्वकमनुमानमित्यनेन समानासमानजातीयेभ्योऽनुमानं व्यवच्छिद्यते इति ।... तस्माद व्यवस्थितमेतत् तत्पूर्वकमनुमानमिति । -न्यायवार्तिक, १/१/५ (स) अनुमानमिति लक्ष्यनिर्देशः, तत्पूर्वकमिति लक्षणम् । -न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १३३ 3. न्यायभूषण, पृ. १६० 4. न्यायभूषण, पृ. १६० भान्या-११ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ न्यायसार क्योंकि प्रत्यक्षजन्य संस्कार और संशयादिज्ञान में लक्षण की अतिव्याप्ति है। इसके परिहार के लिये 'ते च तानि च इस एकशेष का आलम्बन कर अविनाभावसम्बन्धदर्शन तथा लिंगदर्शन का जो ग्रहण किया गया है, वह उचित नहीं है, क्योंकि सर्वनाम प्रकान्त के परामर्शक होते हैं और अविनाभावसम्बन्ध तथा लिंग पूर्वप्रकान्त नहीं हैं। अतः उन्होंने 'तरपूर्वकम्' को अनुमान का लक्षण न मानकर सूत्रस्थ अनुमानम्' पद को ही 'अनुमीयतेऽनेन' इस करणव्युत्पत्ति से अनुमितिकरण मानकर लक्षण माना है । अर्थात् अनुमितिज्ञान में जो भी साधन हों, वे सब अनुमान हैं। इसी अभिप्राय से 'न्यायसार' में उन्होंने 'सम्यगविनाभावेन परोक्षानुभवसाधनं अनुमानम् यह अनुमान का लक्षण किया है । इस लक्षण में 'अविनाभावेन' में साधकतम अर्थ में तृतीया मानकर तथा अविनाभावरूप विषय से विषयी व्याप्तिस्मरण का ग्रहणकर समीचीन व्याप्तिस्मरण रूप असाधारण कारण से जन्य जो परोक्षानुभव है, उसका साधन अनुमान है, यह अनुमान लक्षण निष्पन्न होता है। इससे परोक्षानुभव. कारणभूत सभी साधनों का संग्रह हो जाता है। यहाँ 'सम्यकू' पद अविनाभाव का विशेषण है। 'सम्यक् चासौ अविनाभावश्च' इस रीति से कर्मधारयसमास मानते हुए न्यायसार के व्याख्याकार जयसिंहसरि तथा रामभट ने भी इसी तथ्य को स्वीकृत किया है। अतः जिस व्यक्ति को अविनभावस्मृति के बाद भी यदि किसी कारण से उसमें संशय या भ्रान्ति हो जाती है, तो उस संशय अथवा भ्रांतिरूप अविनाभावस्मृति से जन्य परोक्षानुभव न अनुमिति कहला सकता है और न उसका साधन अनुमान कहलाता है. एतदर्थ सम्यक् पद दिया है। अर्थात् परोक्षानुभव का असाधारण कारण अविनाभावरूप व्याप्तिस्मरण समीचीन होना चाहिये, संशयात्मक नहीं । अथवा बौद्ध अनुमितिज्ञान को भ्रान्त मानते है, क्योंकि वह ज्ञान अर्थभिन्न स्वप्रतिभासरूप ज्ञान में अर्थ के आरोप द्वारा होता है । भ्रान्तज्ञान होने पर भी बहनिज्ञानरूप अर्थ के अविसंवादी होने से वे अनुमान को प्रमाण मानते हैं। बौद्धाभिमत अनुमान में प्रमाणता के निरास के लिये लक्षण में 'सम्यक् पद दिया है।' बौद्धसम्मत अनुमान भ्रान्तज्ञान होने से प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह समीचीन नहीं है। 1. अनुमानपदमेव सव्युत्पत्तिकं लक्षणार्थम्... । तथाऽनुमीयतेऽनेनेति अनुमितिः क्रियते येन तदनुमानमिति लभ्यते । --- न्या.भू., पृ. १६१ 2. न्यायसार, पृ. ५ 3. न्यायभूषण, पृ. १६४, १६५ 4. वही, पृ. १६५ 5. (क) सम्यग् भिन्नाधिकरणत्वप्रतीतिरहितः । स चासावविनाभावश्च तेन । --न्यायतात्पर्य दीपिका, पृ. ८७ (ख) रामभट्टप्रभृतयः व्यवहितान्वयमसहमानाः सम्यक्चासावविनाभावश्चेति व्याख्यातवन्तः । 6. भ्रान्तं ह्यनुमानम् । स्वप्रतिभासेऽनथे ऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात । -न्यायबिन्दुटीका, पृ. ८ 7. अथवा अनुमेयज्ञानं भ्रान्तमेवेत्याहुः शाक्या: । तदुक्तम्- 'भ्रान्तिरप्यर्थसम्बन्धादिति' तस्य निषेधार्थ सम्यग्ग्रहणम् । -न्यायभूषेण, पृ. १६५ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण अविनाभाव अनुमानलक्षण में अविनाभाव का स्वरूप बतलाते हुए भासर्वज्ञ ने साध्य के साथ साधन की स्वभावतः व्यादित अर्थात् साध्य और साधन में साध्य व्यापक होता है और साधन व्याप्य इत्याकारक स्वाभाविक (अनौपाधिक) नियम को अविनाभाव कहा है। जैसे बहूनि तथा धूम में बहूनि व्यापक है और धूम वहूनि का व्याप्य है, यह स्वाभाविक नियम धूम और वनि का अविनाभाव शब्द भी 'न विना भवतीति अविनाभावः' इस व्युत्पत्ति से व्याप्य का व्यापक के बिना न रहनारूप साध्यसाधन के अनौपाधिक सम्बन्ध को ही बतला रहा है। यह अविनाभावरूप व्याप्ति अन्वयव्यतिरेक भेद से अर्थात् विधि-प्रतिषेध भेद से दो प्रकार की है। विधिमुख से या भावमुख से प्रतीयमान व्याप्ति अन्वयव्याप्ति तथा प्रतिषेधमुख से अर्थात् अभावमुख से प्रतीयमान व्याप्ति व्यतिरेकव्याप्ति है । अर्थात् भावरूप साध्य-साधन की व्याप्ति अन्वयव्याप्ति तथा अभावरूप साध्याभाव व साधनाभाव की व्याप्ति व्यतिरेकव्याप्ति है । इसी का स्पष्टीकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि साध्य सामान्य से साधन-सामान्य की व्यारित अन्वयव्याप्ति है । जैसे 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निः' इस रूप से अग्निसामान्य के साथ धूमसामान्य का अव्यभिचारी सम्बन्ध अन्वय-व्याप्ति है। इसी प्रकार साधनसामान्याभाव के साथ साध्य-सामान्याभाव का अव्यभिचारी सम्बन्ध व्यतिरेक-व्याप्ति है । जैसे 'यत्र यन्न वहून्यभावस्तत्र तत्र धूमाभावः' इस रूप से धूमाभावसामान्य के साथ वहून्यभावसामान्य का अव्यभिचारी सम्बन्ध व्यतिरेकव्याप्ति है। जैसा कि पहिले कहा जा चुका है, भासर्वज्ञ ने अविनाभाव का लक्षण 'स्वभावतः साध्येन साधनस्य व्याप्तिरविनाभावः' यह किया है । वाचस्पति तथा अन्य नैयायिकों को 'स्वाभाविकः सम्बन्धो व्याप्तिः' यह व्याप्तिलक्षण अभिप्रेत है। वस्तुतः उन दोनों में कोई भेद नहीं है । खण्डनकार ने स्वाभाविक शब्द के अर्थ के विषय में अनेक विकल्प प्रस्तुत करते हुए उन सभी का क्रमशः युक्तिपुरःसर खण्डन प्रस्तुत कर स्वाभाविक सम्बन्धरूप व्याप्ति के लक्षण का खण्डन किया है । जैसे प्रथम पक्ष : 'स्वाभाविक' का सम्बन्धिस्वभाव पर आश्रित अर्थ मानने पर सम्बन्धिस्वरूप के आश्रित सम्बन्ध व्याप्ति कहलायेगा तथा व्यप्तिरूप सम्बन्ध के साध्य और साधन दो सम्बन्धी होने से साध्य और साधन उभयाश्रित सम्बन्ध व्याप्ति होगी। ऐसी 1. स्वभावत: साध्ये न साधनस्थ ब्याप्तिरविनाभावः ।-न्यायसार, पृ. ५ 2. न्यायसार, पृ. ५ 3. स्वाभाविकस्तु धूनादीनां वहन्यादिसम्बन्धः । -न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १/१/५ 4. खण्डनखण्डखाद्य, पृ. ३६५-३६७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ न्यायसार स्थिति में साध्य और साधन के अव्यभिचारी सम्बन्ध को तरह उनके व्यभिचारी सम्बन्ध के भी उभयाश्रित होने से वह भी व्याप्ति माना जायेगा और जैसे धूम को अग्नि का व्याप्य माना जाता है. वैसे अग्नि को भी धम का व्याप्य मानना पडेगा। होरकादि में व्यभिचरित पार्थिवत्व के होने पर लोह लेख्यत्व के न होने से पार्थिवत्व और लोहलेख्यत्व के व्यभिचारीसम्बध में व्याप्तलक्षण की अतिव्याप्ति होगी। द्वितीय पक्ष : . स्वाभाविक शब्द का सम्बन्धिस्वभावजन्य अर्थ मानने पर सम्बन्धिस्वभाव से जनित कुछ व्यभिचारी सम्बन्धों में रक्षण की अतिव्याप्त और सम्बन्धिस्वभाव से अजनित नित्य सम्बन्धरूप व्याप्ति में अव्याप्ति होगी। तृतीय पक्ष : स्वाभाविक पद का सम्बन्धित्वेन विवक्षित पदार्थो के आश्रित अर्थ मानने पर भी साध्य-साधन के व्यभिचारो सम्बन्धों में लक्षण को अतिव्याप्ति और सम्बन्धि स्वभाव के अनाश्रित अव्यभिचारी सम्बन्ध में अव्याप्ति होगी। चतुर्थ पक्ष : सम्बन्धिस्वभावव्याप्त को व्याप्ति मानने पर आत्माश्रय दोष की प्रसक्ति है, क्योंकि व्याप्य का अर्थ व्याप्ति का आश्रय है और इस प्रकार व्याप्ति के निरूपण में व्याप्ति की ही अपेक्षा हो जाती है। साध्य और साधन के सम्बन्ध को व्याप्य मानने पर साध्य और साधन के व्याप्यभूत सम्बन्ध की अपेक्षा व्यापक अधिकदेशवृत्ति होने से वहां एक सम्बन्धी धूम के ज्ञान से अपर सम्बन्धी वनि की अनुमिति नहीं होगी क्योंकि व्याष्य के ज्ञान से व्यापक अनुमिति होती है और इस पक्ष में धूम तथा वहूनि में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव नहीं है । पंचम पक्ष : स्वाभाविक का यदि 'सर्वे शब्दाः सावधारणाः' इस न्याय के अनुसार 'स्वाभाविक एव न तु अस्वाभाविकः' अर्थात सम्बन्धिस्वरूप भिन्न पदार्थ के द्वारा जो प्रयुक्त न हो, उस सम्बन्ध को व्याप्ति कहा जाता है। इस पक्ष में अभिमत अकृतक मानने पर अकृतक सम्बन्ध के किसी से भी जनित न होने के कारण अन्येन न प्रयुक्तः यह कहना निरर्थक है तथा अभिमत सम्बन्ध को कृतक मान्ने पर असंभव दोष आता है। क्योंकि किसी भी सम्बन्ध के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि वह अपने संबंधिस्वरूप से भिन्न और किसी से प्रयुक्त नहीं है, क्योंकि अदृष्टादि के कार्यमात्र के प्रति कारण होने से सम्बन्धिस्वरूप से भिन्न अष्टादि के द्वारा प्रयक्त ही है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण ८५ ____ यदि इन विकल्पों से अतिरिक्ति कोई और विकल्प माना जाता है, तो उनका निर्वचन न हो सकने पर उनका बोध ही नहीं होगा। व्याप्ति के लक्षण में स्वाभाविक पद का प्रयोग करने पर उपर्युक्त रीति से व्याप्ति के लक्षण को अनुपपत्ति होती है, इस बात को आचार्य भासर्वज्ञ ने जान लिया था । अतः उन्होंने व्याप्ति के लक्षण में स्वाभाविक शब्द का प्रयोग न कर स्वभावतः पद का प्रयोग किया, जिससे वह उपर्युक्त विकल्प दोषों से बच सके । • अविनाभावनिश्चय की सामग्री साध्यसाधन के अविनाभाव का ज्ञान किससे होता है इस पर विचार करते । भासर्वज्ञ ने कहा है कि केवल अनुमान से अविनाभाव का ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि अविनाभावज्ञापक अनुमान में अविनाभावरूप व्याप्तिज्ञान की आवश्यकता होगी, उनका ज्ञान दूसरे अनुमान रो, दूसरे अनुमान में भी अविनाभावरूप व्याप्ति ज्ञान के लिये तीसरा जनुमान मानना होगा। इस प्रकार अनवस्था दोष होगा।' केरल बोर बोर अनेक स्थानों पर अग्नि के साथ साथ धूमदर्शनरूप भूयोदर्शन प्रत्यक्ष से भी धूप और अग्नि की अविनाभावरूप व्याप्ति का ज्ञान सम्भव नहीं । क्योंकि भूयोदर्शन का अर्थ य दे धूमाग्निविषयय अनेक दर्शन है, तो वे अनेकदर्शन दृष्ट धूमाग्निविषयक हो हैं अथवा अशेष अग्निधूमविषयक ? अशेषविषयक मानने पर देशकलाभेद से घूम व अग्नि व्यक्तियों की अनन्तता के कारण सहस्र कल्पों में भी समस्त धूमाग्निविषयक दर्शन संभव नहीं होगा तथा अशेप धूमाग्नि व्यक्तियों के सम्बन्ध का ग्रहण न होने पर कि पी धूम का अग्नि से विनाभाव भी हो सकता है, इस व्यभिचाराशंका की निवृत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि प.थिव वस्तु में हज बार लोहच्छेद्यता देखने पर भी कोई पार्थिव वस्तु लोहच्छेद्य नहीं है, इत्याकारक व्यभिचाराशंका की निवृत्ति नहीं होती और उसके अभाव में 'यत्र यत्र पार्थिवं वस्तु तत्र तत्र लोहच्छेद्यत्वम' इत्याकारक व्याप्ति बन सकती। यदि प्रत्येक धूम तथा अग्नि के साहचर्य का दर्शन अग्नि धूमविषयक है, तो एक दर्शन से ही अशेष धूमाग्निविषयक व्याप्तिज्ञान हो जाने से दर्शनों को सार्थकता नहीं रहेगी।' व्याप्तिग्रहण के विषय में भासर्वज्ञाचार्य का स्वमत अन्य दा निकों के व्याप्तिग्रहण सम्बन्धी मतों का निराकरण करते हुए आचार्य भासर्वज्ञ ने कहा है कि प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण होता है । 'यत्र धूमस्तत्राग्निः, यत्र अग्न्यभावस्तत्र धूमाभावः, यह अविनाभाव कहलाना है और इस अविनाभाव का ग्रहण अग्निसहित (महानसादि) और अग्निरहित (महानदादि) देशों से सम्बद्ध, विस्फारित चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा प्रथम बार ही हो जाता है । 1. न्यायभूषण, पृ. २१६ 2. वही, पृ. २१६-२१७ 3. वही, पृ. २१८ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार । किसी विषय के ज्ञान से जन्य संस्कारों की पटुता के लिये आदरप्रत्यय, अभ्यास प्रत्यय तथा पटु प्रत्यय-इन तीनों में से किसी एक की अपेक्षा होती है । जिस प्रकार पर, मध्यम तथा अल्प बुद्धि वाले पुरुषों को संस्कारपाटव के लिए ग्रन्थादि के अभ्यास की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार व्याप्तिज्ञान के संस्कारों की दृढ़ता के लिये भूयोदर्शन की अपेक्षा होती है। धूम और अग्नि के व्याप्यव्यापकभाव को अविनाभाव कहते हैं और वह सकल धूम तथा अग्नि व्यक्तियों में विद्यमान एक ही है। समस्त धूम तथा अग्मि व्यक्तियों का ग्रहण न होने पर भी तन्निष्ठ व्याप्ति (अधिनाभाव) का ग्रहण एकदो धूमाग्नि व्यक्तियों में अविनाभावदर्शन से भी उसी प्रकार हो जाता हैं जैसे अनन्त व्यक्तियों में समवेत सामान्य और समवाय का एक दो सम्बन्धियों का ग्रहण होने पर भी ग्रहण हो जाता है। यहाँ अन्तर यही है कि अनुमान का व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध होता है, समवाय सम्बन्ध नहीं । दोनों के सम्बन्धात्मक होने पर भी स्वभाव को विचित्रता के कारण ऐसा होता है । अविनाभाव निखिल धूम तथा अग्नि व्यक्तियों में विद्यमान है। भासर्वज्ञ ने यह माना है कि लसके ग्रहण के लिये निखिल व्यक्तियों का ग्रहण अपेक्षित नहीं, अपितु एक, दो या तीन व्यक्तियों के ग्रहण से भी उसका ग्रहण हो जाता है । अविनाभाव को एक समझ कर यह कहा गया है, तभी तो अदृष्ट, अनीत, अनागत धूमदर्शन से भी व्याप्तिस्मरण होता है, क्योंकि व्यक्तियों में तो अतीत और अनागत भी आ जाते हैं। परन्तु जैसा कि कहा गया है 'सम्बद्ध वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना' चक्षुद इन्द्रियों द्वारा बाहूय प्रत्यक्ष तो इन्द्रियसम्बद्ध और वर्तमान विषय का होता है । संभवतः इस वस्तुस्थिति के कारण भासर्वज्ञ सकल धूमाग्निव्यक्तिनिष्ठ अविनाभाव के ग्रहण में प्रत्यक्ष की असमर्थता पर विचार कर अनुमान प्रमाण पर आ जाते हैं अर्थात् सर्वोपसंहारवती व्याप्ति का ग्रहण अनुमान प्रमाण से हो जाता है । अनुमानवाक्य निम्नलिखित हैं १. सर्वे धूमाः अग्निव्याप्ताः, धूमत्वादुपलब्धधूमवत् । २. धूमवन्तः प्रदेश वाग्निमन्तः, धूमवत्वात्, तथोपलब्धप्रदेशवत् ।' । प्रथम अनुमान में धूम पक्ष है तथा द्वितोय में धूमविशिष्ट प्रदेश । इस रीति से सर्वोपसंहारवतो व्याप्तिस्मृति भी अनुमानपूर्वक सम्पन्न होती है। किन्तु सर्वोप. संहारवती व्याप्ति के साधक अनुमान में 'उपलव्धधूमवत्' इस दृष्टान्त के सिद्ध होने पर सर्वोपसंहारवती व्याप्ति की सिद्धि होती है और सर्वोपसंहारवती व्याप्ति 1. प्रशस्तपादभाध्य, पृ २२२-२२३ 2. न्यायभूषण, पृ. २१८ 3. श्लोकवार्तिक, पृ० १६०, (प्रत्सक्षसूत्र, का० ८४) 4. सर्वव्याप्यन्यापकाग्रहे कथ' सर्वोपसंहारेण प्रतीतिरिति चेत्, न अनुमानतस्तत्संभवात् । न्यायभुषण, पृ.२१६ 5. न्यायभूषण, पृ. २१६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुगान प्रमाण की सिद्धि होने पर 'उपलब्धधूमवत्' दृष्टान्त की सिद्धि होती है इस प्रकार अन्योन्याश्रयदोष की प्रसक्ति होने से व्याप्तिग्रहण मानस प्रस्यक्ष से होता है, इस सिद्योन्त का प्रतिपादन भासर्वज्ञ ने किया है । लिङ्गद्वैविध्य साध्यज्ञापक अर्थात् साध्यानुमापक साधन को लिङ्ग कहते हैं। वह दृष्ट तथा सामान्यतोदृष्ट भेद से दो प्रकार का है । भासर्वज्ञ के अनुसार अनुमानसूत्र में 'च' शब्द इन दोनों भेदों का सूचक है।' उनमें प्रत्यक्षयोग्य अर्थ का अनुमापक लिङ्ग दृष्ट कहलाता है। जैसे धूम प्रत्यक्ष योग्य वह निरूप अर्थ को अनुमान कराता है, अतः वह दृष्ट है तथा स्वभावतः विप्रकृष्ट अर्थात् अदृष्ट अर्थ का अनुमापक लिङ्ग सामान्यतोदृष्ट कहलाता है। जैसे, रूपादिज्ञान स्वभावतः अदृष्ट चक्षुरादि इन्द्रिय रूप अर्थ का अनुमापक है, क्योंकि चक्षरादि इन्द्रियां स्वभावतः प्रत्यक्ष के अयोग्य हैं। किन्तु रूपादिज्ञानरूप क्रिया करण के बिना असंभव है। जैसे, काष्ठ की छेदनक्रिया कुठार आदि साधनों के बिना अनुपपन्न है। अतः रूपादिज्ञानरूप क्रिया द्वारा उसके साधनभूत अदृष्ट चक्षुरादि इन्द्रियों का अनुमान होता है। स्वार्थ -परार्थ भेद भासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती 'न्यायसूत्र', 'न्याय भाष्य', 'न्यायवार्तिक', 'न्यायमंजरी' आदि न्यायग्रन्थों में स्वार्थ-परार्थ भेद स्पष्टतया प्राप्त नहीं होता। अनुमान के दृष्ट तथा सामान्यतो दृष्ट भेद की तरह इन दो भेदों को भी भासर्वज्ञ ने प्रशस्तपाद से प्रभावित होकर माना है । परोपदेशरूप पंचावयव वाक्य की अपेक्षा न रखने वाले अनुमान को स्वार्थानुमान कहते हैं और परोपदेशापेक्षी अनुमान को परार्थ कहते हैं।' स्वार्थ तथा परार्थ शब्द भी व्युत्पत्ति से इसी अर्थ का बोधन कर रहे हैं। अनुमान के इस ट्रैविध्य से अनुमिति भी दो प्रकार की होती है। 1. वही, पृ. २२० 2. सूत्रे तु दृष्टादिप्रकारेण द्वविध्यं चशब्दचितं दृष्टव्यम् । -न्यायभूषण, पृ. २२६ 3. न्यायसार. पृ. ५ 4. न्यायसार, पृ. ५ 5. पंचावयवेन वाक्येन स्वनिश्चिता प्रतिपादनं परार्थानुमानम् । पंचावयवेव वाश्येन संशयित. विपर्यस्ताव्युत्पन्नानां परेषां स्वनिश्चिताथ प्रतिपादनं परार्थानुमान विज्ञेयम् । -प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १८४ 6. तत् पुनः द्विविधम् । स्वार्थ परार्थ चेति । -न्यायसार, पृ. ५ 7. न्यायसार, पृ. ५ | Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार अवयवनिरूपण परार्थानुमान में प्रतिज्ञादि अवयवों का महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य भासर्वज्ञ ने न्यायसूत्रानुसार प्रतिज्ञादि पांच अवयव माने हैं। मीमांसकों को केवल तीन अवयव ही स्वीकार्य हैं और वेदान्तियों ने प्रायः केवल दो अवयवों का प्रयोग किया है। मानमनोहरकार वादिवागीश्वराचार्य ने उपनय तथा उदाहरण-इन दो अवयवों को ही स्वीकार किया है । वेदान्ती चित्सुखाचार्यने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी के इस सुझाव को ही अपने सिद्धान्त का आधार मानकर कहा है-'अंगं द्वयमेवव्याप्तिः पक्षधर्मता चेति तच्चोभयमुदाहरणोपनयाभ्यामेवाभिहितमिति किम परमवशिष्यते यदर्थमुणददीत' । न्यायभाष्यकार ने प्रतिज्ञादि अवयवों की व्याख्या करते हुए उनसे भिन्न पांच और अवयवों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उनके पूर्ववती कतिपय नैयायिक दश अवयव मानते थे। वार्तिककार ने भी दशावयववादिमत का निर्देश किया है । भाष्यकार ने यह स्पष्ट किया है कि तत्त्वार्थसाधन के कारण प्रतिज्ञादि पांच अवयव साधक वाक्य के अंगभूत हैं, जिज्ञासादि नहीं । जिज्ञासादि क्याप्रवृत्ति में अवधारणीय अर्थ के उपकारक होते हैं। भाष्यकार से सहमति व्यक्त करते हुए उद्योतकर ने भी कहा है कि जिज्ञासादि प्रकरण के उत्थापक हैं, अवयव नहीं । भासर्वज्ञ ने भी जिज्ञासादि के अवयवत्व का खण्डन किया है। जिस शब्द की महावाक्य के साथ एकवाक्यता होती है, वही वाक्य का अवयव हो सकता है। अवयव वाक्य के एकदेश होते हैं, जिज्ञासादि की यह स्थिति नहीं है। अर्थात प्रतिज्ञ दि शब्दात्मक हैं और जिज्ञासादि ज्ञानात्मक । किसो विषय को विशेषतया जानने की इच्छा जिज्ञासा कहलाती है, विरुद्ध धर्मो का उपस्थापक ज्ञान संशय कहा जाता है । अभीष्ट प्रमाण का संभव शक्यप्राप्ति कहलाती है और अभिप्रेत अर्थ का निश्चय प्रयोजन होता है। परपक्ष का प्रतिषेध संशययुदास कहलाता है। ये जिज्ञासादि अवयव वाक्यात्मक (वचनात्मक) नहीं है, अतः दशावयप्रसंग नहीं है। 1. अंगे च द्वे एव व्याप्तिपक्षधर्मत्वे । न हि ततोऽधिकं प्रवृत्त्यंगम् । -मानमनोहर, पृ. ८५ 2. चित्सुखी, पृ. ४०१ 3. न्यायभाप्य, १।१।३२ 4. एके ताबद् ब्रुवते दशावयवं वाकयम...। -न्यायवार्तिक, ११११३२ 5 न्यायवार्तिक, १।१।३२ 6. न चते वचनात्मकास्तन्न दशावयवप्रसङ्गः । -न्यायभूषण, पृ. २८७ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण प्रतिज्ञा - निरूपण पंचावयववाक्य परोपदेश है । अभीष्ट अर्थ का प्रतिपादक पदसमूह यहाँ परोपदेश के रूप में विवक्षित है । उन पदसमूहात्मक वाक्य के एकदेशभूत पद अवयवत्वेन अभीष्ट नहीं हैं, अपितु प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमनरूप परसमूह यहाँ अत्रयवत्वे । अभिप्रत हैं । हस्तपादादि अवयवों में अतिव्याप्ति का निवारण करने हेतु अवयत्रों के पहिले 'प्रतिज्ञादि' का प्रयोग किया है । यद्यपि साधनांग के अभिवावक प्रतिज्ञादि पदकदम्बात्मक होने से अवान्तर वाक्य हैं, तथापि पंचावयव महावाक्य की अपेक्षा से अवयव कहलाते हैं । पंचावयय महावाक्य में प्रतिज्ञा प्रथम अत्रयत्र है | आचार्य भासर्वज्ञ ने 'प्रतिपिपादयिषया पक्षवचनं प्रतिज्ञा" यह प्रतिज्ञा का लक्षण किया है । यद्यपि जिज्ञासु व्यक्ति भी साधन की जिज्ञासा से पक्षवचन का उच्चारण करता है, तथापि उसमें 'प्रतिपिपादयिषा' का अभाव होने के कारण प्रतिज्ञालक्षण की अतिव्याप्ति नहीं हो सकनी । ' धातूनामनेकार्थत्वात्' इस नियम के अनुसार ' प्रतिपिपादयिषा ' का यहां अर्थ 'सिसाधयिषा' अभिप्रेत है । ऐसा न करने पर हेत्वादि में भी प्रतिज्ञात्र की आपत्ति हो जायेगी, क्योंकि उनका कथन भी प्रतिपिपादयिषापूर्वक होता है । 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा' इस सूत्र में भी साध्यनिर्देश के विशेषण रूप से 'प्रतिपिपादयिषा' पद की आवश्यकता है । अन्यथा 'अनित्यः शब्दः चाक्षुषत्वात्', 'नित्यः शब्दः अस्पर्शवत्त्वात् बुद्धिवत्' इन अनुमानों में क्रमशः चाक्षुषत्व हेतु यथा बुद्धिरूप दृष्टान्त असिद्ध हैं और असिद्ध होने से साध्य हैं तथा उनका उपर्युक्त अनुमानों में निर्देश भी है । अतः इनमें भी साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा ' इस लक्षण को अतिव्याप्ति हो जायेगी । 'प्रतिपिपादयिषा' यह विशेषण देने पर उनमें अतिव्याप्ति नहीं है, क्योंकि असिद्धत्वेन उनके साध्य होने पर भी किसी साधन के द्वारा उनकी सिद्धि नहीं की जा रही है, अतः 'प्रपि दयिषा' से साध्य का निर्देश वहाँ नहीं है । श्री वी. पी. वैद्य ने यह निर्देश किया है कि प्रतिज्ञा को गौतमोक्त परिभाषा 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा' अत्यन्त संक्षिप्त है और पक्षे प्रतिपिपादयिषा' पद के बिना अस्पष्ट है । " वस्तुतः सूत्रकार पर यह दोषारोपण उचित नहीं, क्योंकि संक्षिप्त होना सूत्र का दूषण न होकर भूषण है । तथा प्रतिज्ञादि पंचावयत्रवाक्य समूहरूप परार्थानुमान में साध्यनिर्देश पक्ष में उसकी प्रतिपिपादयिषा के लिये होता है, अतः साध्य शब्द से ही पक्षाश्रित प्रतिपिपादयिषा द्योतित हो जाती है । 6 ८९ 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा' - इस सूत्रकारोक्त प्रतिज्ञालक्षण में 'सर्व' वाक्यं सावधारणं भवति' इस न्याय के अनुसार 'साध्यनिर्देश एव प्रतिज्ञा' इत्याकारक अवधारण मानमे पर यत एवकारस्ततोऽन्यत्र नियमः ' इस न्याय के अनुसार प्रतिज्ञा का नियमन होगा 1. न्यायसार, पृ. ५ 2. न्यायसार, नोट्स, पृ. १६ भान्या - १२ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार अर्थात् प्रतिज्ञा साध्यनिर्देश ही है, उससे भिन्न प्रतिज्ञा नहीं है इस रूप से प्रतिज्ञा का क्षेत्र नियमित होगा । ऐसी स्थिति में साध्यनिर्देश अनवधारित व अनियमित रहेगा अर्थात् प्रतिज्ञावाक्यरहित अन्य प्रकार के साध्यनिर्देश में प्रतिज्ञारूप लक्ष्य के न होने पर भी साध्यनिदेशरूप लक्षण की सत्ता होने से प्रतिज्ञालक्षण की अतिव्याप्ति होगी तथा 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञैव' इस रूप से अवधारण माना जायेगा, तो उक्त रोति से यह नियमन या अवधारण साध्यनिर्देश का होगा न कि प्रतिज्ञारूप लक्ष्य का । ऐसी स्थिति में प्रतिज्ञा के अनिर्धारित होने से लौकिक प्रतिज्ञा में प्रतिज्ञारूप लक्ष्य की सत्ता होने पर भी साध्यनिर्देशरूप लक्षण के अभाव से लक्षण में अव्याप्ति दोष होगा। इसन्धिये उपर्युक्त दोषपरिहारार्थ उद्योतकार ने 'सर्व वाक्यं सावधारणं भवति' इस न्याय को सार्वत्रिक नहीं माना है। अतः प्रतिज्ञालक्षण में अनावश्यक होने से किसी प्रकार का अवधारण नहीं है । यथा-'एष पन्थाः चुघ्नं गच्छति' इस वाक्य में किसी प्रकार को अवधारण नहीं है । हाँ, यदि कहीं लक्षण की अतिप्रसक्ति आदि हो, तो तन्निवारणार्थ अवधारण माना जा सकता है। उद्योतकराचार्य की तरह भासर्वज्ञ की भी यही मान्यता है कि यहां अवधारणा की आवश्यकता नहीं है। 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा'--इस सौत्रलक्षण में शब्द के सामर्थ्य से ही यह सिद्ध होता है कि साध्यनिर्देश ही प्रतिज्ञा है, असाध्य का निर्देश नहीं, क्योंकि शब्दसामर्थ्य या मीमांसकाभिमत लिंगप्रमाण से ही यह ज्ञात हो जाता है। यदि असाध्यनिर्देश को प्रतिज्ञा कहना अभीष्ट होता है, तब 'निर्देशः प्रतिज्ञा' यह लक्षण किया जाता । आचार्य भासर्वज्ञ ने 'प्रतिपिपादयिषया पक्षवचनं प्रतिज्ञा' इस स्वोक्त प्रतिज्ञालक्षण तथा 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा'--'इस सूत्रकारोक्त प्रतिज्ञालक्षण की समानार्थकता का प्रदर्शन करते हुए कहा है कि साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी हो सूत्र में साध्य शब्द से अभिप्रेत है, अतः साध्यनिर्देश और पक्षवचन दोनों समानार्थक हैं । यहाँ भासर्वज्ञ ने यह संकेत किया है कि वात्स्यायन तथा उद्योतकर को धर्मिविशिष्ट धर्मनिर्देश प्रतिज्ञा के रूप में अभीष्ट नहीं है । परन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि धमिविशिष्ट धर्म भी सूत्र में साध्य शब्द 1. सर्वस्मिन् वाक्येऽवधारणमिति न बुध्यामहे । तद्यथा गोपालकेन मार्गेऽपदिष्टे 'एष पन्थाः स्त्रुघ्नं गच्छतीति' नावधारणस्य विषयं पश्यामः ।...सर्वत्र च सावधारणं कुर्वाणो लोकं बाधते इति । यत्र च विशेषणस्यावकाशस्तवावधारणस्यापोति । -न्यायवार्तिक, ११११३३ 2. मीमांसादर्शन के द्वितीय अध्याय में पति-लिग-वाक्य-प्रकरण-स्थान-समाख्या इन प्रमाणों में लिंगप्रमाण का लक्षण दिया है-'सामथ्य सर्वशब्दानां लिङ्गमित्यभिधीयते । लौगाक्षिभास्कर ने भी कहा है- 'शब्दसामथ्य' लिङ्गम् (अर्थसंग्रह, पृ. ८६)। 3. (अ) प्रज्ञापनीयेन धर्मेण धर्मिणो विशिष्टस्य परिग्रहवचनं प्रतिज्ञा साध्यनिर्देशः । -न्यायभाष्य, १1१1३३ (ब) न ब्रमो धर्मि मात्रं साध्यम्, अपि तु प्रज्ञापनीयधर्मविशिष्टो धर्मी साध्यः । -न्यायवार्तिक, १1१1३३ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण ९१ से गृहीत है और 'पर्वतो वहूनिमान्' इत्याकारक साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी के निर्देश की तरह 'अत्राग्नि' इत्याकारक धर्मिविशिष्ट साध्यधर्मनिर्देश भी प्रतिज्ञा है । क्योंकि 'अत्राग्निः' यह कहने पर अग्निमान् प्रदेश की प्रतीति नहीं होती, ऐसा नहीं माना जा सकता । 1 हेतु निरूपण साधनत्व के बोधक लिङ्गवचन को हेतु कहते हैं ।' अर्थात् साधनत्व के प्रकाशक पञ्चम्यन्त या तृतीयान्त हेतुवचन को हेतु कहते हैं । जैसे 'अनित्यः शब्दः तीव्रादिधर्मोपेतत्वात् ' इस अनुमान में तीव्रादिधर्मोपेतत्व वचन । मुख्यतया तो लिङ्ग ही हेतु होता है, न कि हेतुवचन, क्योंकि लिङ्ग ही पक्षधर्मत्वादि रूपों के सद्भाव से साध्य का प्रतिपादक होता है । हेतु के तीन भेद हैं (१) अन्वयव्यतिरेकी, (२) केवलान्वयी और (३) केवलव्यतिरेकी । अन्वयव्यतिरेकी हेतु अन्वयव्यतिरेकी हेतु पंचरूपोपन्न होता है । वे पाँच रूप इस प्रकार हैं(१) पक्षधर्मत्व, (२) सपक्ष सत्त्व, (३) विपक्षव्यावृत्ति, (४) अबाधितविषयत्व और (५) असत्प्रतिपक्षत्व । यहाँ इन पांच रूपों का स्वरूप स्पष्ट किया जा रहा है१. पक्षधर्मत्व : साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी को पक्ष कहते हैं । उसमें हेतु का व्याप्यवृत्तित्व पक्षधर्मत्व कहलाता है । २. सपक्षसच्च : साध्य (पक्ष) के समान धर्मा वाला धर्मों सपक्ष कहलाता है । उसके समस्त देश अथवा एकदेश में हेतु की सत्ता सपक्षसत्त्व कहलाता है । ३. विपक्ष व्यावृत्ति : साध्य से व्यावृत्त धर्म वाला धर्मी विपक्ष कहलाता है ! समस्त विपक्ष से अथवा उसके एक देश से हेतु की व्यावृत्ति विपक्षव्यावृत्ति कहलाती है । 1. न्यायभूषण, पृ. २८४ 2. न्यायसार, पृ. ५ 3. वही 4. न्यायभूषण, पृ. २८७ - २८८ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार ४. अबाधितविषयत्व: प्रमाणाविरूद्ध साध्यविशिष्ट पक्ष में हेतु की वृत्ति अबाधितविषयत्व है। ५. असत्प्रतिपक्षत्व : साध्य और तद्विपरीत के साधन में जो अत्रिरूपत्व अर्थात् पक्षधर्मत्वादि रूपत्रय का अभाव होता है, वह असत्प्रतिपक्षत्व कहलाता है। द्विविध सपक्षवृत्तिता के कारण इसके दो भेद हैं-(१) सपक्षव्यापक और (२) सपक्षक देशवृत्ति । १. सपक्षव्यापक: जैसे, 'अनित्यः शब्दः कार्यत्वात्' । कार्यत्व हेतु समस्त सपक्ष घटादि में विद्यमान है, इसे सपक्षव्यापक अन्वयव्यतिरेकी हेतु कहते हैं। २. सपक्षकदेशवृत्ति: जैसे, 'अनित्यः शब्दः सामान्य सत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्य वान्' । 'सामान्यवत्त्वे सत्यरमदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्व' हेतु सपक्ष के एकदेश अनित्य घटादि में विद्यमान हैं, बुद्ध्यादि में नहीं, क्योंकि बुद्ध्यादि सामान्यवान होने पर भी अम्मदादि -वाह्य इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं होते। केवलान्वयी हेतु केवलान्वयी हेतु का लक्षण भासर्वज्ञ ने 'पक्षव्यापकः सपक्षवृत्तिरविद्यमानविपक्षः केवलान्वयी1 यह किया है । जो हेतु पक्ष में व्याप्त हो, सपक्षवृत्ति हो और जिसको विपक्ष न हो, वह केवलान्वयी हेतु कहलाता है। केवलान्वयी हेतु के लक्षण में यद्यपि 'अबाधितविषयत्वासत्प्रतिपक्षत्वे सति' यह विशेषण नहीं दिया गया है, तथापि उसकी अर्थतः प्राप्ति हो जाती है। उक्त हेतु के लक्षण का सरल शब्दों में यह निर्वचन किया जा सकता है कि जहां हेतु केवल अन्वयव्याप्ति से युक्त होता है अर्थात् जहां व्यतिरेकव्याप्ति का अभाव है, उसे केवलान्वयी हेतु कहते हैं । अन्वयव्यतिरेकी हेतु की तरह इसकी भी सपक्षव्यापकत्व तथा सपक्षकदेशवृक्तित्व के भेद से दो विधाएं हैं। १. सपक्षव्यापक : ___ 'विवादास्पदीभूतान्यदृष्टादीनि कस्यचित् प्रत्यक्षाणि प्रमेयत्वात् करतलामलकरत्' अर्थात् विवादास्पद अदृष्टादि किसी के प्रत्यक्ष के विषय हैं, प्रमेय होने के कारण, हस्तामलक की तरह । मीमांसक पुण्य, पाप, स्वर्ग, ईश्वरादि अदृष्ट तत्त्वों का प्रत्यक्ष 1. न्यायसार, पृ. ६ 2. न्यायसार, पृ. ६ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण ९३ नहीं मानते । उनके प्रति नैयायिक उपर्युक्त अनुमान प्रस्तुत करते हैं । उपर्युक्त अनुमान में प्रमेयत्वरूप केवलान्वयी हेतु सपक्षव्यापक है, क्योंकि वह समस्त वस्तुओं के प्रमेय होने से किसी के अर्थात् योगी आदि के प्रत्यक्षविषयीभूत समस्त सपक्षों में रहता है । २. सपक्षैकदेशवृत्ति : 'विवादास्पदीभूतान्यदृष्टादीनि कस्यचित् प्रत्यक्षाणि मीमांसकानामप्रत्यक्षत्वात् अस्मत्सुखादिवत्' ।' विवादास्पद अदृष्टादि का किसी को प्रत्यक्ष होता है, मीमांसकों को अप्रत्यक्ष होने से हमारे सुखादि की तरह | अर्थात् जैसे हमारे सुखादि का हमें ही प्रत्यक्ष होता है, सब को नहीं, क्योंकि सुखादि का आत्ममनःसंयोग के द्वारा प्रत्यक्ष होता है और हमारे सुखादि का हमारे मन से सम्बन्ध है न कि दूसरों के मन से । अतः उनको हमारे सुखादि का प्रत्यक्ष नहीं होता । उसी तरह विवादास्पद अष्टादि का किसी योगी आदि को प्रत्यक्ष होता है । इस अनुमान में 'मीमांसकानामप्रत्यक्षत्वम्' हेतु मोमांसकों को अदृष्टादि के प्रत्यक्ष न होने से वहाँ हेतु के रहने पर भी घटादि का मीमांसकों को भी प्रत्यक्ष होने से वहाँ हेतु की वृत्तिता न होने से सपक्षैकदेशवृत्ति केवलान्त्रयी है । 'कस्यचित् प्रत्यक्षत्व' साध्य के सर्वत्र विद्यमान होने से इस हेतु का विपक्ष विद्यमान नहीं है । haaraat के नास्तित्व की आशंका और उसका परिहार बौद्धों की मान्यता है कि साध्य और साधन के अविनाभाव का नाम व्याप्ति है और हेतु साध्यव्याप्तिमान् होता है । अतः केवलान्वयी हेतु में भी साध्य के साथ उसका अविनाभाव आवश्यक है । अविनाभाव का स्वरूप व्युत्पत्ति द्वारा 'तेन विना न भवति' इत्याकारक है अर्थात् साध्याभाव में साधन का न होना है । साध्याभावरूप ही विपक्ष है और उसके न होने से साध्याभाव व साधनाभावरूप व्यतिरेक के न होने के कारण हेतु को केवलान्वयी कहना असंगत है | 2 भासर्वज्ञ उक्त पक्ष का खण्डन करते हुए कहते हैं कि व्यतिरेक के अभाव में अविनाभाव का अभाव मानना उचित नहीं । व्याप्यव्यापकभाव ही अविनाभाव का लक्षण है और साध्य तथा साधन का व्याप्यव्यापकभावरूप अविनाभाव साध्याभावरूप विपक्ष से रहित केवलान्वयी में भी है । अविनाभाव शब्द का 'तेन विना न भवति' इत्याकारक व्युत्पत्त्यर्थं मानने पर अविनाभाव में व्यतिरेकसापेक्षता आती है, परन्तु तत्र का विनिश्चय व्युत्पत्त्यर्थ से न होकर लक्षण से होता है । व्युत्पत्त्यर्थ को तत्त्वव्यवस्थापक मानने पर स्थित गौ में 'गच्छतीति गौः' इस व्युत्पन्त्यर्थ का समन्वय 1. न्यायसार, निर्णयसागर संस्करण, १९१०, पृ. ५ 2. न्यायसूषण, पृ. ३०२ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ न्यासार न होने से गोव्यवहार नहीं होगा। अतः लक्षण का सद्भाव होने पर भी शब्द. व्युत्पत्ति के असंभव होने मात्र से अविनाभाव का प्रतिषेध उचित नहीं है।' स्वयं बौद्धों के पक्ष में भी ऐसा मानना उचित नहीं होगा । अन्यथा मनोविज्ञान, आत्मा संवेदन और योगिज्ञान-इन बौद्धसम्मत मानसादित्रय में प्रतिगतमक्षम् ' इस व्युत्पत्त्यर्थ के संभव न होने से वे प्रत्यक्ष नहीं कहे जा सकेंगे। साध्याभाव होने पर साधन का अभाव ही व्यतिरेक है। साध्याभावरहित केवलान्बया में उस व्यतिरेक को प्रसिद्धि न होने से हेतु में संदिग्धान कान्तिकत्व को तो शंका भी निरर्थक है, क्योंकि केवलान्वयी हेतु में साध्याभावरूप विपक्ष के असम्भव होने से विपक्ष में हेतु को सत्ता है या नहीं इत्या कारक सन्दिग्धानकान्तिकत्व की शंका अनुपपन्न है । काल्पनिक नरविषाणादि को प्रतीत्यभाव के कारण सत्ता न होने से उनमें साध्याभावत्वरूप विपक्षत्व अनुपपन्न है। इसो लिये विपक्ष के लक्षण में 'साध्यव्यावृत्तधर्मा धर्मों विपक्षः' इस रूप में धर्मी पद का प्रयोग किया है। अपि च, प्रमाणसिद्ध वस्तु ही विपक्ष होता है और उसी में हेतु की सत्ता व असत्ता का विचार किया जाता है और नरविषाणादि प्रमाणसिद्ध नहीं हैं, अतः उनको वपक्ष मानना तथा उनमें हेतु के सत्त्व या असत्त्व का विचार ही अनुपपन्न है। प्रामायापलिद्र आकाश कुसुमादि को विपक्ष मानकर उनमें हेतु के अभाव से केवलान्वयो हेतु को भले ही पतिरेकी कहा जाय, परन्तु 'साध्यव्यावृत्तधर्मा धर्मी विपक्षः' इस लक्षग वाले विपक्ष का अनाव होने से प्रमेय हेतु केवलान्वयी ही माना जोता है। केवलव्यतिरेकी हेतु का निरूपण केवलव्यतिरेकी का लक्षण-पक्षव्यापको विद्यमानसपक्षो विपक्षाव्यावृत्तः केवल्लयतिरेकी' है। अर्थात् सपक्ष रहित, पक्षव्यापक तथा विपक्षव्यावृत्त हेतु केवलव्यतिरेकी कहलाता है। जैसे, ‘सर्व कार्य सर्ववित्कर्तृपूर्वकं, कादाचिकत्वात् । अर्थात् सनस्तकार्य सर्वविकर्तृपूर्वक हैं, कदाचित्क होने से । जो सर्ववित्कर्तपूर्वक नहीं होता, वह कादाचित्क भी नहीं होता, जैसे -आकाशादि । इसी प्रकार जीवित शरीर सात्मक है, प्रागादिमान् होने से । जो सात्मक नहीं होता, वह प्राणादिमान् भी नहीं होता, जैसे-लोष्टादि । प्रकारभेद से अर्थात् प्रसक्ति द्वारा भी प्रयोग किया जा सकता है । जैसे-यह जीवित शरीर निरात्मक नहीं है, अप्राणादिमत्व-प्रसक्ति के कारण, लोष्ट का तरह । 1. न्यायभूषण, पृ. ३०३. 2. न्यायसार, पृ. ५. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण यहां जीवित शरीर के निरात्मक होने पर अप्राणादिमत्व की प्रसक्ति द्वारा प्रसंगविपर्ययरूप प्राणादिमत्व हेतु अभिप्रेत है । अतः प्रसंग (तक) को द्वार बनाना निरर्थक है। जैसे-यदि जीवित शरीर निरात्मक हो, तब अप्राणादिमत्त्व की प्रसक्ति हो जायेगी। इसके विपरीत जीवित शरीर का प्राणादिमत्त्व अनुभूतिसिद्ध है। अतः जीवित शरीर निरात्मक नहीं, अपितु सात्मक ही है-इस प्रकार प्रसंगवाक्य के अर्थ का उसके विपर्यय में पर्यवसान का निश्चय किया जाता है । निष्कर्ष यह है कि समस्त प्रसंग प्रसंगविपर्यय में पर्यवसित होकर प्रमिति में उपादेय होते हैं। प्रसंग. विपर्यय का अनुमान प्रयोग इस प्रकार होगा-जीवित शरीर सात्मक हैं, प्राणादिमान् होने के कारण । जो सात्मक नहीं होता, वह प्राणादिमान नहीं होता । जैसेलोष्टादि । यह अप्राणादिमान् नहीं है, अतः सात्मक है ।। हेत्वाभासनिरूपण न्यायशास्त्राभिमत षोडश पदार्थो में हेत्वाभासों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि हेत्वाभास निग्रहस्थान नामक पदार्थ में अन्तर्भूत हैं, तथापि प्रयोजनवश उनका पृथक् निदेश किया गया है। न्यायभाष्कारने निग्रहस्थानों से हेत्वाभासों के पृथक् कथन का प्रयोजन वादकथा में उनकी स्वीकृति बताया है। भासर्वज्ञ ने विशेष लक्षण निरूपण द्वारा हेत्वाभास के भेदप्रपंच का परिज्ञान प्रयोजन बतलाया है, हेत्वाभासों के भेदप्रपंच का ज्ञान अनुमाता में नैपुण्य का जनक है। गंगेशोपाध्याय ने हेस्वाभाससामान्य का निर्वचन करते हुए हेत्वाभास शब्द की दो प्रकार से व्युत्पत्ति की है- हेतोराभासः' तथा 'हेतुवद् आभासते इति हेत्वाभासः', जैसाकि तार्किकशिरोमणि गदाधर भट्टाचार्य ने गादाधरी में कहा है-'ननु हेतुवदा. भासन्ते इति व्युत्पत्त्या हेस्वाभासपदस्य दुष्ट हेतुपरत्वाद्,.. अन्यविधव्युत्पत्त्या हेत्वा. भासपदस्य हेतुदोषपरत्वम् ...। प्रथम व्युत्पत्ति से हेत्वाभास हेतु दोष का तथा द्वितीय व्युत्पत्ति से दुष्ट हेतु का बोधक है । धर्मकीति आदि बौद्धों के अनुसार हेत्वाभास का सामान्य लक्षण 'असाधनांगवचनत्वम्' हे अथात् जो साध्यसाधन के उपयोगी न हो, ऐसे हेतु का कथन हेत्वाभास है। न्यायभाष्यकार के अनुसार भासर्वज्ञ ने हेत्वाभाससामान्य को असद्धेतुपरक मानकर 'हेतुलक्षणरहिताः हेतुवदाभासमानाः हेत्वाभासाः'' यह लक्षण किया है। हेत्वाभाससामान्य का यह लक्षण प्राचीन तथा मध्यकालिक न्यायशास्त्रीय अन्य ग्रन्थों में भी प्रायः इसी रूप में मिलता है। 1. निग्रहस्थानेभ्यः पृथगुपदिष्टा हेत्वाभासा: वादे चोदनीया भविष्यन्तीति ।-न्यायभाष्य, १1१1१. 2. विशेषलक्षणप्रपंचद्वारेण हेत्वाभासानां भेदप्रपंचप्रतिपत्त्यर्ष निग्रहस्थानेभ्यः पृथगुपदेश इति मतं मे। -न्यायभूषण, पृ. ७१ 3. गादाधरी, द्वितीय भाग, पृ. १५००-१५८१ 4. न्यायसार, पृ.७. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार अहेतु होने पर भी हेतुसाम्य के कारण जो हेतु की तरह आभासित होते हैं, वे हेत्वाभास कहलाते हैं । हेत्वाभासों में हेतु की तरह प्रतिज्ञा के पश्चात् प्रयोग तथा पक्षलव, सपक्षसत्त्व व विरक्षासत्त्व इन हेतुरूपों में किसी एक का होना ही उनमें हेतुसाम्य है अर्थात् जिस प्रकार हेतु प्रतिज्ञा के पश्चात प्रयुक्त होते हैं, उसी प्रकार हेत्वाभास भी । तथा हेत्वाभासों में भी पक्षसत्तादि में से किसी न किसी हेतुरूप की सत्ता रहती है । छल, जाति आदि में हेत्वाभासों की तरह दूषणतासाम्य होने पर भी पक्षसत्त्वादिरूप हेतु के किसी भी रूप की सत्ता न होने से उनमें हेत्वाभास-लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं है। उद्योतकर ने सद्धेतु और असद्धेतु का अन्तर बताते हुए कहा है-'सायकासाधकत्वे तु विशेषः । हेतोः साधकत्वं धर्मः, असाधत्वं हेत्वाभासस्य । किं पुनस्तत् ? समस्तलक्षणोपपत्तिः असमस्तलक्षणोपपत्तिश्च ।। अर्थात हेतु साध्य का साधक होता है और हेत्वाभास साध्य का असाधक, यही इन दोनों में भेद है। हेतु में साध्यसाधकता हेतु का पक्षसत्त्वादि पांच धर्मों से युक्त होता है तथा हेत्वाभास का उन पांच धर्मो में से किसी न किसी से अयुक्त होना है। वार्तिककार का आशय यह है कि सोध्यसाधनक्षम हेतु में पांच रूपों का होना आवश्यक है । वे पांच रूप (१) पक्षसत्त्व (२) सपनसत्त्व (३) विपक्षासत्त्व (४) असत्प्रतिपक्षत्र और (५) अबाधितविषयत्व हैं। इनमें से किसी एक धर्म का अभाव हे ने से हेत्वाभामता घटित होती है। सूत्रकारसरणि से कुछ अलग होकर भासर्वज्ञ ने ६ हेत्वाभास स्वीकार किये हैं। उन्होंने 'सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमकालातीताः' इस न्यायप्तत्र का अन्यथा विन्यास करते हुए ६ हेत्वाभासों का उल्लेख किया है-'असिद्धविरद्धानकान्तिकानध्यत्रसितकालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाः' ।' सूत्र का अन्यथा विन्यास सूत्रार्थसंग्रह द्वारा अध्येता की व्युत्पत्ति के लिये है। तात्पर्य यह है कि अक्षरशः सूत्रानुसरण करने पर न्याय का विद्यार्थी भी छान्दस छात्र की तरह बन जायेगा । उसमें तार्किकप्रज्ञा का उदय न होकर केवल श्रद्धापरकता रह जायेगी। अर्थात जिस प्रकार शब्दप्रधान वेद का श्रोता वेद के शब्दों में तथा क्रम में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता, अतः वेद आदेशप्रधान बन जायेगा और व्युत्पत्ति उसको प्रयोजन नहीं रहेगी । अर्थात् वेदों में जो जैसा कहा गया है, वैसा ही छान्दस छात्र मान लेता है, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करता, उसी प्रकार नैयायिक अध्येता भी बन जायेगा । अतः क्रम का परिवर्तन किया गया है । अपि च, सूत्रोक्त पांच हेत्वाभासों से अतिरिक्त अनध्यवसित हेत्वाभास की उपयोगिता बतलाना भी उनका प्रयोजन है। अनध्यवसित हेत्वाभास के निरूपण में प्रसंगतः उन्होंने यह स्पष्ट उल्लेख कर दिया है कि न्यायसूत्र हेत्वाभासों की पंचत्व संस्था के अवधारण के लिये नहीं है, अपितु दिग्दर्शन के लिये । अतः सूत्रकार से विरोध नहीं है। 1. न्यायवार्तिक, १।२१४ 2. न्यायसूत्र, १।२।४ 3. न्यायसार, पृ. ७ 4. न्यायभूषण, पृ. ३०८ ३. न्यायभूषण पृ. ३०९ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण असिद्ध स्त्रकार ने असिद्ध हेत्वाभास को साध्यसम शब्द से व्यपदिष्ट किया है तथा 'साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः' यह उसका लक्षण किया है । अर्थात् जिस हेतु की पक्ष में साध्य की तरह सिद्धि अपेक्षित होती है, वह हेतु साध्य से अविशिष्ट (समान) होता है, अत एव उसे साध्यसम हेत्वाभास कहते हैं । अतः यह स्पष्ट है कि जिस हेतु का पक्ष में रहना सन्दिग्ध या अनिश्चित हो बही साध्यसम है। भाष्यकार ने इसका उदाहरण-'छाया द्रव्यं गतिमत्त्वात्' राह दिया है। इस अनुमान में गतिमत्त्व हेतु साध्यसम है, क्योंकि छाया में गतिमत्त्व सिद्ध नहीं होने से साधनीय है। इसीलिये वातिककार ने भी कहा है कि जैसे छाया में द्रव्यत्व साध्य है, उसी प्रकार उसमें गतिमत्त्व भी साध्य है। वातिककार ने प्रज्ञा पनीयधर्म. समान, आश्रयासिद्ध तथा अन्यथासिद्ध भेद से असिद्ध तीन प्रकार का बतलाया है। इनमें प्रज्ञापनीयधर्मसमान असिद्धभेद ही भाष्यकार का स्वरूपासिद्ध है। वाचस्पति मिश्र ने तात्पर्यटीका में इस तथ्य की और संकेत किया है। भाष्यकार ने स्वरूपासिद्ध आश्रयासिद्ध तथा अन्यथासिद्ध -तीनों असिद्धों का 'छाया द्रव्यं गतिमत्त्वात्' यह एक ही उदाहरण उपन्यस्त किया है । इस उदाहरण में छाया में गतिमत्त्व हेतु के स्वरूपतः असिद्ध होने से स्वरूपासिद्ध है। छाया में कुम्भादि की तरह देशान्तरदर्शन के द्वारा गतिमत्ता सिद्ध होने पर स्वरूपासिद्ध का उदाहरण न मानने पर यह आश्रयासिद्ध का उदाहरण है, क्योंकि छाया के प्रकाशाभावरूप होने के कारण उसकी सत्ता न होने से यहां आश्रय असिद्ध है तथा छाया के भावाभावरूप होने से चाहे भावरूप नहीं है, तथापि देशान्तरदर्शनरूप गतिमत्त्व छाया में विद्यमान है, क्योंकि देशान्तरदर्शन का आश्रय भाव व अभाव दोनों होते हैं, ऐसा मानने पर छायारूप आश्रय के असिद्ध होने से यह आश्रयासिद्ध नहीं है, ऐसा मानने पर यही अन्यथासिद्ध का उदाहरण बन जाता है, क्योंकि छाया का देशान्तरदर्शन स्वभावतः नहीं है, अपितु तेज के आवरक द्रव्य की गति के द्वारा औपाधिक है, क्योंकि आवरक द्रव्य के तेज का अनिधान होने पर हो तेज के असंनिधान से युक्त दव्य ही छाया कहलाती है । अतः देशान्तरदर्शनरूप गतिमत्त्व हेतु का द्रव्यत्वरूप साध्य के साथ स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है, अपि तु आवरक द्रव्यरूप उपाधिकृत होने से औपाधिक है । औपाधिक सम्बन्ध को ही अन्यथासिद्ध कहते हैं । इसी औपाधिक सम्बन्ध के कारण ही उदयनाचार्य ने इसे व्याप्यत्वासिद्ध संज्ञा से व्यवहत किया है। उत्तरकालिक न्यायग्रन्थों में असिद्ध के ये तीनों भेद स्वरूपासिद्ध, आश्रयासिद्ध तथा व्याप्यत्वासिद्ध नामों से व्यपदिष्ट किये गये हैं। 1. न्यायसूत्र, १/२/८ 2. न्यायवार्तिक १/२/८ 3. अत्र भाष्यकारेण स्वरूपासिद्धाश्रयासिद्धान्यथासिद्धानां साधारणमुदाहरणमुक्तम् । -न्यायवार्तिकतात्पर्यरीका, १/२/८ भान्या-१३ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार जयन्तभट्ट ने सौत्र लक्षण में परिष्कार करते हुए कहा है कि 'साध्यत्वात्' इस पद से रहित 'साध्याविशिष्टः' इतना ही असिद्ध का लक्षण उचित है । साध्यत्व तो एकमात्र अन्यतरासिद्ध में व्याप्त है, समस्त है, असिद्धभेदों में नहीं । असिद्धत्व ही समस्त असिद्धभेदों में अनुगत है, अतः असिद्धत्व ही लक्षणत्वेन प्राप्त होता है। अतः उन्होंने असिद्ध का लक्षण देते हुए कहा है कि जो हेतु पक्ष में अर्थात् साध्यविशिष्ट धर्मी में नहीं रहता, वह असिद्ध कहलाता है । जयन्त भट्ट का अनुसरण करते हुए भासर्वज्ञ ने भी असिद्ध का 'तत्रानिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्धिः' यह लक्षण किया है। अर्थात् पक्ष में जिसकी सत्ता सन्दिग्ध हो या हेतु पक्ष में नहीं रहता इस प्रकार से निश्चित हो, वह हेतु असिद्ध हेत्वाभास कहलाता है। जयन्त भट्ट के अनुसार भासर्वज्ञ ने भी 'न्यायभूषण' में असिद्ध के सौत्र लक्षण को अध्यापक बतलाते हुए कहा है कि साध्यत्व अन्यतरासिद्ध में ही घटित होता है। अतः सम्प्रतिपयत्त्यविषयत्वरूप साध्याविशिष्टत्व ही असिद्ध का व्यापक लक्षण है जो कि सभी भेदों में घटित होता है। 'साध्यत्व' केवल अन्यतरासिद्धि में ही घटित होता है, अन्यथासिद्ध आदि भेदों में नहीं । अतः 'साध्यत्व' को अन्यतरासिद्ध का लक्षण मानना चाहिए । अथवा इसका अर्थ असिद्धत्व करना चाहिए, जिससे वह सब असिद्धभेदों को व्याप्त कर सके । भासर्वज्ञ ने कहा है कि यद्यपि देशकालभेद तथा स्वरूपभेद से हेत्वाभासों के सूक्ष्म भेद अनन्त, हैं तथापि उन्होंने स्थूलदृष्ट्या व्युत्पत्ति के लिये कतिपय भेद प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने असिद्ध के स्वरूपासिद्ध, व्याकरणासिद्ध, विशेष्यासिद्ध, विशेषणासिद्ध आदि १२ भेद माने हैं, जिनका संक्षेप में निरूपण प्रस्तुत किया जा रहा है : १. स्वरूपासिद्ध : जिस हेतु का स्वरूप असिद्ध हो या जो हेतु स्वरूप से असिद्ध हो उसे स्वरूपासिद्ध कहते हैं । जैसे-'शब्दोऽनिस्यः चाक्षुषत्वात्' । यहां चाक्षुषत्व हेतु में स्वरूप पक्षसत्त्व का अभाव है, अतः यह स्वरूपासिद्ध है। तात्पर्य यह है कि प्रकृत में स्वरूशब्द से हेतुगत पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व-इन तीन धर्मों का ग्रहण होता है। इन तीनों धर्मों की असिद्धि एकत्र विवक्षित होती. तो कथित चाक्षुषत्व हेतु में ही स्वरूपासिद्धि संभव नहीं होती, क्योंकि उसमें केवल पक्षसत्त्व का अभाव है, सपक्षसत्त्व या विपक्षासत्त्व का नहीं । अतः स्वरूपासिद्ध पद से हेतु का 1. पक्षधर्मत्वं यस्य नास्ति धर्मि णि यो न वर्तते हेतु: सोऽसिद्धः । -न्यायमंजरी, उत्तर भाग, पृ. १६२ 2. न्यायसार, पृ. ७ 3. सम्प्रतिपत्यविषयत्वं साध्याविशिष्टत्वं व्यापक लक्षणं साध्यत्वादित्यन्यतरासिद्धस्य लक्षण. प्रमादपाठो वाऽसिद्धत्वादित्यर्थो वेति-न्यायभूषण, पृ ३.९ 4. स्वरूपेण असिद्धः, स्वरूपं वा असिद्ध यस्य सोऽयं स्वरूपासिद्धः ।--वही, पृ. ३११ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुगान प्रमाण ९९ के उपर्युक्त तीनों रूपों में किसी एक रूप की असिद्धि अभिप्रेत है और प्रकृत में चाक्षुत्व हेतु की शब्दरूप पक्ष में सत्ता नहीं है । चाक्षुषत्त्र हेतु की पक्षभूत शब्द में वृत्तिता न होने के कारण उसे स्वरूपासिदूध कहा गया है। नवीनों ने भी केवल पक्षावृत्ति को स्वरूपासिद्ध कहा है, जैसा कि गादावरी में कहा है- 'स्यादेतद् व्याप्तिपक्षघमंताभ्यां निश्चयः सिद्धिस्तदभावोऽसिद्धि: 1 अर्थात् व्याप्ति तथा पक्षधर्मता रूप से निश्चित हेतु सिद्ध कहलाता है तथा उसका अभाव असिद्ध हेत्वाभास है । इनमें व्याप्ति का अभाव जिस हेतु में हो, उसे व्याप्यत्वासिद्ध कहते हैं तथा जिस हेतु में धर्मता का अभाव हो उसे स्वरूपासिद्ध कहते हैं । तर्कभाषाकार ने भी स्वरूपासिद्ध यी स्वरूप माना है ।" आचार्य प्रशस्तपाद ने स्वरूपासिद्ध को उभयासिद्ध शब्द से व्यवहृत किया है । जैसे- 'उभयासिद्धः - अनित्यः शब्दः सावयवत्त्वात् इति' । दिङ्गनाग को भी स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास उभयासिद्ध के रूप में मान्य है, जैसा कि न्यायप्रवेश में उन्होंने कहा है- ' तत्र शब्दानित्यत्वे साध्ये चाक्षुषत्वादित्युभयासिद्धः । जयन्त भट्ट ने भी इसे उभयासिद्ध की कोटि में समाविष्ट किया है । किरणावलीकार उदयनाचार्य ने भासर्वज्ञ के असिद्धलक्षण' से प्रभावित 'अनिश्चितपक्षधर्मताकोऽसिद्धः " यह असिद्ध का लक्षण बतलाया है । 14 चाक्षुषत्व हेतु की शब्दरूप अधिकरण से भिन्न रूपादि में सत्ता होने से इसे व्यधिकरणासिद्ध मानना चाहिए न कि स्वरूपासिद्ध । इस शंका का समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि चाक्षुषत्व हेतु यहाँ रूपादिकरण में प्रतिपादित नहीं है, अपि तु शब्दरूप धर्मी में प्रतिपादित है और उसमें यह हेतु स्वरूपतः अविद्यमान है, अतः स्वरूपासिद्ध कहना ही उचित है । अथवा यह जन्मान्ध के प्रति स्वरूपासिद्ध है ।" उसके लिये रूपादि अदृष्ट होने से व्यधिकरणासिद्धत्व की आशंका नहीं होगी । २. व्यधिकरणासिद्ध 'व्यधिकरणश्चासौ असिद्धश्च' इस व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि भिन्न अधिकरण में रहने वाले तथा पक्ष में रहने वाले तथा पक्ष में न रहने वाले असिद्ध हेतु को व्यविकरणासिद्ध कहते हैं । जैसे- 'अनित्यः शब्दः पटस्य कृतकत्वात् । यहाँ कृतकत्व 1. गादावरी ( चि.), पृ, १८४५ 2. स्वरून सिद्धस्तु स उच्यते यो हेतुराश्रये नावगम्यते । 3. प्रशस्तपादभाष्य, पृ १९० 4. न्यायप्रवेश, भाग १, पृ. ३ 5. न चाक्षुषत्वादेभय सिद्धस्य, न हि तस्य साध्यत्व संभवतीत्यर्थः । 6 तत्रानिश्चित रक्षवृत्तिरसिद्धः । 7. किरणावली, पृ. २२९ 8. न्यायभूषण, पृ. ३११ न्यायसार, पृ. ७ तर्कभाषा, पृ. ३८२ न्यायमंजरी, उत्तरभाग, पृ. १६२ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० न्यायसार हेतु पक्ष -भिन्न पटरूप अधिकरण में रहता है न कि शब्द में । अतः यह व्यधिकरणा सिद्ध है । यद्यपि शब्द में भी कृतकत्व है, तथापि 'पटस्य कृतकत्वात्' हेतु द्वारा कृतकता पट में प्रतिपादित है, न कि शब्द में और पट के कृतक होने से शब्द में अनित्यता सिद्ध नहीं हो सकती । यद्यपि 'चैत्रोऽयं ब्राह्मणः तत्पित्रोर्ब्राह्मणत्वात् ' इस अनुमान में 'तस्पित्रोर्ब्राह्मणत्वात्' यह हेतु चैत्रभिन्न माता-पिता में ब्राह्मण का प्रतिपादन कर रहा है न कि पुत्र चैत्र में तथापि यह हेतु पुत्रगत ब्रह्मणत्व का साधक है, उसी प्रकार 'पटस्य कृतकत्वात्' हेतु भी शब्दगत अनित्यता का साधक बन जायेगा, इस आशंका का समाधान यह है कि व्यधिकरण हेतु को अन्यत्र साध्य का साधक मानने पर 'नटो ब्राह्मणः, चैत्रस्य ब्राह्मणत्वात्' यह हेतु भी नट में ब्राह्मणत्व का साधक होने लगेगा । अतः व्यधिकरण हेतु को साध्यसाधक नहीं माना जा सकता । 'अयं चैत्रः ब्राह्मणः तत्पित्रोर्ब्राह्मणत्वात्' इस अनुमान में तत्पित्रोर्ब्राह्मणत्वात् से 'ब्राह्मणजन्यत्व' हेतु विवक्षित है और वह हेतु पक्ष में रहता है, वे भिन्न अधिकरण में नहीं । अतः उसमें ब्राह्मणत्व का साधक है तया नट में ब्रह्मणजन्यत्व न होने के कारण वह उसमें ब्राह्मणत्व की सिद्धि नहीं कर सकता । अतः साधारण व्यक्ति के 'पित्रोर्ब्राह्मणत्वात् ' ऐसा प्रयोग कर देने पर भी विद्वान् प्रतिभा या ऊह शक्ति के द्वारा यही समझता है कि यह हेतु पक्षसम्बन्धी है, पक्षासम्बद्ध नहीं । हेतु का पक्ष से सम्बन्ध साक्षात् हो या परम्परया, वह साध्य का साधक होता है । प्रकृत में माता-पिता का साक्षात् ब्राह्मण्य से सम्बन्ध है, और साता-पिता द्वारा परम्परया पुत्र से भी उसका सम्बन्ध है, अतः वह हेतु पक्षरूप पुत्र से सम्बद्ध ही है, असम्बद्ध नहीं । अतः असिद्ध हेत्वाभास नहीं । ३. विशेष्यासिद्ध जिस हेतु का विशेष्यभाग असिद्ध हो, उसे विशेष्यासिद्ध कहते हैं । अनित्यः शब्दः सामान्यत्वे सति चाक्षुषत्वात्' इस अनुमान में हेतु विशिष्टरूप है । उसके दो अंश हैं- विशेषणांश और विशेष्यांश । प्रकृत उदाहण में हेतु का विशेष्यांश 'चाक्षु पत्त्र' असिद्ध है । अतः हेतु का विशेष्यरूप असिद्ध होने से यह विशेष्यासिद्धिप्रयुक्त असिद्ध हेत्वाभास है । ४. विशेषणासिद्ध जिस विशिष्ट हेतु का विशेषण अंश असिद्ध हो, उसे विशेषणासिद्ध कहते हैं । जैसे - ' शब्दोऽनित्यः चाक्षुषत्वे सति सामान्यवत्वात्' । यहाँ हेतु विशिष्टात्मक है । इस विशिष्ट हेतु का विशेषणांश 'चाक्षुषत्व' शब्द में असिद्ध है, अतः यह विशेषणासिद्ध वाभास कहलाता है । श्री वी. पी. वैद्य का कथन है कि चारों उदाहरण स्वरूपासिद्ध के ही विभिन्न प्रतिरूप हैं | 1 1. These first four instances are mere different shades of one and the same fallacy called स्वरूपासिद्ध Nyāyasāra, Notes, P. 27 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १०१ ५. भागासिद्ध यथा 'शब्दोऽनित्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्' शब्द दो प्रकार का होता है(१) प्रयत्नसाध्य और (२) अप्रयत्नसाध्य । अकारादि वर्णात्मक शब्द प्रयत्नसाध्य होता है और वायुवादि शब्द अप्रयत्नसाध्य । शब्द के अनित्यत्व को सिद्धि के लिये प्रयुक्त 'प्रयत्नसाध्यत्व' हेतु वायुवादि-शब्दों में नहीं है । अतः पक्ष शब्द के एकदेश वावादिशब्द में न रहने के कारण प्रयत्नानन्तरीयकत्व भागासिद्ध है। यद्यपि वायूवादि शब्द भी ईश्वरप्रयत्नसाध्य हैं, अतः भागासिद्धि की उपपत्ति नहीं होती, तथापि प्रयत्न के तीव्रत्व, मन्दत्व के अनुसार शब्द की तीव्रता और मन्दतादि होते हैं । अतः यहाँ 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' से तीव्रत्वमन्दत्वादियुक्त प्रयत्नसाध्यत्व विवक्षित है । ईश्वरप्रयत्न नित्य है, उसमें तीव्रत्वादि धर्म के न होने से वायवादिशब्द में तीव्रत्वादिधर्मयुक्त प्रयत्नसाध्य हेतु भागासिद्ध ही है । इसी अभिप्राय से प्रयत्न साध्यत्व' से 'जोवप्रयत्नसाध्यत्व' अभिप्रेत है, ऐसा अपरार्क ने कहा है । अथवा ईश्वर का स्वीकार न करने वालों के प्रति यह भागासिद्ध है, क्योंकि उनके मत में वायवादि शब्द में ईश्वरीयप्रयत्नसाध्यता भी नहीं है। जयसिंह सूरि ने 'न्यायतात्पर्यदीपिका' में वैशेषिकसम्मत शब्दोत्पत्तिक्रिया का निरूपण करते हुए वर्णात्मक तथा अवर्णात्मक दोनों प्रकार के शब्दों की प्रयत्न से उत्पत्ति बतलाई है । प्रयत्नानन्तरीयकत्व का स्पष्टीकरण करते हुए जयसिंह सुरि ने यह प्रतिमादेत किया है कि यह आद्य शब्द में ही होता है; द्वितीय, तृतीय शब्द में नहीं, क्योंकि द्वितीय, तृतीय शब्द शब्दजन्य होते हैं । शब्दधाग का प्रथम शब्द ही प्रयत्नजन्य होता है, द्वितीयादि नहीं । इस प्रकार प्रयत्नानन्तरीयकत्व' की समस्त पक्ष में सत्ता न होकर पक्षकदेश में ही है । उपयुक्त विवरण से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि शब्द के प्रयत्नानतरीयकत्व के सम्बन्ध में दो मान्यताएं हैं । एक तो वे लोग जो यह मानते हैं कि वर्णात्मक शब्द ही प्रयत्नजन्य होता है, वायु आदि से जनित ध्वन्यात्मक शब्द नहीं । दूसरे लोगों का कहना है कि वायु आदि शब्द भी प्रयत्न से निष्पादित होते हैं, किन्तु शब्दधारा का प्रथम शब्द ही प्रयत्नसाध्य होता है, द्वितीय, तृतीयादि नहीं । अतः प्रयत्नानन्तरीयकत्व शब्दरूप पक्ष के एक देश में ही है । 1. न्यायभूषण, पृ, ३११ 2. अस्यास्मदादिप्रयत्नापेक्षत्वात् ।- न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. २१८ 3, न्यायभूषण, पृ. ३११ 4. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ११५ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ न्यायसार ६ आश्रयासिद्ध (१) 'आश्रयेणासिद्धः', आश्रयासिद्धः (२) 'आश्रयोऽसिद्धोऽस्येति सः तथोक्तः अर्थात् जिस हेतु का आश्रय असिद्ध हो, उसे आश्रयासिद्ध कहते हैं। जैसे 'प्रधानमस्ति, विश्वपरिणामित्वात् ' अर्थात् प्रधान का अस्तित्त्र है, विश्वपरिणामित्व के कारण । सांख्यमनानुसार यह विश्व प्रधानात्मक है । सुख, दुःख, मोह स्वभाववाले सत्व, रज और तमस् की साम्यावस्था ही प्रधान अथवा प्रकृति कहलाती है। यहाँ विश्वं परिणामोऽस्य विश्वपरिणामि, तद्भावस्तत्त्वं इस व्युत्पत्ति के द्वारा विश्वपरिणामित्व' का समस्त विश्व प्रकृति का परिणाम है यह अर्थ है । विश्वपरिणामित्व' हेतु से सांख्य दार्शनिक प्रधान का अस्तित्व सिद्ध करना चाहते हैं। क्योंकि नैयायिकमतानुसार विश्व प्रधान का परिणाम नहीं है, प्रधान और विश्व का सम्बन्ध यथार्थ नहीं है, अतः यह हेतु प्रधान का अस्तित्व सिद्ध नहीं कर सकता । प्रधान के असिद्ध होने से तन्निष्ठ हेतु 'विश्वपरिणामित्व' आश्रयासिद्ध हो जाता है । भासर्वज्ञ ने सांख्यदर्शन से सम्बद्ध अत एव विशेष उदाहरण आश्रयासिद्ध का दिया है। किन्तु इस उदाहरण में विश्वपरिणामित्व' साधन को तरह प्रधानास्तित्वरूप साध्य भी अनिश्चित है, अतः एकान्ततः आश्रयासिद्ध का उदाहरण नहीं है । अत. उत्तरवर्ती नैयायिकों ने 'गगनारविन्दं सुरभि अरविन्दत्वात् + यह उदाहरण दिया है। ७. आश्रयैकदेशासिद्ध : जिस हेतु के आश्रय का एक देश असिद्ध हो, उसे आश्रयैकदेशासिद्ध कहते हैं । 'नित्याः प्रधानपु षेश्वराः, अकृतकत्वात्' इस उदाहरण में पक्षीकृत प्रधानादि का एक देशभूत प्रधान नैयायिकमतानुसार असिद्ध है, अतः हेतु आश्रयैकदेशासिद्ध है। ८. व्यर्थविशेष्यासिद्ध : __ जिस हेतु का विशेष्य भाग व्यर्थ जर्थात् साध्यसाधन में उपयुक्त न हो, उसे व्यर्थविशेष्यासिद्ध कहते हैं। जैसे 'अनित्यः शब्दः, कृतकत्वे मति सामान्यत्वात् ।' यहाँ कृतकत्व हेतु से ही शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि है। सामान्यवत्व' विशेष्य का साध्यसिद्धि में कोई उपयोग नहीं है, अतः वह व्यर्थ है। ९. व्यर्थविशेषणासिद्धि : यदा 'अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सति कृतकत्वात् यहाँ भी पूर्ववत् सामान्यवत्त्व विशेषण व्यर्थ है, क्योंकि कृतकत्व से ही शब्द की अनित्यता सिद्ध हो जाती है । 1. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ११६ 2. न्यायमुचावली, प्रथम भाग, पृ. २१८ 3 न्यायतात्पर्य दीपिका, पृ. ११६ 4. तर्कभाषा, पृ. १२५ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १०३ यद्यपि इन दोनों असिद्धों में असिद्धलक्षण का अभाव होने से यह असिद्ध नहीं हैं, क्योंकि इनमें विशेष्य व विशेषण का व्यर्थत्व ही दूषण है, न कि हेतु का । " तथापि मोमांसक वैयाकरणादि के मत में शब्द में कृतकत्व असिद्ध है, उनकी दृष्टि से इसे असिद्ध कहा गया है ।" इसलिये अपरार्क ने कहा है 'गुरुमते तु वैयर्थ्य - मेवात्र दूषणम् । अत्रासिद्धित्वं तु नास्ति निश्चितपक्षवृत्तित्वात् । यस्य तु यदे कृतकत्वमसिद्धं तं प्रत्यसिद्धत्वमुच्यते । 8 १०. सन्धिग्धासिद्ध : यह एक महत्त्वपूर्ण हेत्वाभास है । धूम व बाष्प के भेद की अनिश्चयदशा में कोई व्यक्ति कहता है 'अग्निमानयं प्रदेशो धूमत्वात्' इति । अर्थात् यह धूम हैं या भाप - इस प्रकार साधन की अनिश्चयदशा में प्रयुक्त घूमत्त्व हेतु सन्दिग्धासिद्ध कहलाता है । इससे यह अवगत होता है कि निश्चित साधन का ही साध्यसिद्धि के लिये प्रयोग करना चाहिये, अन्य का नहीं । अवयवप्रयोग की दृष्टि से यह दूषित प्रतीत नहीं होता, परन्तु दोष की उत्पत्ति साधनविषयक सन्देह से होती है । वाष्पादि में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से मशकावर्त' का ग्रहण होता है । ११. सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध : जिस विशिष्ट हेतु का विशेष्य अंश सन्दिग्ध हो, उसे सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध कहते हैं । जैसे 'अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः, पुरुषत्वे सति अद्याप्यनुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वात्' इति । यहाँ कपिल में 'रागादियुक्तत्व' साध्य है । कपिल में भी कदाचित् रागादिसम्बन्ध संभव है अतः सिद्धसाध्यता के परिहारार्थ प्रतिज्ञावाक्य में 'अद्यापि ' पद दिया गया है । पाषाणादि में हेतु की व्यभिचारनिवृत्त्यर्थ 'पुरुषत्वे सति' पद दिया गया है । 'अनुत्पन्नतत्त्वज्ञानात्' यह कहने पर महायोगियों में 'अनुत्पन्नतत्वज्ञानत्व' के होने पर भी उनकी नीरागता के कारण व्यभिचार हो जायेगा । अतः व्यभिचारनिवृत्ति के लिये हेतु में 'अद्यापि पद दिया गया है । यहाँ हेतु में अनुत्पन्न - तत्त्वज्ञानत्व' विशेष्य अंश संदिग्ध है, क्योंकि कपिल को तत्त्वज्ञान उत्पन्न हुआ या नहीं, इस संशय के कारण हेतु सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध है । १२. सन्दिग्धविशेषणासिद्ध : 'अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितत्वे सति पुरुषत्वात्' । तत्रज्ञानरहितत्व के कदाचित् रहने पर रागादियुक्तत्व की सिद्धि नहीं होगी, अतः 1. न्यायभूषण, पृ. ४११,३१२ 2 असिद्धत्वं तु कृतकत्वस्य मीमांसकाभिप्रायेण । - न्यायसारपदपंचिका, पृ. ३८ 3. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग पु. २१८-२१९ 4. वादीत्यादिशब्देन मसकावर्त स्वीकार: । -- न्यायसारपदपंचिका, १. ३८. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ न्यायसार सर्वदा पद दिया गया है। यहां हेतु का 'सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितस्व' विशेषण अंश सन्दिग्ध है, क्योंकि कौन जानता है कपिल सर्वदा तत्त्वज्ञानरहित है अथवा नही ? ये बारह असिद्धभेद जब 'अनित्यः शब्दः चाक्षुषत्वात्' इत्यादि की तरह वादीप्रतिवादी दोनों की दृष्टि से असिद्ध हों, तब उभयासिद्ध कहलाते हैं । जब वादी-प्रतिवादी में से एक को दृष्टि से असिद्ध हों, तब अन्यतरासिद्ध कहलाते हैं । अन्यतरासिद्ध हेत्वाभास को न मानने वालों का खण्डन कतिपय दार्शनिक यह मानते हैं कि अन्यतरासिद्ध हेत्वाभास संभव नहीं है। उनका तर्क यह कि प्रतिवादी द्वारा हेतु में असिद्धि की उद्भावना करने पर यदि वादी उसके साधक प्रमाग को नहीं बतलाता है, तब प्रमाणाभाव के कारण उभयासिद्धि होगी । यदि प्रमाण प्रस्तुत करता है, तब प्रमाग के होने से उभयपक्ष में हेतु सिद्ध होगा। अन्यथा अन्यतरासिद्ध साध्य की कदापि सिद्धि न होने से उसके लिये प्रमाणोपन्यास व्यर्थ हो जायेगा । यदि प्रतिवादी के प्रति प्रमाण द्वारा सिद्ध न बतलाने तक असिद्ध माना जाय, तब असिद्ध गौण हो जायेगा, मुख्य नहीं । __ अपि च, हेत्वाभास निग्रहस्थान है और अन्यतरासिद्ध भी हेत्वाभास होने से निग्रहस्थान है । अन्यतरासिद्ध हेस्वाभासरूप निग्रहस्थान से वादी यदि एकबार निगृहीत हो जाता है, तो निगृहीत का बाद में अनिग्रह सभीचीन प्रतीत नहीं होता। निगृहीत होने के पश्चात् तो हेतु का समर्थन ही उचित नहीं, क्योंकि बाद तभी तक चलता है, जब तक कि दोनों में से एक निगृहीत न हो । निग्रहानन्तर वाद ही समाप्त हो जाता है, अतः पश्चात् हेतु-समर्थन का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। समाधान यदि वादी सम्यक् हतुत्व को स्वीकार करता हुआ भी उसकी समर्थनपद्धति के विस्मरणादि अथवा प्राश्निकों को प्रतिबोधित करने में समर्थ नहीं होता है और असिद्धता को भी नहीं मानता, तब अन्यतरासिद्ध से ही उसका निग्रह होता है। स्वयं बादी द्वारा स्वीकृत न होने से तथा परमत में प्रसद्ध होने से ही प्रस्तुत अन्यतरा सिद्ध हेतु निग्रहस्थान कहलाता है । कहा भी है 'यो हि तावत्परासिद्धः स्त्रयं सिद्धोऽभिधीयते । । भवेत्तत्र प्रतीकारः स्वतोऽसिद्धे तु का क्रिया ।' योऽपि तावत् स्वयं सिद्धः परासिद्धोऽभिधीयते । भवेत्तत्र प्रतीकारः ततोऽसिद्धोऽभिधीयते ॥ 1. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. २२० से उदधृत । 2. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ११६ से उद्धृत । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १०५ भासर्वज्ञाचार्य के परवर्ती जैनतार्किक प्रभाचन्द्र ने असिद्ध हेत्वाभास के भासर्वज्ञसम्मत विशेष्यासिद्ध, विशेषणासिद्ध, आश्रयासिद्ध, आश्रयैकदेशासिद्ध, व्यर्थविशेषणासिद्ध, व्यधिकरणासिद्ध तथा भागासिद्ध, नामक भेदों का माणिक्यनन्दी द्वारा सूत्रित असत्सत्ताक नामक असिद्ध भेद में1 तथा सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध आदि का अविद्यमानतिश्चय नामक असिद्धभेद में अन्तर्भाव किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने असिद्ध के स्वरूपासिद्ध तथा सन्दिग्धासिद्ध ये दो भेद मानकर भासर्वज्ञसम्मत विशेष गसिद्ध आदि-असिद्धभेदों का वाद्यसिद्ध, प्रतिवाद्यसिद्ध तथा उभयासिद्ध इन असिद्धप्रभेदों में अन्तर्भाव किया है । विरुद्ध हेत्वाभास सूत्रकार ने विरुद्ध हेत्वाभास का लक्षण 'सिद्वान्तमभ्युपेत्य तद्धिरोधी विरुद्धःयह किया है अर्थात अभ्युपेत (स्वीकृत) सिद्धान्त के विरोधी हेतु को विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं । भाष्यकार ने इसका उदाहरण देते हुए कहा है-'सोऽयं विकारो व्यक्तेरपैत, नित्यत्वप्रतिषेधात् । यहां हेतु 'नित्यत्वप्रतिषेध' महदादिविकार धर्मलक्षणादिरूपान्तर में परिवर्तित होते हुए भी सन् होते हैं, क्योंकि उनका सर्वथा विनाश नहीं होता, इस सांख्य-सिद्धान्त का विरोधी होने से विरुद्ध है । तात्पर्य यह है कि सांख्य विकारों को रूपान्तर में परिणामशील मानते हुए भी उन्हें सत् अर्थात् विनाशरहित मानता है और विनाशराहित्यरूप सत्त्व ही नित्यत्व है, किन्तु 'विकारोव्यक्तेश्येति नित्यत्वप्रतिषेधात्' इस अनुमान में नित्यत्वप्रतिषेधरूप हेतु विकारों को अनित्य अर्थात विनाशी बतलाता हआ उपयुक्त स्वीकत सांस्य-सिद्धान्त का विरोधी है, अतः यह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है । प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थान और विरुद्ध हेत्वाभास का पार्थक्य बतलाने के लिये वार्तिककार ने विरुद्ध हेत्वाभास का एक और स्फुट उदाहरण दिया है -'नित्यः शब्दः उत्पत्तिधर्मकत्वात्। यहां उत्पत्तिधर्मकत्व हेतु नित्यत्व के साथ व्याप्त न होकर तद्विपरीत अनित्यत्व से व्याप्त है, क्योंकि उत्पत्तिशील वस्तु अनित्य होती है न कि नित्य । इस प्रकार उत्पत्तिधर्मकत्व हेतु स्वीकृत सिद्धान्त शब्द के नित्यत्व का विरोधी है, अतः विरुद्ध हेत्वाभास है। 1 ये च विशेष्यासिद्धादयोऽसिद्धप्रकारा: परिष्टास्ततेऽसत सत्ताकत्वलक्षणासिद्धप्रकारान्नार्थान्तरम्, ___ तल्लक्षणभेदाभावात -प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृष्ठ ६३२-६३३. 2 सन्दिग्धविशेष्यादयोप्य विद्यमान निश्चयतालक्षणातिकमाभावानार्थान्तरम् ।-प्रमेयकमलमाण्ड, 3. विशेष्यासिद्वादीनामेष्वेवान्तर्भावः ।-प्रमाणमीमांसा, २/१९ एवेव' वादिप्रतिवाशुभयासिद्धेवेव ।-स्वोपज्ञवृत्ति, २/१९ 4. न्यायसूत्र, १।२१६ 5. न्यायभाष्य, १।२६ 6. न्यायवार्तिक, ११२१६ भान्या-१४ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ न्यायसार न्यायसूत्रकार, भाष्यकार और वार्तिककार के विरुद्धहेत्वाभास-सम्बन्धी मत के उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विरुद्ध हेतु सपन में न रहकर विपक्ष में निश्चित रूप से व्याप्त रहता है, जैसाकि परिशुद्धिकार उदयनाचार्य ने कहा है'विपर्ययव्याप्तत्वेन निश्चितो हेतुर्विरुद्वो हेत्वाभास'1 । विरुद्ध के सौत्रलक्षण की व्याख्या करते हुए जयन्त भट्ट ने कहा है-'सपक्षविपक्षयोवृत्त्यवृत्ती हेतोर्लक्षणमुक्तम् , ते यस्य विपर्यस्ते दृश्येते, यः सपक्षे न वर्तते विपक्षे च वर्तते । अर्थान सपक्षवृत्तिता तथा विपक्षावृत्तिता हेतु का स्वरूप है, किन्तु इनका जहां वैपरीत्य हो जाता है अर्थात् हेतु में सपनावृत्तिता व विपक्षवृत्तिता हो जाती है, वह हेतु साध्यविपरीत वस्तु का साधक होने से विरुद्ध कहलाता है, इस उक्ति के द्वारा साध्यविपरीत अर्थ के साधक हेतु को विरूद्ध बतलाया है तथा सूत्राकार का अभिप्राय इसीमें है, यह बोधन किया है। जयन्तभट्टकृत इस सूत्र-व्याख्या से यह सूचित होता है कि विरुद्ध हेतु में विद्यमान सपक्षवृत्तित्व व विपक्षवृत्तित्व का विपर्यास होता है, किन्तु हेतु के प्रथम स्वरूप पक्षवृत्तित्व की सत्ता इसमें भी रहती है। भासर्वज्ञाचार्य ने जयन्तभट्टकृत व्याख्यान का अनुसरण करते हुए न्यायसार में कहा है-'पक्षविपक्षयोरेव वर्तमानो विरुद्धः' अर्थात जो पक्ष और विपक्ष में रहे तथा सपक्ष में न रहे, उसे, विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं। भासर्वज्ञ ने अपने लक्षण की सूत्रानुसारिता बतलाने के लिये सूत्रगत सिद्धान्ताभ्युपगम का अर्थ साध्यधर्म माना है |* तात्पर्य यह है कि पक्ष में किसी साध्यधर्म को स्वीकार कर जो हेतु उसका विरोधी हो अर्थात् साध्यविरोधी स्वभाव वाला हो, उसे विरुद्ध कहते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि भासर्वज्ञ के अनुसार सूत्र में सिद्धान्ताभ्युपगम द्वारा पक्षसत्त्व सूचित किया गया है । 'पक्षवृत्तित्वे सति विपक्षवृत्तित्वम्' यह विरुद्ध का पूरा लक्षण न्यायसारसम्मत है । विशेषणदल के द्वारा असिद्ध हेतु का निवारण किया है और विशेष्यदल के द्वारा व्यभिचारी हेतु का । इस प्रकार विशेषण और विशेष्य दोनों के द्वारा विरुद्ध का निष्कृष्ट लक्षण प्रस्तुत किया गया है। हेतु में पक्षसत्त्व धर्म का होना दोषाधायक नहीं, किन्तु विपक्षवृत्तित्व अवश्य दोष है । इसीलिये अन्य आचार्यों ने विरुद्ध के लक्षण में साध्याभावव्याप्तत्वमात्र का निवेश किया है । वैशेषिक आचार्यो में शिवादित्य को भासर्वज्ञमत से संवादिता प्राप्त होती है । प्रकृत हेत्वाभाव के विषय में भी उनकी भासर्वज्ञमत से सहमति है। केशव मिश्र, अन्नंभट्ट, जगदीश तर्कालंकार आदि परवर्ती प्रकरणग्रन्थकारों ने विरुद्ध हेत्वाभास को विपक्षवृत्ति ही बतलाया हैं। 1. तात्पर्यपरिशुद्धि १।२।६ 2. न्यायमंजरी उत्तरभाग, पृ० १५६ । 3. न्यायसार, पृ.७ 4. न्ययभूषण पृ. ३०९ 5. सप्तपदार्थी, पृ. ७४ 6. (अ) साध्यविपर्ययव्याप्तो हेतुविरुद्धः ।-तकभाषा, पृ. १३१. (ब) साध्याभावव्याप्तो हेतुर्विरुद्धः ।-तर्कसंग्रह, पृ. ६१ (स) साध्याभावव्याप्तो हेतुर्विद्धः । - तर्कामृत, पृ० ३१ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण भासर्वज्ञ ने विरुद्ध के आठ भेद किये हैं। ये भेद सपक्ष की विद्यमानता और अविद्यमानता पर आधारित हैं ।1 सर्वप्रथम सपक्ष की विद्यमानता पर आधारित भेदों का निरूपण किया जा रहा है :१. पक्षविपक्षव्यापक : उदाहरण है-'शब्दो नित्यः कार्यत्वात् । यहां कार्यत्र हेतु पक्ष शब्द और विपक्ष घटादि में विद्यमान है, किन्तु सपक्ष आत्मादि में कार्यत्व हेतु की सत्ता नहीं है, कयोंकि आत्मादि कार्य नहीं है। कार्यन्त्र हेतु के स्वरूप पर इसकी हेत्वाभासता की विधा निर्भर करती है । कार्यत्व पर विचार करते हुए भासर्वज्ञ ने कार्यत्वका का लक्षण 'स्वकारणसमवायः'' बतलाया है । इस प्रसंग में भासर्वज्ञ ने उद्योतकर तथा वाचस्पतिमिश्र-सम्मत अनित्यत्व के लक्षण की चर्चा की है । तात्पर्य यह है कि यहां कार्यत्व का अर्थ जन्यत्वमात्र मानने पर नित्यत्वाभाववान् विपक्ष प्रध्वंसाभाव में जन्यत्व की सत्ता से यह हेतु अनैकान्तिक हो जाता है । कार्यत्व का अर्थ 'स्वकारणे समवायः' मानने पर विनाशी होने से अनित्य प्रागभावरूप विपक्ष में स्वसमवायिकारण-समवेतत्व का अभाव होने से उसमें कार्यत्व हेतु की वृत्ति न होने से विपक्षव्यापकत्वरूप विरुद्धत्व का अभाव होगा और यह विरुद्ध हेत्वाभास नहीं कहा जायेगा । अतः भूषणकार ने कार्यत्व के लक्षणों का परित्याग कर उद्योतकर तथा वाचस्पतिमिश्रसम्मत उभयान्तोपलक्षित सत्ता को अनित्यत्व का लक्षण माना है अर्थात् जो प्रागभाव तथा प्रध्वंस दोनों का प्रतियोगी हो, जिसका प्रागभाव व ध्वंस दोनों हो, वह अनित्य कहलाता है । प्रागभाव में प्रागभावप्रतियोगित्व नहीं हैं अर्थात् प्रागभाव का प्रागभाव नहीं होता । अतः वह नित्य है, अतः उसमें कार्यत्व हेतु की सत्ता न होने पर भी हेतु में विपक्ष. व्यापकत्र की अनुपपत्ति नहीं है और प्रध्वंस में प्रागभावप्रतियोगिव होने पर भी ध्वंसप्रतियोगित्व नहीं है, अतः वह भी अनित्य है, किन्तु नित्य है । अतः उसमें कार्यत्व हेतु के रहने पर भी साध्याभाववद्वृत्तित्वरूप अनैकान्तिकता दोष नहीं है । २. विपक्षकदेशवृत्ति पक्ष व्यापक : __ यथा-'शब्दो नित्यः सामान्यत्वे सति अस्मदादिबाह्यन्द्रियग्राह्यत्वात् । अर्थात् शब्द नित्य है, क्योंकि सामान्यवान होता हुआ अस्मदादि की बाह्येन्द्रिय से ग्राह्य है । द्वथणुक पृथिव्यादि तथा अन्तःकरणग्राह्य सुखादिरूप विपक्ष में ‘सामान्यवत्वे सति अहमदादिबाह्येन्द्रियग्राह्मत्व' हेतु के न रहने से यह हेतु विपक्ष व्यापक नहीं, अपितु विपक्षकदेशवृत्ति है। 1. विरुद्धभेदास्तु सपक्षे सत्यसति च भवन्ति ।-न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ११९ 2. न्यायभूषण, पृ. ३१३ 3. उभयान्तोपलक्षिता सत्तानित्यत्वमित्ये के 1--न्यायभूषण, पृ. ३१३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ न्यायसार 1 परमाणु भी योगिजनों की बाहूयेन्द्रिय से ग्राह्य हैं । 'बाह्येन्द्रियग्राह्यत्व' हेतु की सपक्ष परमाणुओं में सत्ता होने से विरुद्धत्व की निवृत्ति हो जायेगी, अतः इस विरुद्धत्व की उपपत्ति के लिये हेतु के पूर्व 'अस्मदादि संयोजित है । 'अस्मदादि - बाह्येन्द्रियग्राह्म नित्य सामान्य में भी हैं, अतः 'सामान्यक्त्वे सति' पद दिया गया है । सामान्य में सामान्य मानने पर अनवस्था है । अतः सामान्य में सामान्य के न रहने से सामान्य सामन्यवान् नहीं है । अहर्थि में कृत्य ( ण्यत्) प्रत्यय मानने से ग्राह्यत्व पद से ग्रहण योग्यत्व अभीष्ट है । 'ग्रहणयोग्यत्व' (अस्मदा दिवायेन्द्रियग्रहगयोग्यता) सभा शब्दों में होने से हेतु की पक्ष व्यापक्ता निःसंदिग्ध है ।" ३. पक्षविपक्षैकदेशवृत्ति : 'शब्दो नित्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्' । 'प्रयत्नानन्तरीयक्त्व' का अर्थ है - प्रसाध्यत्व | पक्षीकृत सभी शब्दों में आद्य शब्द में 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' है । द्वितीय, तृतीय आदि शब्दों में शब्दजन्यत्व के कारण 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' नहीं है । 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' का विपक्ष घटादि में सद्भाव है, परन्तु वनस्पत्यादि में उ की असत्ता है, अतः पक्ष तथा विपक्ष दोनों के एकदेश में रहने वाले विरुद्ध हेत्वाभास का यह उदाहरण है । वनस्पत्यादि में भी यद्यपि ईश्वरप्रयत्नसाध्यता है, तथापि प्रयत्नसाध्यत्व पर से तीव्रतामन्दतादिधर्मयुक्त प्रयत्नसाध्यता अभिप्रेत है और ईश्वरप्रयत्न के नित्य होने से उनमें तीव्रतामन्दनादिधर्मयुक्त प्रयत्नसाध्यता नहीं है । ४. पकदेशवृत्ति विपक्षव्यापक : - पृथिवी नित्या, कृतकत्वात्' । परमाणु तथा कार्य भेद से पृथिवी दो प्रकार की है, जैसाकि प्रशस्तपाद ने कहा है- 'सा द्विधा नित्या चानित्या च । परमाणु•लक्ष गाना कार्यलक्षणावनेित्या' 15 परमाणु पृथिवी में कार्यत्व नहीं है और कार्यरूपा पृथिवी में है, अतः हेतु 'कृतकत्व' पक्षैकदेशवृत्ति है । विपक्षभूत समस्त अनित्यों में कृतकत्र की सत्ता है, अतः सर्वविपक्ष व्यापक है । इन चारों भेदों में नित्य आत्मादि समक्ष के होने पर भी हेतु की अविद्यमानता स्पष्ट है । सपक्ष के अभाव के कारण चार भेद १. पक्ष विपक्षव्यापक : - 'शब्दः आकाशविशेषणगुणः प्रमेयत्वात्' । यहां 'आकाशविशेषगुणत्व' साध्य है, जो शब्द के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी नहीं, क्योंकि आकाशविशेषगुण शब्द 1. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. १२० 2. अर्हत्य कृत्याभिधानात् ग्रहणयोग्यतामात्रं ग्राह्यत्वमुक्तम् तेनास्यापि पक्षव्यापकत्वम् । - न्यायभूषण, पृ. ३१४ 3. प्रशस्तपादमाध्य, पृ १७. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १०९ ही है, दूसरा कोई नहीं । अतः प्रमेयत्व हेतु शब्दरूप पक्ष में व्यापक है तथा आकाशविशेष गुणत्वरूप साध्याभाव वाले रूपादि में भी प्रमेयत्व रहता है. अतः यह हेतु विपक्ष का व्यापक भी है । अतः यह हेतु पक्षविपक्ष व्यापक विरुद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि यहां सपक्ष के अभाव के कारण सपक्ष से व्याप्त न होकर विपक्ष से व्याप्त है । २. पक्ष विपक्षैकदेशवृत्ति : 'शब्दः आकाशविशेषगुणः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्' । शब्द आकाश का विशेषगुण है, प्रयत्नानन्तरीयक होने से । 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' हेतु की पक्षैकदेश प्रथम शब्द में सत्ता हैं तथा शब्दजन्य अन्य शब्दों में असत्ता है । इसी प्रकार आकाशविशेषगुणत्व के अभाव वाले विपक्ष घटाद में हेतु के अस्तित्व तथा आत्मादिरूप विपक्ष में अनस्तित्व के कारण यह हेतु पक्षविपक्षैकदेशवृत्ति विरुद्ध हेत्वाभास है । ३. पक्षव्यापक विपक्षैकदेशवृत्ति : 'शब्दः आकाशविशेषगुणः बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् । अर्थात शब्द आकाश का विशेष गुण है, बाहूयन्द्रय द्वारा ग्राह्य होने से । सभी शब्दों के श्रोरसह बाहूयेन्द्रियप्राय होने से यह हेतु पक्ष व्यापक है तथा घटादि विपक्ष में बायेन्द्रियग्राह्यत्व होने से तथा सुखादि विपक्ष में उसके अभाव के करण हेतु विक देवृत्ति है । ४. विपक्ष व्यापक तथा पक्षैकदेशवृत्ति : 'शब्दः आकाशविशेषगुणः अपदात्मक शब्द आकाश का विशेष गुण है. अपदात्मक होने से । शब्द दो प्रकार का होता है - पदात्मक और अपदात्मक । मेय्र्यादि शब्दों में अपदात्मकत्व हेतु की सत्ता है तथा वर्णात्मक शब्दों में अपदा त्मकत्व हेतु की सत्ता नहीं । अतः यह पक्षैकदेशवृत्ति है तथा आकाशविशेषगुणत्व. साध्याभाव वाले सभी विपक्षों में अपदात्मकत्व हेतु कीं सत्ता होने से यह विपक्ष व्यापक है । भासर्वज्ञ ने इन आठ विरुद्धभेदों का निरूपण करने के पश्चात् पूर्वपक्ष सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है । जो पसव्यापक चार हेतु हैं, उन्हें ही वास्तव में विरुद्ध के भेद मानना चाहिये । पक्ष के एकदेश में रहने वालों को असिद्ध ( भागा सिद्ध) हेत्वाभास का भेद मानना उचित है, क्योंकि पक्ष में रहने वाले हेतु की तीन विधाएं होती हैं - हेतु ( सदूघेतु), विरुद्ध तथा अनैकान्तिक । किन्तु जो पक्षै कदेश में रहता है, वह सकलपक्षवृत्ति न होने से विरुद्ध हेत्वाभास नहीं हो सकता । 1 1. न्यायभूषण, पृ. ३१४ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० न्यायसार भासर्वज्ञ का कथन है कि यह दोष उचित नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार तुला सुवर्णादि के इयत्ताज्ञान (इयत्तावधारण) का सोधन होने से प्रमाण तथा तुलान्तरपरिच्छिन्न द्रव्य द्वारा या प्रत्यक्षतः स्वरूप से ज्ञायमान होने के कारण प्रमेय कहलाता है, उसी प्रकार पक्षक देशवृत्ति हेत्वाभास असिद्धलक्षणोक्रान्त होने से असिद्ध तथा विरुद्ध और अनकान्तिक आदि के लक्षण से युक्त होने से विरुद्ध यो अनैकान्तिक भी कहलाता है। अतः एकान्तः भागासिद्ध या विरुद्ध हो, ऐसा निया नहीं', पक्षवृत्ति हेतु सद्धेतु, विरुद्ध या अनेकान्तिक हो, यह नियम नह।, क्योंकि कालात्यया. पदिष्ट (बाधित) तथा प्रकरणसन् (सत्प्रतिपक्ष) में भी हेतु की पक्ष त्तिता है । प्रथम चार विरुद्धभेद अन्वयव्यतिरेकी हेतु को दृष्टि में रहते हुए किये हैं, जिनमें सपक्ष को सत्ता होती है। द्वितीय चार भेद व्यतिरेको को ध्यान में रख कर किये हैं, जिनमें सपक्ष की सत्ता नहीं रहती । जेनताकिक प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्र ने भासर्वज्ञसम्मत इन आठ विरुद्ध भेदों का सकलन करते हुए स्वसम्मत विरुद्ध में अन्तर्भाव किया है। अनैकान्तिक प्रशस्तपाद ने सन्दिग्ध हे वाभास का लक्ष ग किया है-'यस्तु सन्ननुमेये तत्समोनासम्रानजातीययोः साधारणः स सन्देह जनकत्वात् सन्दिग्धः। जो हेतु पक्षवृत्ति होता हुआ सपक्ष तथा विपक्ष दोनों में रहना है अर्थात् साध्यवान् तथा साध्याभाववान् दोनों में रहता है, वह निश्चित रूप से साध्य का साधक न होकर सन्देहजनक होने से सन्दिग्ध कह राता है। नैयायिकों के अनैकान्तिक का यही स्वरूप है, संदिग्ध और अनेकान्तिक में संज्ञाभेदमात्र है । बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग ने अनेकान्तिक हेत्वाभास को स्वीकार करते हुए उसको ६ विधाओं का सोदाहरण उल्लेख किया है। उद्योतकराचार्य ने अनेकान्तिक हत्वाभास के सूत्राकारकृत 'अनेकान्तिकः सव्य. भिचारः लक्षग को पर्यायलक्षण बतलाने के पश्चात् प्रशस्तपादकृत लक्षण को भी स्वीकार किया है-'तेषाम् , अनैकान्तिकः सव्यभिचारः । एकस्मिन्नन्ते नियतः ऐकान्तिकः, 1. न्यायभूषण, पृ. ३१४ 2. Sanghvi, Sukhlal, -Advanced Studies in Indian Logic and Metaphysics, P. 102 3. ये चाष्टौ विरुद्धभेदाः परैरिष्टास्तेप्थेतल्लक्षणलक्षितत्वाविशेषतोऽत्रैवान्तर्भवतीत्युदाहियन्ते । प्रमे पक पलमानण्ड, पृ. ६३६ 4. अनेन ये रिन्ये विद्वा उमाह मस्तेऽपि सङ्गृहीता: । --प्रमाणमीमांसास्वोषज्ञवृत्ति, २२० 5. प्रशस्त पादभाष्य, पृ. १९१-१९२ 6. न्याय प्रवेश, भाग १, पृ. ३ 7. न्यायसूत्र, २१५ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १११ विपर्ययादनकान्तिकः। कः पुनरयं व्यभिचारः ? साध्यतज्जातीयान्यवृत्तित्वम् । यत् खलु साध्यतज्जातीयवृत्तित्वे सति अन्यत्र वर्तते तद् व्यभिचारि । तवृत्तित्वं व्यभिचारः''। अर्थात् जो हेतु साध्य और तज्जातीयपक्ष और सपक्ष में रहने के साथ-साथ अन्यत्र विपक्ष में भी रहता हो, उसे सव्यभिचार हेत्वाभास तथा तद्-(विपक्ष) वृत्तित्व को को व्यभिचार कहते हैं । द्योतकराचार राचाये का अनुसरण करते हुए आचार्य भासर्वज्ञ ने भी अनेकान्तिक का 'पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः' यह लक्षण किया है। उन्होंने सूत्रकारकृत लक्षण को 'बुद्धिरूपलब्धिः ' इस बुद्धि लक्षण की तरह पर्याय माना है । अर्थात् जिस तरह बुद्धिरुपलब्धि......'इस बुद्धिलक्षण में बुद्धि के पर्यायवाची उपलब्धि शब्द को उपादान कर दिया है, वैसे ही 'अनैकान्तिकः सव्यभिचारः' इस अनैकान्तिकलक्षण में भी अनेकान्तिक का स्वरूप न बतलाकर केवल उसके पर्यायवाची सव्यभिचार पद का उपादान कर दिया है। वस्तुतः सव्यभिचार' शब्द साध्य. व्यभिचारी अर्थात् साध्याभाव में रहने वाला हेतु अनेकान्तिक है, क्योंकि हेतु एकान्ततः साध्य के साथ रहना चाहिये न कि साध्याभाव के साथ, इस प्रकार हेतु की साध्य के साथ ऐकान्तिकता का अभाव बतलाता हुआ अनेकान्तिक के स्वरूप को स्पष्ट कर देता है, अतः यह केवल पर्यायलक्षण नहीं, अपितु स्वरूपलक्षण है । उदयनाचार्य ने किरणावली भोसर्वज्ञोक्त रक्षण को आलोचना की है। यद्यपि अनैकान्तिक शब्द के द्वारा केवल साधारण हेतु का लाभ होता है, नव्यनैयायिक सम्मत समस्त अनैकान्तिकपरिवार का नहीं । क्योंकि 'एकस्मिन् अन्ते भवः ऐकान्तिकः' इस व्युत्पत्ति से ऐकान्तिक शब्द साध्य की भाव तथा अभाव दोनों कोटियों में से हेतु की एक कोटिवृत्तिता बतला रहा है। अर्थात् साध्य की दो कोठियां मानी जाती हैं-भाव कोटि और अभाव कोटि । साध्य की भाव कोटि के साथ निश्चित रूप से रहने वाला सदुधेतु और साध्य को अभाव कोटि के साथ निश्चित. रूप से रहने वाला हेतु विरुद्ध होता है-इन दोनों को ऐकान्तिक कहा जाता है। जो ऐकान्तिक न हो अर्थात् भाव कोटि तथा अभाव कोटि दोनों में रहता हो, उसे अनेकान्तिक कहा जाता हैं। साधारण हेतु भाव-अभाव उभय कोटि में अनुस्यूत होता है, अतः उसे अनैकान्तिक कह सकते हैं । किन्तु असाधारण और अनुपसंहारी को अनेकान्तिक पद से कहना संभव नहीं । तथापि न्यायपरम्परा में अनेकान्तिक से तीनों का ग्रहण किया गया है, जैसाकि तात्पर्यपरिशुद्धि के 'एतेन सोधारणा साधा रणोनुपसंहार्याः संग्रहीता इति स्फटम' इस वचन से स्पष्ट है। हेतु का भाव तथा 1. न्यायसूत्र, १२१५ 2. न्यायसार, पृ. ७ 3. न्यायभूषण, पृ. ३०९ 4. न्यायस्त्र १११५ 5. तात्पर्यपरिशुद्धि, १।२१५ 6. तात्पर्यपरिशुद्धि, १२ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ न्यायसार अभाव दोनों कोटियों में रहना जिस प्रकार अनेकान्तिकता है, उसी प्रकार दोनों कोटियों से हेतु की व्यावृत्ति भी अनेकान्तिक्ता है। । साधारण अनैकान्तिक में हेतु की भाव व अभाव कोटियों में वृत्तितारूप अनेकान्तिक्ता है तथा असाधारण व अनुपमहारी में दोनों का टयों से व्यावृत्तिरूप अनैकान्तिक्ता है। 'शब्दो नित्यः श्रावणत्वात्' इस असाधारण अौकान्तिक में श्रावणत्व हेतु केवल शब्द में रहने के कारण सपक्ष आत्मादि तथा विपक्ष घटादि इन दोनों कोटियों से व्यावृत्ति है तथा 'सर्वमनित्यं प्रमेयत्वात्' इस अनुपसंहारी में सर्वमात्र के पक्ष होने से प्रमेयत्व हेतु सभी सपक्ष व विपक्ष दृष्टान्तों से व्यावृत्त है, क्यों क सपक्ष व विपक्ष दृष्टान्त पक्ष भिन्न होते हैं । अतः वहां भी प्रमेयत्व भाव व अभाव दोगें कोटियों से व्यावृत्त है । इतनो हो अन्तर है कि असाधारण हेत्वाभास में सपक्ष-विपक्ष दोनों कोटियों के होने पर भी हेतु दोनों कोटियों में नहीं रहता और अनुपसंहारी में सपक्ष विपक्ष कोटि का अभाव होने से वहां हेतु नहीं रहता, क्योंकि सर्वमात्र के पक्ष होने से निश्चितसाध्यवान् सपक्ष तथा निश्चितसाध्याभाववान् विपक्ष का वहां अभाव है। आचार्य भासर्वज्ञ को अनैकान्तिक के आठ भेद अभिप्रेत हैं। यहां उनका निरूपण किया जा रहा है१. पक्षत्र यव्यापक : यथा-'अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् ।' 'प्रमेयत्व' हेतु शब्दरूप पक्ष, घटादिरूप सपक्ष तथा आत्माकाशादिरूप विपक्ष-सभी में विद्यमान है । २, पक्षव्यापक सपक्ष-विपक्षौकदेशवृत्ति : ____जो हेतु पक्ष में मर्वत्र तथा सपक्ष व विपक्ष के एकदेश में रहता है, वह पक्ष-व्यापक सपक्षविपक्षकदेशवृत्ति अनेकान्तिक है । यथा- 'नित्यः शब्दः प्रत्यक्षत्वात् ।' इस अनुमान में प्रत्यक्षत्व हेतु शब्दरूप पक्ष में सर्वत्र रहता है अतः पक्षव्याप है तथा नित्यत्वरूप साध्य वाले सपक्ष के एकदेश आत्मा में रहता हैं, दिमाकाशादि में नहीं। इसी प्रकार नित्यत्वरूप साध्य के अभाव वाले विपक्ष के एकदेश घटादि में रहता है, न कि द्वयणुकादि पृथिवी में। अतः सपक्षविरक्षकदेशवृत्ति है। यहां प्रत्यक्षत्व से जनसामान्य की इन्द्रिय द्वारा ग्रहणयोग्यतामात्र अभिप्रत है। अतः वीचीतरंगन्याय से कर्णशष्गुलीप्रदेश में उत्पन्न शब्द से भिन्न पूर्ववर्ती शब्दों के वस्तुतः प्रत्यक्ष न होने पर भी उनमें भी श्रोत्रेन्द्रियग्रहणयोग्यता होने से इस हेतु में पक्षकदेशवृत्तित्व का प्रसक्ति नहीं तथा सपक्ष क्विालालाकाशादि व विपक्ष द्वथणुकादि के भा योगिप्रत्यक्ष का विषय होने से इस हेतु में पक्षत्रयव्यापकत्व की भी प्रसक्ति नहीं है, क्योंकि वे योगिप्रत्यक्ष के विषय होने पर भी जनसाधारण की इन्दिय द्वारा ग्राह्य नहीं हैं। 1. अथापीदं स्यादने कान्तिकलक्षणेन न सर्वोऽनकान्तिको व्याप्यते यथा असाधारण इति । न, अनेनैव संग्रहातू । कमिति ? व्यावृत्तिद्वारेणाभिधीयभानोऽयमुभयान्तव्यावाचरनकान्तिकः । -~-न्यायवातिक, १/२१५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण ३. पक्षसपक्षव्यापक विपक्षैकदेवृतिः यथा - 'गौरयं विषाणित्वात्' । विपाणी पिण्ड ही यहां पक्ष है और उसमें सर्वत्र विषाणित्र की सत्ता होने से यह हेतु पक्षव्यापक है । समस्त सपक्ष गोपिण्डों में भी विषाणित्व हेतु की सत्ता है | गोल्स में भी विषाणित्व की योग्यता है. अतः सपक्ष व्यापक है । विपक्ष के एकदेश महिषादि में विषाणित्व की सत्ता है, अश्वादि में नहीं । इसलिये यह विपक्षैकदेशवृत्ति भी है । ४. पक्ष विपक्षव्यापक सपक्षेकदेशवृत्ति : यथा - 'नायं गौविषाणित्वात्' । यहां भी पूर्ववत विषाणी पिण्डमात्र पक्ष है, उसमें सर्वत्र विषाणित्व की सत्ता होने से यह हेतु पक्ष व्यापक है । गोत्वाभाव रूप साध्य के अभाव वाले गोमात्र.. में भी विषाणिव की सत्ता होने से विपक्ष व्यापक भी है तथा गोत्वाभावरूप साध्य वाले महिषादि में हेतु की सत्ता और अश्वादि हेतु की सत्ता न होने से यह हेतु सपक्षकदेशवृत्ति है । ५. ११३ पक्ष त्रयैकदेवृत्ति : यथा - 'नित्या पृथिवी प्रत्यक्षत्वात्' । यहां प्रत्यक्षत्व से अयोगीन्द्रियग्राह्यत्र ही अभिप्रेत है । अतः अयोगीन्द्रियग्राह्यत्व - रूप प्रत्यक्षत्व के पक्षभूत परमाण्वादि पृथिवी में, नित्यत्वरूप साध्य वाले दिगादि सपक्ष में तथा नित्यत्वरूप साध्य के अभाववाले अनित्य द्वयणुकजलादि में न रहने से पक्ष, सपक्ष, विपक्ष तीनों के एकदेश में ही रहता है । ६. पक्षस पक्षेक देशवृत्ति विपक्ष व्यापक : यथा - 'द्रव्याणि दिवकालमनांस्य मूर्तत्वात्' । यहां अमूर्तत्व हेतु दिक्कालमनोरूप पक्ष के एकदेश दिक् व काल में ही रहता है, मन में नहीं तथा द्रव्यत्वरूप साध्यवाले आकाश में ही अमूर्तत्व है, पृथिव्यादि में नहीं । अतः यह पक्षसपक्षैकदेशवृत्ति है और द्रव्यत्वरूप साध्य के अभाव वाले गुणादि में सर्वत्र रहता है । अतः विपक्ष व्यापक है । ७. पक्षविपक्षैकदेशवृत्ति सपक्ष व्यापक : यथा - 'न द्रव्याणि दिक्कालमनांसि, अमूर्तत्वात्' । इस अनुमान में अमूर्तत्व हेतु दिक्कालमनोरूप पक्ष के एकदेश दिक् व काल में रहता है, मन में नहीं तथा द्रव्यत्वाभावरूप साध्य के अभावरूप द्रव्यरूप विपक्ष भान्या - १५ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ न्यायसार के एकदेश आकाश व आत्मा में रहता है, पृथिव्यादि में नहीं। और द्रव्यत्वाभाव रूप साध्य वाले गुणकर्मादि में सर्वत्र रहता है । अतः सपक्षव्यापक है । ८. सपक्षविपक्षव्यापक पक्षकदेशवृत्ति : ___ यथा--'न द्रब्याण्याकाशकालदिगात्ममनांसि, क्षणिकविशेषगुणरहितत्वात् । यहां 'क्षणिकविशेषगुणरहितत्व' हेतु आकाश-काल-दिगात्ममनोरूप पक्ष के एक. देश काल, दिक्, मन में रहता है और आकाश तथा आत्मा में नहीं। अतः पक्षकदेशवृत्ति है । तथा द्रव्यत्वाभावरूप साध्य वाले सपक्ष गुणादि में सर्वत्र रहता है, इसी प्रकार द्वव्यत्वाभाव साध्य के अभाव वाले विपक्ष पृथिवी, जल, तेज, वायु सब में रहता है। अतः सपक्षविपक्ष व्यापक भी है। यहां क्षणिकत्व का अर्थ तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्व है, बौद्धों का निरन्वयविनाशात्मक क्षणिकत्व नहीं । जैननैयायिक प्रभाचन्द्र तथा हेमचन्द्र ने इन अनेकान्तिक-भेदों का उल्लेख कर स्वसम्मत अनेकान्तिक में अन्तर्भाव माना है। भासर्वज्ञोक्त इन अनेकान्तिकभेदों पर विचार करते हुए श्री वी. पी वैद्य का मन्तव्य है कि भासर्वज्ञ ने एक सुव्यवस्थित तथा स्वाभाविक पद्धति को अपनाया है। गणितीय विधि से इस हेत्वाभास के संभावित भेदों की परिगणना की है। अनध्यवसित भासर्वज्ञ ने सूत्रकारसम्मत पांच हेत्वाभासों से अतिरिक्त प्रशस्तपादसम्मत अनध्यवसित* को षष्ठ हेत्वाभास माना है। भासर्वज्ञ को छोड़कर शेष सभी प्राचीन तथा नव्य नैयायिकों ने सूत्रकारोक्त पांच हेत्वाभासों को ही स्वीकार किया है। उनके अनुसार अनध्यवसित सूत्रकारोक्त अनेकान्तिक का हो एक भेद है, जो असाधारण संज्ञा से प्रसिद्ध है। अनध्यवसित का लक्षण न्यायसार में इस प्रकार है-'साध्यासाधकः पक्ष एव वर्तमानोऽनध्यत्रसितः' B अर्थात् जो हेतु साध्य का साधक न हो तथा केवल पक्ष में ही रहता हो, उसे अनध्यवसित हेत्वाभास कहते हैं । यदि 'पक्ष एव वर्तमानोऽनध्यवसितः'-यह लक्षण किया जाय, तो केवलव्यतिरेकी के भी पक्षमात्रवृत्तित्व के कारण वहां लक्षण की अतिप्रसक्ति हो जायेगी, अतः 'साध्यासाधकः' यह पद दिया गया है । सहचारज्ञान के विरोधी ज्ञान को व्यभिचारज्ञान कहा जाता 1 प्रमेयकमलमार्तड, पृ, ६३८. 2. प्रामाणमीमांसास्वोपज्ञवृत्ति, २/२०. 3. Bhasarvajna proceeds in a very systematic way and naturally by considering the position of hetu as to Paxa, Sapaxa, or Vipaxa makes as many divisions of the fallacy as could be made mathematically. - Nyāyasāra, Notes, P. 29, 4. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९४. 5. न्यायसार, पृ. ७. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाणं है । सहचारज्ञान का विरोधी जैसे हेतु में साधारणताज्ञान होता है, वैसे ही असाधारणताज्ञान भी । जो हेतु केवल पक्ष में रहता है, उसको अन्य मैं सहचारग्रह संभव नहीं । सहचारग्रह का अध्यवसाय या निश्चय न होने के कारण उसे अनध्यवसाय कहा जाता है । वार्तिककार उद्योतकर ने इसे अनेकान्तिक हेत्वाभास का असाधारण नामक भेद माना है ।' भासर्वज्ञ ने 'न्यायभूषण' में उद्योतकरमत को उपन्यस्त कर उसका खण्डन किया है। उदद्योतकर का कथन है कि जिस प्रकार हेतु की पक्ष-विपक्ष दोनों अन्तो (कोटियों) में वृत्ति व्यभिचार है, उसी प्रकार दोनों अन्तों से उसकी व्यावृत्ति भी व्यभिचार है। जैसे दोनों अन्तों (कोटियों) में हेतु की वृत्तिता के कारण साधारण अनकान्तिक होता है, उसी प्रकार दोनों अन्तों (कोटियों) में हेतु का वृत्त्यभावरूप व्यभिचार होने पर असाधारण अनैकान्तिक होता है। अतः असाधारण का भी अनेकान्तिक में अन्तर्भाव हो जाने से पृथक् अनध्यवसित हेत्वाभास मानने की आवश्यकता नहीं है। उपर्युक्त उद्योतकरपक्ष के प्रति असहमति व्यक्त करते हुए भासर्वज्ञ कहते हैं कि उपयुक्त रीति से असाधारण का अनैकान्तिक में अन्तर्भाव मानने पर भी विपक्ष के अभाव वाले 'सर्व कार्य निस्यजन्मत्वात, सर्वमनित्यं प्रमेयत्वात्' इत्यादि अनुपसंहारी का अनैकान्तिक में अन्तर्भाव नहीं हो सकेगा । अतः उसे पृथक हेत्वाभास मानना ही होगा ! असाधारण और अनुपसंहारी का प्रकरणसम हेत्वाभास में भी अन्तर्भाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनमें प्रकरणसम के लक्षण का समन्वय नहीं है । उसके लक्षण से रहित असाधारणादि का उसमें अन्तर्भाव मानने पर सभी के प्रकरणसम में अन्तर्भाव की अतिप्रसक्ति हो जायेगी । अतः भासर्वज्ञ का मत है कि 'सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमकालातीताः हेत्वाभासाः यह न्यायसूत्र हेत्वाभासों की पंचत्व संख्या के अवधारण के लिये नहीं, अपितु निदर्शन के लिये है। जिस प्रकार ये पांच हेत्वाभास है, उसी प्रकार हेतुलक्षण रहित तथा हेतु की तरह प्रतीयमान अन्य भो हेतु हेत्वाभास हो सकता है। 1. अथापीदं स्यादनकान्तिकलक्षणेन न सर्वोऽनै कान्तिको व्याप्यते यथा असाधारण इति । न, अनेनैव संग्रहात् । कथमिति ? व्यावृत्तिद्वारेणाभिधीयमानोऽयमुभयान्तव्यावृत्तोरनकान्तिक इति । --न्यायवार्तिक, ११५ 2. साध्यव्यभिचारेऽस्यान्तर्भाव इत्ये के ।......तत्रान्तर्भावे ह्यति प्रसंगः स्यादिति । ----न्याय. भू. पृ. ३०९ 3. एतेन साधारणा साधारणानुपसंहार्याः संगृहीता इति स्फुटम् । -- तात्पर्यपरिशुद्धि, ११२.५ 4. न्यायसूत्र, १.२.४. 5. न्यायभूषण, पृ. ३०९, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ न्यायसार यद्यपि स तु पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व, अबाधित विषयत्व व असत्प्रति पक्षत्व इन पांच रूपों या धर्मो से युक्त होता है। इन पांच रूपों में से प्रत्येक रूप के अभाव से पांच हेत्वाभास होते हैं। जैसे, पक्ष सत्त्व धर्म से रहित असिद्ध, सपक्षमत्त्वधर्म से रहित विरुद्ध, विपक्षासत्व धर्म से रहित अनैकान्तिक, अबाधितविषयत्व धर्म से रहित कालात्ययापदिष्ट तथा असत्प्रतिपक्षव धर्म से रहित प्रकरण-सम या सत्प्रतिपक्ष । हेतु के इन पांच रूपों का जो क्रम है. उसी क्रम से उन धर्मो से रहित हेत्वाभासों का क्रम अपनाया जाता है, तो असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक कालात्ययापदिष्ट व प्रकरणसम यही हेत्वाभासों का क्रम सिद्ध होता है । अतः इस कारण से हेत्वाभासों का भासर्वज्ञीय क्रम है, यह कहना अधिक उपयुक्त है, तथापि भासर्वज्ञ ने हेत्वाभासों का सूत्रकारक्रम से विपरीत क्रम अपनाने में इस कारण का कथन न कर भिन्न कारण का जो उल्लेख किया है, उसमें यही कारण है कि वह अनध्पवसित हेत्वाभास को पृथक् मानकर छः हेत्वाभास मानता है और ६ हेत्वाभास मानने पर पंचविध हेतु-स्वरूपों के क्रम के अनुसार तत्तत् हेतुस्वरूपरहित हेत्वाभासों का भी कम है, यह कथन उपपन्न नहीं होता । भासर्वज्ञ के अतिरिक्त अन्य सभी नैयायिकों ने अनध्यवसितकी स्वतन्त्र हेत्वा भासता का खण्डन किया है और इसका अनैकान्तिक में समावेश किया है। न्याय. वैशेषिक दर्शन के प्रायः सभी प्रकरणप्रन्थकारों ने इसे अनेकान्तिक का असाधारण नामक भेद माना है । भासर्वज्ञ ने साधारण अनेकान्तिक को अनैकान्तिक माना है और असाधारण तथा अनुपसंहार्य का अनध्यरसित में समावेश किया है । श्री वी. पी. वैद्य का कहना है कि हेत्वाभासों में यह कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं है । अनध्यवसित हेत्वाभास के भासर्वज्ञकृत ६ भेदों की समीक्षा करते हुए जयसिंह सूरि ने कहा है कि वह अविद्यमान सपक्ष विपक्षता, विद्यमानपक्षविपक्षता तथा अविद्यमानविपक्षविद्यमानसपक्षता भेद से मुख्यतया तीन प्रकार का है। किन्तु वे तीनों भेद पक्ष के समस्त देश में वृत्तिता तथा एकदेश में वृत्तिता भेद से दो प्रकार के हैं, अतः अनध्यवसित हेत्वाभास ६ प्रकार का हो जाता है ।। 1. लिङ्गम् पञ्चलक्षणम् । कानि पुन: पञ्चलक्षगानि, पक्षधर्मत्वं, सपक्षधर्मत्वं, विपक्षाद् व्यावृत्तिर. बाधितविषयत्वमसत्प्रतिप्रक्षत्वं चेति, एतेः पञ्चभिलक्षणैरुपपन्न लिङ्गमनुमापकं भवति । एतेषामेव लक्षणानामेकैकापागत् पच हेत्वाभासाः । -न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १०२. 2. As it is, it is not a very important addition in the हेत्वाभासाः । -Nyayasara, Notes. p. 30. 3. अनध्यवसितस्त्रेधा अविद्यमानसपक्षविपक्षतया विद्यमानसपक्षविपक्षतया अविद्यमानविपक्षविद्यमानसपक्षतया च । त्रिविधोऽपि पक्षसर्वेकदेशव्याप्तिभ्यां पुनधा । एवं भेदाः षटू भवन्ति । .-न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ १२६. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण असाधारण तथा अनुपसंहारी में 'पक्षत्रयवृत्तिरनैकान्तिकः' इस अनैकान्तिकलक्षण का समन्वय न होने से 'नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववत्' इस असाधारण तथा 'सर्वमनित्यं प्रमेयत्वात्' इस अनुपसंहारी हेतु में हेत्वाभासता की उपपत्ति के लिये भासर्वज्ञ ने अनभ्यवसित नामक षष्ठ हेत्वाभास माना है और उसका 'साध्यासाधकः पक्ष एव वृत्तिरनध्यवसितः' यह लक्षण किया है । इस लक्षण का असाधारण तथा अनुपसंहारो दोनों में समन्वय है। क्यों क असाधारण के उदाहरण में हेतु 'श्रावणत्वात्' शब्दमात्र पक्ष में रहता है, अतः वह शब्द में नित्यतारूप साध्य को सिद्ध करने में असमर्थ है, कम से कम पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व व विपक्षासत्त्व इन तीन रूपों से उपपन्न हेतु ही साध्य का साधक होता है। अनुपसंहारी में प्रमेयत्व हेतु पक्षमात्रवृत्ति है, क्योंकि वहां सर्वमात्र के पक्ष होने से तथा विपक्ष दृष्टान्त के न मिलने से सपक्ष व विपक्ष में हेतु की वृत्तिता नहीं है। अतः ये दोनों अनध्यवसितलक्षणाक्रान्त होने से अनध्यवसित हेत्वाभास हैं । समीक्षा अनध्यवसित का पृथक् हेत्वाभासत्व अनुपपन्न है । क्यों के जैसे हेतु का सपक्ष व विपक्ष दोनों में रहना व्यभिचार है, उसी प्रकार सपक्ष-विपक्ष दोनों से त अर्थात न रहना भी व्यभिचार है। अतः सपक्ष वेपश्नावृत्ति पक्षमात्रवृत्ति असाधारण व अनुपसंहारी भी अनैकान्तिक-लक्षण का समन्वय होने से अनैकान्तिक ही हैं। इस प्रकार हेत्वाभासों की पंचता के उपपन्न होने से सूत्रकार का भी कोई विरोध नहीं होता । अनध्यवसितभेदनिरूपण भासर्वज्ञ ने अनध्यवसित के छः भेद किये हैं। यहां उनका निरूपण किया जा रहा है। १. अविद्यमानसपक्षविषक्ष, पक्षव्यापक : ___ यथा-'सर्वमनित्यं सत्त्वात् । यहां सत्त्व हेतु सर्वरूप पक्ष का व्यापक है, क्योंकि सभी पदार्थ सत् है । सपक्ष व विपक्ष पक्षभिन्न होते हैं, यहां सभी पदार्थो के सर्वरूपपक्षान्तर्गत होने से तभिन्न सपक्ष विपक्ष की सत्ता नहीं है । अतः यह हेतु अविद्यमानसपक्षविपक्ष है । २. अविद्यमानसपक्षविपक्ष, पक्षकदेशवृत्ति : यथा -'सर्वमनित्यं कार्यत्वात्' । इस अनुमान में कार्यत्व हेतु सर्वरूपपक्षान्तर्गत घटपटादि में ही रहता है, आकाशादिद्रव्य तथा सामान्यादि पदार्थो में नहीं रहता, अतः पोकदेशवृत्ति है । कार्यत्व हेतु की अविद्यमानसपक्षविपक्षता पूर्ववत् है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ न्यायसार ३. विद्यमानसपक्षविपक्ष पक्षव्यापक : यथा-'अनित्यः शब्दः आकाशविशेषगुणत्वात् । शब्द का अनित्यत्व यहां साध्य है । अनित्य घटादिरूप सपक्ष तथा नित्य आत्मादि विपक्ष यहां विद्यमान हैं। अतः आकाशविशेषगुणत्व हेतु विद्यमान सपक्ष विपक्ष वाला है तथा सभी शब्द आकाश-विशेष गुण हैं । अतः उसका पक्षव्यापकत्व भी स्फुट है। ४. विद्यमानसपक्षविपक्ष, पक्षकदेशवृत्ति : ___ यथा--'सर्व द्रव्यमनित्यं क्रियाव त्वात' । पक्षीकृत समग्त द्रव्यों के एकदेश आकाशादि में क्रियावत्व का अभाव होने के कारण यह हेतु पक्षकदेशवृत्ति है। द्रव्यों से अन्यत्र इसका अभाव है, अतः यह असाधारण है। यहां अनित्यत्व है, अतः निश्चित अनित्यत्व वाले गुणकर्म सपक्ष हैं । तद्विपरीत नित्यत्व धर्म वाले सामान्य, विशेष, समवाय विपक्ष हैं । ५. अविद्यमानविपक्ष विद्यमानसपक्ष पक्षव्यापक : यथा--'सर्वकार्य नित्यमुत्पत्तिधर्मकत्वात् । यहां नित्यत्व साध्य है, तदभाववान अनित्य घटादि विपक्ष हैं, किन्तु वे सभी कार्य होने से पक्षकोटिनिक्षिप्त हैं और विपक्ष पक्ष से भिन्न होता है, अतः यहां विपक्ष का अभाव है। नित्यत्वरूप साध्यवान् आकाशादि सपक्ष हैं, वे पक्षान्तर्गत नहीं है, क्योंकि वे कार्य नहीं हैं । अतः हेतु विद्यमान सपक्ष वाला है। सभी कार्यो के उत्पत्ति धर्म वाला होने से यह हेतु पक्षव्यापक है । ६. अविद्यमानविपक्ष विद्यमानसपक्ष पक्षकदेशवृत्ति : यथा-'सर्व कार्य नित्यं सावयवत्वात्' । इस अनुमान में सावयवत्व हेतु में अविद्यमानविपक्षता तथा विद्यमानसपक्षता पूर्ववत है लथा कार्य शब्द तथा बुद्वयादि में सावयवत्व के अभाव से यह हेतु पक्षौकदेशवृत्ति है। ___ यहां 'सावयवत्व' का अर्थ 'अवयवेन सह वर्तते, तस्य भावः' इस व्युत्पत्ति से प्रतीयमान है । अवयवसाहित्य का अर्थ कुछ लोगों ने अवयवारब्धत्व किया है, जिसका तात्पर्य परिणामवाद और विवर्तवाद की व्यावृत्ति काते हुए आरम्भवाद का ग्रहण करना है । साथ ही वौद्ध-अवयवसंघात की व्यावृत्ति करना भी है। किन्तु यहां अवयव शब्द नैयायिकों की अपनी परिभाषा के अनुसार एकदेशमात्रपरक न होकर समवायिकारण का बोधक है । अतः सावयवत्व का अर्थ है-अवयवसमवेतत्व । परमाणुसमूह के प्रत्येक परमाणु को वैसे ही समूह का अवयव कहा जाता है, जैसे कि तण्डुलराशि के प्रत्येक तण्डुल को अवयव । किन्तु वह अवयव समवायि. कारणात्मक नहीं, अपितु, वन में वृक्ष के समान एकदेशमात्ररूप है । इस प्रकार अवयवसमवेतत्व अर्थ मानने पर सौत्रान्तिक-संघातबाद में सामयवत्व की अतिप्रसक्ति Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ अनुगान प्रमाण नहीं होती तथा आरम्भवाद का ग्रहण होने से परिणामवाद व विवर्तवाद की व्यावृत्ति भी हो जाती है । सर्वज्ञ ने अविद्यमानसपक्ष विद्यमानविपक्ष पक्षव्यापक का कालात्ययापदिष्ट में और अविद्यमानसपक्ष विद्यमानविपक्ष पक्षैकदेशवृत्ति का भागासिद्ध में अन्तर्भाव मान कर उन दोनों को अनध्यवसित हेत्वाभास का पृथक् भेद नहीं माना है । किन्तु विरुद्ध हेत्वाभास के पौकदेशवृत्ति चार भेदों के असिद्ध कोटि में आने पर भी विरुद्धलक्षणाक्रान्त होने से पूर्वोक्त तुलादृष्टान्त से उभयव्यवहारयोग्य बतलाकर उन्हें जैसे विरुद्ध का भेद भी मान लिया है, उसी प्रकार अनध्यवसित के लक्षण की उपपत्ति से उपर्युक्त दो भेद अनध्यवसित के भी क्यों नहीं मान लिये जाते, पूर्वपक्ष के इस अभिप्राय को ध्यान में रखते हुए भासर्वज्ञ का कहना है कि उपर्युक्त दो भेदों को अनध्यवसित मानने में उन्हें इष्टापत्ति ही है । यदि ये दोनों भेद अनध्यवसित हैं, तो उसके भेदों में उनका परिगणन क्यों नहीं किया, इस आशंका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि अनध्यवसित के समस्त उदाहरणों परिगणन की प्रतिज्ञा नहीं की है । ' कालात्ययापदिष्ट महर्षि गौतम ने 'कालात्ययापदिष्टः कालातीतः अर्थात् कालात्यय से अपदिष्ट हेतु कालात्यय के कारण कालातीत कहलाता है, यह कालात्ययापदिष्ट का लक्षण किया है । भाष्यकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि अपदिश्यमान जिस हेतु वा अर्थैकदेश कालात्यय से युक्त हो, वह कालात्ययापदिष्ट अर्थात् कालातीत कहलाता है ।" जैसे - 'नित्यः शब्दः संयोगव्यङ्ग्यत्वात् रूपवत्' इस अनुमान में 'संयोगव्यङ्ग्यत्व' हेतु कालातीत है, क्योंकि इस हेतु का एकदेश संयोग कालात्यय से युक्त है । तात्पर्य यह है कि यहां मीमांसक घटप्रदीपसंयोग से व्यङ्ग्य रूप के दृष्टान्त से मेरीदण्डसंयोगव्यङ्ग्य शब्द में नित्यता सिद्ध करना चाहते हैं । अर्थात् अभिव्यक्ति से पूर्व तथा उत्तरकाल में विद्यमान रूप की जिस प्रकार घटप्रदीपसंयोग से अभिव्यक्ति होती है, उसी प्रकार अभिव्यक्ति से पूर्व तथा उत्तरकाल में विद्यमान शब्द की भी मेरीदण्डसंयोग से अभिव्यक्तिमात्र होती है, वह मेरीदण्डसंयोग से उत्पन्न नहीं होता । अभिव्यक्ति से पूर्व तथा उत्तरकाल में भी वह रहता है, अतः नित्य है । किन्तु नैयायिकों का कथन है कि संयोगव्यङ्ग्यत्व हेतु रूपदृष्टान्त से शब्दनित्यत्व को सिद्ध करने में असमर्थ है, क्योंकि घटप्रदीपसंयोगकाल में ही रूप का ग्रहण होता है, पूर्वकाल व उत्तरकाल में नहीं । अतः उसे संयोगव्यङ्ग्य माना जा सकता है, किन्तु शब्दोपलब्धि मेरीदण्डसंयोग को निवृत्ति हो जाने पर भी 1. अनध्यवसितमेदावर्ती भवेताम् कुत्स्नोदाहरणस्य चाऽप्रतिज्ञातत्वात् । - न्यायभूषण, पृ. ३१६. 2. न्यायसूत्र, १/२/९. 3. न्यायभाष्य, ११२१९. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० न्यायसार दूरस्थ पुरुष के द्वारा होती है। अतः शब्दोपलब्धि मे दण्डसंयोगकाल का अतिक्रमण कर जाती है । अर्थात् शब्दनित्यत्वसिद्धि के लिये अपदिश्यमान संयोगव्यङ्ग्य त्व हेतु में विशेषणतया उपात्त संयोगरूप एकदेश शब्दोपलब्धिकाल का अतिक्रमण का जाता है, क्योंकि शब्दोपलब्धिकाल में संयोग नहीं है। अतः यह हेतु कालातीत होने से शब्दनित्यत्व को सिद्ध नहीं कर सकता । वार्तिककार ने भाष्यकारोक्त व्याख्या का ही स्पष्टीकरण किया है। किन्त वाचस्पति मिश्र ने भाष्यकारोक्त व्याख्यान का विवेचन करते हुए कहा है कि जिस अपदिश्यमान हेतु का अर्थैकदेश कालात्यय से युक्त हो, यह भाष्यकर का व्याख्यान स्वपरमतसंश्लिष्ट है अर्थात इस व्याख्यान में स्वमत तथा परमत दोनों का संश्लिष्ट विवेचन है । भाष्यकार द्वारा प्रदत्त उदाहरण परमत व्याख्यानमार है, जिसका विवेचन पहिले किया जा चुका है। स्वमतानुसार व्याख्यान में अर्थशब्द से धर्मविशिष्ट धर्मी का ग्रहण है, क्योंकि अपदिश्यमान हेतु से धर्मविशिष्ट धर्मी की सिद्धि अभिप्रेत है और उसका एकदेश साध्यरूप धर्म है । उसका कार साध्यसन्देहकाल है, क्योंकि अनुमान की प्रवृत्ति सन्दिग्ध अर्थ में ही होती है, निर्णीत अर्थ में नहीं। किन्तु साध्यरूप धर्म का वह संशयकाल बलवान प्रमाण के द्वारा साध्याभाव का निश्चय करा देने से साध्य में सन्देह न रहने से अतिक्रान्त हो जाता है। इस प्रकार भाष्यकार के 'अपदिश्यमानस्य यस्य हेतोरथैकदेशः कालत्ययेन युक्तः स कालात्ययापदिष्टः कालातीतः' इस वचन का अपदिश्यमान हेतु के धर्मविशिष्ट धर्मारूप अर्थ का एकदेश साध्यरूप धर्म प्रत्यक्षादि बलवान् प्रमाण के द्वारा साध्याभाव का निश्चय हो जाने से अपने साध्यसंशयरूप काल का अतिक्रमण कर जाता है, अतः उसे कालात्ययापदिष्ट कहते हैं, यह स्वमतानुसार व्याख्यान है। इसका स्वमतानुसार उदाहरण 'अग्निरनुष्णः द्रव्यत्वात्' है । इस अनुमान में द्रव्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट है। यहां द्रव्यत्व हेतु से अग्नि में अनुष्णत्व सिद्ध करना है, क्योंकि अग्नि में अनुष्णत्वरूप साध्य का सन्देह है, किन्तु बलवान स्पार्शन प्रत्यक्ष द्वारा अग्नि में उष्णत्वनिश्चय द्वारा अनुष्णत्वसाध्य के सन्देह की निवृत्ति हो जाने से इस हेतु के साध्यसन्देहरूप काल का अतिक्रमण हो चूका है। अतः कालातीत होने से यह हेतु अग्नि में अनुष्णत्व सिद्ध नहीं कर सकता । 'भारतीय दर्शन में अनुमान' में डा. ब्रजनारायण शर्मा का यह कथन कि भाष्यकार और गतिककार ने कालातीत हेतु के काल का निर्धारण नहीं किया और केवल वाचस्पति मिश्र ने इस कालनिर्धारण का प्रयास किया है, समुचित नहीं ! 1. भाष्यकार: सूत्रं म्व परमतश्लिटं व्याचष्टे - कालात्ययेन संशयकालात्ययेन युक्तो यर य हेतोर. पदिश्यमानस्यार्थक देशः...। परमते च कालात्ययेन युक्तो यस्य हेतोरर्थरूप एकदेशो हेतुविशेषण. मिति यावत् . स कालात्ययापदिष्ट इति योजना । परमतेनैव निदर्शनमाह-निदर्शनमिति । ...-.त्यायवार्तिक.तात्पर्यटीका, १/२/९. 2. भारतीय दर्शन में अनुमान, पृ. ३४५, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १२१ क्योंकि भाष्यकार और बात्तिककार ने अपदिश्यमान संयोगव्यङ्ग्यत्व हेतु का एकदेश संयोग शब्दोपलब्धिकल का अतिक्रमण कर जाता है. यह कहकर काल का स्पष्ट निर्धारण कर दिया है । अन्तर इतना ही है कि भाष्यकार ने जो उदाहरण दिया है, वह परमत व्याख्यानुसार है, अतः उस उदाहरण के अनुसार उपलब्धिकाल का निर्देश किया है तथा वाचस्पति मिश्र ने कालाव्ययापदिष्ट को स्वमतव्याख्यानुसार अनुष्णत्व. साधक द्राव हेतु सध्यसंशयक ल का अतिक्रमण कर जाता है, इस कथन द्वारा साध्य संशय हाल को काल माना है। यह भेद केवल व्याख्याभेद पर निर्भर है। न्यायमंजरी में प्रकृत हेत्वाभाविवेचन का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि जयन्त ने कालात्ययापदिष्ट को भाष्यकार तथा वार्तिककारकृत परमतानुसारी व्याख्या के अनुसार प्रस्तत संयोगव्यंग्यत्व हेतु को असिद्ध हेत्वाभास की कोटि में निक्षिप्त कर कालात्ययापदिष्ट की परमतानुसारी व्याख्या का निराकरण किया है। तथा प्रत्यक्ष अथवा आगम से अबाधित पक्ष का परिग्रहकाल ही हेतु का प्रयोगकाल है. उस प्रयोगकाल का अतिक्रमण कर प्रत्यक्ष अथवा आगम से बाधित विषय में वर्तमान हेतु कालातीत कहलाता है, इस रूप से स्वमतानुसारिणी व्याख्या ही प्रस्तुत की है । जयन्त के इसके दो भेद माने हैं१. प्रत्यक्षविरुद्ध : 'उष्णो न तेजोऽवयत्री कृतकत्वात् घटवत् इस उदाहरण में सौरादि तेज का उष्णत्व स्पार्शन प्रत्यक्ष से सिद्ध है, अतः उसका अनुष्णत्वसाधक कृतकत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट अर्थात् बाधित हैं । २. आगमविरुद्ध : 'ब्राह्मणेन सुग पेया द्रवत्वात् क्षीरादिवत्' इस उदाहरण में द्रवत्व हेतु द्वारा साध्य ब्राह्मण सुरापान के "सुरा व मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते । तग्माद् ब्राह्मण राजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत् ॥"" इस आगम प्रमाण द्वारा बाधित होने से बाधित है और साध्य के बाधित होने से उसका साधक हेतु भी बाधित कहलाता है। प्रस्तुत विवेचन से यह स्पष्ट है कि कालातीत हेत्वाभास का वाचस्पतिमिश्र तथा जयन्त भट्ट के द्वारा निरूपित स्वरूप न्यायमतानुसारी है। भाष्यकार द्वारा प्रस्तुत 1. अपरे आह-"सविशेषणस्य हेतोः युज्यमानस्य यस्य विशेषण कार्यकालमत्येति न तत्पर्यन्तभवतिष्ठते स कालात्ययापदिष्ट इति..." एतदपि न संगतमसिद्धत्वेनास्य हेत्वाभाषान्तरत्वा. नुपपत्तेः । -न्यायमंजरी उत्तरभाग, पृ० १६७. 2. न्यायमारपदपचिका से उधृत, पृ. १६. भान्या-१६ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ न्यायसार परमतानुसारो निदर्शन (नित्यः शब्दः संयोगव्यङ्ग्यत्वात् ) में 'संयोगव्यङ्ग्यत्व' हेतु का गौतमोक्त पांच हेत्वाभासों में साध्यसम (असिद्ध) नामक हेत्वाभास में अन्तर्भाव हो जाता है। इसीलिये वाचस्पतिमिश्र ने कहा है-.."स पुनरयमसिद्धविशेषणतया साध्यसम एवेति न पृथग्वाच्य इति स्थूलतया एष दोषो भाष्याकारेण नोद्भावितः" 11 आचार्य भासर्वज्ञ को भी कालातीत हेत्वाभास का जयन्तभट्टसम्मत स्वरूप ही अभीष्ट है। इसीलिये उन्हों ने न्यायसार में इसका 'प्रमाणबाधिते पक्षे वर्तमानो हेतुः कालात्ययापदिष्टः'' यह लक्षण दिया है। अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित साध्य वाले पक्ष में वर्तमान हेतु कालात्ययापदिष्ट होता है। यहां पक्ष से 'सन्दिग्धसाध्यवान् पक्षः' इस परिभाषा के अनुसार सन्दिग्ध साध्यवान् धर्मी का ग्रहण है। सन्दिग्धसाध्यवान् धर्मी का उपन्यासकाल ही हेतु का प्रयोगकाल होता है, क्योंकि सन्दिग्धलाध्यवान् पक्ष में सन्दिग्ध साध्य की सिद्धि ही हेतुप्रयोग का प्रयोजन है। उस पक्षवृत्ति साध्य का बाध यदि प्रत्यक्षादि प्रमाण से हो जाता है, तो पक्ष के सन्दिग्धसाध्यवान् न होने से उस काल में प्रयुक्त हेतु प्रयोगकाल का अत्यय हो जाने पर अपदिष्ट होने से कालात्ययापदिष्ट कहलाता है । अर्थात् साध्य का काल तब तक रहता है, जब तक कि पक्ष में साध्य की सिद्धि या बाध न हो। साय की सिद्धि हो जाने पर निर्दिष्ट हेतु को सिद्धसाधन और पक्ष में साध्य का बाध हो जाने पर प्रयुक्त हेतु को बाधित या कालत्ययापदिष्ट कहा जाता है। श्री वी. पी. वैद्य का कथन है कि कालात्ययापदिष्ट बाधित्त अथवा बाध कैसे होता है, यह उनके समझ में नहीं आता । कालात्ययापदिष्ट के अन्तर्गत भासर्वज्ञ बाधित का उदाहरण देते हैं, यह और भी अधिक दुर्बोधता का कारण बन जाता है। श्री वैद्य के इस विचार से यही व्यक्त होता है कि उन्होंने जयन्त भट्ट तथा वाचस्पति मिश्र के प्रकृत हेत्वाभाससम्बन्धी व्याख्यान का अवलोकन नहीं किया है । अन्यथा ऐसी आशंका नहीं करते । क्योंकि तात्पर्यटीका में वाचस्पतिमिश्र ने इस हेत्वाभास की स्वमतपरक व्याख्या में 'स हि धमिणि बलवता प्रमाणे तद्विपरीतधर्मनिर्णयं कुर्वता संशयकालमतिपातितः......" इस वाक्य में बलवान् प्रमाण द्वारा बाध बतला कर इसकी बाधित संज्ञा को सूचना दी है। 'हेतुप्रयोगकालमतीत्य यो हेतुरपदिश्यते, स कालात्ययापदिष्टः,' 'हेतोः प्रयोगकालः प्रत्यक्षागमानुपहतपक्षपरिग्रहसमय एव तमतीत्य प्रयुज्यमानः प्रत्यक्षागमबाधिते विषये वर्तमानः कालात्ययापदिष्टो भवति' अर्थात् 1. न्यायतात्पर्यटीका, पृ. १/२/९. 2. न्यायसार, पृ. ७. 3. I fail to see how this is the same as बाधित: or बाधः of the later writers. I am oven much more perplexed to see, that Bhasarvajña gives more instances of बाधित: under the heading of कालात्ययापदिष्टः. -Nyayasara, Notes. p. 32. 4. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १/२/९, 5. न्यायमन्जरी, उत्तरमाग, पृ. १६७. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण हेतुप्रयोगकाल का अतिक्रमण कर जिस हेतु का कथन किया जाता है, वह कालात्ययापदिष्ट है । प्रत्यक्ष तथा आगम प्रमाण से अबाधित साध्यविशिष्ट पक्ष का परिग्रहकाल ही हेतु का प्रयोगकाल है । अतः प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा बाधित साध्यविषयक हेतु हेतुप्रयोगकाल का अतिक्रमण करने से कालात्ययापदिष्ट कहलाता है, इस रीति से जयन्त भट्ट ने भी कालात्ययापदिष्ट का अर्थ बाधित है, यह स्पष्ट कर दिया है। इसीलिये तदनुसारी भासर्वज्ञ ने कालात्ययोपदिष्ट व बाधित के एक होने से बाधित का उदाहरण कालात्ययापदिष्ट के उदाहरण रूप से प्रस्तुत किया है। बाधिक संज्ञा का स्पष्ट उल्लेख न करने पर भी बलवान् प्रमाण द्वारा बाध बतलाकर इन आचार्यों ने इसकी बाधित संज्ञा के लिये अपनी अभ्यनुज्ञा दी है। पंचरूपोपपन्न हेतु के अबाधितविषयत्व का यह व्याघात (बाध) करता है, अतः इसकी बाधितविषय संज्ञा उचित है । इसीलिये परवर्ती ग्रन्थकारों ने इसे कालात्ययापदिष्ट के अतिरिक्त बाधितविषय, बाध अथवा बाधित संज्ञा भी दी हैं । कालात्ययापदिष्ट का भासर्वसम्मत अर्थ उनके द्वारा दिये गये प्रथम उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है। आचार्य भासर्वज्ञ ने इस हेत्वाभास के जयन्तभट्टकृत तोन भेदों के अतिरिक्त ३ भेद और किये हैं। वे ६ भेद इस प्रकार हैं१ प्रत्यक्षविरुद्ध ४. प्रत्यक्षकदेशविरुद्ध २. अनुमानविरुद्ध ५. आगमैकदेशविरुद्ध ३. आगमविरुद्ध ६. अनुमानकदेशविरुद्ध १. प्रत्यक्षविरुद्ध : जिस हेतु का विषय (साध्य) प्रत्यक्ष प्रमाण से अपहृत हो, उसे प्रत्यक्षविरुद्ध कालात्ययापदिष्ट कहते हैं । यथा-'अनुप्णोऽयमग्निः कृतकत्वात् । अग्न्यादि में स्पार्शन प्रत्यक्ष से उष्णत्व सिद्ध होता है और अनुष्णत्व के साधक अनुसान से उष्णत्वसाधक प्रत्यक्ष प्रमाण ज्येष्ठ व उपजीव्य होने से अधिक बलवान् है। २. अनुमानविरुद्ध : जैसे-'अनित्याः परमाणवः मृतत्वान्' । यद्यपि केवल अनुमान से अनुमान का बाध संभव नहीं होता, तथापि प्रत्यक्ष से अनुमानबाध की तरह बलवान् अनुमान द्वारा दुर्बल अनुमान का बाध संभव है। प्रकृत में परमाणुसाधक प्रबल अनुमान से 1. न्यायसार, पृ. ११. 2. (अ) तर्कभाषा, पृ. ३९३. (ब) तर्कामृत, पृ० ३०. (स) तर्कसंग्रह, पृ. ६६. (द) न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, पृ. २७२. 3. न्यायभूषण पृ. ३१६. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ न्यायसार परमाणु का नित्यत्व सिद्ध है, अतः परमाणु के अनित्यत्व का साधक मूर्तत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट अर्थात् बाधित है । परमाणु के नित्यत्व का साधक परमाण्वनुमान ही है, वह बलवान् इसलिये है कि परमाणुसाधक अनुमान का अप्रामाण्य मानने पर प्रकृत अनुमान में अनित्यत्व के आश्रय धर्मी परमाणु का ही अभाव होने से भूर्तत्व हेतु आश्रयासिद्ध हो जायेगा । यदि परमाणुसाधक अनुमान का प्रागण्य स्वीकार किया जाय, तो वही परमाणु के नित्यत्व का भी साधक है। अतः अनित्यत्व. साधक मूर्तत्वानुमान उससे बाधित हो जायेगा । परमाणुमाधक अनुमानवाक्य इस प्रकार है-अणुपरिमाण का तारतम्य कहीं विश्रान्त होतो है. परिमाण का तारतम्य होने के कारण, महत्परिमाण के तारतम्य की तरह । अत. जैसे महत्परिमाण के तारतम्य की विश्रान्ति आकोशादि में है, उसी प्रकार अणुपरिमाण के तारतम्य की विश्रान्ति जहां होती है, उसे ही परम अणु होने के कारण परमाणु कहते हैं । उसको नित्य मानने पर उससे भी अधिक अणुपरिमाण के होने से अणुपरिमाण की विश्रान्ति. धामरूप से परमाणु की सिद्धि नहीं होगी। अतः परमाणुसाधक अनुमान ही परमाणु के नित्यत्व का भी साधक है। ३. आगमविरुद्ध : 'ब्राह्मणेन पेयं सुरादि, दुबद्रव्यत्वात, क्षीरवत् ।' यहां 'द्रवद्रव्यत्व' हेतु द्वारा साध्यमान ब्राह्मणकर्तृक सुरापान "गोळी माध्वी च पैष्टी च विज्ञेया त्रिविधा सुग । यथैवेका न पातव्या तथा सर्वा द्विजोत्तमः ॥ सुरा वै मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते ।। तस्माद् ब्राह्मणराजन्यो वैश्यश्च न सुरां पिबेत् ॥1 इस आगम प्रमाण द्वारा सिद्ध ब्राह्मणकर्तक सुरापाननिषेध से बाधित है । यहां पानमात्र साध्य नहीं है, अपितु पेय सुरा का पान ब्राह्मण के लिये पाप का कारण नहीं होता, यह साध्य है । क्षीरादिपान में भी अपापनिमित्तत्व केवल आगम से ही ज्ञेय है, न कि प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाण से। अतः अपने अविषयभूत ब्राह्मणकर्तृक सुरोपान की अपापनिमित्तता में प्रवृत्त अनुमान ब्राह्मणकर्तृक सुरापान के पोपनिमित्तत्व बोधक आगम से बाधित हो जाता है । आत्मा के रूपरहितत्व तथा व्यापकत्व का क्रमशः आत्मा के आदित्यवर्णरूप रूपवत्व तथा अंगुष्ठमात्रत्वरूप परिमितत्व के बोधक 'आदित्यवर्ण तमसः परस्तात," अंगुष्ठमात्रः पुरुषः' इत्यादि आगमों से बाधित नहीं होता, क्योंकि उसका तात्पर्य आत्मा के ज्ञानमयत्वादि के बोधन में है न कि आदित्यवर्णत्वरूप रूपवत्वादि के बोधन में और आत्मा के रूपरहितत्व व व्यापकत्व 1. न्यायसारपदपचिका से उधृत, पृ. ४६. 2. श्वेताश्वतरोपनिषद् , ३/८. 3. वही, ३/१३ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ के अनुमान का स्वार्थ में तात्पर्य है, अतः अनुमान यहां आगम से बलवान् है । प्रमाणों में स्वार्थपरत्व तथा अन्यार्थपरत्व ही उनके बलाबलत्व का नियामक है । अनुपान ! प्रमाण 1 ४. प्रत्यक्षैकदेशविरुद्ध : 'सर्व तेजोऽनुष्णम् रूपत्वात्' । इस अनुमान में रूपेत्व हेतु से साध्यमान सकल तेजोनिष्ठ अनुगत्व सकल तेजोद्रव्य के एकदेश सौरादि तेज में स्पार्शन प्रत्यक्ष से सिद्ध होने से प्रत्यक्षैकदेशविरुद्ध है । ५. अनुमानैकदेशविरुद्ध 'नित्याश्रयाः सर्वे द्रवत्वरूपरसगन्धस्पर्शा नित्या अप्रदेशवृत्तिसमान जात्यारम्भकत्वे सति परमाणुवृत्तित्वात् तद्गतैकत्वादिवत्' । संयोग, विभाग समानजातीय गुण के आरम्भक और परमाणु में समवेत होते हैं. अतः हेतु की उनमें अतिव्याप्ति के निवारणार्थ अप्रदेशवृत्ति दिया गया है । अनेकत्व सख्या असमानजातीय परिमाण की आरम्भक होती है । जैसे, द्वयणुकगत वित्र संख्या यणुक के अणुत्वजातीय परिमाण से भिन्न त्रसरेणुगत महत्परिमाण को उत्पन्न करती है | अतः उसकी व्यावृत्ति के लिये समानजात्यारम्भकत्व' दिया गया है । इस अनुमान से साध्य निव्यत्व नैमित्तिक द्रवत्व, पाकज रूपादि के उत्पाद्यत्वहेतुक अनित्यत्वानुमान से विरुद्ध पड़ता है, सांसिद्धिक द्रवत्व, अनादि परमाणुरूपादि के नियत्र का किसी अनुमान से विरोध नहीं है । अतः यह अनुमानैकदेशविरुद्ध का उदाहरण है । ६. आगमैकदेशविरुद्ध : यथा- 'सर्वेषां देवर्षीणां शशेराणि पार्थिवानि शरीरत्वादस्मदादिशरीरवत् । वरुण, आदित्य, वायु आदि कतिपय देवों के शरीर जलीय, तेजस तथा वायवीय सुने जाते हैं । अतः सभी देवर्षियों के शरीरों के पार्थिवत्व का साधक प्रकृत अनुमान आगमैकदेशविरुद्ध है । प्रकरणसम सूत्रकार ने 'यस्मात् प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः 1 यह प्रकरणसम का लक्षण किया है । भाष्यकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा हैं कि संशय के विषय, अनिर्णीत पक्ष व प्रतिपक्ष 'प्रक्रियते साध्यत्वेनाधिक्रियते' इस व्युत्पत्ति से प्रवरसम कहलाते हैं । संशय से लेकर निर्णय से पूर्व तक तत्त्वानुपलब्धि के कारण उस पक्ष प्रतिपक्षरूप प्रकरण का संशय जिस हेतु से बना रहता है, उस हेतु का यदि निर्णयार्थ प्रयोग किया गया है, तो उसे प्रकरणसम कहते हैं । जैसे'शब्दो नित्योऽनित्यधर्मानुपलब्धेः,' 'शब्दोऽनित्यो नित्यधर्मानुपलब्धेः इन अनुमानप्रयोगों 1. न्यायसूत्र, १/२/७ 2. न्यायभाष्य, १/२/१ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ न्यायसार frees a अनित्यत्व के निर्णायक किसी विशेष धर्म की अनुपलब्धि व अनित्यत्व का संशय बना रहता है, अतः उस संशय का प्रवर्तक विशेषधर्मानुपलम्भ अर्थात् अनित्यधर्मानुपब्धि तथा नित्यधर्मानुपलब्धि हेतु प्रकरणसम है ।' भासर्वज्ञ ने इसी आधार पर पक्षसव, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्व- इन तीन रूपों से युक्त जो हेतु पक्ष व प्रतिपक्ष की सिद्ध में सम है अर्थात् किसी एक पक्ष की सिद्धि नहीं करता, उसे प्रकरणसम कहा है ।" जैसे उपयुक्त अनुमान में विशेषधर्मानुपलम्भरूप हेतु प्रकरण - सम है, क्योंकि वहां दोनों हेतुओं में शब्द में नियतत्व व अनित्यत्व के निर्णायक किसी विशेष धर्म की उपलब्धि नहीं है । उपर्युक्त दोनों अनुमानों में प्रयुक्त दोनों हेतु शब्द में विशेषधर्मानुपलम्भ को ही व्यक्त कर रहे हैं । अतः वस्तुतः हेतु विशेष धर्मानुपलम्भरूप एक ही है, जो कि पक्ष व प्रतिपक्ष में अर्थात् शब्दानित्यत्व तथा शब्दनित्यल दोनों में समान है, दोनों को सिद्ध करता है । इन पांच प्रकार के हेत्वाभासों से भिन्न विरुद्धाव्यभिचारी भी हेत्वाभास है । मीमांसक तथा दिङ्नाग प्रभृति बौद्ध दार्शनिकों ने इसे माना है । एकधर्मी में रूप्य के कारण समान लक्षण वाले दो विरुद्ध हेतुओं का संनिपात विरुद्धाव्यभिचारी हेत्वाभास है । जैसे- नित्यमाकाशममूर्तद्रव्यत्वात् आत्मवत् अनित्यमाकाशमस्मदादिबाह्येन्द्रिमाह्यगुणाधारत्वात् ' * इन अनुमानों में एक ही आकाशरूप धर्मी में नित्यत्व तथा अनित्यत्व के साधक पक्षसत्त्र, सपक्षसत्त्व व विपश्नासत्त्वरूप रूप्य के कारण तुल्य लक्षण वाले 'अमूर्तद्रव्यत्व' तथा 'अस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यगुणाधारत्व' - इन दो विरुद्ध हेतुओं का संनिपात है । अतः यह विरुद्धाव्यभिचारी है ! प्रकरणसम में दो विरुद्ध हेतु नहीं होते, किन्तु एक ही होता है जो पक्ष प्रतिपक्ष को सिद्ध करता है, किन्तु विरुद्धाव्यभिचारी में दो विरुद्ध हेतुओं का संनिपात है और दोनों में अव्य भिचारिताज्ञान है । अत: वह प्रकरणस से भिन्न है । प्रशस्तपादाचार्य ने इसके स्वरूप का उल्लेख करते हुए बताया है कि इसमें दो विरुद्ध हेतुओं के संनिपात से यह साध्य में संशय का उत्पादक है, अतः यह सन्दिग्ध हेत्वाभास का एक भेद है, ऐसा कतिपय दार्शनिक मानते हैं, किन्तु वह सन्दिग्ध नहीं, अपितु असाधारण होने से अनध्यवसित हेत्वाभास है ।" बौद्ध आचार्य दिङ्नाग को यह अनैकान्तिक के एक प्रभेद रूप में अभीष्ट है, क्योंकि उन्होंने अनेकान्तिक के भेदों को प्रदर्शित करते हुए 'विरुद्धाव्यभिचारी, यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत् । नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववदिति ।" यह 1. न्यायमञ्जरी, उत्तर भाग, पृ. १५८-१९. 2. स्वपक्ष परपक्ष सिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसमः । 3. अनेकान्तिकः षट्प्रकार: ५, विरुद्वाव्यभिचारी चेति । - 4. न्यायसार, पृ. १२. 5. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९२. 6. न्यायप्रवेश, भाग १, पृ. ४-५. -न्यायसारे, पृ. ७. • न्यायप्रवेश, भाग १,१.३. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १२७ विरुद्वाव्यभिचारी का उदाहरण दिया है । धर्मकीर्ति ने विरुद्धाव्यभिचारी को प्रमाणसिद्ध न होने से असम्भव माना है ।' न्यायमंजरीकार जयन्तभट्ट ने विरुद्धाव्यभिचारी अनेकान्तिक का भेद है, इसका निराकरण किया है । विरुद्धाव्यभिचारी हो चाहे कथंचित् संशय का जनक हो, किन्तु संशयजनकत्व अनैकान्तिक का लक्षण नहीं, अपितु पक्षद्धवृत्तित्व है और पक्षद्धयवृत्तिता विरुद्वाव्यभिचारी में नहीं है, अतः उसे अनैकान्तिक का भेद नहीं माना जा सकता । संशयजनकत्व को अनैकान्तिक का लक्षण मानने पर इन्द्रिय के भी 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक संशय या जनक होने से उसमें लक्षण को अतिप्रसक्ति होगी | 2 विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासत्वाशंका यद्यपि विरुद्राव्यभिचारी को हेत्वाभास नहीं मानना चाहिये, क्योंकि यदि एक हो व्यक्ति इन दो पृथक्-पृथक् अनुमानों का प्रयोग करता है, तो एक ही धर्मी में दो विरुद्ध धर्मो का प्रतिपादन करने के कारण वह उन्मत्त कहलायेगा । यदि यह कहा जाय कि दो वादी एक साथ उपर्युक्त दोनों अनुमानों का प्रयोग करते हैं, एक वादी नहीं, तो एक साथ प्रयोग करने के कारण इनसे अर्थप्रतिपत्ति नहीं होगी । यदि यह कहा जाय कि दो वादी ही पृथक्-पृथक् अनुमानों का प्रयोग करते हैं, वह भी एक साथ नहीं, क्रमशः करते हैं, अतः उपर्युक्त दोषों की आशंका नहीं हो में सकती । तथापि दूसरे अनुमान का प्रयोग करने वाले को प्रथम अनुमान दुष्टत्वज्ञान है अथवा अदुष्टत्वज्ञान ? यदि दुष्टत्वज्ञान है, तो उसे अव्यभिचारी नहीं कहा जा सकता और अदुष्टत्वज्ञान है, तो प्रथम अनुमान के अदुष्ट होने से उससे सिद्ध साध्य के विषय में द्वितीय अनुमान का उत्थान नहीं हो सकता । अतः विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासता नहीं बन सकती । शङ्कानिरास इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि जिस व्यक्ति को दोनों अनुमानों में किसी एक पक्ष के साधक विशेष धर्म का अभिमान न होने से सन्देह है और किसी एक पक्ष का निश्चय नहीं है, ऐसे व्यक्ति के प्रति दोनों अनुमान अव्यभिचारी हैं और परस्पर विरुद्ध भी हैं। ऐसे व्यक्ति की अपेक्षा से यह हेत्वाभास है । जैसे, अन्यतरासिद्ध एक के मत में असिद्ध होते से उसी की अपेक्षा से 1. विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः । स इह कस्मान्नोक: १ (न्यायबिन्दु, ३।११० ) सत्यम् | उक्तं आचार्येण । मया त्विह नोक्तः कस्मादित्याह - 'अनुमानविषयेऽसम्भवात् । ( न्यायबिन्दु, (३।१११ ) - धर्मोत्तर प्रदीप, पृ. २२४-२२५. " 2. विरुद्धान्यभिचारिणो वा यथा तथा संशयहेतुतामधिरोप्य कथ्यतामनेकान्तिकता न तु संशय. जनकत्वं तत् ( अनेकान्तिक) - लक्षणम्, इन्द्रियादेरपि तज्जनकत्वेन तथाभावप्रसक्तेरपि तु पक्षद्वय वृत्तित्वमनेकान्तिकलक्षणम् । असाधारणविरुद्धाव्यभिचारिणोः कथञ्चित् संशयहेतुत्वेऽपि पक्षयवृत्त्यभावानाने कान्तिकवर्गेऽन्तर्भावः । -न्यायमंजरी, उत्तरभाग, पृ. १५६. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ न्यायसार हेत्वाभास है. दूसरे की अपेक्षा से नहीं । दुसरे अनुमान का प्रयोग करने वाले प्रतिवादी को वादी द्वारा प्रयुक्त प्रथम अनुमान में दुष्टत्वज्ञान या अदष्टत्वज्ञान है, इस विकल्प द्वारा इस हेत्वाभास के निराकरण का प्रयास निरर्थक है. क्योंकि माध्य. सिद्धि के लिये प्रयुक्त प्रथम अनुमान के बाद प्रतिवादी जो द्वितीय अनुमान का प्रयोग करता है, वह प्रथम हेतु में अविशेषताप्रदर्शनार्थ है. प्रथम हेतु की दुष्टता बतलाने के लिये नहीं । तात्पर्य यही है कि वादी ने शब्न में नित्यत्व को सिद्ध करने के लिये अमूर्तद्रव्यत्वरूप हेतु को प्रयोग किया। इसके बाद प्रतिवादी ने अनित्यत्वसाधक 'अस्मदादिबाइयेन्द्रि ग्राह्यत्व रूप' दूसरे हेतु का प्रयोग किया। वह पूर्व हेतु के दुष्टत्व का बोधन करने के लिये नहीं, अपितु जैसे प्रथम हेतु 'अमृतदव्य' शब्द में नित्यत्व सिद्ध करता है, तो दूसरा 'अस्ममादिबाहयेन्द्रिय ग्राह्यत्व' हेतु उसमें अनित्यत्व सिद्ध कर सकता है। अतः शब्द में नित्यत्व व अनित्यत्व का निश्चय नहीं हो सकता। इस प्रकार दोनों ही हेतओं में से किमी भी व्यभिचारिता का ज्ञान नहीं है । अतः अव्यभिचारी हैं और दोनों हेतु परस्पर विरुद्ध भी हैं। अतः इनकी विरुद्धाव्यभिचारिता उपपत्र हो जाती हैं । दोनों हेतुओं में अव्यभिचारिता प्रतिपत्ता के अभिपाय से है कि उसे किपी भी हेतु में व्यभिचारिता प्रतिपत्ता का ज्ञान नहीं है। वस्तुतः आकाशसाधक अनुमान के द्वारा ही आकाश में नित्यत्व का निश्चय है. अतः दोनों हेतुओं में अव्यभिचारिता नहीं है, केवल नित्यत्वसाधक हेतु में ही है। भासर्वज्ञ ने उपर्युक्त रीति से विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासता सिद्ध की है। यद्यपि न्यायमंजरीकार जयन्त भट्ट ने विरुद्धाव्यभिचारी के हेत्वाभासत्व का प्रत्याख्यान किया है। उनका अभिप्राय यह है कि 'प्रत्यक्षो वायुः स्पर्शवत्त्वाद् घटवत', 'अप्रत्यक्षो वायुररूपत्वादाकाशवत्' यह विरुद्वाव्यभिचारी का उदाहरण है, क्योंकि यहां एक ही वायुरूप धर्मी में प्रत्यक्षत्व या अप्रत्यक्षत्व के साधक स्पर्शवत्व व अरूपत्व इन दो विरुद्ध धर्मो का संनिपात है। किन्तु वायु में जब स्पर्शन प्रत्यक्ष के द्वारा प्रत्यक्षत्व सिद्ध है, तब उसमें अनुमान के द्वारा प्रत्यक्षत्व या अप्रत्यझत्व को सिद्धि सर्वथा असंगत है । तथा इन दोनों में एक हेतु अवश्य ही अप्रयोजक है, क्योंकि वस्तु में द्वैरूप्य संभव नहीं और हेतुओं से वायु में द्वैरूप्य की सिद्धि जी जा रही है । अपि च, यदि वादी ने किसी वस्तु को सिद्ध करने के लिये हेतु का प्रयोग किया है, तो प्रतिवादी को उस हेतु के गुण या दोष पर विचार करना चाहिये, न कि विरुद्ध हेतु के उपन्यास द्वारा उसमें संशयोत्पादन या अविशेषतो का उत्पादन । अतः साध्यसाधक दो विरुद्ध हेतओं का समावेश संभव नहीं. क्योंकि उन दोनों में से एक अवश्य व्यभिचारी है, अतः दोनों हेतुओं का एकत्र समावेश तथा दोनों की अव्यभिचारिता के असंभव से विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासता संभव नहीं । तथापि इस तरह विरुद्भाव्यभिचारी की हेत्वाभासता का निराकरण करने 1. न्यायभूषण, पृ. ३२. 2. न्यायमंजरी. उत्तर भाग, पृ. १५६. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १२९ पर 'नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेः आकाशवत् ,' 'अनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेर्घटवत्' यह प्रकरणसम हेत्वाभास भी अनुपपन्न है, क्योंकि शब्दरूपी धर्मी द्रव्यात्मक नहीं हो सकता और प्रकरण सम भी विरुद्धाव्यभिचारी की तरह द्रव्यात्मकता बतला रहा है, तथापि जैसे प्रकरणसम हेत्वाभास उस प्रमाता के प्रति है, जो कि शब्द में कृतकत्वादि विशेष धर्म के अपरिज्ञान से शब्द में अनित्यत्वरूप धर्म का निश्चय करने में असमर्थ है उमी प्रकार विरुद्धाव्यभिचारी भी उसी पुरुषविशेष के प्रति है तो आकाश में आत्मा की तरह व्यापकत्वरूप धर्मविशेष के अज्ञान से उसमें नित्यत्वसाधन करने में असमर्थ है । अतः विरुद्धाव्यभिचारी को हेत्वाभासता अक्षुण्ण है। किन्तु वह एक तरह से प्रकरणसम का ही नामान्तर है, इसीलिये जयन्त भट्टने 'यद्येवंविधस्य प्रकरणसमस्य विरुधाव्यभिचारीति नाम क्रियते तदपि भवतु इति 1 इस उक्ति के द्वारा विरुद्धाव्यभिचारी को प्रकरणसम का ही नामान्तर बतलाया है। प्रकरणसम में एक ही हेतु होता है और विरुद्धाव्यभिचारी में दो विरुद्ध हेतु होते हैं, या भेद भी अकिंचित्कर है, क्योंकि भासर्वज्ञोक्त प्रकरणसम के उदाहरण में समान हेतु के होने पर भी नित्यः शब्दः अनित्यधर्मानुपलब्धेः आकाशवत्', 'अनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेर्घटवत्' इस उपर्युक्त प्रकरणसम के उदाहरण में दो ही हेतु हैं, न कि एक । ऐसा मानने पर 'एकत्र तुल्यलक्षणविरुद्भहेतुद्वयोपनिपाता विरुद्धव्यभिचारीत्येके इस पाठ का यही आशय मानना होगा कि कतिपय विद्वान् प्रकरणसम को ही विरुद्वाव्यभिचारी मानते हैं । यदि इसको प्रकरणसम से भिन्न माना जायेगा, तो हेत्वाभास की षडूविधता का भंग होगा । अतः भासर्वज्ञ को विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासता अभीष्ट होते हुए भी उसका प्रकरणसम से पार्थक्य अभिप्रेत नहीं है। उदाहरण अनुमानवाक्य के पांच अवयवों में उदाहरण का विशिष्ट स्थान है। न्यायभाष्यकार ने उदाहरण की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा है-'असत्युदाहरणे केन साधर्म्य वैधर्म्य वा साध्यसाधनमुपादीयेत? कस्य वा साधर्म्यवशादुपसंहारः प्रवर्तेत?" अर्थात् उदाहरण के न होने पर किस के साथ साध्यसाधक साधर्म्य अथवा वैधर्म्य का उपादान किया जायेगा ? किसके साधर्म्य से पक्ष में उपनय तथा निगमन द्वारा हेतु और साध्य का उपसंहार होगा ? न्यायसूत्रकार महर्षि गौतम ने उदाहरण का लक्षण किया है-“साध्यसाधात्तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम' 'उदाहियतेऽनेनेति उदाहरणम्' 1. न्यायमंजरी, उत्तर भाग पृ १६०. 2. न्यायसार, पृ. १२ 3. न्यायभाष्य, १/१/३९ 4. न्यायसूत्र, १/१/३६ भान्या-१७ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार इस करण व्युत्पत्ति से करण कारक का परिग्रह होने से उदाहरण वचनात्मक है, क्योंकि करण कारक वचनात्मक होता है, जब के दृष्टान्त अर्थात्मक है। अर्थ और शब्द का सामानाधिकरण्य नहीं हो सकता, अतः न्यायसूत्र में उदाहरण के लक्षण में दृष्टान्त और उदाहरण का सामानाधिकरण्य उचित नहीं है. इस शंका का समाधान करते हुए वार्तिककार ने कहा है कि यहां दृष्टान्त का वचन के विशेषणरूप में उपादान अभप्रेत है । अर्थात दृष्टान्तरूप अर्थ उदाहरण नहीं है, अपितु 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः यथा महानसे' इत्याकारक दृष्टान्तवचन उदाहरण है । स्वतन्त्र दृष्टान्त उदाहरण नहीं है, इसीलिये वार्तिककार ने सौत्रलक्षण का परिष्कार करते हुए कहा है-'साध्यसाधात् तद्धर्मामावित्वे सति अभिधीयमान इतिः।। अर्थात् वह्निरूप साध्य वाले पर्वतरूप धर्मी में वह्निरूप साध्य वाले महानस का वचन उदाहरण है। वार्तिककार के समाधान का विशदीकरण करते हुए वाचस्पति मिश्र ने भी यही निष्कर्ष प्रस्तुत किया हैं-'तेन तादृशदृष्टान्तेनो ग्लक्षितं तद्विषयं वचनमुदाहरणम् । वार्तिककार के समाधान को ध्यान में रखते हुए भासर्वज्ञाचार्य ने भी उदाहरण का तदनुसार निर्दुष्ट लक्षण किया है-' सम्यग्दृष्टान्ताभिधानमुदाहरणम्' । न्याय पूत्र में दृष्टान्त और उदाहरण के सामानाधिकरण्य के उपपादन के लिए भासर्वज्ञ ने दो समाधान प्रस्तुत किये हैं। प्रथम समाधान वार्तिककार आदि पूर्वाचार्यो की रीति के अनुसार है। अभिधीयमान का अध्याहार करने पर सामानाधिकरण्य हो जाता है अथवा अभिधीयमान के स्थान पर वचन का अध्याहार करके भी सामानाधिकरण्य सम्पन्न किया जा सकता है। द्वितीय समाधान का आशय यह है कि अन्य शास्त्रों में 'दृष्टान्त उदाहरणम्' इस रूप से दृष्टान्त तथा उदाहरण का अभेद-व्यवहार प्रसिद्ध है। इस व्यवहार को उपपत्ति के लिए यहां भी उपचारतः ‘दृष्टान्तः उदाहरणम्' ऐसा कह दिया है। उपचार का प्रयोजन यह है कि दृष्टान्त के गुण-दोषों से ही उदाहरणवाक्य में गुणदोषवत्ता सिद्ध होती है । अवयव अनुमानवाक्य के एकदेश होते हैं और उदाहरण भी अवयव होने के कारण अनुमानवाक्य का एकदेश है, दृष्टान्तरूप अर्थ वाक्य का एकदेश नही हो सकता । अतः दृष्टान्त उदाहरण नहीं, किन्तु महानसादि अर्थरूप दृष्टान्त का वचन ही मुख्यतया उदाहरण है। ___ उदाहरणलक्षण में प्रयुक्त 'सम्यक् विशेषण पर विचार करते हुए भामर्वज्ञ का कथन है कि 'दृष्टान्ताभिधानमुदाहरणम्' यह कहने पर भी उदाहरणाभासों का निराकरण हो जाता है, क्योंकि वे दृष्टान्तवचन नहीं होते, तथापि अव्याप्त्यभिधानादि 1. न्यायवार्तिक, १/१/३६ 2. तात्पर्यटीका, १/१/३६ 3. न्यायसार, पृ. १२ 4. न्यायभूषम, पृ. ३२१ 5. न्यायभूषण, पृ. ३२१ . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण वचनदोषों की निवृत्ति के लिये सम्यक् शब्द का ग्रहण है।' जैसे अनिन्यं मनोमूर्तस्वात् घटवत्' इस अनुमान में 'घटवत्' दृष्टान्त 'यन्मूर्त तद नत्यम्' इस व्याप्ति का अभिधान करने में असमर्थ है, क्योंकि वति प्रत्यय या तो क्रियासाम्य में या षष्ठयन्त या सप्तम्यन्त से होता है । 'यथा घटः' इत्याकारक दृष्टान्तवचन से 'यन्मूर्त तदनित्यम्' इस व्याप्ति की स्पष्ट प्रतीति हो जाती है । अतः 'घटवत्' इत्याकारक दृष्टान्तवचन को व्याप्ति का अभिधान न करने के कारण उदाहरणाभास कहा है। __उदाहरण दो प्रकार का होता है - साधोदाहरण तथा वैधोदाहरण । न्यायसूत्रकार ने 'साध्यसाधात् तद्विपर्ययाद्वा विपरीतम् ' द्वारा उसके द्वविध्य की सूचना दी है । उदाहरण को निदर्शन शब्द से व्यवहृत करते हुए प्रशस्तपाद ने भी इसके दो प्रकार बतलाये हैं !' अन्वयी दृष्टान्त का कथन साधोदाहरण कहलाता है । जैसे-'अनित्यः शब्दस्तोत्रादिधर्मोपेतत्वात् । यद्यत्तीवादिधर्मोपेतं तत्तदनित्यं दृष्टम्, यथा सुखादि ।' व्यतिरेकमुखेन दृष्टान्त का कथन वैधोदाहरण कहलाता है । जैसे-'यदनित्यं न भवति न तत्तीवादिधर्मोपेतम् यथाकाशम् । सूत्रोक्त उदाहरणलक्षण में 'साध्यसाधर्म्यात्' में पंचमी विभक्ति के प्रयोग पर विचार करते हुए भासर्वज्ञ कहते हैं कि अनित्य दृष्टान्त अन्य कारण से उत्पन्न होते हैं, न कि साध्यसाधर्म्य से और नित्य दृष्टान्त की उत्पत्ति का प्रश्न नहीं उठता । साध्यसाधर्म्य से दृष्टान्त की ज्ञप्ति भी नहीं मानी जा सकती, क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रमाण से अथवा साधनान्तर से ज्ञात होता है । अतः उत्पत्ति व ज्ञप्ति दोनों पक्षों में 'साध्यसाधर्म्यात्' में पंचम्यर्थ अनुपपन्न है। इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि सूत्रकार ने यहां दृष्टान्त का विशेष लक्षण दिया है । दृष्टान्त के सामान्य लक्षण का कथन तो 'लौकिकपरोक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः' इस सूत्र द्वारा पहले ही बतला दिया गया है। यहां दृष्टान्त के सामान्य लक्षण के अनुवादपूर्वक साधर्म्यदृष्टान्त और वैधर्म्यदृष्टान्त का लक्षण प्रस्तुत किया है । पंचमी का प्रयोग तो परस्पर भेदसिद्धि के लिये किया गयो है । तात्पर्य यह है कि पूर्व्हक्त दृष्टान्त दो प्रकार का है - तदुधर्मभावी (साधर्म्यवान्) और अतद्धर्मभावो (वैधर्म्यवान्) । साधर्म्यदृष्टान्त का वैधर्म्यदृष्टान्त 1. (अ) वही (ब) सम्यगित्यमिधानविशेषणं भिन्न पदम् । तच्चाव्याप्त्यभिधानादेनिरासार्थम् । -न्यायसारपदपञ्चिका, पृ. ४६ 2. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९७ 3. न्यायमार, पृ. १२ 4. बही 5. न्यायभूषण, पृ. ३२० 6. न्यायसूत्र, १/१/२५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार से साध्यसाधर्म्य के कारण तथा वैधHदृष्टान्त का साधर्म्यदृष्टान्त से साध्यवैधर्म्य के कारण भेद है । इस भेदकारण के प्रदर्शनार्थ 'साध्यसाधात्' तथा 'साध्य. वैधात्' में कारण र्थक पंचमी का प्रयोग किया गया है। दृष्टान्त के सामान्य लक्षण में इस बात को न बत लाकर यहां बतलाने का प्रयोजन है-भेदसहित उदाहरण लक्षण का प्रदर्शन ।' उदाहरणाभास 'सम्यग्दृष्टान्तवचनम् उदाहरणम्' इस उदाहरणलक्षण में 'सम्यक्' पद उदा. हरणाभासों की व्यावृत्ति के लिये है, यह कहा गया है। अतः उदाहरणनिरूपण के पश्चात् प्रसंगतः व्यावर्त्य उदाहरणाभासों का निरूपण किया जा रहा है। . भारतीय दर्शनशास्त्र के ग्रन्थों में जिस प्रकार हेत्वाभासों का विशद निरूपण प्राप्त होता है, उसी प्रकार उदाहरणाभासों का भी । स्त्रवाक्यों में परिवर्जन तथा परकीय वाक्यों में उनके उद्भावन के लिये उदाहरणाभासों का ज्ञान आवश्यक है। उदाहरणाभासों के स्वरूप तथा संख्या के विषय में भासर्वज्ञाचार्य पूर्ववर्ती आचार्यों से प्रभावित प्रतीत होते हैं। प्रशस्तपादाचार्य ने साधर्म्य तथा वैधर्म्य दोनों प्रकार के निदर्शनाभासों में प्रत्येक के ६ प्रमेदों का उल्लेख किया है । बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग ने दोनों के पाँच-पाँच प्रमेद बतलाये हैं। धर्मकीर्ति ने दोनों प्रकार के उदाहरणाभासों में से प्रत्येक के ९ प्रभेद किये हैं। न्यायसूत्र, न्यायभाष्य तथा न्यायवार्तिक में उदाहरणाभासों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता । भासर्वज्ञ से. पूर्ववती नैयायिकों में जयन्त भट्ट ने दोनों प्रकार के उदाहरणाभासों के ५-५ भेदों का सोदाहरण उल्लेख किया है। जयन्त भट्ट ने प्रथम तीन भेदों को वस्तुदोषकृत तथा शेष दो को वचनदोषकृत माना है । सूत्रकार द्वारा उदाहरणाभासों का उल्लेख न करने के विषय में जयन्त भट्ट ने स्पष्टीकरण किया है-'एते च वस्तुवृत्तेन हेतुदोषा एव तदनुविधायित्वादत एव हेत्वाभासवत्सूत्रकृता नोपदिष्टाः अस्माभिस्तु शिष्यहिताय प्रदर्शिता एव' ।' तात्पर्यटीका में वाचस्पति मिश्र ने यह निर्देश किया है कि 'साध्यसाधात् तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम्' इस सूत्र में 'साध्यसाधर्म्य' के ग्रहण से साधन विकल की उदाहरणाभासता ज्ञात होती है। जैसे-'नित्यः शब्दः अमूर्तत्वात् परमाणुवत्' इस अनुमान में परमाणुरूप दृष्टान्त 1. न्यायभूषण, पृ. ३२१ 2. प्रछस्तपादभा, पृ. १९८-१९९ 3. न्यायप्रवेश, भाग १, पृ. ५ 4. न्यावबिन्दु, पृ. ७-८ . 5. न्यायमंजरी, उत्तर भाग, पृ. १४० 6. वही, पृ. १४० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण उदाहरणाभास है, क्योंकि शब्दरूप पक्ष में रहने वाला अमूर्तत्व धर्म परमाणु में नहीं रहता । तद्धर्मभावी' से साध्यविकल का निराकरण हो जाता है। जैसे नित्यः शब्दः मूत्वात् कर्मवत्' इस अनुपान में कर्मरूप दृष्टान्त साध्यवेकल है, क्यों के शब्दरूप पक्ष का धर्म नित्यत्व कर्म में नहीं है । इससे उभयविकल का भी निराकरण हो जाता है। जैसे 'नित्यः शब्दः अमूर्तत्वात् घटवत्' इस अनुमान में घट दृष्टान्त साध्यधर्म अर्थात पक्षधर्म अमूर्तत्व तथा तद्धर्म अर्थात् साध्यरूप पक्षधर्म नित्यत्व दोनों से विकल है। यह प्रतीत होता है कि जयन्त भट्ट तथा वाचस्पति मिश्र ने प्रशस्तपाद. दिङ्नाग तथा विशेषतया धर्मकीर्ति से प्रभावित होकर उदाहरणाभासों का विभाग किया है । अतः यह कहा जा सकता है कि भासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती उदाहरणाभासों का विभाग करने वाले आचार्यों में प्रशस्तपाद, दिङ्नाग तथा धमकी जयन्त भट्ट आदि थे। इन्हीं आचायों से प्रभावित होकर भासर्वज्ञ ने दोनों के ६-६ भेद बतलाये हैं। प्रथम तीन के साथ प्रशस्तपाद तथा दङनाग ने असिद्ध शब्द का प्रयोग किया है और धर्मकीर्ति ने विकल शब्द का । भासर्वज्ञ ने धर्मकीति तथा जयन्त भट्ट के अनुसार प्रथम तीन के साथ भी विकल शब्द का प्रयोग किया है। इस विषय में भासर्वज्ञ धर्मकीति से प्रभावित है. यह मान्यता प्रो. ध्रुव तथा प्रो. देवधर ने अभिव्यक्त का, परन्तु प्रशस्तपाद के प्रभाव का भी प्रतिषेध नहीं किया जा सकता । जयन्त भट्ट की तरह भासर्वज्ञ ने दोनों वर्गो के उदाहरणोभासों में प्रथम चार को अर्थदोष और अन्तिम दो को वचनदोष कहा है । नव्ययाय के प्रवर्तक गंगेशोपाध्याय ने भो इन्हों बारह भेदों का उल्लेख किया है, अन्तर केवल यह है कि उन्होंने अन्तिम चार भेदों को अनुपदर्शितान्वय, विपरीत उपदर्शितान्त्रय, अनुपदर्शित. व्यतिरेक और विपरीत उपदर्शितव्यतिरेक इन नामों से व्यपदेष्ट किया है। वाचस्पति मिश्र, जयन्त भट्ट, भासर्वज्ञ और गंगशोपाध्याय द्वारा निरूपित उदाहरणाभास स्वल्प परिवतन के साथ प्रशस्तपाद के बाहर भेदों का ही विभिन्न शब्दावली में उल्लेख है। परष्कृत नामों के अतिरिक्त इनमें किसी तथ्य का प्रतिपादन परिलक्षित नहीं होता। 1. तात्पर्यटीका, 1/1/३६ 2. Sanghavi Sukhlal, Advanced __Metaphysics, p. 107. 3. न्यायसार, पृ. १३ Studies in Indian Logic and 4. Dharmakirti's list is adopted in the Nyayasāra of Bhāsarvajāa .. -The Nyayapravesa, Part I, Notes, p. 77 5. Our author has closely followed Dharmakirti in this respect. --Nyāyasāra, Notes, p, 41 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ उदाहरणाभास का लक्षण देते हुए भासर्वज्ञाचार्य कहते हैंउदाहरणलक्षणरहिताः उदाहरणवदव भासमाना उदाहरणाभासाः । 1 हेत्वाभासलक्षण की तरह यहां भी 'तल्लक्षणरहितत्व विशेषण दिया गया हैं । समीचीन उदाहरणों में उदाहरणाभास के लक्षण को अतिव्याप्ति के निवारणार्थ इस विशेषण की सार्थकता है । आचार्य भासर्वज्ञ की मान्यता है कि वैसे तो उदाहरणाभास अनेक प्रकार के हैं, परन्तु साध्यविकल, साधनविकल इत्यादि आठ अर्थदोष और ४ वचनदोष- इन्हीं १२ भेदों को ही अनेक पूर्वाचार्यों ने स्वीकार किया है, अतः उन्हीं का प्रारम्भ में नामोल्लेख किया गया हैं । उनके भेदों को प्रतिपत्ति के लिये उदाहरण भी बारह ही दिये गये हैं । ग्रन्थगौरव के परिहारार्थ भासर्वज्ञ ने अनित्यं मनो मूर्तस्वात् ' इस वाक्यप्रयोग में ही समस्त उदाहरणामासों को उदाहृत कर दिया है । साधर्म्यदाहरणाभास 6 १. साध्यविकल : 'अनित्यं मनो मूर्तस्वात् परमाणुत्रत्' इस अनुमान में 'यन्मूर्त तदनित्यं दृष्टम् यथा परमाणुः' यह परमाणुरूप उदाहरण अनित्यत्वरूप साध्य से विकल है । २. साधनविकल : न्यायसार · उपर्युक्त अनुमान में ही कर्मरूप दृष्टान्त मूर्तस्वरूप साधन से विकल है, क्योंकि कर्म मूर्त नहीं है । ३. उभयविकल : 'यथाकाशम् ।' यहां दृष्टान्त आकाश अनित्यत्व और मूर्तत्व दीनों से विकल है, क्योंकि आकाश न अनित्य है और क्रियारहित होने से न मूत ही है । ४. आश्रयहीन : 'खविषाणम् ।' खरविषाण का अत्यन्त असत्त्व है । अतः धर्मिरूप आश्रय के अभाव में साध्य तथा साधन धर्मों के व्याप्यव्यापकभाव की प्रतीति उसमें नहीं हो सकती । 1. व्यायसार, गृ. १३ 2. न्यायभूषण, पृ ३२२. ५. अव्याप्त्यभिधान : 'अनित्यं मनो मूर्तत्वात् घटवत् ।' यहां 'घटवत्' इत्याकारक दृष्टान्तवचन 'यद्यन्मूर्त तदनित्यम्' या 'यन्मूर्त' तत्सर्वमनित्यम्' इस व्याप्ति को नहीं बतला रहा है, क्योंकि ' यद्यन्मूर्त तदनित्यम् यथा घटः' इत्याकारक वचन से व्याप्ति की प्रतीति Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ अनुमान प्रमाण होती है । अतः 'घटवत्' उदाहरण अव्याप्त्यभिधान दोष से युक्त है । अव्याप्त्यभिधान को भासर्वज्ञ शब्ददोष मानते हैं । अन्य आचार्य भी ऐसा मानते हैं, परन्तु कतिपय अन्य आचार्य इसे दोष नहीं मानते, क्योंकि सभी शास्त्रों में' 'घटवत्' इस रूप से दृष्टान्तप्रयोग पाया जाता है । अतः यदि प्रत्यक्षादि प्रमाण से मूर्तत्व व अनित्यत्व की व्याप्ति सिद्ध है, तब तो 'अनित्यः शब्द कार्यत्वात् घटवत' इस अनुमान में कार्यत्व व अनित्यत्व को व्याप्ति की तरह मूर्तत्व तथा अनित्यत्व की व्याप्ति भी वन सकती है । किन्तु प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा मूर्तत्व तथा अनित्यत्व की व्याप्ति सिद्ध न होने पर केवल ' यद्यन्मूर्त तत्सर्वमनित्यं यथा घटः' यह वचन व्याप्ति का बोधन नहीं करता । ६. विपरीतव्याप्त्यभिधान : 'यदनित्यं तन्मूर्त दृष्टम् | यह विपरीत व्याप्त्यभिधानरूप शब्ददोष है, क्योंकि 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र अग्निः ' इस रूप से साधनानुवादपूर्वक साध्य का विधान व्याप्ति में होता है, जिससे कि साध्यसिद्धि में साधन का सामर्थ्य प्रतिपादित हो सके । 'यो योऽग्निमान् स धूमवान्' इस प्रकार व्याप्ति का विपरीत अभिधान करने पर धूम में अग्नि की व्याप्ति प्रतीत नहीं होती और उसकी प्रतीति न होने पर व्याप्त धूम पर्वत में अग्नि को सिद्ध करने में असमर्थ रहता है । इस प्रकार पूर्वोक्त साध्यविकलादि चार अर्थदोष तथा अञ्याप्त्यभिधान व विपरीतव्याप्त्य भिधान रूप दो शब्ददोष मिलकर ६ साधम्र्योदाहरणाभास हैं । वैषम्यदाहरणाभास ६ प्रकार के साधर्म्यादाहरणाभासों की तरह ६ प्रकार के ही साधनाव्यावृत्तादि वैधम्र्योदाहरणाभास हैं । उनका उदाहरण 'अनित्यं मनो मूर्तत्वात्' है । १. साधनाव्यावृत्त : ' यत्तु नित्यं तन्मूर्तमपि न भवति, यथा- परमाणु: ।' यहां साधनमूर्तत्व दृष्टान्त परमाणु से व्यावृत्त नहीं है । २. साध्याव्यावृत्त : " यत् नित्यं तत् मूर्तमपि न भवति यथा कर्मेति । यहाँ साध्य अनित्यत्व कर्म से व्यावृत्त नहीं है । ३. उभयाव्यावृत्त : यन्नित्यं तन्मूर्तमपि न भवति यथा घटः । यहाँ साधन और साध्य दोनों हो दृष्टान्त घट से व्यावृत्त नहीं हैं । अर्थात् घट में मूर्तत्वरूप साधन तथा अनित्यत्व रूप साध्य दोनों की सत्ता है । f Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ न्यायसार ४. आश्रयहीन : 'यन्नित्यं तन्मूर्तमपि न भवति यथा खपुष्पम् ।' यहाँ खपुष्प के सर्वथा असत् होने से वह न साधन का तथा न साध्य का ही आश्रय हो सकता है । कतिपय दार्शनिक वैध :-दृष्टान्त में धर्मों के अभाव को दोष रूप में स्वीकार नहीं करते। उनका निषेध करने के लिये यहाँ भी आश्रयहीन का कथन किया गया है । केरलान्वयी के निरूपण में कहा गया है कि जहां व्यतिरेक बल से सिाद्ध इष्ट हो, वहां वैधर्म्य. दृष्टान्त का आश्रय भी अवश्य मानना होगा । अन्यथा वचनमात्र से व्याप्तिसिद्धि मानने पर अतिप्रसंग की आपत्ति है । ५. अव्यावृत्ताभिधान : ___ 'यन्नित्यं भवति तन्मूर्तमपि न भवति आकाशवत ।' यहां मूर्तत्व और अनित्यत्व दोनों आकाश से व्यावृत्त है, किन्तु इस व्यावृत्ति की प्रतीति 'आकाशवत् ' शब्द से नहीं होती क्यों के आकाशवतू में तुल्यार्थ में वति प्रत्यय है। अत उससे विपक्ष आकाश के समान अमूर्त व नित्य हैं, इसी अर्थ की प्रतीति हो सकती है। मतत्व व अनित्यत्व की व्यात्ति उससे संभव नहीं तथा 'यद् यद्' इत्या कारक बीमा और 'सर्व' शब्द के बिना साध्य तथा साधन को समस्त विपक्षों से व्यावृत्ति को प्रतीति भी नहीं हो सकती। इसलिये यह उदाहरण व्यावृत्ति का अभिधायक न होने से अव्यावृत्ताभिधान दोष से प्रस्त है, अत एव अव्यावृत्ताभिधान नामक उदाहरणाभास है। ६. विपरीतव्यावृत्ताभिधान : __ 'यन्मूर्त न भवति तदनित्यमपि न भवति, यथाकाशम् ।' साध्य को व्यावृत्ति के अनुवाद से साधन की व्यावृत्ति वैधोदाहरण में बतलाई जाती है जिससे साध्य का साधनव्यापकत्व तथा साधनाभाव का साध्याभावव्यापकत्व प्रतीत हो सके । जैसे जहां वनि का अभाव है, वहां धूम का भी अभाव है । जैसे, जलहूद में । किन्तु जहां धूम नहीं होता है, वहां सर्वत्र अग्नि का अभाव होता है, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तप्त अयोगोल्क में धूम के न होने पर भी अग्नि की सत्ता विद्यमान है। परन्तु यहाँ साधनव्यावृत्ति के अनुवाद से साध्य की व्यावृत्ति बतलायी गयी है, अतः यह विपरीतव्याप्यभिधान होने से साधनांग नहीं है। ___उपर्युक्त ६ साधर्योदाहरणाभासों तथा ६ वैधोदाहरणाभासों का सोदाहरण निरूपण करने के पश्चात् भासर्वज्ञ ने दोनों वर्गो के अन्य चार-चार भेदों का प्रतिपादन किया है, किन्तु इन आठ भेदों का अन्य मत के रूप में उल्लेख किया है। 'भारतीय दर्शन में अनुमान' के लेखक डॉ. ब्रजनारायण शर्मा ने इस विषय में लिखा है "न्यायसार में साधम्यवैधर्म्य दृष्टान्तभासों के प्रथम चार भेदों में सन्दिग्ध पद जोड़कर अन्य चार चार भेदों का भी अन्य मतानुसार प्रतिपादन किया गया है। 1. अन्ये तु सन्देहद्वारेगापरानन्दादाहरणाभासान् वणेयन्ति ।-न्यायसार, पृ. २३. , Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १३७ अन्य मत द्वारा धर्मकीर्तिमत संभावित हो सकता है, क्योंकि उनके पूर्ववर्ती ग्रन्थों में सन्दिग्ध पद का प्रयोग प्रायः उपलब्ध नहीं होता और इन आठ भेदों की विवेचनापद्धति, उदाहरणविन्यास आदि भी धर्मकीर्ति के विवेचन के समान ही जान पड़ते हैं।" परन्तु 'न्यायसारविचार' के प्रणेता भट्ट राघव ने 'अन्ये' से 'त्रिलोचनाचार्य' का ग्रहण किया है। उन आठ उदाहरणाभासों का यहां निरूपण किया जा रहा है। . १. सन्दिग्धसाध्य : 'महाराज्यं करिष्यत्ययं सोमयंशोभूतत्वात , विवक्षितराजपुरुषवत् ।' इस अनुमान में विवक्षित राजपुरुष के सोमवंशोभूत होने से उसमें साधन की सत्ता है, किन्तु राज्यकरण के भविष्यत्कालिक होने से उसका उस राजपुरुष में निश्चय नहीं है, अतः यह सन्दिग्ध साध्य उदाहरणाभास है । २. सन्दिग्धसाधन : 'नायं सर्वज्ञो रागादिमत्त्वात् , रथ्यापुरुषवत्' इस अनुमान में रथ्यापुरुष दृष्टान्त में किसी उपाय से असर्वज्ञत्व साध्य का निश्चय होने पर भी रागादिमत्त्व का किसी प्रमाण के अभाव में निश्चय न होने से यह सन्दिग्धसाधन उदाहरणाभास है। ' ३. सन्दिग्धोभय : ___'गमिष्यति स्वर्ग विवक्षितः पुरुषः, समुपार्जितशुक्लधर्मत्वात् , देवदत्तवत् ।' इस अनुमान में देवदत्तरूप दृष्टान्त में समुपार्जितशुक्लधर्मत्वरूप साधन तथा भविष्यत्कालिक स्वर्गगमन के किसी निश्चायक प्रमाण के अभाव में सन्दिग्ध होने से सन्दिग्धोभय (सन्दिग्धसाध्यसाधन) उदाहरणभास है । ४. सन्दिग्धाश्रय: 'नायं सर्वज्ञो बहुवक्तृत्वाद् भविष्यदेवदत्तपुत्रवत् ।' इस अनुमान में भविष्य में होने वाले देवदत्तपुत्र की सत्ता में कोई प्रमाण न होने से उसीके पक्षरूप आश्रय होने से सन्दिग्धाश्रय उदाहरणभास है। __उपर्युक्त चारों अनुमानों में अन्वयव्याप्तिमूलक उदाहरणभास हैं । अतः ये साधर्म्यमूलक उदाहरणभास कहलाते हैं । 1 (अ) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृ. ३९९. (ब) Sanghvi, Sukhlal-Advanced Studies in Indian Logic and Metaphysics, p. 107. 2 अनाथा: षडिति ये तु दृष्टान्तदोषद्वारेण आभासा अभिहिता: ते यथा दृष्टान्तदोषनिश्चयात निश्चितास्तया तदोषसन्देहात् सन्दिग्धा इति यत्स्वमतं तस्त्रिलोचनाचार्यसम्मतमित्याहअन्ये तु सन्देहद्वारेण अपरान् अष्टावुदाहरणाभासान् वर्णेयन्ति ।-न्यायसारविचार, पृ.५९. भान्या-१८ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ न्यायसार १. सन्दिग्धसाध्याव्यावृत्त : 'यो महाराज्यं न करिष्यति स सोमवंशोभूतोऽपि न भवति यथाऽन्यो राजपुरुष ।' 'अयं महाराज्यं करिष्यति सोमवंशोद्भूतत्वात्' इस अनुमान में जो राज्य नहीं करेगा वह सोमवंशोद्भूत नहीं होगा, जसे अन्य राजपुरुषरूप उदाहरण में राज्य न करने का किसी प्रमाण द्वारा निश्चय न होने से वैधर्म्यमूलक सन्दिग्धसाध्य उदाहरगाभास है अर्थात् सन्दिग्धसाध्य से अव्यावृत्त है । २. सन्दिग्धसाधनाव्यावृत्त : 'यस्तु सर्वज्ञः स रागादिरहितः, यथा समस्तशास्त्राभिज्ञः पुरुषः ।' 'नायं सर्वज्ञो रागादिमत्त्वात् रथ्यापुरुषवत्' इस अनुमान में जो सर्वज्ञ होता है, वह रागादिमान होता है, जैसे समस्तशाखाभिज्ञ पुरुष, इस व्यतिरेकव्याप्तिमूलक सर्वशास्त्राभिज्ञ पुरुषरूप उदाहरण में रागादिमत्त्व साधन को अव्यावृत्ति के प्रमाणाभाव के कारण निश्चित न होने से सन्दिग्धसाधनाव्यावृत्त उदाहरणाभास है। ३. सन्दिग्धोभयाव्यावृत्त : ___ 'यः स्वर्ग न गमिष्यति स समुपार्जितशुक्लधर्मोऽपि न भवति यथा दुस्थः पुरुषः ।' 'अयं स्वर्ग गमिष्यति समुपार्जितशुक्लधर्मत्वात् इस अनुमान में जो स्वर्ग नहीं जायेगा वह समुपार्जित शुक्लधर्मवाला भी नहीं होता, जैसे दुःस्थ पुरुष-इस अदाहरण के व्यतिरेकव्याप्तिमूलक वैधोदाहरण में भविष्यत्कालिक स्वर्गगमनरूप साध्य तथा समुपार्जितशुक्लधर्मत्वरूप साधन दोनों के प्रमाणाभाव से सन्दिग्ध होने के कारण यह सन्दिग्धोभय-साध्यसाधन उदाहरणाभास है। ४. सन्दिग्धाश्रय : 'यः सर्वज्ञः स बहुवक्तापि न भवति यथा भविष्यदेवदत्तपुत्रः ।' 'नायं सर्वज्ञः अवद्यवक्तृत्वात्' इस अनुमान में जो सर्वज्ञ होता है, वह अवद्यवक्ता भी नहीं होता जैसे भविष्यत्कालिक देवदत्तपुत्र, इस व्यतिरेकव्याप्तिमूलक वैधोदाहरण के भविष्यत्कालिक होने से उसके किसी प्रमाण द्वारा निश्चित न होने से यह सन्दिग्धा श्रय उदाहरणाभास है। अन्ये तु' पद के द्वारा भासर्वज्ञ ने इन भेदों में अपनी अरुचि प्रदर्शित की है, क्योंकि उदाहरण में साध्यादि के सन्दिग्ध होने पर भी अन्ततो गत्वा साध्यादिविकलता ही सिद्ध होती है । अतः पूर्वोक्त भेदों से इनको पृथक् मानना उचित नहीं । उपनयनिरूपण पंचावयवोपपन्न अनुमानवाक्य का चतुर्थ अवयव उपनय है। उपनय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए भाष्यकार वात्स्यायनने कहा है-'उपनयं चान्तरेण Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुगान प्रमाण साध्येऽनुपसंहृतः साधको धमों नायं साधयेत्' । अर्थात् उपनय के बिना पक्ष में साधक धर्म का उपसंहार नहीं हो सकेगा और पक्ष में अनुपसंहृत हेतु साध्यरूप अर्थ की सिद्धि नहीं कर सकेगा। न्यायसूत्रकार ने उपनय का लक्षण 'उदाहरणापेक्षस्तथेत्युपसंहारो न तथेति वा साध्यस्योपनय." यह किया है। उक्त उपनय लक्षणसूत्र की व्याख्या करते हुए वातिककार ने कहा है कि यहां 'यथा तथा' इस प्रकार से प्रतिबिम्बन बतलाया है। प्रतिबिम्बन का स्वरूप. स्पष्ट करते हुए वातिककार ने कहा है-'दृष्टान्तगतस्य धर्मस्याव्यभिचारित्वे सिद्धे तेन साध्यगतस्य तुल्यधर्मतोपददर्शनम, अर्थात् महानसादि दृष्टान्तगत धूमादि हेतु में अग्न्यादि का अविनाभाव सिद्ध अर्थात् प्रत्यक्ष हो जाने पर उसकी समानता से पर्वतादिरूप पक्ष में विद्यमान धूमादि हेतु में वहन्यादि के अविनाभाव का प्रदर्शन उपनय है। यहां साध्य शब्द साध्यवान् धर्मी पर्वतादिरूप पक्ष का बोधक है। वातिककारोक्त इस प्रतिबिम्बन को ध्यान में रखते हुए भासर्वज्ञाचार्य ने 'दृष्टान्ते प्रसिद्धाविनाभावस्थ साधनस्य दृष्टान्तोपमानेन पक्षे व्याप्तिस्थापकं वचनमुपनयः “ यह उपनय का लक्षण किया है अर्थात् दृष्टान्त में प्रसिद्ध अविनाभाव वाले साधन का दृष्टान्त की समानता से पक्ष में साधन का साध्य के साथ अविनाभाव रूप व्याप्ति का प्रदर्शक वचन उपनय कहलाता है । 'व्याप्तिस्थापकं वचनम्' यह कहने पर महानसादि स्थल में बहिाप्तिस्थापक वचन भी उपनय हो जायेगा, अतः ‘पक्षे' का संयोजन किया गया है ।दृष्टान्त से साम्य के अभाव में केवल पक्षसम्बन्ध का कथन उपनयाभास होता है, यह सूचित करने के लिये दृष्टान्तोपमानेन' कहा गया है। सूत्रकार का अनुसरण करते हुए भासर्वज्ञ ने उपनय के दो भेद बतलाये हैं-(१) साधोपनय और (२) वैधोपनय । यद्यपि साध्य साधन की व्याप्ति का अर्थात् पक्ष में साधन का साध्य के साथ अवनाभाव का प्रदर्शक वचन ही उपनय है और साध्य तथा साधन की इस अविनाभावरूप व्याप्ति की सिद्वि जब 'यत्र यत्र साधनं, तत्र तत्र साध्यम् यथा महानसम् ' एस उदाहरणवाक्य से ही हो जाती है, पुनः उपनय की क्या आवश्यकता है? यदि यह कहा जाय कि उदाहरणवाक्य द्वारा पक्षभिन्न महानसादि में ही साध्य व साधन का अविनाभाव सिद्ध होता है और आवश्यकता है पर्वतादिरूप पक्ष में, क्योंकि पक्षगत साध्य व साधन का अविनाभाव ही पर्वतादि में वह्नि की अनुमिति में समर्थ है न कि महानसादिगत साध्य व साधन का अविनाभाव । किन्तु यह कथन भी उचित नहीं, क्योंकि 'धूमात्' इस हेतुवचन के द्वारा पक्ष में 1. न्यायभाष्य, ११११३९ 2. न्यायसूत्र, ११३८ 3. न्यायवार्तिक, १।११३८ 4. न्यायसार, पृ. ११ 5. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. २३५. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० न्यायसारं साध्यसिद्धि उस व्याप्ति की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि धूम हेतु पर्वतादि पक्ष के लिये उपात्त है न कि महानसादि में साध्यसिद्धि के लिये, वहां वो प्रत्यक्षतः साध्य की सिद्धि है । अतः उसीसे पक्षगत साध्यसाधन का अविनाभाव सिद्ध हो जोने पर उपनयवचन को आवश्यकता नहीं, ' तथापि घूमादि हेतु का विषय वहूनि पर्वत में अबाधित है, इस तथ्य को बतलाने के लिये उपनयवचन की अपेक्षा है । अर्थात् जैसे उत्पाद्य घटादि अनित्य हैं और उनके अनित्यत्व का प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाध नहीं होता, इसी प्रकार कृतकत्व हेतु के शब्दादिपक्षगत अनित्यत्व विषय का प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाध नहीं है, इसका ज्ञापन उपनयवाक्य से ही हो सकता है । उदाहरणवाक्य तो पक्षभिन्न घटादि में अनित्यत्व का बाघ प्रत्यक्षादि प्रमाण से नहीं है, यह बता सकता है, न कि शब्दातिपक्षगत अनित्यत्व का । उपर्युक्त रीति से जिस प्रकार साधम्र्योपनय कृतकत्वादि साधन का विषय शब्दगत अनित्यत्व प्रत्यक्षादि प्रमाण से अबाधित है, इस बात का प्रस्थापक है, उसी प्रकार वैधम्र्योोपनय भी इस बात का प्रस्थापक है । जैसे, आकाशादि नित्य हैं, अतः अकृतक अर्थात् अनुत्पाद्य हैं और उनका नित्यत्व प्रमाण सिद्ध है । उस प्रकार शब्द अनुत्पाद्य नहीं है, क्योंकि वह उत्पाद्य है और उत्पाद्य वस्तु कभी किसी प्रमाण से नित्य सिद्ध नहीं है, अतः शब्द में कृतकत्व अनित्यत्व से अविनाभूत है, यह सिद्ध हो जाता है । निगमननिरूपण " उपनय के पश्चात् निगमन का निरूपण क्रमप्राप्त है । निगमन पंचावयवोपपन्न अनुमानवाक्य का अन्तिम अवयव है । इसके द्वारा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय एक विषय से सम्बद्ध किये जाते हैं । इसीलिये भाष्यकार ने कहा हैनिगम्यते अनेनेति प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनया एकत्रेति निगमनम् । निगम्यन्ते समर्थ्यन्ते सम्बद्ध्यन्ते' (न्यायभाष्य, १|१|३५ ) | निगमन के अभाव में प्रतिज्ञादि का प्रकृत विषय से सम्बन्ध अभिव्यक्त नहीं हो सकता, एक अर्थ की सिद्धि के लिये उनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । " सूत्रकार गौतम ने निगमन का लक्षण - 'हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् " यह किया है । वार्तिककार ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि प्रतिज्ञा के विषयभूत अर्थ को प्रत्यक्षादिप्रमाणमूलक प्रतिज्ञादिवाक्यों के द्वारा सिद्धि होने पर उस प्रतिज्ञात सिद्ध अर्थ का साध्यविपरीत प्रसंग के प्रतिषेधार्थ जो पुनः अभिधान है, वह निगमन है, न कि प्रतिज्ञा का ही 1. ननु चोपनयवचनमनर्थकं व्याप्तेरुदाहरणेनैव प्रतिपादितत्वात् । अन्तर्व्याप्तिसिद्ध्यर्थमिति चेत्, हेतुवचनात्तत्सिद्धेः । -न्यायभूषण, पृ. ३२५ 2. न्यायभूषण, पृ. ३२६ 3. निगमनाभावे चानभिव्यक्तसम्बन्धानां प्रतिज्ञादीनामेकार्थेन प्रवर्तनं तथेति प्रतिपादनं कस्येति । - न्यायभाष्य, १1१/३९ 4. न्यायसूत्र १।१।३९ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण पुनर्वचन, क्योंकि प्रतिज्ञा साध्यनिर्देशरूप होती है, जबकि निगमन सिद्धनिर्देशरूप | अर्थात् प्रतिज्ञावाक्य में प्रतिज्ञात अर्थ का साध्यरूप से निर्देश है जबकि निगमन में उसका सिद्धरूप से निर्देश होता है । अतः निगमन की प्रतिज्ञा से गतार्थता नहीं होती । तात्पर्यटीका में वाचस्पति मिश्र 'हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् ' इस लक्षण का उपपादन करते हुए कहते हैं कि यद्यपि नियमन सिद्धनिर्देश है तथा प्रतिज्ञा साध्यनिर्देश, तथापि जो अर्थ प्रतिज्ञा में साध्य था, वही अर्थ निगमन में सिद्ध होता है । इस प्रकार साध्यत्व व सिद्धत्व अवस्था वाले अर्थ की एकता के कारण निगमन में प्रतिज्ञा का उपचार कर निगमन को प्रतिज्ञा का पुनर्वचन कह दिया गया है । " , 8 इस प्रकार उपमा " , आचार्य भासर्वज्ञ ने सूत्र में 'प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनम् इव मानकर 'सहेतुकं प्रतिज्ञाववचनं निगमनं 14 यह निगमन का लक्षण माना है । प्रतिज्ञावत्' शब्द का प्रयोग कर उन्होंने वार्तिककारादिकृत पूर्वोक्त विचार के लिये अवकाश ही नहीं रखा है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि निगमन प्रतिज्ञा के तुल्य है, प्रतिज्ञा से अभिन्न नहीं । सूत्रस्य ' हेत्वपदेशात् ' के अर्थ पर विचार करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि हेत्वपदेश शब्द 'तम्मात् इत्याकारक हेत्वनुवाद का बोधक है ।" सूत्र में 'हेत्वपदेशात्' पद में हेत्वर्थक पंचमी है । हेत्वर्थक पंचमी मानने पर हेत्वर्थक तृतीया विभक्ति का प्रयोग क्यों नहीं किया गया, इस आशंका का निराकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि यद्यपि हेत्वर्थ में तृतीया व पंचमी दोनों -विभक्तियों का प्रयोग हो सका है, तथापि 'हेत्वपदेशेन ' इत्याकारक तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने पर सहार्थ में यहां तृतीया है, ऐसी भ्रान्ति संभव है, तन्निराकरणार्थ तृतीया का प्रयोग न कर पंचमी विभक्ति का प्रयोग किया है । सहार्थ में तृतीया मानने पर देवनुवाद के साथ प्रतिज्ञा का पुनर्वचन निगमन कहलायेगा ऐसी स्थिति में हेतुरूप अवयव के बाद ही हेत्वनुवाद के साथ प्रतिज्ञा के पुनर्वचनरूप निगमन का प्रयोग होना चाहिए, यह आशंका संभावित है । तन्निराकरणार्थ पंचमी का प्रयोग किया गया है ।" 1. न्यायवार्तिक, १३/३९ 2. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १/१/३९ 3. प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनमिवेत्युपमात्र द्रष्टव्या । -- न्यायभूषण, पृ. ३२७ १४१ 4. न्यायसार (पूना, १९२२), पृ. ४० 5. वयं तु नमस्तस्मादित्ययं हेत्वनुवादो हेत्वपदेश: 1-न्यायभूषण, पू. ३२७ 6. देवपदेशेन सहेति प्रान्ते मोहनिवृत्तये तृतीयास्थाने पंचम्युक्ता, अन्यथोदाहरणात् प्रागेव हेत्व देशेन सह प्रतिज्ञायाः पुनर्व्वचनं प्रयोक्तव्यमित्याशंकापि स्यात् । न्यायभूषण, पृ. ३२७ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ न्यायसारं निगमन-प्रयोजन ___ भासर्वज्ञ ने निगमन के प्रयोजन पर भी विचार करते हुए कहा है कि कतिपय विद्वान् अनुमानवाक्य की परिसमाप्ति के लिये निगमन का अभिधान आवश्यक है, ऐसा मानते है, किन्तु यह उचित नहीं है, क्योंकि वाक्य-समाप्ति के लिये निगमन के कथन में कोई प्रयोजन दृष्टिगोचर नहीं होता। यात्पर्य यह है कि जहां अनुमान के द्वारा अर्थ का प्रतिपादन अभीष्ट होता है, वहां अविनाभूत लिंग का ही कथन उपर्यक्त है, उसीसे साध्य की अवगति हो जाती है। इसीलिये कहा भी है'विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः ।' अर्थात् विद्वानों के लिये केवल अविनाभावि. 'लिंगवचनरूप हेतु ही पर्याप्त है, क्योंकि उससे हो उनको साध्यसिद्धि हो जाती है। अविनाभूत लिंग की प्रतीति होने पर 'तस्माद् इदम् इत्थम्' इत्याकारक प्रतीति हो ही जाती है। अतः निगमन को कोई आवश्यकता नहीं । इस शंका का निराकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि निगमन निरर्थक नहीं है, क्योंकि वह साध्यविरुद्ध को असत्ता के प्रतिपादक प्रमाण का सूचक है। तात्पर्य यह है कि असत्प्रतिपक्षत्व का प्रतिपादन न करने पर अविनाभाव भी असन्दिग्ध रूप से अप्रतिपादित हो रह जाता है, क्योंकि पक्षधर्मत्वादि की तरह असत्प्रतिपक्षत्व भी हेतु का रूप है और जिस प्रकार पक्षधर्मत्वरूप हेतुस्वरूप का प्रतिपादन हेतुवाक्य का प्रयोजन है, उसी प्रकार असत्प्रतिपक्षत्वरूप हेतुस्वरूप का प्रतिपादन निगमन का प्रयोजन है । जैसे-'तस्माद् अनित्यः' यह निगमन 'अनित्य एव' इस नियम का बोध कराता है । अनित्यत्व का अवधारण कराने वाले इस निगमन से 'न नित्यः' इत्याकारक प्रतिपक्षसंज्ञक साध्यविरुद्ध को असत्ता का अनुमान होता हैं । असत्प्रति. पक्षत्व के अवधारण से यह भी ज्ञात हो जाता है कि हेतु न तो विरुद्धाव्यभिचारी है और न प्रकरणसम । यदि यह कहा जाय कि प्रतिपक्षाभाव की सिद्धि प्रमाणान्तर से हो सकती है, न कि वचनमात्र निगमन से । क्योंकि वचनमात्र निगमन कोई प्रमाण नहीं है और किसी वस्तु की सिद्धि प्रमाण से होती है, न कि 'प्रतिपक्ष का अभाव है' इत्या. कारक वचनमात्र से इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि ऐसा मानने पर पक्षधर्मत्व के प्रतिपादनार्थ भी प्रमाणान्तर मानना होगा, क्योंकि हेतुरूप वचन से पक्षधर्मत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि इस दोष के परिहारार्थ हेतु, उदाहरणादि को पक्षधर्मत्व का साधक प्रमाण माना जाता है, तो निगमन को भी प्रतिपक्षाभावसाधक प्रमाण मानने में क्या आपत्ति है ?* 1. प्रमाणवार्तिक, का. ३७, पृ. २६८ 2. न्यायसूषण, प, ३२५ 3. यस्मान्नेदमनर्थकं साध्यविरुद्धाभावप्रतिपादकप्रमाणसूचकत्वादस्य । ----न्यायभूषण, पृ. ३२७ 4. न्यायभूषण, पृ. ३२८. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान प्रमाण १४३ प्रासंगिक साध्यावधारण ही निगमन के द्वारा किया जाना चाहिए, साध्यविरुद्ध अभाव के प्रतिपादन से क्या प्रयोजन प्रतिपक्ष की यह आशंका भी उचित नहीं, क्योंकि प्रतिपक्षाभाव के प्रतिपादन बिना साध्य का अवधारण उपपन्न नहीं होता । इसी तथ्य का सूत्रकारसम्मति से बढीकरण करते हुए भासर्वज्ञ कहते हैं- 'विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः।'1 अर्थात् संशयपूर्वक साधन तथा दूषण द्वारा जो अर्थावधारण होता है, वह निर्णय कहलाता है। इस प्रकार सूत्रकारसम्मति से भी प्रतिपक्षाभावग्राहक प्रमाण का अभिधान उपयोगी सिद्ध होता है । अतः प्रति पक्षाभावग्राहक प्रमाण को अभिधान करने वाला निगमन निरर्थक नहीं है। वस्तुतः विमर्शपूर्वक पक्षप्रतिपक्ष द्वारा अर्थावधारण ही निर्णय होता है, यह नियम अभिप्रेत नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षस्थल में इन्द्रियार्थसन्निकर्ष द्वारा भी अर्थाव. धारण होता है । अतः निर्णय का सामान्य लक्षण तो अर्थावधारणमात्र है जैसा कि वार्तिककार ने कहा है-'अर्थपरिच्छेदः अवधारणं निर्णय इति'।' सूत्रकार ने निर्णय-लक्षण से पहिले तर्क का लक्षण किया है। अतः प्रस्तुत निर्णयलक्षण तर्कविषय के अनुसार है, जैसाकि वातिककारने कहा है-'एतस्मिश्च तर्कविषये विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय इति सूत्रम् ।' तर्कविषय में निर्णय विमर्शपूर्वक पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा ही होता है । अतः तर्कानुगृहीत अनुमान प्रमाण से किये जाने वाले निर्णय में ही निर्णय का उक्त लक्षण घटित होता है, अन्यत्र नहीं । बौद्ध निगमन के अभिधान को असाधनांग अर्थात् साध्यसाधनभूत वाक्य का अंग नहीं मानते हैं, अपि तु प्रतिपक्षाभावज्ञानार्थ बाधक प्रमाण का प्रयोग करते हैं। किन्तु भासर्वज्ञ का तर्क है कि निगमन को असाधनांग मानने पर बौद्धों को आदि की सिद्धि के लिए सत्व-कृतकत्वादि साधनों का ही प्रयोग करना चाहिये, 'असन्तो क्षणिकास्तस्यां क्रमाक्रमविरोधतः' इत्यादि रूप से विपक्षबाधक प्रमाण का अभ्युपगम नहीं करना चाहिए। तदर्थ बाधक प्रमाण स्वीकार करने पर बौद्धपक्ष में निग्रहस्थान की प्रसक्ति हो जाती है, क्योंकि सौगतसम्मत विपक्षबाधक प्रमाण निगमनार्थक ही है। विपक्षबाधक प्रमाण और निगमन दोनों का प्रयोजन 1. यद्यपि 'अवधारणं निर्णयः' इतना ही निर्णय का पूर्ण लक्षण है तथापि निःश्रेयसोपयोगी आत्मादिनिर्णय के विचारक के अभिप्राय से लक्षण में 'पक्षप्रतिपक्षाम्याम्' कहा गया है। तत्प्रकारक निर्णय में साधन तथा दूषण दोनों का उपयोग बतलाने के लिये विमृश्य' कहा गया है । विप्रतिपत्तिनिमित्तक संशय के प्रवृत्त होने पर विचारक निरासमुखेन निर्णय करता है, साधनमात्र से नहीं। उभयपक्षसाधन की उपपत्ति होने पर विरुद्धाव्यभिचारित्व की प्रसक्ति हो जाती है । साधनाभाव की दशा मे साध्यसिद्धि न होने से केवल दूपण से भी निर्णय नहीं हो सकता । इसलिए दूषणसहित स्वपक्षसाधन से निर्णय होना युक्तियुक्त है। 2. न्यायवार्तिक, १।११४१ 3. वही Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ न्यायसार एक ही है और वह है- विपरीत प्रसंग का प्रतिषेध । प्रतिपक्षप्रतिषेध द्वारा हेतु के अवनाभाव का समर्थन हो दोनों से अभिप्रेत है । यदि यह कहा जाय कि निगमन का अभिधान होने पर भी निगमनार्थ के प्रति विप्रतिपत्तिग्रस्त प्रतिवादी को बाधक प्रमाण द्वारा ही प्रतिपक्षाभाव का बोधन करना पड़ता है, इसलिये विपक्ष- बाधक प्रमाण का ही साक्षात् कथन करना उचित है न कि निगमन का । इस पर भासर्वज्ञाचार्य कहते हैं कि निगमनार्थ के विषय मैं विप्रतिपति होने पर विपक्ष बाधक प्रमाण का उपन्यास संगत होता है । अपि च, तदर्थसाधक प्रमाण का अभिधान भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस प्रमाण के अर्थ के प्रति विप्रतिपद्यमान पुरुष को जिस प्रमाणान्तर द्वारा बोध प्रदान किया जायेगा, उसीका प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार अनवस्थालतालूता लग जायेगी । अतः निगमनार्थ में विप्रतिपत्ति होने पर ही प्रतिपक्षाभावसाधकरूप प्रमाण का तथा देवादि द्वारा प्रतिपादित अर्थ में विप्रतिपत्ति होने पर तत्साधक प्रमाणान्तर का उपन्यास उचित है, अन्यथा नहीं | 1 1. + तस्माद्यदैव यदवयवार्थ प्रति विप्रतिपद्यते परस्तदव तदवयवार्थसमर्थनार्थं बाधकं साधकं वा प्रमाणान्तरमुच्यत इत्यलं प्रसंगेन । न्यायभूषण, पृ. ३२८. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चम विमर्श कथानिरूपण तथा छल-जाति-निग्रहस्थाननिरूपण कथा वाद - निरूपण न्यायदर्शन प्रधानरूप से कथाशास्त्र है। इसमें कथा के भेदों, तदुपयोगी प्रमाणों, प्रमेयों तथा उसके उन्नायक संशयादि पदार्थों का प्रतिपादन किया गया है। प्रमाण से आरम्भ कर निर्णयान्त कथोपयोगी सत पदार्थो के निरूपण के पश्चात् अंगिभूत कथा के वाद, जलप तथा वितण्डारूप भेदों का निरूपण किया जा रहा है। ये तीनों कथा के अवान्तर भेद हैं। भासर्वज्ञ ने कथासामान्य का लक्षण बतलाते हुए कहा है - 'वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कथा'। कथा चाहे किसी प्रकार की क्यों न हो, उसमें दो पक्ष होते हैं - पक्ष तथा प्रतिपक्ष और वादी तथा प्रतिवादी भी उसमें होते हैं। उनमें सामान्यतः वादी पक्ष की सिद्धि करता है और प्रतिवादी प्रतिपक्ष की। इसीलिये जो अपने पक्ष की सिद्धि करता है, उसे वादी कहते हैं तथा उसका जो खण्डन करता है, उसे प्रतिवादी कहते हैं। यह नियम कथा में होता है, ऐसा भासर्वज्ञ ने कहा है । केवल पक्ष तथा प्रतिपक्ष को स्वीकार करना ही कथा नहीं है, जब तक कि उसमें वादी द्वारा अपने पक्ष का साधन और प्रतिवादी द्वारा उसका खण्डन न हो । जैसे, बुद्धि नित्य है अथवा अनित्य-इन दोनों पक्षों को स्वीकार करने मात्र से कथा का निर्वाह नहीं होता, अपितु बादी द्वारा 'बुद्धि अनित्य है' - इस पक्ष का साधन तथा प्रतिवादी द्वारा उपालम्भ अर्थात् उसका निराकरण कथा में आवश्यक है। इसलिये 'पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कथा' इतना ही कथा का लक्षण न कर 'वादिप्रतिवादिनोः' और कहा गया है। 'वादिप्रतिवादिनोः' कहने से ही स्वपक्ष का साधन और परपक्ष का खण्डन अर्थ की प्रतीति नहीं होतो, इसलिये भासर्वज्ञ ने इसकी व्याख्या करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि जो पक्ष का साधन करता है, उसे वादी कहते हैं और जो उसका खण्डन करता है, उसे प्रतिवादी। वादी, प्रतिवादी यह अर्थ मानने पर वादि-प्रतिबादी पदों से कथा में स्वपक्ष का साधन तथा परपक्ष का खण्डन आ जाता है। 1. न्यायमार, पृ. १५ 2. न्यायभूषण, पृ. ३२९ भान्या-१९ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ न्यायसार भासर्वज्ञ ने कथा के वादादि तीन भेद न मानकर प्रकारान्तर से उसके भेद किये हैं। उन्होंने पहिले कथा को वोतराग -- कथा तथा विजिगीषु-कथा - इन दो भागों में विभक्त किया है। तदनन्तर वीतरागकथा को वाद माना है तथा विजिगीषुकथा के जल्प और वितण्डा - ये दो भेद किये है। वीतराग-कथा दो वीतरागों की ही होती है और उनमेंसे एक पक्ष की स्थापना करता है तथा दूसरा उसका खण्डन, किन्तु इस खण्डन-मण्डन में विजय की इच्छा उद्देश्य नहीं रहता, अपितु तत्त्वनिश्चय उद्देश्य होता है । इसी आधार पर लोक में 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' यह उक्ति प्रचलित है । भासर्वज्ञ ने यह भी माना है कि 'वाद' तीनों कथाओं का सामान्य नाम है, यह बात उन्होंने लौकिक व्यवहार को लेकर कही है, क्योंकि लौकिक व्यवहार में प्रत्येक कथा के लिये वाद शब्द का प्रयोग किया जाता है। किन्तु इस शास्त्र में 'वाद' शास्त्रसंकेतित संज्ञा है और इसका प्रयोग तत्त्व. निर्णय के लिये होने वाली वीतरागकथा में ही होता है। .. दण्डक सूत्र में सामान्य कथा का निर्देश न करके उसके भेदों का ही निर्देश किया है। वाद, जल्प, वितण्डा भेद से त्रिधा विभक्त कथाभेदों में सर्वप्रथम वाद का निरूपण किया जा रहा है । 'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पंचावय. वोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः '३ यह वाद का सौत्र लक्षण है। अर्थात् सिद्धान्त से अविरुद्ध, पंचावयव वाक्यों से युक्त तथा प्रमाण और तर्क के द्वारा जिसमें स्वपक्ष सिद्धि और परपक्ष का खण्डन किया जाता है, ऐसी कथा को वाद कहते हैं। सत्र में पक्ष-प्रतिपक्ष शब्द से एक ही धर्मी में विद्यमान दो विरुद्ध धर्मो का ग्रहण किया गया है। जैसे-'अनित्यः शब्दः, नित्यः शब्दः' । इस वाक्य में शब्दरूप एक ही धमी में विद्यमान नित्यत्व तथा अनित्यत्व धर्म का निर्देश है। एक धर्मी में स्थित दो धर्मों का विरोध उनका एक साथ न रह सकना ही है और वह विरोध लोक या शास्त्र में जिस प्रकार का देखा गया है, वैसा ही मानना चाहिये । जैसे-मूर्तत्व तथा अमूर्तत्व धर्मो की स्थिति कोलभेद से भी एक धर्मी में नहीं बन सकती, अर्थात् पृथिव्यादि मूर्तो में किसी भी काल में अमूर्तत्व नहीं रहता। अतः ये दोनों धर्म विरुद्ध धर्म कहलाते हैं। किन्तु घटादि पदार्थों में सत्त्व तथा असत्त्व धर्म की घटादि धर्मी में स्थिति विरुद्ध नहीं मानी जा सकती । भिन्न धर्मी में स्थित दो धर्मो का परस्पर विरोध कभी नहीं होता। जैसे-आत्मा नित्य है और और बुद्धि अनित्य-इस वचन में नित्यत्व की स्थिति आत्मा में है और अनित्यत्व की स्थिति बुद्धि में। अतः भिन्नधमिस्थ विरुद्ध धर्मों का पक्ष प्रतिपक्ष नहीं माना जा सकता । अतः इसको कथा भी नहीं कह सकते। 1. न्यायसार, पृ. १५ वीतरागकथा वादसंज्ञकैवोच्यते न तत्र विशेषसंज्ञान्तरमस्ति । यथा विजिगीषुकथाबा बाद इति सामान्यसंज्ञा जल्प इति वितण्डेति च विशेषसोति । तत्र कथात्रयेपि बाद इति संज्ञा व्यहारत: प्रसिद्धा, कथेति संज्ञा तु सूत्रतः प्रसिद्ध। ।-न्यायभूषण, पृ. ३२९ 3. न्यायसूत्र, १/२/१ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १४७ एक धर्मी में विरुद्ध धर्मों की स्थितिरूप पक्ष-प्रतिपक्षता तीनों ही कथाओं में बनती है। अतः जल्प तथा वितण्डा से वाद का भेद बतलाने के लिये सत्र में 'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः' यह पद दिया गया है । वैतण्डिक को एक पक्ष स्वीकृत होने पर भी न तो वह प्रतिज्ञावाक्य के द्वारा अपने सिद्वान्त की स्थापना करता है और न प्रमाण तथा तर्क के द्वारा उसकी पुष्टि करता है। जल्पकया में यद्यपि स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष-निराकरण दोनों रहते हैं, तथापि उसमें उनका प्रतिपादन केबल प्रमाणों और तर्क के द्वारा ही नहीं किया जाता जबकि वाद में प्रमाणों और तर्क के द्वारा ही यह कार्य होता है । अतः 'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः' पद देने से जल्पकथा की निवृत्ति हो जाती है। सूत्रकारकृत वादलक्षण में 'पंचावयवोपपन्नः' विशेषण दिया गया है। पंचावयव पद से प्रतिज्ञादि पांच अवयववाक्यों का ग्रहण है जो कि अनुमान प्रमाण के अंग हैं । इस प्रकार पंचवाक्यवोपपन्न पद से ही प्रमाणोपपन्न अर्थ का लाभ हो जाने पर भी यहां 'पंचावयवोपपन्न' पद 'वाद' प्रतिज्ञादि अवयवों से युक्त होता है, इतने हो अर्थ का बोधक है न कि वे प्रतिज्ञादि अवयव कोई प्रमाण या प्रमाण के अंग हैं, इस अर्थ का बोधक । अतः वादकथा को प्रमाणयुक्त बतलाने के लिये 'प्रमाणोपपन्नः' पद का उपादान सार्थक है। अर्थात् वाद में निर्दिष्ट पंचावयव प्रमाण के रूप में या प्रमाणावयव के रूप में ही गृहीत हैं। क्योंकि वादकथा वीतरागकथा है और वीतराग पुरुष परवंचनार्थ कथा में प्रवृत्त नहीं होते हैं, अतः वादलक्षण में प्रमाणोपपन्न' पद की आवश्यकता है। दूसरी बात यह भी है कि प्रतिज्ञादि अवयव केवल अनुमान प्रमाण के अंग होते हैं, प्रत्यक्षादि के नहीं । पंचावयवोपपन्न पद से अनुमान प्रमाण का लाभ हो जाने पर भी इतर प्रत्यक्षादि प्रमाणों का लाभ नहीं होता, इसलिये भी 'प्रमाणोपपन्नः' कहा गया है। यद्यपि जल्प कथा में भी प्रमाणमूलत्वेन अज्ञात हेत्वाभासादि का प्रयोग नहीं होता है, तथापि प्रारम्भ में वह जिन हेत्वाभासों का प्रयोग करता हैं, उन्हे', 'यह हेतु सभीचीन है', यह जानकर उनका प्रयोग करता हुआ भी प्रतिवादी के द्वारा उन्हे दुष्ट सिद्ध किये जाने पर वह उन्हें दुष्ट ( असमीचीन ) जानता हुआ भी उनके समर्थन के लिये प्रवृत्त होता है, उनसे निवृत्त नहीं होता । किन्तु वादकथा में वादी प्रतिज्ञादि अवयवों में असमीचीनता का ज्ञान होने पर उनका प्रयोग नहीं करता । अपि च, जल्पकथा मे वादी अपनी पराजय देकर निश्चित पराजय की अपेक्षा सन्देहस्थिति उत्पन्न करने के लिये दुष्ट हेतुओं का प्रयोग करने से नहीं' चूकता । अवः सूत्र में प्रमाणोपपन्न' का उपन्यास किया गया है। इसका दूसरा फल भी है कि वादी वादकथा में प्रतिज्ञादि अवयवों का प्रयोग न कर स्वतन्त्र प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी स्वपक्षसिद्धि और परपक्षखण्डन कर सकता है। तर्कानुगृहीत स्वार्थानुमान का ही वाद कथा में प्रयोग करना चाहिने, न कि चार्वाकों की तरह स्वयं अनिश्चित स्वार्थानुमान का । एतदर्थ तर्क ग्रहण किया गया है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ न्यायसार इस प्रकार न्यायभाष्य के अनुसार वादसूत्र की व्याख्या प्रस्तुत कर ग्रन्थकार अपने मत से सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि सूत्र में साधन पद का अर्थ स्वपक्षसिद्धि के लिये उपादीयमान प्रत्यक्षादि प्रमाणों में से कोई प्रमाण है तथा प्रतिपक्ष का निषेध करने के लिये प्रत्यज्ञाद्यन्यतम प्रमाण का ग्रहण उपालम्भ पद का अर्थ है । प्रमाण अर्थात् अनुमान के द्वारा निश्चित सामर्थ्य युक्त तथा तर्क के द्वारा प्रतिषेधसामर्थ्ययुक्त साधन और उपालम्भ का ही नैयायिक को वादकथा में प्रयोग करना चाहिये । एतदर्थ प्रमाण व तर्क का ग्रहण सूत्र में किया गया है । सूत्र में 'सिद्धान्ताविरुद्ध' पद का उपादान अपसिद्धान्तरूप निग्रहस्थान के संग्रह के लिये तथा 'पंचावयवोपपन्न' पद पांच हेत्वाभासों तथा अधिक और न्यून -इन निग्रहस्थानों के संग्रह के लिये है अर्थात् अपसिद्धान्तादि आठ निग्रहस्थानों का प्रयोग वादकथा में भी अनुमत है, ऐसा न्यायभाष्यकार का अभिमत है । इस विषय में भासर्वज्ञ का कथन है कि अपसिद्धान्तादि आठ निग्रहस्थानों के उद्भावन से यदि वीतरागिता की निवृत्ति नहीं होती, तो अन्य निग्रहस्थानों के उद्भावन से कैसे हो सकती है? तथा अपसिद्वान्तादि निग्रहस्थानों की वादकथा में अभ्यनुज्ञा मानने पर प्रतिज्ञाहानि, अपार्थक, निरर्थक इत्यादि निग्रहस्थानों का प्रयोग भी वादकथा में दोष नहीं कहलायेगा । यदि यह कहा जाय कि निरर्थक, अपार्थक आदि निग्रहस्थानों का केवल त्याग के लिये वादकथा में उद्भावन किया जाता है, अन्य के निग्रह के लिये नहीं. तो अपसिद्धान्तादि निग्रहस्थानों का उद्भावन भी वादकथा में त्याग के लिये होता है, न कि गुर्वादि के निग्रह के लिये । अतः सिद्धान्ताविरुद्ध पद से अपसिद्धान्तरूप निग्रहस्थान की ओर पंचावयवोपपन्न पद से पंच हेत्वाभास और न्यून तथा अधिक - इन निग्रहस्थानों के उद्भावन की अनुमति वादकथा में मानना संगत नहीं, किन्तु सिद्धान्ताविरुद्ध तथा पंचावयवोपपन्न इन दोनों पदों का ग्रहण उदाहरण के लिये हैं। अर्थात् सिद्धान्ताविरुद्ध पद से अपसिद्धान्त की अभ्यनुज्ञा और पंवावयवोपपन्न पद से पञ्चहेत्वाभासादि निग्रहस्थानों की अभ्यनुज्ञा वादकथा में दिग्दर्शन के लिये है। अन्य छल-जाति-निग्रहस्थान--इन सभी की उद्भावना वादकथा में की जा सकती है। इतना होने पर भी जल्प तथा वितण्डा कथा से वादकथा का यही भेद है कि वादकथा में छल-जाति-निग्रहस्थानों का प्रयोग त्याग के लिये है और उनका परित्याग तभी बन सकता है जब उनका ज्ञान हो और जल्प तथा वितण्डा में छलादि का प्रयोग जय-पराजय के लिये किया जाता है। इसीलिये जल्पलक्षणसूत्र में छल, जाति, निग्रहस्थानों के प्रयोग का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। अथवा वादकथा सिद्धान्ताविरुद्ध तथा पंचावयवोपपन्न होनी चाहिये इस बात का शिष्यों को ज्ञान कराने के लिये वादकथा में इन तीनों पदों का 1. न्यायभूषण, पृ. ३३० 2. न्यायभार, 1/२/1 3. न्यायभूषण, पृ. ३३१ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १४९ ग्रहण किया गया है, क्यों के कुछ शुष्क तार्किक सिद्धान्तविरुद्ध भी बाद कर बैठते हैं। जैसे-ईश्वरज्ञान अनित्य है, विभु द्रव्य का विशेष गुण होने से, ऐसे सिद्धान्त - विरुद्ध वाद का निषेध करने के लिये सूत्र में सिद्धान्ताविरुद्ध पद दिया गया है ।। इसीलिये मनु ने कहा है कि वेदशास्त्राविरोधी तर्क' ही काम में लेना चाहिये, न कि शास्त्रविरुद्ध । इसी प्रकार स्वपक्षसाधन, प्रतिपक्षदूषण, साधनसमर्थन, दूषणसमर्थन, शब्द. दोषवर्जन (निरर्थक, अपार्थक अप्रतीतप्रयोग व अतिद्रुतोच्चारणादिदोषपरित्याग) इन पांच अवयवों से युक्त वाद कथा होनी चाहिये, जिससे अभीष्ट अर्थ की सिद्धि हो सके । एतदर्थ पंचावयवोपपन्न पद दिया गया है। अथवा वाद दो प्रकार का होता है-(१) शास्त्रस्वीकारपूर्वक तथा (२) उससे विपरीत । शास्त्र को स्वीकार कर जो वाद कथा की जाती है, वह वाद कथा सिद्धान्त से अविरुद्ध होनी चाहिये और शास्त्र को स्वीकार न करके जो वादकथा को जाती है, वह पंचावयवययुक्त होनी चाहिये, उसमें शास्त्रविरोध की उद्भावना दोष नहीं माना जाता, किन्तु जिससे पंगवयवोपपन्नता में कोई विरोध आता हो, उसी को वहां निग्रहस्थान माना जाना चाहिए । वीतराग कथा दो प्रकार की होती है-एक प्रतिपक्षयुक्त तथा दूसरी प्रतिपक्ष रहित, जैसाकि प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वे ' सूत्र में बतलाया गया है। इस प्रकार वीतरागकथा के दो भेद मानने पर कथा के भेद चार हो जाते हैं न कि तीन । ऐसा होने पर भी उद्देशसूत्र में जो तीन भेद बतलाये गये हैं, वे कथा की विशेष संज्ञाओं को लेकर हैं । भासर्वज्ञ द्वारा किये गये कथा के इस विभाजन को निम्नलिखित रेखाचित्र से भी स्पष्ट किया जा सकता है: कथा 2. विजिगीषुकथा वीतरागकथा (वाद) 2. 1. सप्रतिपक्ष प्रतिपक्षरहित जल्प वितण्डा (प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वे न्या.सू. ४।२।४९] इस सूत्र से समर्थित है।) वीतरागवितण्डा विजिगीषुवितण्डा 1. न्यायभूषण, पृ. ३३१ 2 आर्ष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना । यस्त णानुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः।। -मनुस्मृति, १२/१ . ६ . 3. न्यायभूषण, पृ. ३३१-३३२ 4. न्यायसूत्र, ४/२/४९ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० न्यायसार अथवा कथा के भेद वाद--जल्प-वितण्डा-ये तीन ही हैं, क्योंकि प्रतिपक्षहीन वाद वितण्डा कथा ही है । विजिगीषुकथा : विजिगीषु विजिगीषु के साथ लाभ, पूजा तथा ख्याति की इच्छा से अपनी जय तथा दूसरे की पराजय के लिये प्रवृत्त होता है, उसे विजिगीषुकथा कहते हैं। यद्यपि जय-पराजयमूलक तथा लाभादि की इच्छा से प्रवृत्त होने वाली कथा मोक्षमार्ग के विरुद्ध होने से उपयुक्त नहीं है, तथापि वह मुमुक्षु के लिये न्याज्य है, स्वविजय तथा परपराजय में प्रवृत्त संसारो के लिये तो उपादेय ही है । मुमुक्षु की मोक्ष की इच्छा से प्रवृत्त होता है न कि विजयकाम पुरुष । यदि वीतरोग मुमुक्षु भी विजिगीषु द्वारा आक्षेप किये जाने पर दूसरों के अनुरोध से इस कथा के परिहार में समर्थ नहीं है, तो वह भी विजिगीषु के साथ प्रतिवादी के अनुग्रह (मोक्षशास्त्रादि में श्रद्धोत्पादन) के लिये और ज्ञानांकुर की रक्षा के लिये उस कथा को कर सकता है । यह विजिगीषुकथा वादो, प्रतिवादी, समापति तथा प्राश्निक इन चारों अंगों से युक्त होती है । विजिगोषु-कथा जल्प, वितण्डा भेद से दो प्रकार की ही है। जल्पनिरूपण जल्प का लक्षण सूत्रकार ने 'यथोक्तोपपन्नश्यछलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः' इस प्रकार किया है । सत्र में 'यथोक्तोपपन्नः' पद जल्प तथा वितण्डा कथा समस्तवादलक्षणों से युक्त होनी चाहिये-यह बतला रहा है। जल्प और वाद् के समस्त लक्षणों से युक्त होने पर भी छल-जाति-निग्रहस्थान आदि अंगाधिक्य के कारण जल्प, वितण्डा का वाद से भेद है, इसी बात को बतलाने के लिये सत्र में 'कलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भः' पद दिया है। वार्तिककार 'यथोक्तोपपन्नः' में एक उपपन्न पद का निर्देश ओर मान रहे हैं अर्थात् 'यथोक्तोपपन्नोपपन्नः । पद मान रहे हैं । तात्पर्य यह है कि वादकथा के जो अङ्ग जल्पकथा अङ्ग बन सकते हैं, उनसे युक्त तथा छल, जाति, निग्रहस्थान के द्वारा जिसमें स्वपक्ष-साधन तथा परपक्षखण्डन किया जाता है, ऐपी कथा को जल्प कहते हैं । यद्यपि छलादि के 1. न्यायभूषण, पृ. ३३२. 2 तत्त्वाध्ववसायसंरक्षणार्थ जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्टकशाखावरणवत् । -न्यायसूत्र, ४/२/५० 3 न्यायसार, पृ. १६ 4. न्यायसूत्र, १/२/२ 5. अथवा यथोक्तेनोप्रपन्नेनोपपन्नो यथोक्तोपपन्नोपपन्न इति प्राप्ते गम्यमानत्वादेक-योपपन्नशब्दस्य लोपः, यथा गौ रथ इति ।-न्यायवार्तिक, ११२१२ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १५१ अयुक्त उत्तर होने से किसी पक्ष की सिद्धि या खण्डन उनसे नहीं बन सकता, तथापि विजिगीषु पुरुष प्रतिपक्षी को व्यामुग्ध करने के लिये लोक में छलादि का प्रयोग करते हैं और छलादि के द्वारा मन्दधी पुरुषों को लोक में पक्षसिद्धि तथा प्रतिपक्षखण्डन की भ्रान्ति हो जाती है । इस लोकसिद्ध भ्रान्ति के अनुवाद रूप से ही सत्र में छलजात्यादि को पक्षसिद्ध तथा प्रतिपक्षखण्डन का साधन बतलाया गया है। कतिपय विद्वानों का मत है कि प्रतिपक्ष के द्वारा व्याकुलचित्त वाले नैयायिकों को भी जब तक समीचीन साधनों का स्फुरण नहीं' होता है, तब तक छलादि का प्रयोग करना चाहिये। अन्यथा ऐसे अवसर पर छलादि का प्रयोग न करने वाले पुरुषों में अप्रतिभारूप निग्रहस्थान का उद्भावन कर असत्पक्षवादी विजयी वन जायेंगे ।' सत्पक्षवादियों को भी 'निगृह्णीयात यथाशक्ति देवताचार्यनिन्दकान्'इस कथन के अनुसार प्रमाणमूलक समीचीन साधन का स्फुरण न होने पर छलादिप्रयोग के द्वारा प्रतिपक्षी के निग्रह की अनुमति प्रदान की गई है। भाष्यकार का अभिमत तो यह है कि छलादि साक्षात् पक्षसिद्धि तथा प्रतिपक्षखण्डन में काम नहीं आते हैं। यह कार्य तो प्रमाण तथा तर्को के द्वारा ही किया जाता हैं, किन्तु प्रमाणों द्वारा साधनोपालम्भ करने पर यदि कोई उसके परिहार के लिये छलादि का प्रयोग करता है, तो उन छलादि के परिहार के लिये यदि प्रत्युत्तर में छलादि की उद्भावना नहीं की जायेगी, तो उपन्यस्त प्रमाणों से दूषितता की प्रतीति होने पर स्वपक्षसिद्धि तथा परपक्षखण्डन नहीं बनेगा, अतः प्रतिपक्षी द्वारा प्रयुक्त छलादि के परिहार के लिये छलादि का प्रयोग वादी के लिये आवश्यक है। प्रतिवादी द्वारा उद्भावित छलादि में वादी द्वारा उद्भावित छलादि से दुष्टत्व की प्रतीति हो जाने पर निर्दुष्ट प्रमाणों द्वारा स्वपक्षसिद्धि तथा परपक्ष-निराकरण हो जाता है। इस प्रकार वादी छलादि का उद्भावन प्रमाणों द्वारा स्वपक्षसिद्धि व परपक्षखण्डन का अंग बन जाता है। वितण्डा वाद-जल्प-वितण्डा भेद से त्रिविध कथा के प्रसंग में वितण्डा कथा का निरूपण करते हुए भासर्वज्ञ ने वितण्डा के ‘स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा' इस सत्र में 'सः' पद से जल्प का ही ग्रहण है, ऐसा न्यायभाष्यकार वात्स्यायन मानते हैं । परन्तु भासर्वज्ञ के अनुसार 'सः' पद से वाद और जल्प दोनों का ग्रहण है अर्थात् प्रतिपक्षस्थापनाहीन वाद तथा जल्प दोनों ही वितण्डा कहलाते हैं । अतः वितण्डाकथा विजिगीषुकथा तया वीतरागकथा भेद से दो प्रकार को है। सत्रकार ने भी 'प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमथित्वे ' इस सत्र द्वारा वीतरागवितण्डा का निर्देश किया है। 1. न्यायभूषण, पृ. ३३३ 2 न्यायभाष्य, १/:/२ 3. न्यायसूत्र, 1/२/३ 4. न्यायमाध्य, १/२/३ . 5. न्यायभूषण, पृ. ३३४ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ न्यायसार वीतरागकथा में वैतण्डिक स्वपक्ष का साधन नहीं करता, अपितु प्रतिवादी के पक्ष का निराकरण मात्र करता है। अतः स्वपक्षस्थापनाहीन कथा को वितण्डा कहना चाहिए न कि प्रतिपक्षस्थापनाहीन को, क्योंकि वैतण्डिक प्रतिपक्ष का तो निराकरण ही करता है, स्थापन नहीं । इस प्रश्न का समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि सूत्र में प्रतिपक्ष पद वैण्डिक के स्वपक्ष का ही बोधक है, किन्तु वैतण्डिक के स्वपक्ष को ही प्रतिवादी के पक्ष की अपेक्षा से प्रतिपक्ष होने के कारण प्रतिपक्ष कहा गया हैं। उद्योतकराचार्य ने प्रतिपक्ष का अर्थ द्वितीय पक्ष' किया है । उसका भी तात्पर्य वैतण्डिक के स्वपक्ष में ही है । इसी लिये वाचस्पति मिश्र ने उद्योतकर के अभिप्राय का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है-'पूर्ववादिपक्षापेक्षया वैतण्डिकस्य आत्मीय एव पक्षः प्रतिपक्षः' । वोतराग वितण्डा कथा वहां होती है जहां गुरु शिष्य के दुराग्रह के निवारणार्थ युक्ति द्वारा उसके पक्ष का निराकरण करता है। वहां गुरु में विजय की इच्छा नहीं है, किन्तु तत्त्वनिर्णयार्थ ही शिष्य के पक्ष का निराकरण करता है, अतः उसे वीतरागकथा माना जाता है तथा गुरु स्वपक्ष का साधन नहीं करता, अतः उसे वितण्डा कहा जातो है । जहां वादी विजय की भावना से स्वपक्ष की सिद्धि न करते हुए प्रतिवादी के पक्ष का निराकरण करता है, वह विजिगीषुवितण्डा कथा है। . जब वैतण्डिक किसी पक्ष का साधन नहीं करता, तो उसके अपने पक्ष, जो कि प्रतिवादी के पक्ष की अपेक्षा से प्रतिपक्ष कहलाता है, का अभाव ही है, क्योंकि साधन के द्वारा व्यक्तीक्रियमाण ही पक्ष होता है। साधन के अभाव में उसकी अभिव्यक्ति न होने से वह पक्ष अर्थात् प्रतिपक्ष नहीं कहला सकता। अतः 'प्रतिपक्षहोनो वितण्डा' यही वितण्डा का लक्षण मानना चाहिये, 'स्थापना' पद का प्रयोग उसमें निरर्थक हैं - यह कथन उचित नहीं, क्योंकि वादी जिसे स्वीकार करता है, वह पक्ष कहलाता है तथा उससे विरुद्ध या प्रतिवादिस्वीकृत प्रतिपक्ष कहलाता है, यही पक्ष, प्रतिपक्ष की परिभाषा है। नियमान को ही पक्ष मानने पर निर्णीयमान वस्तु के एक होने से उसमें किसी प्रकार का विवाद न होने के कारण वादीप्रतिवादी का विवाद ही अनुपपन्न हो जाता है । अतः वादी द्वारा किसी वस्तु का अभ्युपगम ही पक्ष कहलाता है, यह पक्ष - परिभाषा मानने पर वितण्डाकथा में भी वैतण्डिक का स्वपक्ष सिद्ध हो जाता है, जिसे कि प्रतिवादी की अपेक्षा से प्रतिपक्ष कहा गया है । उसका अभाव वितण्डा में अनुपपन्न है । केवल उसकी स्थापना नहीं की जाती, अतः सूत्रोक्त लक्षण हो संगत है । 1. स्वपक्ष एव वैतण्डिकस्य प्रतिवाद्दिपक्षापेक्षयात्र प्रतिपक्ष उक्तः । -न्यायभूषण, पृ. ३२४ 2. न्यायवार्तिक, १/२/३ 3. तात्पर्यटीका, १/२/३ 4. न्यायभूषण, पृ. ३३४ For Private & Personal use only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १५३ जिस प्रकार निर्णय के लक्षण में पक्ष शब्द से स्वपक्षसाधन अभिप्रेत है, उसी प्रकार वितण्डा के लक्षण में भी प्रतिपक्ष शब्द से प्रतिपक्षस्थापना अर्थ को प्रतीति हो जाने से स्थापना शब्द की क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भासर्वज्ञने कहा है कि कतिपय विद्वानों का अभिमत है कि वैतण्डिक का कोई पक्ष नहीं होता, अपितु परपक्ष-दूषण मात्र ही वितण्डा कथा है, उस मत का निषेध करने के लिये सूत्र में स्थापना पद की आवश्यकता है ।' अर्थात वितण्डा में foss के स्वपक्ष का अभाव अनुपपन्न है, क्योंकि किसी के द्वारा प्रयोजन के विषय में पूछने पर यदि वैतण्डिक प्रयोजन को स्वीकार कर लेता है, तब वही उसका पक्ष वन जाता है और दूषणमात्र वितण्डा है अर्थात् वितण्डा में स्वपक्ष नहीं होता, ऐसा मानने वालों के मत से उसमें ( वैतण्डिक में ) वैतण्डिकत्व नहीं रहेगा । यदि प्रयोजन स्वीकार नहीं करता है, तो वह लौकिक परीक्षक दोनों से बहिर्भूत होकर उन्मत्त की तरह उपेक्षणीय बन जायगा, क्योंकि बिना प्रयोजन के कोई भी लौकिक या परीक्षक किसी विषय में प्रवृत्त नहीं होता । परपक्षप्रतिषेध का बोधन करना ही वैतण्डिक का प्रयोजन है, यह मानने पर भी जो परपक्षप्रतिषेध का बोधन करता है, जो उसे जानता है, जिस साधन के द्वारा ज्ञापन करता है तथा जो ज्ञापित किया जाता है, इन चारों को स्वीकार करने पर दूषण मात्र को वितण्डा मानने वालों के पक्ष में वैतण्डिक में वैतण्डिकत्व की हानि होती है । यदि उक्त चारों को स्वीकार नहीं करता है, तो उनके बिना अपरपक्ष का ज्ञापन न होने से अपरपक्ष-प्रतिषेधज्ञापनरूप प्रयोजन अनुपपन्न हो जाता है और वह पूर्ववत् उन्मत्त की तरह उपेक्षणीय बन जाता है । स्थापनाहीन वाक्यसमूह वितण्डा है, यह पक्ष भी उपर्युक्त पक्ष की तरह अनुपपन्न है, क्योंकि यदि वाक्यसमूह के वाच्यार्थ को वैतण्डिक स्वीकार करता है, तो वही उसका स्थापनीय पक्ष हो जाता है । यदि वाक्यसमूह के अर्थ को स्वीकार नहीं करता है, तो उसका वचन अनर्थक प्रलापमात्र हो जाता है ।" छल अङ्गिभूत कथाभेदों के निरूपण के पश्चात् वाद कथा में वर्जनीयत्वेन तथा जल्प व वितण्डाकथा में स्वपक्षसिद्ध्यर्थत्वेन व परपक्षप्रतिषेधार्थत्वेन उपादेय प्रसंगप्राप्त छलादि का निरूपण आवश्यक है । अतः उनका क्रमशः निरूपण किया जा रहा है । अन्यार्थकल्पना की उपपत्ति (संभव) से जहां वचन का निराकरण किया जाता है या उसे दूषित ठहराया जाता है, उसे छल कहते हैं, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है - ' वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्या छलम् । हेत्वाभासों की तरह छलसामान्य का 2. वही 1. न्यायसूषण, पृ. ३३४ 3. न्यायसूत्र, १/२/१० भाम्या - २० Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार १५४ उदाहरण भी उसके विशेष लक्षण में द्रष्टव्य है, क्योंकि छलविशेष के उदाहरण से अन्य छलसामान्य के लक्षण का उदाहरण नहीं होता । लक्षणत्रैविध्य के कारण छल तीन प्रकार का बतलाया गया है - 'तत् त्रिविधं वाक्छलं सामान्यछलमुपचारच्छलं चेत | '1 वाक्छल किसी अर्थ को बतलाने के लिये जहाँ अनेकार्थवाचक पद या वाक्य का प्रयोग किया जाता है, उसमें वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना कर वक्ता के वचन को दूषित ठहराना वाक्छल कहलाता है । यद्यपि तीनों ही छलों में वचन के कारण होने से वाक्छलता की आपत्ति आती है, तथापि अन्य छल्लों में सामान्यादि निमित्त प्रधान है और इसमें अनेकार्थाभिधायी पद या वाक्यरूप वचन ही प्रधान कारण है, अतः इसे वाक्चल कहा जाता है, अन्य को नहीं । जैसेकिसी ने 'नवकम्बलोऽयं माणवकः इस वाक्य का प्रयोग किया। यहां वक्ता का अभिप्राय नवकम्बलपद से 'नवीन कम्बल वाला' है, किन्तु 'नव' शब्द अनेकार्थाभिधायी है । अतः प्रतिवादी वक्तो के अभिप्रेत नवीन अर्थ से भिन्न नौ संख्या अर्थ करके पास नौ कम्बल नहीं, इस प्रकार वक्ता के वचन को निरस्त करता है या उसमें दोष देता है । यह वाक्छल है । , यहां प्रतिवादी अप्रतिपत्तिलक्षण निग्रहस्थान से ग्रस्त है, क्योंकि 'कुतोऽस्य नवकम्बला: ' ऐसा कहने वाले प्रतिवादी से यह प्रश्न किया जा सकता है कि उसने वक्ता के अर्थ को जानकर 'कुतोऽस्य नवकम्बलाः' यह दूषण दिया है अथवा बिना जाने । यदि जानकर दिया है, तो प्रकरणादि की सहायता के बिना सामान्य शब्द अर्थविशेष का ज्ञान नहीं करा सकता । अतः अर्थविशेष के विषय में वक्ता से ही पूछना चाहिये था कि उसका क्या अभिप्राय है । उसके अभिप्राय को जानकर उसका स्वीकार या निराकरण करना चाहिये, न कि स्वेच्छा से । वस्तु के प्रत्यक्ष होने पर जहां शब्द प्रयोग किया जाता है, वहां उस शब्द के अर्थ का नियामक वस्तुदर्शन ही है । जैसे- 'श्वेतो धावति' यह कहने पर कोई श्वेत वस्तु नहीं' दीख रही है, अपितु कुत्ता दौड़ता हुआ दीख रहा है, तो वहां उस वाक्य का अर्थ कुत्ता दौड़ रहा है' यह होगा । इसी प्रकार नवीन कम्बल के दिखाई देने पर वक्ता द्वारा प्रयुक्त 'नवकम्बलोऽयं माणवक: का अर्थ - ' इस बटु के पास नवीन कम्बल हैं ' यह होगा | उसको न समझकर उसमें दोषोद्भावन करना अप्रतिपत्तिनामक निग्रहस्थान है । यदि उसने 'नौ कम्बल वाला यह अर्थ समझा है, तो विरुद्धार्थप्रतिपत्तिरूप विप्रतिपत्तिनामक निग्रहस्थान है। सूत्र में 'अर्थ' पद का ग्रहण इसलिये किया गया है कि प्रतिवादी स्वरूपतः वचन का प्रतिषेध नहीं कर रहा है, अपितु अर्थ के प्रतिषेध से उसका प्रतिषेध कर रहा है । 6 1. न्यायसूत्र, १/२११३ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... सामान्यछल सामान्यछल का लक्षण सूत्रकार ने 'सम्भवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगादसद्भतार्थकल्पना सामान्यच्छलम्'1 किया है । भासर्वज्ञ ने इसकी व्याख्या यह की है कि ब्राह्मण में चतुर्वेदाभिज्ञत्वादि धर्म बन सकता है, यही सत्र में संभवत्' शब्द से कहा गया है। इस धर्म से रहित व्रात्यादि में 'ब्राह्मण' शब्द का प्रयोग केवल ब्राह्मणत्व को लेकर होता है, किन्तु ब्राह्मणत्वरूप अतिसामान्य धर्म के सम्बन्ध से व्रात्यादि में भी ब्राह्मण शब्द के संभावित चतुर्वेदाभिज्ञत्वादि अर्थ की कल्पना कर जो वक्ता के वचन का विघात किया जाता है, उसे सामान्य छल कहते हैं । क्योंकि यहां अर्थान्तर को कल्पना ब्राह्मणत्वरूप सामान्य धर्म के द्वारा की गई है, अतः इसे सामान्य छल कहते हैं । जैसे- यह ब्राह्मण चतुर्वेदाभिज्ञ है, यह किसी के कहने पर न्यायवादी कहता है कि इसमें क्या आश्चर्य को बात है, ब्राह्मण में चतुर्वेदाभिज्ञत्व बन सकता है। इस पर कोई छलवादो ब्राह्मणत्व सामान्य धर्म को चतुर्वेदाभिज्ञत्व का लिंग मानकर यदि कहता है कि तुम्हारा कहना उचित नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण तो व्रात्य भी होता है, किन्तु वह चतुर्वेदाभिज्ञ नहीं । अतः तुम्हारा वचन अनैकान्तिक है। यहां भी वाक्छल की तरह प्रतिवक्ता निगृहीत है, क्योंकि उसने वक्ता के अभिप्राय को समझकर वक्ता के वचन का विधात किया है अथवा बिना समझे । यदि बिना समज्ञ किया है, तो अप्रतिपत्तिरूप निग्रहस्थान है । यदि समज्ञकर किया है, तो उसके यथार्थ अभिप्राय का अववोध न होने से विप्रतिपत्तिरूप निग्रहस्थान है, क्योंकि वादी ने ब्राह्मणत्व को चतुर्वेदाभिज्ञत्व में कारण नहीं बतलाया है जिससे कि व्रात्य में साध्यव्यभिचारोद्भावना की जाय और न ब्राह्मणत्व को वेदाभिज्ञत्व का उत्पादक ही बतलाया है। किन्तु जहां ब्राह्मणत्व होता है, वहां चतुर्वेदाभिज्ञत्व भी हो सकता है क्योंकि लोक में बहुधा ऐसा देखा जाता है। यदि ब्राह्मण होने पर भी किसी कारणवैगुण्य से उसमें वेदज्ञता नहीं है, तो वह उस धर्म के अयोग्य नहीं है। जैसे-जहां अच्छा खेत होता है, वहां अच्छा धान उपजता है। यहां सुक्षेत्रत्व शालिसम्पत्ति का लिंग नहीं है, किन्तु सुक्षेत्र में शालिसम्पत्ति की योग्यता है, इतना ही अभिप्राय है। सुक्षेत्र होने पर भी वृक्षादि कारणों के अभाव से शालिसम्पत्ति नहीं हो सकती । उपचारच्छल वक्ता द्वारा गोण शब्द का प्रयोग करने पर मुख्यार्थकल्पना के द्वारा उसका प्रतिषेध उपचारच्छल कहलाता है। सूत्रकार ने 'धर्माविकल्पनिदेशेऽर्थसदभाव प्रतिषेध उपचारच्छलम् --यह लक्षण किया है। जैसे, वादी ने मंचस्थ पुरुषों के अभिप्राय से लाक्षणिक मं व शब्द का प्रयोग 'मंचाः क्रोशन्ति' इस रूप से किया। 1. न्यायसूत्र, ।।२।१३ 2. 111११ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसारं यहां वक्ताने गौणार्थ (मंचस्थ पुरुष) के अभिप्राय को लेकर मंच शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु छलवादी मंच शब्द के मुख्यार्थ को लेकर यदि यह कहे कि मंचस्थ पुरुष चिल्लाते हैं, मंच नहीं, क्योंकि मंच अचेतन है। इस प्रकार जो वादो के वचन को प्रतिषेध किया जाता है, वह उपचार छल है । यहां भी छलवादी निगृहीत है, क्योंकि यदि प्रतिवादी के. अभिप्राय को न समझ कर उसके वचन का प्रतिषेध करता है, तो अप्रतिपत्ति निग्रहस्थान से निगृहीत है। यदि समझ कर करता है, तो वक्ता के अभिप्राय से विपरीत अर्थ समझने के कारण विप्रतिपत्तिरूप निग्रहस्थान में निगृहीत है, क्योंकि लोक और शास्त्र में मुख्य तथा गौण दोनों प्रकार से शब्दों का प्रयोग देखा जाता हैं। जहां मुख्यार्थ के अभिप्राय से प्रयोग होता है, वहां मुख्यार्थ का ही स्वीकार या प्रतिषेध होना चाहिये तथा जहां वक्ता ने गौण शब्द का प्रयोग किया है, वहां उसके गौण अर्थ का ही स्वीकार या प्रतिषेध करना चाहिए । किन्तु यहां वैपरीत्य है । वक्ता ने गौणार्थ के अभिप्राय से शब्द का प्रयोग किया है और प्रतिवादी मुख्यार्थ के अभिप्राय से उसका प्रतिषेध कर रहा है। जातिलक्षणविमर्श : भासर्वज्ञ ने जाति का सामान्य लक्षण 'प्रयुक्ते हि हेतौ समीकरणाभिप्रायेण प्रसंगो जातिः'1 किया है । अर्थात् किसी साध्य-विशेष की अनुमिति के लिये वादी द्वारा हेतु का प्रयोग करने पर प्रतिवादी वादी के पक्ष के साथ समानता (समीकरण') के अभिप्राय से जो दोषोभावन करता है, उसे जाति कहते हैं। जैसे-वादी नैयायिक अथवा वैशेषिक शब्द के अनित्यत्व के साधक शब्दोऽनित्यः क्रत पटवत्' इस अनुमानवाक्य का प्रयोग करता है। इस पर जातिवादी मीमांसक वादी के अनुमानवाक्य में दोषान्वेषण करने में असमर्थ होकर निरर्थक अनिष्ट आपत्तियां उठाने का प्रयास करता है कि जैसे शब्द पट की तरह कृतक होने से अनित्य है, उसी प्रकार शब्द अमूर्त होने के कारण आकाश की तरह नित्य होना चाहिये । इस प्रकार शब्द में अनित्यत्वसिद्धि के लिये वादी द्वारा कृतकत्व हेतु प्रयुक्त करने पर प्रतिवादी वादी के पक्ष से साम्यप्रतिपादन की दृष्टि से शब्द में 'शब्दो नित्योऽ. मूर्तत्वादाकाशवन्' इत्याकारक अनुमानवाक्य का प्रयोग कर नित्यत्व की सिद्धि के लि! अमूर्तत्व हेतु का प्रयोग करता है । अनित्यत्व का खण्डन करता हुआ प्रतिपक्षी वादी के साथ समता सिद्ध करता है। अर्थात् जैसे नैयायिक पटादिदृष्टान्त से कृतकत्व हेतु के द्वारा शब्द में अनित्यता सिद्ध कर सकता है, तो मैं मीमांसक भी आकाशदृष्टान्त से अमूर्तत्व हेतु के द्वारा शब्द में नित्यत्व सिद्ध कर सकता हूं। इस प्रकार अनित्यत्वसाधक कृतकत्व हेतु में दोषोद्भावन करता है, इसे ही जाति 1. न्यायसार, पृ. १७ 2 (अ) प्रतिपक्षणा विशेष प्रतिपादनं समीकरणम् |-न्यायभूषण, प्र, ३१२ (ब) समीकरणार्थः प्रयोगः समः।-न्यायवार्तिक, ५।२।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ कथा निरूपण तथा छल... कहते हैं । प्रयुक्त हेतु में समीकरणाभिप्राय से वादी का दोषोभावन साधर्म्य व वैधर्म्य दोनों से होता है । इसीलिये सूत्रकार ने 'साधर्म्यवैधम्र्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः ' यह जाति का लक्षण बतलाया है । अतः सूत्रलक्षण का हमारे जातिलक्षण से कोई विरोध नहीं है, क्योंकि उसमें जिन प्रकारों से वादी के पक्ष का प्रतिषेध किया जाता है, उनका दिग्दर्शन है । भाष्यकारोक्त 'प्रयुक्ते हि देतो यः प्रसंगो जायते स जातिः " इस जातिलक्षण से समानता के कारण भासर्वज्ञ ने उपर्युक्त जातिलक्षण न्यायभाष्य के अनुसार किया है, यह स्पष्ट प्रतीत होता है । अपि च, जाति के भाष्यकारकृत सामान्यलक्षण का परिष्कार करते हुए भासर्वज्ञ ने उसमें 'समीकरणाभिप्रायेण' इतना अंश और जोड़ दिया है । जाति के भाष्यकार तथा भासर्वज्ञकृत सामान्यलक्षण में प्रयुक्त 'प्रसंग' शब्द में सूत्रकार के जातिलक्षण का अर्थ समाविष्ट हो जाता है । ' प्रसंगो जातिः' इतना ही जाति का लक्षण करने पर प्रत्यक्षाभास आदि में जातिलक्षण की अतिव्याप्ति हो जायेगी, एतदर्थ लक्षण में ' हेतौ प्रयुक्ते' यह दिया गया है । असिद्धत्वादि दोष की उद्भावना द्वारा भी प्रतिवादी वादी के पक्ष का प्रतिषेध करता है और वह हेतुप्रयोग द्वारा ही होता है । इस प्रकार जातिलक्षण की असिद्धत्वादि दोषों में अतिव्याप्ति हो जाती है । एतदर्थ 'समीकरणाभिप्रायेण ' पद दिया गया है । इसके देने से अतिव्याप्ति का निवारण हो जाता है, क्योंकि असिद्धत्वादि का उद्भावन परपक्षखण्डन के लिये किया जाता है, स्त्रपक्ष की परपक्ष से समानता बतलाने के लिए नहीं । अपरार्क का कहना है कि केवल प्रसंग जाति नहीं, इस प्रयोजन से समीकरणाभिप्रायेण ' पद दिया गया है । अर्थात् प्रतिपक्ष से साम्य बतलाने के उद्देश्य से किया गया प्रतिषेधमात्र जाति नहीं होती, क्योंकि प्रतिपक्ष से साम्यप्रतिपादन के अभिप्राय से किया गया सम्यक् प्रसंग जाति नहीं कहलाता । अतः अपरार्क का कथन है कि यहां सम्यक् पद का अध्याहार कर लेना चाहिये और इस प्रकार असमीचीन प्रसंग अर्थात् प्रसंगाभास जाति है न कि सम्यकू प्रसंग । परन्तु " 1 न्यायसूत्र, १/२/२८ 2. न्यायभाष्य, ११२/२८ 3. स च प्रलंग: साधर्म्यवैधम्यभ्यिां प्रत्यवस्थानमुपलम्भः प्रतिषेध इति । 4 साधर्म्यम्यभ्यिां प्रत्यवस्थानं जातिः । न्यायसूत्र १।२।१८ 5. न्यायमुकावली, प्रथम भाग, पृ. २५३ -- न्यायभाष्य, १/२/१८ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ न्यायसार वस्तुस्थिति यह है कि जाति असदुत्तर के रूप में प्रसिद्ध है, इसलिये जातिवादी द्वारा किया जाने वाला प्रसंग प्रसंगाभास ही होता है न कि सम्यक् प्रसंग, क्योंकि प्रतिवादी अपने अभिमान से साम्य बतलाता है, वह साम्य वास्तविक नहीं हो सकता । यदि असदुत्तररूप जाति के द्वारा उपस्थापित साम्य वास्तविक होगा, तो न्यायशास्त्र में प्रसिद्ध जाति की असदुत्तरस्वरूपता व्याहत हो जायेगो, जो कि अभीष्ट नहीं है । अतः सम्यक् प्रसंग को निवृत्ति के लिये असम्यक् पद का अध्याहार करना निरर्थक है । न्यायसार के टीकाकार जयसिंह सूरि तथा वासुदेव सूरि का कथन है कि भासर्वज्ञ द्वारा प्रस्तुत जातिलक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित है । प्राप्तिसम, अप्राप्तिसम आदि जातियों में इसकी व्याप्ति नहीं है, क्योंकि उनमें समीकरण के अभिप्राय से प्रवृत्ति नहीं होती । अतः वासुदेव का मत हैं कि बहुलता की अपेक्षा से यह लक्षण किया गया है " अर्थात् अधिकांश जातिभेदों में यह लक्षण घटित हो जाता है । जातिभेद निरूपण 8 सूत्रकार ने 'तद्विकल्पाज्जातिनिग्रहस्थानबहुत्वम् इस सूत्र द्वारा जातिभेदों का बाहुल्य बतलाया है। सूत्र में बहुत्व पद से असंख्यात अर्थ विवक्षित है न कि केवल वहुत्व | अन्यथा साधर्म्यसम, वैधर्ग्यसम आदि जातिभेदों के उल्लेख द्वारा ही बहुत्व का लाभ हो जाने से उपर्युक्त सूत्र में बहुल पद का नैरर्थक्य हो जाता । उपर्युक्त रीति से जातिभेदों के असंख्यात होने पर भी जाति के मुख्य भेदों का परिगणन न्यायसूत्र में किया गया है- 'साधर्म्य वैधम्र्योत्कर्षापकर्षवत्रयविकल्पसाध्यप्राप्त्य-प्राप्तिप्रसंगप्रतिदृष्टान्तानुत्पत्ति संशय प्रकरणा हेत्वार्थापत्यविशेषोपपत्त्युपलब्ध्य नुपलब्धिनित्यानित्य कार्यसमा इति I * द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं परं प्रत्येकमभिसंबध्यते ' - इस नियम के अनुसार 'सम' शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध होता है । जैसे - साधर्म्यसम, उत्कर्षसम वैधर्म्यसम, अपकर्षसम आदि । (१) साधर्म्यम तथा ( २ ) वैधर्म्य सम सूत्रकार ने साधर्म्यसम और वैधर्म्यसम इन दो जातिभेदों का सम्मिलित रूप से एक ही सूत्र में लक्षण दे दिया है--' साधर्म्य वैधर्म्याभ्यामुपसंहारे तद्धर्मविपर्ययोपपत्तेः साधर्म्य वैधर्म्य समौ' ।' साधर्म्य अर्थात् अन्वय से और वैधर्म्य अर्थात् व्यतिरेक से 1. ( अ ) न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. १६७ (ब) न्यायसारपदपञ्चिका ६५ 2. न्यायसारपदपञ्चिका, पृ. ६५ 3. न्यायसूत्र 4. 28 1 १।२।२० ५।१८१ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १५९ दृष्टान्त का कथन करने पर दृष्टान्तधर्म के विपर्यय अर्थात् प्रतिष्टान्तधर्म के भव से वादिप्रतिपादित धर्म का जो प्रतिषेध किया जाता है, उन्हे क्रमशः साधर्म्यसम और वैधय॑सम कहते हैं। जैसे-वादी द्वारा 'अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् पटवत्' इस प्रकार शब्द में अनित्यत्वसिद्धि के लिये अन्यव्याप्ति के उदाहरण का कथन करने पर प्रतिवादी उसके पक्ष का खण्डन करता है कि यदि अनित्य पट से समानता के कारण शब्द को अनित्य माना जाता है, तो नित्य आकाश से अमूर्तत्वरूप समानता के कारण शब्द को नित्य क्यों न माना जाय ? अनित्य पट से साधर्म्य के कारण शब्द को अनित्य ही माना जाय, नित्य आकाश से साधर्म्य होने पर भी शब्द को नित्य नहीं माना जाय-इस प्रकार शब्द और पट के कृतकत्वरूप साधर्म्य के आधार पर शब्द को वादी द्वारा अनित्य बतलाने पर प्रतिवादी शब्द और आकाश में अमूर्तत्वसाधर्म्य से शब्द को नित्य बतलाता है । साधर्म्य से प्रयुक्त हेतु का साधर्म्य हे प्रतिषेध करने के कारण यह साधर्म्यसम जाति कहलाती है। इसी प्रकार नित्य आकाश से अमूर्तत्व साधर्म्य के बल से जब प्रतिवादी शब्द के अनित्यत्व का खण्डन करता है, तो वादी अपने पक्ष को पुनः सिद्व करने के लिये 'यन्नित्यं तदकृतकं दृष्टं यथाकाशम्' इस प्रकार वैधर्म्य अर्थात् व्यतिरेका व्याप्ति से साधन का प्रयोग करता है। तब प्रतिवादी भी शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिये कहता है कि यदि नित्य आकाश से वैधम्ये के कारण शब्द को अनित्य मानते हो, तो अनित्य घट के साथ शब्द के नीरूपत्व तथा अमूर्तत्वरूप वैधर्म्य के कारण शब्द को नित्य मानना चाहिये । प्रतिवादी का अनुमानवाक्य 'नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात, यदनित्यं तन्मूर्त दृष्टं तथा घटः' इत्याकारक है। इस मान्यता में कोई विशेष हेतु दृष्टिगोचर नहीं होता है कि निय आकाश से कृत. कत्वरूप वैधर्म्य के कारण शब्द अनित्य है और अनित्य घटादि से अमूर्तस्वरूप बैधयं के कारण नित्य नहीं । इस प्रकार नित्य आकाश से वैधर्म्य ( कृतकत्व) के कारण वादी द्वारा शब्द को अनित्य सिद्ध करने पर प्रतिवादी अनिय घट स वैधर्म्य (अमूर्तत्व) के बल से शब्द के अनित्यत्व का खण्डन करता है, अतः यह वैधर्म्यसम जाति कहलाती है। इन दो जातियों का समाधान प्रस्तुत करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है'अविनाभाविनः साधर्म्यस्य वैधर्म्यस्य च हेतुत्वाभ्युपगमादप्रसंगो धूमादिवदिति ' । अविनाभूत् अर्थात् पंचरूपोपपन्न हेतु से ही किसी साध्यविशेष की सिद्धि होती है, अन्य से नहीं । जैसे-अग्निमान् समस्त महानसादि सपक्षों से साधर्म्य के कारण तथा अग्निहित समस्त महानसादि विपक्षों से वैधर्म्य के कारण धूम से ही पर्वतादि पक्ष में अग्निमन्त्र की सिद्धि होती है। अर्थात् 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः, यथा महानसे' 'यत्र वह्वयभावस्तत्र धूमाभावः यथा महादेः' -इत्याकारक 1. न्यायसार, पृ. १५ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० न्यायसार दोनों व्याप्तयों से धूम का वह्नि से अव्यभिचरित साहचर्य सिद्ध होता है । परन्तु इसके विपरीत अग्निमान् तथा अग्निरहित दोनों प्रदेशों में विद्यमान वृक्षादि के सम्बन्ध को देखकर यदि कोई कहे-'पर्वतो वह्निमान, वृक्षादिसम्बन्धात्, तो यह सर्वथा अपंगत होगा, क्योंकि 'वत्र वृक्षादिसम्बन्धस्तत्र बहूनिः', 'यत्र वढून्यभावस्तत्र वृक्षादिसम्बन्धाभावः' -ये व्याप्तियां कदापि नहीं बन सकती । अतः समस्त अनित्यों में विद्यमान तथा समस्त नित्यों में अविद्यमान अविनाभूत कृतकत्वादि धर्म ही अनित्यत्व को सिद्ध करने में समर्थ हैं, न कि अभिनाभावरहित अमूर्तत्व आदि धर्म, क्योंकि अमूर्तत्व एकान्ततः नित्यों में न होक : अनित्य बुद्वि आदि में ही रहता है। नित्य आकाश से साधर्म्य के कारण शब्द नित्य नहीं है तथा अनित्य पट से साधर्म्य क कारण अनित्य है-इस मान्यता में कोई विशेष कारण नहीं है, जातिवादी का यह कथन भी असंगत है, क्योंकि 'कृतकत्व' हेतु में स्वसाध्य अनित्यत्व से अविनाभावित्व है और 'अमूर्तत्व' हेतु में स्वसाध्य नित्यत्व से अविनाभावित्व नहीं है, अतः दोनों हेतुओं में स्पष्टतया ज्ञायमान विशेष को नकारना निरी मूर्खता है। उत्कर्षसम. अपकर्षसम, वर्ण्यसम, अवर्यसम, विकल्पसम तथा साध्यसम इन ६ जातिभेदों का निरूपण करते हुए भासर्वज्ञ ने सूत्रकारोक्त लक्षणसत्र ही न्यायसार में उद्धृत कर दिया है-'साध्यदृष्टान्तयोर्धर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षः बावर्ण्यविकल्पसाध्यसमाः'।' इस सूत्र को उद्धृत करते हुए कहा है कि यहां ६ जातिभेदों के लक्षण कहे गये हैं, अतः ६ वाक्य समझे जाने चाहिये ।' उन छह वाक्यों का उल्लेख उत्कर्षसमादि जातिभेदों का उदाहरण देते हुए किया गया है। (३) उत्कर्षसम भासर्वज्ञ ने उत्कर्षसम का 'साध्ये दृष्टान्तादनिष्टधर्मप्रसंगः उत्कर्षसमः" यह लक्षण किया है अर्थात् साध्यधर्म वाले पक्ष में दृष्टान्त की समानता से अविद्यमान धर्म का आपादान उत्यर्षसम जाति कहलाती है। जैसे, वादी द्वारा 'शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात् घटवत्' इस अनुमान से शब्द में अनित्यत्व का अनुमान करने पर प्रतिवादी उसका खण्डन करता हुआ कहता है कि यदि कृतकत्व के कारण घट की तरह शब्द अनित्य है, तब घट की तरह वह सावयव भी होना चाहिये । इस प्रकार दृष्टान्त घट की समानता से पक्ष शब्द में अविद्यमान सावयवत्व धर्म का आपादन उत्कर्षसम जाति है। 1. न्यायसूत्र, ५।१४ 2. न्यायभूषण, पृ. ३४. 3. न्यायसार, पृ. १८ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १६१ (४) अपकर्षसम यहां भो उत्कर्षसम की तरह दृष्टान्त की समानता से पक्ष में अनिष्ट धर्म का आपादन होता है. किन्तु उत्कर्षसम में दृष्टान्त की समानता से पक्ष में अविद्यमान अनिष्ट धर्म का आपादन होता है और अपकर्षसम में दृष्टान्त की समानता से पक्ष में विद्यमान इष्ट धर्म के अभाव का आपादन । अतः विद्यमान इष्ट धर्म को निवृत्तिरूप अपकर्ष के कारण इसे अपकर्षसम संज्ञा प्रदान को गई है। जैसे-यदि कृतकत्व होने पर भी शब्द में सावयवत्व अभीष्ट नहीं है, तब उसमें अनित्यत्व भी नहीं माना जा सकता । अपकर्षसम का दूसरा उदाहरण है-कृतक घट श्रवणेन्द्रियग्राह्य नहीं है, इसलिये शब्द भो कृतकत्व के कारण श्रावण नहीं है, तो विशेषाभाव के कारण अनित्य भी नहीं होना चाहिये । उदाहरण के अनुसार अपकर्षसम का यह लक्षण किया जा सकता है.--'साध्ये इष्टधर्मनिवृत्तिरपकर्षसमः'। (५) वर्ण्यसम (६) अवर्ण्यसम शब्द की तरह घट में भी कृतकत्वामनुमान से वर्ण्यता का आपादन वर्ण्यसम जाति है । जैसे-'शब्दः अनित्यः कृतकत्वात् घटवत्' इस अनुमान में जैसे शब्द कृतकत्व के द्वारा वर्ण्य है वैसे दृष्टान्त घट भी कृतकत्व के द्वारा ही वर्ण्य होगा और ऐसा मानने पर वह साध्य हो जायेगा और उसकी सिद्धि के लिये अन्य दृष्टान्त का उपादान करना होगा । अन्य दृष्टान्त भी पूर्व दृष्टान्त की तरह वर्ण्य होगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर दृष्टान्तों के कृतकत्वानुमान द्वारा वर्ण्य मानने पर अनवस्था दोष को आपत्ति होगी । अनवस्था दोष के परिहारार्थ यदि घट को अवर्ण्य माना जायेगा, तो शब्द को भी घट की तरह अवर्ण्य मानना होगा और तब अवर्ण्यसम जाति होगी। 'न्यायसार' में इनके निरूपण न करने का कारण इन दोनों भेदों की वस्तुतः साध्यसम से अभिन्नता है ।। (७) विकल्पसम समान धर्म वाले पदार्थो में विद्यमान धर्मभेद के साम्य से प्रकृत में भी धर्मभेद मानकर अनिष्ट धर्म का आपादन विकल्पसम जाति है। जैसे, कृतकत्व धर्म से युक्त सभी पदार्थ एक जैसे नहीं देखे जाते हैं, किन्तु उनमें धर्मभेद देखा जाता है। जैसे-बुद्धि, पट और घट तीनों कृतक हैं, परन्तु बुद्धि अमूर्त है, पट मूर्त और घट कठिन । इस तरह कृतक पदार्थों में धर्मभेद अनुभवसिद्ध है। इसी प्रकार घट की तरह शन्द के कृतक होने पर भी उनमें नित्यत्व व अनित्यत्व अवान्तर धर्मभेद मानकर शब्द में कृतकत्व के अवान्तर धर्म नित्यत्व का आपादान विकल्पसम जाति है। 1. एतौ च साध्यसमादुक्तियेदमात्रेण भिन्नो तेन संग्रहे न व्याख्यातो। -न्यायभूषण, पृ. ३४५ भान्या-२१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ न्यायसार (८) साध्यसम समान धर्म वाले पदार्थो में एक के साध्य होने से तत्साम्य से दूसरे सिद्ध पदार्थ में भी साध्यता का आपादन साध्यसम जाति है । जैसे-यदि कृतक होने से शब्द और घट दोनों अनित्य हैं. तब अनित्य होने से दोनों को साध्य मानना चाहिये या किसी को नहीं। यदि समान रूप से दोनों के कृतक होने पर भी दोनों में साध्यत्व नहों, किन्तु एक में है, तो इसी साम्य से दोनों में अनित्यत्व नहीं मानना चाहिये । इस रीति से शब्द में अनित्यत्वाभावरूप अनिष्ट का आपादन साध्यसम जाति है। उत्कर्षसमादि ६ जातियों का उत्तर इन जातियों का उत्तर सूत्रकार गौतम ने 'किंचित्साधादुपसंहारसिद्भवैधादप्रतिषेधः" इस सूत्र के द्वारा दिया है। सत्र में उपसंहार शब्द क्रमशः अधिकरणव्युत्पत्ति से दृष्टान्त तथा साध्य का बोधक है। सिद्धि का अर्थ निश्चय है। महानसादि सपक्षों में तथा पर्वतादि पक्षों में धूमवत्त्वरूप किंचित् साधर्म्य ही है, पूर्ण साधर्म्य नहीं। किंचित् साधर्म्य से इनमें उपसंहारव्यवस्था (साध्यदृष्टान्तभावव्यवस्था) हो जाती है । यह आवश्यक नहीं कि पर्वतादि पक्षों और महानसादि दृष्टान्तों में सभी धर्म समान हों। धर्मविकल्प होने पर भी उनमें सर्वलोकप्रसिद्ध साध्य दृष्टान्तभावव्यवस्था देखी गई है तथा महानसादि के समस्त धर्मो की पर्वतादि में सिद्धि नहीं होती, अपि तु अग्निमत्त्व की होती है और महानसीय समस्त धर्मों की पर्वत में सिद्धि न होने पर भी पर्वत में अग्निमत्त्व का अभाव नहीं माना जा सकता और न पर्वतादि में दृष्ट धर्मों की महानसादि में अनुपलब्धिमात्र से निवृत्ति होती है । न घूमवान् महानसादि प्रदेशों में धर्मभेद की तरह अग्निमत्त्व का भेद होता है। इसी प्रकार सपक्ष महानसादि में अग्नि के अनुमेय होने से महानसीय अग्नि को अनुमेय माना जा सकता है । यह सब व्यवस्था व्यवहार में प्रसिद्ध है तथा शास्त्रों में स्वीकृत है। इसका अपलाप करने पर लोक और शास्त्र से विरोध होगा तथा समस्त अनुमान अप्रमाण हो जायेगे और इस प्रकार सभी अनुमानों में उत्कर्षसम और अपकर्षसमादि जातियां उद्भावित होने लग जायेंगी । इसलिये यह मानना होगा कि साध्य और दृष्टान्त में किंचित् साधर्म्य से साध्यदृष्टान्तभावव्यवस्था हो जाने पर अन्य असमानताओं (वैधयो) के आधार पर उस व्यवस्था का प्रतिषेध उचित नहीं । 'साध्यातिदेशाच्च दृष्टान्तोपपत्तः '1 -इस न्यायसत्र से भी यह सिद्ध है कि वादिप्रतिवादिसम्मत जिस वस्तु के द्वारा पक्ष में साध्य का अतिदेश किया जाता है, वह दृष्टान्त ही होता है, साध्य नहीं । 1. न्यायसूत्र, ५.११६ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १६३ (९) प्राप्तिसम (१०) अप्राप्तिसम प्राप्तिसम और अप्राप्तिसम का रक्षण प्राप्य साध्यमप्राप्य वा हेतोः प्राप्त्या विशिष्टत्वादप्राप्त्या साधकत्वाच्च प्राप्त्यप्राप्तिसमौ'1 इस न्यायसत्र में निर्दिष्ट है । अर्थात् हेतु साध्य से सम्बद्ध होकर साध्य को सिद्ध करेगा, तो दोनों में प्राप्ति के कारण समानता से साध्यसाधनभाव नहीं होगा, यह प्राप्तिसम है और असम्बद्ध हेतु से साध्यसिद्धि मानने पर असम्बद्धता के कारण वह साध्य को सिद्ध नहीं कर सकेगा, यह अप्राप्तिसम जाति है । तात्पर्य यह है कि हेतु साध्य से सम्बन्धित होकर साध्य की सिद्धि करता है अथवा असम्बद्ध होकर । असम्बद्ध होकर साध्य सिद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि साध्य और हेतु दोनों सम्बद्धत्वेन समान हैं। ऐसी स्थिति में जैसे संयुक्त दो अगुलियों में साध्यसाधनभाव नहीं हो सकता, उसी प्रकार सम्बद्ध हेतु और साध्य में साध्यसाधनभाव नहीं उपपन्न होगा। साध्य से असम्बद्ध हेतु भी साध्य की सिद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि जिस प्रकार असम्बद्ध काष्ठ को अग्नि जला नहीं सकता, असंयुक्त घटादि को प्रदीप प्रकाशित नहीं कर सकता, उसी प्रकार असम्बद्ध हेतु साध्यसिद्धि में समर्थ नहीं हो सकेगा। इन दो जातियों का उत्तर सूत्रकार ने 'घटादिनिष्पत्तिदर्शनात् पीडने चाऽभिचारादप्रतिषेधः इस सत्र के द्वारा दिया है । इस सत्र के प्रथमार्ध में प्राप्तिसम का खण्डन है और उत्तरार्द्ध में अत्राप्तिसम का । अर्थात् जैसे यद्यपि मृपिण्ड और कुम्भकार संयुक्त हैं तथापि कुम्भकारादि द्वारा मृत्पिण्ड ही घटरूप से निर्मित होता है न कि मृत्पिण्ड से कुम्भकार | तथा प्रदीप और घटसंयुक्त हैं, परन्तु प्रदीप घट को प्रकाशित करता है. न कि घट प्रदीप को । इसी प्रकार बनि और धूम दोनों प्राप्त (संयुक्त) हैं, परन्तु साधकत्व धूम में ही है, वनि में नही यह लोकव्यवस्था हैं । भिचारादि कर्म दूरस्थ पुरुष से संयुक्त न होता हुआ भी उसे पीडित कर देता है। इसलिये यह कोई ऐकान्तिक नियम नहीं कि हेतु साध्य से संयुक्त अथवा असंयुक्त होकर ही उसकी सिद्धि करे । पदार्थों के धर्म व्यवस्थित है, अतः धूम तथा वहूनि के सम्बन्ध या असम्बन्ध के दोनो में समानरूप से रहने पर भी धूमादि में साधनाव ही है और वह्नयादि में साध्यत्व धर्म ही है। इन धर्मों की प्रतिनियत-पदार्थवृत्तिता का अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनका अपलाप या निराकरण करना सर्वप्रमाणविरद्ध है। (११) प्रसंगसम और (१२) प्रतिदृष्टान्तसम प्रसंगसम और प्रतिदृष्टान्तसम जातियों का लक्षण सूत्रकार ने 'दृष्टान्तस्य कारणान पदेशात् प्रत्यवस्थानाच्च प्रतिदृष्टान्तेन प्रसंगप्रतिदृष्टान्तसमौ' इस सूत्र के द्वारा बतलाया है। किसी अनुमान के दृष्टान्तभूत पदार्थ में कारण अर्थात् दृष्टान्त का 1. वही, ५११७ 2. न्यायसूत्र, ५/११८ 3. न्यायसूत्र, ५।११ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ न्यायसार कथन न करना प्रसंगसम है । जैसे-'शब्दः अनित्यः कृतकत्वात् घटवत्' इस शब्दानित्यत्वसाधक अनुमान में दृष्टान्तभूत घट की अनित्यता में किसी दृष्टान्त का न बतलाना प्रसंगसम जाति है। क्योंकि घट की अनित्यता में कारण अर्थात् दृष्टान्त बतलाये बिना घट में ही अनित्यता की सिद्धि नहीं, तब उसके दृष्टान्त से शब्द में अनित्यता कैसे सिद्ध हो सकती है? प्रतिदृष्टान्त के द्वारा साध्य का प्रतिषेध प्रति दृष्टान्तसम जाति है। जैसे-वादी 'शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात् घटवत्' इस अनुमान द्वारा घट दृष्टान्त उपन्यस्त कर कृतकत्व हेतु से शब्द में अनित्यत्व सिद्ध कर रहा है। किन्तु 'शब्दः नित्यः श्रोत्र. ग्राह्यत्वात्' इस अनुमान द्वारा शब्दत्वरूप प्रतिदृष्टान्त पूर्व अनुमान द्वारा साध्य अनित्यत्व का प्रतिषेध करता है। क्योंकि घटादि दृष्टान्त से शब्द अनित्य ही हो और शब्दत्वदृष्टान्त से नित्य नहीं, ऐसा मानने में कोई विशेष कारण नहीं दीखता। न्यायसार में प्रसंगसम और प्रतिदृष्टान्तसम का निरूपण नहीं किया गया है। इस विषय में स्पष्टीकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने न्यायभूषण में कहा है कि प्रसंगसम में साध्यसम से कोई विशेषता नहीं ।' साध्यसम की तरह प्रसंगसम में भी दृष्टान्त घट को साध्य ही मान लिया जाता है। अतः केवल नाम का भेद है । इसी प्रकार प्रतिदृष्टान्तसम साध्यसम व वैधय॑सम से अविशिष्ट है, उनमें नाममात्र का भेद है। क्योंकि साधर्म्यसम व वैधर्म्यसम में भी प्रतिदृष्टान्त के द्वारा साध्य का प्रतिषेध या अभाव बतलाया जाता है तथा जाति के कतिपय भेदों के निरूपण की प्रतिज्ञा की है न कि उसके समस्त भेदों के निरूपण को। अतः इनका निरूपण न करने पर भी किसी प्रकार प्रतिज्ञा की हानि नहीं है। प्रसंगसम जाति दोष का उद्धार सूत्रकार ने 'प्रदीपोपादानप्रसंगविनिवृत्तिवत्तद्धिनिवृत्तिः' इस सूत्र द्वारा किया है । जिस प्रकार घटादि के प्रकाशन के लिये उपादीयमान प्रदीप के स्वप्रकाश होने से उनके प्रकाशनार्थ अन्य प्रदीप का उपादान अपेक्षित नहीं होता, उसी प्रकार दृष्टान्त में अनित्यत्वादिधर्मसिद्धि के लिये अन्य दृष्टान्त की अपेक्षा नहीं, क्योंकि उसमें अनित्यता को सिद्धि अन्य दृष्टान्त के बिना प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है और प्रत्यक्ष में किसी दृष्टान्त की आवश्यक्ता नहीं। प्रतिष्टान्तसम दोष का उद्धार सूत्रकार ने 'प्रतिदृष्टान्तहेतुत्वे च नाहेतर्दृष्टान्तः'। इस सूत्र के द्वारा किया है । अर्थात् प्रतिवादी ने वादी के अनुमान में प्रतिदृष्टान्त का कथनमात्र किया है, किन्तु दृष्टान्त में किसी प्रकार के दोष का उद्भावन नहीं किया । अतः दृष्टान्त निर्दुष्ट है और वह साध्य कः साधक है। प्रतिदृष्टान्त के कथनमात्र से दृष्टान्त साध्य का असाधक नहीं हो सकता । 1. न्यायभूषण, पृ. ३४७ 2. न्यायसूत्र, ५/१/१० 3. वही For Private & Personal use only. | Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १६५ (१३) अनुत्पत्तिसम सूत्रकार ने 'प्रागुत्पत्तेः कारणामावादनुत्पत्तिसमः'1 यह अनुत्पत्तिसम जाति का लक्षण किया है । अर्थात् उत्पत्ति से पूर्व शब्द की अनित्यता का कोई कारण नहीं, अतः वह नित्य है और नित्य की उत्पत्ति नहीं । जैसे, अनुत्पत्ति के द्वारा शब्द में अनित्यत्वरूप साध्य का प्रतिषेध किया जाता है अतः इसे अनुत्पत्तिसम कहा गया है । 'अनित्यः शब्दः कार्यत्वात्' इस अनुमान में कार्यत्व हेतु अनुत्पत्तिसम दोष से ग्रस्त है । तात्पर्य यह है कि कार्य उसी पदार्थ को कहा जाता है, जो किसी के प्रयत्न से निष्पादित हो । जब तक शब्द के उत्पादन का प्रयत्न किसी ने नहीं किया, तब तक शब्द को कार्य नहीं कहा जा सकता । अतः उसमें कार्यत्व हेतु का अभाव है। कार्यत्व न होने से नेत्यत्व नहीं, किन्तु नित्यत्व ही है । जव अपनी उत्पत्ति के पहिले शब्द में नित्यता स्थापित हो जाती हैं, तब उसमें कार्यत्व (उत्पाद्यत्व) ही संभव नहीं। तब कायत्व से शब्द की अनित्यता कैसे सिद्ध हुई ? अतः कार्यत्व हेतु अनुत्पत्तिसम दोष से ग्रस्त है। इस दोष का उदोर सूत्रकार ने 'तथाभावादुत्पन्नस्य कारणोपपत्तरप्रतिषेधः' इस सत्र द्वारा किया है । अर्थात् किसी वस्तु को नित्य या अनित्य तभी कहा जा सकता है, जबकि उसका स्वरूप सिद्ध हो। रव पुष्प के समान जिसका स्वरूप ही सिद्ध नहीं, उसे नित्य या अनित्य कुछ भी नहीं कह सकते । अतः उत्पत्ति से पहिले शब्दरूप धर्मी की सत्ता न होने से उसमें नित्यत्व धर्म की सत्ता कैसे कही जा सकती है? प्रयत्नपूर्वक उच्चारित शब्द का स्वरूप जब निष्पन्न होता है, तब उसमें अनित्यता का साधक कायव उपपन्न हो जाता है, अतः नित्य शब्द की उत्पत्ति अनुपपन्न होने से हेतु को अनुत्पत्तिसम बतलाना अनुचित है। (१४) संशयसम संशयसम का लक्षण सत्रकारने सामान्यदृष्टान्तयोरेन्द्रियकत्वे समाने नित्यानित्यसाधात् संशयममः' इस सूत्र द्वारा किया है। अर्थात् ऐन्द्रियकत्व हेतु के नित्य सामान्य और अनित्य घटाटि में समानरूप से रहने के कारण उस हेतु के नित्यत्वानित्यत्वसाधारण होने से शब्द में अनियत्व का सन्देह बना रहता है। यदि संशय का कारण होने पर भी संशय अभीष्ट नहीं. तब फिर निश्चय का कारण होने पर भी निश्चय नहीं होगा । इस प्रकार यहाँ संशय द्वारा अनिष्टापादन संशयसम जाति कहलाती है। 1. न्यायसूत्र, ५।९।१२ 2. वही, ५।१।१३ 3. वही, ५११४ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ न्यायसारं इसका उद्धार सत्रकार ने 'साधात्संशये न संशयो वैधादुभयथा वा संशयेऽ. त्यन्तसंशयप्रसंगः । नित्यत्वानभ्युपगमाच्च सामान्यस्याप्रतिषेधः1 इस सूत्र द्वारा किया है। किसी साधर्म्य के कारण संशय होने पर वैधयं के कारण सशय की निवृत्ति हो जाती है । साधर्म्य तथा वैधर्म्य दोनों से ही संशय मानने पर अत्यन्त संशय होगा और उसकी निवृत्ति नहीं होगी तथा सामान्य सर्वदा संशय का कारण नहीं होगा अर्थात् विशेष दर्शनकाल में सामान्यदर्शन संशय का कारण नहीं होता। अन्यथा शिरःपाण्यादि-विशेष दर्शन-काल में ऊर्ध्वत्वादि धर्म पुरुष में स्थाणसंशय के कारण हो जाते । तात्पर्य यह है कि सामान्यधर्मदर्शन से संशय तमी तक होता है, जब तक कि विशेषदर्शन न हो । जब स्थाण में पुरुषत्वव्याप्य शिर:पाण्यादि विशेष का दर्शन हो जाता है, उस समय ऊर्धत्वादि-सामान्यसामग्री संशय को जन्म नहीं दे सकती, क्योंकि विशेषादर्शन भी उसको एक सामग्री है। विशेषदर्शन के रहते विशेषादर्शनघटित सम्पूर्ण सामग्री का सद्भाव नहीं हो सकता । प्रवृत्त में कार्यत्वहेतुदर्शन विशेष दर्शन है । अतः उसके सद्भाव में ऐन्द्रियकत्वरूप सामान्यदर्शन' 'शब्दो नित्यो न वा' इस प्रकार के संशय का उत्पादन नहीं कर सकता । न्यायसार मे विस्तार के परिहार के लिये इसका पृथक् अभिधान नहीं किया है। (१४) प्रकरणसम प्रकरणसम का 'उभयसाधाप्रक्रियासिद्धेः प्रकरणसमः' यह सौत्र लक्षण है। सत्र में उभयसाधर्म्य शब्द 'उभयं च तत् साधर्म्यम्' इस व्युत्पत्ति से साधर्म्यद्वय का बोधक है । 'प्रक्रियत इति' इस व्युत्पत्ति से प्रक्रिया शब्द पक्ष और प्रतिपक्ष का बोधक है । अतः साधर्म्यद्वय से या वैधर्म्यद्वय से पक्ष और प्रतिपक्ष की सिद्धि प्रकरणसम जाति है, यह सत्रार्थ है । अनित्य घटादि के साथ कृतकत्व साधर्म्य के कारण पक्ष की अर्थात् वादी के पक्ष शब्दानित्यत्व की सिद्धि होती है और नित्य आकाशादि के साथ अमूर्तत्व साधम्य के कारण प्रतिपक्ष की अर्थात् प्रतिवादी के पक्ष शब्दनित्यत्व की सिद्धि होती है। साधर्म्य का ग्रहण वैधयं का भी उपलक्षण है। अर्थात् जैसे दो साधों से पक्ष प्रतिपक्षसिद्धि प्रकरणसम है, उसी प्रकार उभयवैधर्म्य से भी पक्ष, प्रतिपक्ष की सिद्धि होने पर प्रकरणसम होता है अर्थात एक वैधर्म्य पक्ष की सिद्धि करता है, तो दूसरा वैधयं प्रतिपक्ष की । जैसे, शब्द में पटादि से अनित्यत्व साधर्म्य के कारण अनित्यत्व की सिद्धि है, तो आकाशादि में वर्तमान अमूर्तत्व साधर्म्य के कारण शब्द में नित्यत्वरूप प्रतिवादी के पक्ष की सिद्धि है, अतः यह प्रकरणसम है । 1. न्यायसूत्र, ५/१/१५ 2. न्यायभूषण, पृ. ३४९ 3. न्यायसूत्र, ५।११६ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... भासर्वज्ञ की मान्यता है कि इस जातिभेद का भी साधर्म्यसम और वैधर्म्यसम नामक जातिभेदों से नाममात्र का भेद है । इस लिये न्यायसार में इसका निरूपण नहीं किया है, परन्तु नाममात्र का भेद बतलाकर भी भासर्वज्ञ ने इसका साधर्म्यसम व वैधय॑सम से स्वल्प भेद का प्रतिपादन किया है । विरुद्धाव्यभिचारी को तरह त्रिरूपसाधर्म्य द्वारा साध्य प्रकरणसम होता है और साधर्म्यमात्र से साध्य का प्रतिषेध साधर्म्यसम है-इस प्रकार दोनों का स्वरूप लक्षण्य भी है। इसी लिये अपरार्क ने कहा है कि आंशिक वैलक्षण्य होने पर भी न्यायसार में इसके अकथन का कारण अभेद नहीं, अपितु विस्तारमय ही है। जब प्रतिवादी के स्तम्भनार्थ ही द्वितीय हेतुप्रयोग होता है, तब विरुद्धाव्यभिचारी हेत्वाभास होता है और जब द्वितीय वादी भी स्वपक्ष के निश्चय का अभिसन्धान कर प्रतिहेतु का प्र प्रयोग करता है, तब प्रकरणसम होता है । इस प्रकार से भी दोनों का भेद अपरार्क ने बतलाया है । इस दोष या उद्धार सत्रकार ने 'प्रतिपक्षात्प्रकरणसिद्धेः प्रतिषेधानुपपत्तिः प्रति पक्षोपपत्तेः' इस सत्र के द्वारा किया है । अर्थात् वादिसम्मत प्रथम साधन से वादिपक्ष की सिद्धि हो जाने पर उस हेतु को निर्दोषता के कारण द्वितीय पक्ष का उत्थान नहीं होता, अतः प्रकरणसम नहीं बन सकता । सत्र में द्वितीय पक्ष की अपेक्षा से प्रथम साधन ही प्रतिपक्ष कहा गया है। अतः प्रतिपक्ष अर्थात प्रथम साधन से प्रथम पक्ष की सिद्धि हो जाने पर उसके प्रतिषेध की उपपत्ति ही नहीं होतो अर्थात द्वितीय पक्ष का उत्थान ही संभव नहीं होता, क्योंकि प्रथम साधन निर्दुष्ट है । अतः शब्दानित्यत्व का साधक कृतकत्व निर्दुष्ट साधन है, उससे शब्द में अनित्यत्व सिद्ध हो जाने पर शब्दनित्यत्व के साधक अमूर्तत्वानुमान का उत्थान हो संभव नहीं है । अत यहां प्रकरण समदोष से अनिष्टापादन संभव नहीं हो सकता। (१६) अहेतुसम हेतु की तीनों कालों में असिद्धि अहेतुसम है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है'त्रैकात्यासिद्धेहेंतोरहेतुसमः' । अर्थात् वर्तमान, भूत व भविष्यत् किसी भी काल में हेतु की सत्ता उपपन्न न होने पर अहेतुसम कहलाता है। यदि साध्य से पहिले हेतु की सत्ता मानी जाय. तो उस समय साध्याभाव की दशा में हेतु किसका साधन होगा ? साध्य के बाद साधन की सत्ता मानी जाय, तो साधन से पूर्व साधन के बिना साध्य की उत्पत्ति ही कैसे होगी और साध्य के समकाल में अविद्यमान 1. अस्यापि साधम्यवधम्यसमाभ्यामक्तिमात्रेण भेद: ।-न्यायभूषण, पृ ३४९ 2. न्यायभूषण, पृ. ३४९ 3. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. २६३ 4. न्यायसूत्र, ५/१1१७ 5. बही, ५/१/१८ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ न्यायसार हेतु साधन कैसे हो सकता है ? यदि साध्य और साधन की युगपत् स्थिति मानी जाय, तो दोनों के एककाल में विद्यमान होने से तुल्यता के कारण कौन किसका साधन होगा ? इस प्रकार कालत्रय में हेतु को अहेतु अर्थात साध्य से अविशिष्ट अनिष्टापादन अहेतुसम जाति कहलाती है। इसका समाधान सूत्रकार ने 'न हेतुतः साध्यसिद्धेः' इस सूत्र के द्वारा किया है। कारक या ज्ञापक हेतु के बिना किसी कार्य या ज्ञाप्य साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि लोकसिद्ध साध्यसाधनभाव का कुतर्कवशात् अपलाप किया जायेगा, तब फिर सभी हेतु अहेतु हो जायेंगे और किसी को कहीं प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति नहीं हो पायेगी । समस्त जगत् अन्धमूक की तरह क्रियाशून्य हो जायेगा। अतः हेतु से ही साध्यसिद्धि माननी होती है। साध्यों के साथ हेतुओं का पूर्वभाव, भाव और सहभाव अनुभव के अनुसार माना जाता हैं। जैसे-कारक हेतु सदा साध्य कार्य से पहिले ही होता है और ज्ञापक हेतु कोई साध्य से पर्वमा होता है। जैसे-ज्ञायमान रूपादि को ज्ञापक चक्षु, सयें आदि हेतु । कोई ज्ञापक हेतु साध्य से पश्चााधी होती है। जैसे-अग्नि, आकाश तथा आत्मा के ज्ञापक हेतु धूम, शब्द व इच्छादि गुण साध्य अग्न्यादि के कार्य होने से पश्चाद्भावी हैं। कोई ज्ञापक हेतु साध्यसहभावी होता है। जैसे-रूपादि स्पर्शादि के ज्ञापक हैं और वे ज्ञाप्य ज्ञापक द्रव्य में साथ उत्पन्न होने से सहभावी हैं । अतः कृतकस्वादि हेतु को त्रैकाल्पासिद्धि न होने से उसके हेतु में साध्यत्वरूप अनिष्टापादन संभव नहीं । तीनों कालों में प्रतिषेध के अनुपपन्न होने से भी अहेतुसम नहीं बन सकता, जैसाकि सूत्र में कहा गया है-'प्रतिषेधानुपपत्तेश्च' । प्रतिषेध प्रतिय से पहिले होता है या पश्चात् या प्रतिषेध्य के साथ अर्थात् एककाल में । यदि पहिले होता है, तब प्रतिषेध्य के अभाव में प्रतिषेध अनुपपन्न होगा । यदि बाद में होता है, तो प्रतिषेध्यकाल में प्रतिषेध के न होने से वह प्रतिषेध्य कैसे कहलायेगा अर्थात् उसे प्रतिषेध्य कहनो अनुपपन्न होगा। यदि प्रतिषेध प्रतिषेध्य काल में रहता है, तब जिस प्रकार समानकालिक गोशंगों में प्रतिषेधप्रतिषेध्यभाव को अनुपपत्ति है उसी प्रकार प्रतिषेध व प्रतिषेध्य के समानकालिक होने से उनमें प्रतिषेध-प्रतिषेध्यभाव की अनुपपत्ति होगी। इस प्रकार काल्यासिद्धि के कारण प्रतिषेध की उपपत्ति नहीं होती और उसकी अनुपपत्ति में हेतु की निर्दोषता सिद्ध है। 1. न्यायसूत्र, ५११९ 2. . ५११२० Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १६९ (१७) अर्थापत्तिसम अर्थापत्तिसम का लक्षण सूत्रकार ने 'अर्थापत्तितः प्रतिपक्षसिद्धरापत्तिसमः। इस प्रकार किया है अर्थात् अर्थापात्त के कारण जहाँ प्रतपक्ष अर्थात साश्यरूप धर्म से विपरीत धर्म साध्याभाव का आपादन होता है, उसे अर्थापत्तिसम कहते हैं । जैसे-यदि अनित्य घटादि पदार्थो से कार्यत्वरूप साधर्म्य के कारण शब्द में अनित्यत्व वादी द्वारा सिद्ध किया जा रहा है, वहां अर्थात् प्राप्त नित्य द्रव्य आकाशादि के साथ अस्पर्शवत्वरूप साधम्र्य से शब्द में नित्यत्व का आपादन अर्थापत्तिसम है। इसी प्रकार शब्द में नित्य आकाशादि पदार्थों के साथ कार्यत्वरूप वैधर्म्य के कारण अनित्यत्व की सिद्धि वादी करता है, तब अनित्य पदार्थ घटादि के साथ अस्पर्शवत्वरूप वैधयं के कारण शब्द में अनित्यत्वाभावरूप नित्यत्व की सिद्धि का आपादन भी अर्थापत्तिसम है ।। आचार्य भासर्वज्ञ ने न्यायसार में इसका उल्लेख नहीं किया है, क्योंकि साधर्म्यम और वैधय॑सम से इसका नाममात्र का भेद है। परन्तु उन्होंने साधर्म्यसम और वैधर्म्यसम से भेद भी बतलाया है । साधर्म्य से वादी द्वारा शब्द में अनित्यत्व सिद्ध करने पर साधर्म्य से ही प्रतिवादी द्वारा प्रतिपक्षसिद्धिरूप अनिष्ट का आपादान साधय॑सम है तथा वैधर्म्य से वादी द्वारा अनित्यत्वरूप पक्ष की सिद्धि करने पर वैधर्म्य से ही प्रतिवादी द्वारा नित्यत्वरूप प्रतिपक्ष का आपादन वैधम्यसम है । परन्तु वादो द्वारा वैधर्म्य से अनित्यत्वपक्ष की सिद्वि प्रस्तुन करने पर साधयं से प्रनिवादी द्वारा प्रतिपक्षसिद्धिरूप अनिष्ट का आपादन अर्थापत्तिसम कहलाता है । जैसे -आकाशादि नित्य पदार्थों के साथ कार्यत्वरूप वैधर्म्य से शब्द में अनित्यत्व सिद्ध करने पर नित्य पदार्थों के साथ अस्पर्शत्वरूप साधर्म्य के कारण शब्द में आकाशादि की तरह नित्यत्व का आपादन अर्थापत्तिसम है। अर्थापत्तिसम का इस प्रकार स्वरूपभेद होने पर भी न्यायसार में उसका अनभिधान विस्तारभय से ही है, जैसाकि अपरार्क ने कहा है-'तर्हि सम्भवत्येवंविधे भेदे विस्तरभयादनभिधानं संग्रहे' । इसका समाधान सत्रकार ने 'अनुक्तस्यार्थापत्तेः पशहानेरुपपत्तिरनुक्तत्वात" इस सूत्र से किया है । अनुक्त नित्यत्वरूप पक्ष की अर्थापत्त द्वारा सिद्धि चाहने वाले के मत में अनुकत्वसाधर्म्य के कारण नित्यत्वरूप पक्ष की हानि भी प्राप्त हो जाती है। अर्थात् जिस प्रकार अनुक्क नित्यत्वपक्ष की मिद्धि अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार अनुक्त आनेत्यत्व की भी मिद्धि अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है। दूसरी बात यह है कि जिसके बना जिसकी उपपत्ति नहीं होती, 1. न्यायसूत्र, ५।१।२१ 2. अस्यापि साधर्म्यवधर्म्यसमाभ्यामुक्तिमात्रेण भेदः । -न्यायभूषण, पृ ३५० 3. न्यायमुक्तावली, पूर्वभाग, पृ. २६५ 4. न्यायसूत्र, ५।१।२१ भान्या-२२ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार उस अनुपपद्यमान वस्तु का उपपादन करना अर्थापत्ति का स्वरूप है। यदि आकाशादि नित्य पदार्थो के साथ अस्पर्शवत्व साधर्म्य से शब्द में नित्यत्वसिद्धि के बिना शब्द के अनित्यत्र की उपपत्ति न होती तो अनुपपद्यमान शब्दानित्यत्व से उसके उपपादक शब्दनित्यस्व का सिद्धि हो जाती, किन्तु उसके बिना भो कृतकत्व हेतु से शब्द में अनित्यत्व उपपन्न है । अतः अर्थापत्ति द्वारा शब्द में नित्यत्वरूप प्रतिपक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती । तथा शब्द में घटादि पदार्थों के साथ कार्यत्वरूप साधर्म्य से आकाशादि नित्य द्रव्यों के साथ अस्पशंवरूप साधर्म्य की भी अर्थात् प्राप्तिरूप जो वाक्यार्थ-विपर्ययरूप अर्थापत्ति है, वह अव्यभिचारिणी नहीं, अपितु व्यभिचारिणी है, क्योंकि वाक्यार्थविपर्ययरूप अर्थांपत्ति मानने पर 'धन शिलाद्रव्य का पतन होता है' यह कहने पर द्रवद्रव्यों का पतन नहीं होता, इस अर्थ की अर्थात् आपत्ति होती है और यह अर्थ व्यभिचारी है, क्योंकि जलरूप द्रवद्रव्य का भी पतन अनुभवसिद्ध है । अतः ऐसो व्यभिचारिणी अर्थापत्ति को लेकर अनिष्टापादन संभव नहीं है। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने कहा है-'अनेकान्तिकत्वाच्चार्थापत्तेः ।। (१८) अविशेषसम कुछ द्रव्यों में एक धर्म के होने से उनमें समानता मानने पर सत्त्वेन सभी पदार्थो की समानतारूप अनिष्ट का आपादन अविशेषसम जाति है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'एकधर्मोपपत्तरविशेषे सर्वाविशेषप्रसंगात्सद्भावोपपत्तरविशेषसमः' । जैसे, घट और शब्द में कार्यत्व नामक एक धर्म के होने से दोनों में अनित्यत्वेन समानता मानने पर सभी पदार्थो में सत्त्वधर्म के सद्भाव से सभी में अविशेषता का आपादन अविशेषसम है। इसका समाधान निम्न प्रकार से किया गया है-सत्तारूप एक धर्म की उपपत्ति से समस्त पदार्थो में सर्वथा साम्य सिद्ध करने पर प्रत्यक्षादि से विरोध उपस्थित होता है। यदि किसी रूप से साम्य सिद्ध किया जाता है, तो प्रमेयत्वादि धर्म से सभी पदार्थों में साम्य सिद्ध होने से उसका साधन सिद्धसाधन है । अतः यह सिद्ध-साधन है। यदि नित्यत्व अथवा अनित्यत्व से सभी के साम्य का आपादन किया जाय, तो वह अनुमानादि प्रमाण से विरुद्ध है। जैसा कि सत्रकार ने कहा है - 'क्वाचत्तधर्मोपपत्ते क्वचिच्चानुपपत्तेः प्रतिषेधाभावः' । अर्थात् कहीं घटादि में अ नेत्यत्व धर्म की उपपत्ति है क्योंकि कायस्वरूप प्रमाण से सिद्ध है और कहीं आकाशादि में अनित्यत्व धर्म का संभव नहीं, क्यों क आकाशादि में प्रमाण से अनित्यत्व सिद्ध नहीं हैं। अतः सभी पदार्थों में आंवशेषतारूप अनिष्ट का आपादन प्रमाणविरुद्ध होने से सम्भव नही । अथवा घटादि तथा शब्द में अनित्यत्व के 1. न्यायसूत्र, ५.१।२२ 2. वही, ५/१॥२३ 3. वही, ५/११२४ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ कथानिरूपण तथा छल... साधक कार्यत्व धर्म की कारणत्वेन उपपत्ति संभव है, अतः उनमें समत्व का आपादन किया जा सकता है, किन्तु सभी पदार्थों में अविशेषता के आपादक किसी धर्म की कारणत्वेन उपपत्ति संभव नहीं, अतः उनमें समतापादनरूप अनिष्ट का आपादन संभव नहीं । सभी पदार्थो में समतापादक सत्तारूप हेतु भी संभव नहीं, क्योंकि अनवस्थादि दोषों के कारण सामान्यादि में सत्ता की स्थिति संभव नहीं है । (१९) उपपत्तिसम अनित्यत्व व नित्यत्व दोनों के साधक कारणों की उपपत्ति द्वारा साध्य का प्रतिषेध या साध्याभावरूप अनिष्ट का आपादन उपपत्तिसम जाति है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है-'उभयकारणोपपत्तेरुपपत्तिसमः' 11 जैसे, अनित्यत्व के कारण कार्यत्व की उपपत्ति होने से शब्द में अनित्यत्व मानने पर नित्यत्व के कारण अस्पर्शत्व धर्म की भी उपपत्ति होने से उसमें साध्य अनित्यत्व का प्रतिषेध करना या साध्याभावरूप नित्यत्व को आपादन उपपत्तिसम है । वस्तुतः इसका साधर्म्यसम और वैधर्म्यसम से नाममात्र का भेद है । इसलिये भासर्वज्ञ ने इस जाति-भेद का न्यायसार में निरूपण नहीं किया है। उपपत्तिसमदोष का समाधान सूत्रकार ने 'उपपत्तिकारणाभ्यनुज्ञानादप्रतिषेधः' इस सूत्र द्वारा किया है। अर्थात् शब्द में अनित्यत्व के कारण कार्यत्व की उपपत्ति से अनित्यत्व अनुज्ञात है और अनुज्ञात का प्रतिषध उचित नहीं । अतः अस्पर्शवत्व के द्वारा शब्द में अनित्यत्व का प्रतिषेध संभव नहीं। तथा अस्पर्शवत्व के आकाशादि में व्यभिचारी होने से अस्पशवत्व का कारणत्व ही स्वीकृत नहीं है, क्योंकि अव्यभिचारी हेतु हो हेतु होता है, व्यभिचारी नहों । अतः अस्पर्शवत्व के नित्यत्व का साधक न होने से उसके द्वारा शब्द में नित्यत्वापादन या अनित्यत्व का निषेध नहीं किया जा सकता। (२०) उपलब्धिसम निर्दिष्ट कारण के न होने पर भी कार्यत्वरूप साध्य की बुद्धयादि में उपलब्धि होती है, अतः इस उपलब्धि के द्वारा वह कारण साध्य का साधक नहीं, यह आनष्टापादन उपलब्धिसम है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'निर्दिष्ट कारणाभावेऽप्युपलम्भा दुपलब्धिसमः । जैसे, पृथिव्यादि में कार्यत्व का साधक सावयवत्वरूप हेतु कारण. त्वेन निर्दिष्ट है, किन्तु बुद्धयादि में सावयवत्व के अभाव में भी कार्यत्व की उपलब्धि देखी जाती है। अतः यह सावयवत्व हेतु कार्यत्व का साधक नहीं है, यह अनिष्टापादन उपलब्धिसम कहलाता है। 1. न्यायसूत्र, ५१।२४ 2. न्यायभूषण, पृ. ३५२ 3. न्यायसूत्र, ५/१।२६ 4. न्यायसूत्र, ५।१।२७ । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ न्यायसार ___ इसका उद्धार भासर्वज्ञ ने 'सपक्षकदेशस्यापि धूमादेर्गमकत्वदर्शनादप्रतिषेधः, इस वचन के द्वारा बतलाया है । अर्थात् सर्वसपक्षवृत्ति हेतु ही साध्य का साधक हो, यह नियम नहीं । तप्त अयोगोलका देरूप सपक्षों में न रहने के कारण महानसादिरूप सपक्षकदेश में रहने वाले धूमादि हेतुओं में भी पर्वतादि में वहनिरूप साध्य की साधकता दृष्ट है । अतः प्रकृत में भी सावयवत्व हेतु कार्य बुद्वथादि में न रहने के करण सपक्षकदेशवृत्ति है. फिर भी प्रथिव्यादि में कार्यत्र का साध सकता है, अतः उसमें अप्रयोजकत्व दोष नहीं है । जिस प्रकार स्थानरूप निमित्त से मंच की मंचस्थ पुरुषों में लक्षणा है, उसी प्रकार प्रकृत सूत्र में सपक्षक देश शब्द लक्षणया अथवा 'सपक्षस्य एकदेशोऽस्त्यस्य' इस बहुव्रीहि समास से सपक्षकदेशवृत्ति हेतु का बोधक है। बुद्धयादि में सावयवत्व के द्वारा कार्यत्व की सिद्धि यहाँ अभीष्ट नहीं है । इस प्रकार बुद्धयादि के पक्षत्वेन अभीष्ट न होने के कारण बुद्धधादिरूप पक्ष में सावयवत्व हेतु के न रहने से भागासिद्धत्व की प्रसक्ति भी नहीं कही जा सकती। बद्धयादि में सावयवत्व हेतु द्वारा कार्यत्व की सिद्धि न होने पर भी 'बुद्धयादिकं कार्यम् अनुपलब्धिकारणेष्वसत्सु प्रागूज़ चानुपलब्धेः' इस अनुमानान्तर से कार्यत्वसिद्धि हो जाती है, अतः उनमें कार्यत्व की अनुपपत्ति नहीं है। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने कहा है-'कारणान्तरादपि तद्धर्मोपपत्तेरप्रतिषेधः' अर्थात् जिस प्रकार तप्त अयोगोलकादि में धूम के न होने पर भी स्पार्शन प्रत्यक्ष अथवा दाहकत्वादिरूप अनुमानान्तर के द्वारा अग्नि की सिद्धि है, अतः निधूम अग्नि की असिद्धि नहीं मानी जा सकती, उसी प्रकार बुद्धयादि में अनुमानान्तर के द्वारा कार्यत्वसिद्धि हो जाने से उन्हें अकार्य नहीं माना जा सकता । (२१) अनुपलब्धिसम बुद्धादिरूप कार्य को अनुपलब्धि का उपलभ न होने से अनुपलब्धि का अभाव सिद्ध होने के कारण तांद्वपरोत बुद्धथादि की उपलब्धि द्वारा पूर्वकाल या उत्तरकाल में बुध्यादि की सत्तारूप अनिष्ट का आपादन अनुपलब्धसम जाति है। अनुपलब्धि का अनुपलब्धि से इसका आपादन हुआ है, अतः इसे अनुपलब्धिसम संज्ञा दी गई है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है 'तदनुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धी तद्विपरोतोपपत्तानुपलब्धिसमः ।' अर्थात् बुद्ध्यादि कार्य की जो अनुपलब्धि है, वह भी उपलब्ध नहीं होती । यदि उपलब्ध हो, तब तो वह उपलब्धि ही हो जायेगी । इसलिये अनुपलाब्ध के अनुपलम्म के कारण अनुपलब्धि के अभाव की सिद्धि होती है और अनुपलब्ध्यभाव की सिद्ध होने पर अनुपलब्धि से विपरीत बुद्ध्यादि की सत्ता का पूर्वकाल व उत्तरकाल में आपादन हो जाता है, यही अनुपलब्धिसम है। 1. न्यायसार, पृ. २१ 2. न्यायभूषण, पृ. ३५३ 3. न्यायसूत्र, ५/१/२८ 4. वही, ५।१।२९ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा निरूपण तथा छल ... १७३ 1 इस दोष का उद्धार सूत्रकार ने 'अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धेरहेतुः ' इस सूत्र के द्वारा किया है अर्थात् नास्ति इत्याकारक ज्ञान ही अनुपलब्धि है और वह ज्ञान अभावत्वेन ही सर्वानुभवसिद्ध है और उसी रूप से सबको उपलब्ध है । अतः अनुपलब्ध की अनुपलब्धि नहीं बन सकती और अनुपलब्धि की अनुपलब्धि न होने से अनुपलब्धि का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता, अतः तद्विपरीत बुद्ध्यादि की सत्तारूप अनिष्ट का आपादन भी संभव नहीं । (२२) अनित्यसम किसी साधर्म्य के कारण तत्तुल्य धर्म की उपपत्ति मानने पर सभी पदार्थों में अनित्यत्वरूप अनिष्ट का आपादन अनित्यसम है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है'साधम्यत् तुल्यधर्मोपपत्तः सर्वानित्यत्वप्रसंगादनित्यसमः । " जैसे- शब्द में घट के साथ कार्यत्वरूप साधर्म्य के कारण घट के अनित्यत्व धर्म की तरह शब्द में अनित्यत्व मानने पर सभी पदार्थों में अनित्यत्व की प्रसक्ति होगी । क्योंकि शब्द और घट में जैसे कार्यत्व साधर्म्य है. उसी प्रकार अस्तित्व रूप धर्म को लेकर घर का सभी पदार्थों में घटतुल्य धर्म अनित्यता का आपादन होने लग जायेगा, यही अनित्यसम है । अनित्यसम अविशेषसम ही है. केवल शब्दमात्र का भेद है, अतः उसमें जो समाधान प्रस्तुत किया गया, वही इसका समाधान है । अर्थात् अस्तित्वमात्र साधर्म्य के कारण सब पदार्थों में घट की तरह अनित्यत्व का आपादन प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोध के कारण संभव नहीं । 1 इस समाधान के होने पर भी व्युत्पत्यर्थ दूसरा समाधान भी सूत्रकार ने ' साधर्म्यादसिद्धेः प्रतिषेधासिद्धिः प्रतिषेध्यसाधर्म्यात् 8 इस सूत्र द्वारा प्रस्तुत किया है अर्थात् घट के साथ आस्तित्वरूप साधर्म्य के कारण सभी पदार्थों में अनिवत्वापादन का प्रयोजन क्या है ? शब्दानित्यत्वप्रतिषेध तो बन नहीं सकता, क्योंकि सभी पदार्थों में अनित्यत्व के सिद्ध होने पर शब्द में भी अनित्यत्व ही सिद्ध होता है, तद्विपरीत नित्यत्व नहीं । साध्य के असाधक वचनमात्र कार्यत्वरूप घटमाधर्म्य से शब्द में अनित्यत्व मानने पर अस्तितारूप वचनमात्र घटसाधर्म्य के सभी पदार्थो में होने से उनमें भी अनत्यत्व का आपादन होगा | यह मानने पर यही निष्कर्ष आता है कि साध्यासाधक वचनमात्र साधर्म्य के कारण किसी धर्म को सिद्धि नहीं हो सकती । अर्थात् असाधक वचनमात्र हेतु नहीं कहलाता । ऐसा मानने पर शब्द में दुक्त अनित्यत्व का प्रतिषेध भी अनुपपन्न हो जायगा, क्योंकि प्रतिषेध का प्रतिषेध्य अनित्यत्व के साथ अभिषेयत्वादिरूप वचनमात्र ही साधर्म्य है, न कि साध्यासाधक साधर्म्य | 1. न्यायसूत्र, ५/१/३० 2. वही, ५।१।३२ 3. ५/१/३३ " Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ न्यायसार (२३) नित्यसम सूत्रकार ने नित्यसम का 'नित्यमनित्यभावाद नित्ये नित्यत्वोपपत्तेनित्यसमः। यह लक्षण किया है अर्थात् शब्द में अनित्यत्व धर्म के सदा विद्यमान होने से अनित्यत्व धर्म वाले शब्द धर्मी की नित्य सत्ता होगी, क्योंकि धर्मी के बिना धर्म की स्थिति सम्भव नहीं। और यदि शब्द में अनित्यत्व धर्म की सत्ता सर्वदा नहीं मानी जाय, तो अनित्यता के अभाव से उसमें स्वतः नित्यत्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार शब्द में अनित्यत्व का प्रतिषेध अर्थात् नित्यत्वरूप आनष्ट का आपादन नित्यसम है। सूत्रकार ने इसका परिहार 'प्रतिषेध्ये नित्यम नित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्तेः प्रतिषेधाभावः' इस सत्र के द्वारा किया है। अर्थात् प्रतिवादी ने शब्द में अनित्यत्वरूप धर्म की सदा स्थिति मानकर शब्द का अनित्यत्व स्वीकार कर लिया, अब उसका प्रतिषेध नहीं बन सकता, क्यों के अभ्युपगत का प्रतषेध अनुचित हे। यदि सर्वदा वह शब्द में अनित्यत्व स्वीकार नहीं करता, तो फिर 'नित्यमनित्यभावात्' को हेतु बतलाना असंगत है, क्योक असाधक हेतु नहीं होता। यदि वह यह कहे कि मैं शब्द में अनित्यत्व का निषेध नहीं करता. अपित नित्यत्व भी बतलाता हं. तो यह कहना सर्वथा असंगत है, क्योंकि एक ही शब्दरूप धर्मी में दो विरोधी धर्मों में नित्यत्व व अनित्यत्व की सत्ता नहीं हो सकती । दूसरी बात यह है कि शब्दप्रयंस ही शब्द की अनित्यता है । शब्दप्रध्वंस: काल में शब्द की सत्ता न होने से सर्वदा शब्द की सत्ता कैसे कहीं जा सकती है ? (२४) कार्यसम प्रयत्नसाध्य कार्यों के अनेकविध होने से प्रयत्न द्वारा शब्द में उत्पत्तिरूप कार्य की तरह पूर्वविद्यमान शब्द में प्रयत्न द्वारा अभिव्यक्तिरूप कार्य के भी संभव होने से अभिव्यक्तिरूप कार्य की दृष्टि से शब्दनित्यतारूप अनिष्ट का आपादन कार्यसम जाति है। अर्थात जैसे 'शब्दोऽनित्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्. घटवत्' इस अनुमान के द्वारा वादी प्रयत्नजन्यत्व हेतु से शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि करता है किन्तु प्रतिवादी कहता है कि प्रयत्न से वस्तु की केवर नवीन उत्पत्ति नहीं होती, अपितु पूर्व विद्यमान की अभिव्यक्ति भी होती है। जैसे, दीपक द्वारा कमरे में पूर्व विद्यमान घट की। स्थानप्रयत्नादिसंयोग या क्रियारूपप्रयत्न से शब्द में आभव्यक्तिरूप कार्य मानने पर शब्द में अनित्यत्व की मिद्धि के विपरीत नित्यत्व हो सिद्ध होता है, अतः प्रयत्नानन्तरोयकत्व हेतु शब्द में अनित्यत्व सिद्ध करने में असमर्थ है। यहां प्रतिवादी अभिव्यक्तिरूप कार्यविशेष से शब्द में 1. न्यायसूत्र, ५/११३५ 2. ५।१/३६ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १७५ अनित्यत्व का प्रतिषेध करता है। अतः इसे कार्यसम कहा गया है। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने प्रयत्नकार्यानेकत्वात् कार्यसमः'' यह कार्यसम का लक्षण किया है। । सत्रकार ने इस दोष का परिहार करते हुए कहा है-'कार्यान्यत्वे प्रयत्ना. हेतुत्वमनुपलब्धिकारणोपपत्त.' । अर्थात् यदि विद्यमान शब्द की अनुपलब्धि के कारण व्यवधानादि की सत्ता होती, तो प्रयत्न हेतु शब्द में अभिव्यक्तिव्यति रक्त जन्यतारूप कार्यान्यत्व का साधक नहीं हो सकता था। किन्तु शब्द की अनुपलब्धि के कारण व्यवधानादि की सत्ता उपलब्ध नहीं है। अतः परिशेषात् प्रयत्न शब्द में आत्मलाभरूप जन्यता का असाधक नहीं, अपितु साधक हो है ।। ___अथवा शब्द में जन्मव्यतिरिक्त अभिव्यक्तिरूप कार्य के प्रति प्रयत्न कारण नहीं हो सकता, क्योंकि विद्यमान शब्द को अनुपलब्धि का कारण कोई दृष्टिगोचर नहीं होता । जहां विद्यमान वस्तु की अनुपलब्धि में कोई कारण होता है, वहीं प्रयत्न अभिव्यक्तिरूप कार्य का हेतु होता है, अन्यत्र नहीं । अपि च, प्रयत्नतारतम्य से शब्द में तीव्रमध्यमन्दादिभाव उपलब्ध होते हैं. वे प्रयत्न द्वारा शब्द की उत्पत्ति मानने पर हो उपपन्न हो सकते हैं। अभिव्यक्ति में प्रयत्नतारतम्य से कहीं तीव्रमन्दादिभाव दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः प्रयत्न शब्द में उत्पत्तिरूप कार्य का ही हेतु है, न कि भिव्यक्तिरूप कार्य का । ____ उपर्युक्त जातिभेदों से भिन्न अन्य भी जातिभेद हैं । किन्तु उनके अनन्त होने से सब जातिभेदों का उदाहरण प्रदर्शित करना शक्य नहीं है, अतः उनका निरूपण नहीं किया जा रहा है। सूत्र में २४ ही जातिभेदों का उल्लेख दिमात्र-प्रदर्शनार्थ है, जातिभेदों की इयत्ता का प्रदर्शक नहीं । अतः जातिभेदों के आनन्त्य में' सविरोध उपास्थत नहीं होता । इसीलिये सूत्रकारने पूर्वपक्ष प्रदर्शित करते हुए अनन्यसम, सम्प्रतिपत्तिसम, जातियों का भी सत्रों में उल्लेख किया है। निग्रहस्थाननिरूपण विप्रतिपत्ति अर्थात् विरुद्धज्ञान और अप्रतिपत्ति अर्थात् ज्ञानाभाव निग्रहस्थान कहलाता है, क्योंकि वादी द्वारा काथत का प्रतिवादी को तथा प्रतिवादी द्वारा कथित का वादी को जब विरुद्ध ज्ञान होता है या ज्ञान नहीं होता है, तब वह निग्रहस्थान से निगृहीत हो जाता है। इसीलिये सूत्रकार ने 'विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् . इस सत्र के द्वारा विप्रात्तपत्ति व अप्रतिपत्ति को निग्रहस्थान बतलाया है। विप्रपातपात्त व अप्रातपत्ति के भेदों के अनन्त होने से निग्रहस्थानों की गणना नहीं की जा 1. न्यायसूत्र, ५/११३७ 2. वही, ५।११३८ 3. न्यायभूषण, पृ. ३५६ 4. न्यायसूत्र, १११९ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ न्यायसार सकती । अतः संक्षेप से उनका निरूपण किया जा रहा है। संक्षेपतः निग्रहस्थान २२ प्रकार के हैं, जैसाकि 'प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरं प्रतेज्ञाविरोधः प्रतिज्ञासन्यासो हेत्वन्तरमर्थान्तरं निरर्थकम वेज्ञातार्थकमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुक्तमननुभाषणमज्ञानाप्रतिभा विक्षेपो मतानुज्ञा पर्यनुयोज्योपेक्षणं निरनुयोज्यानुयोगोऽपसिद्वान्तो हेत्वाभासाश्च निग्रहस्थानानि'1 इस न्यायसत्र में कहा गया है। प्रतज्ञाहाने आदि विप्रतिपत्ति तथा अप्रतिपत्ति के कारण होने से पराजय करा देते हैं अतः इन्हें निग्रहस्थान कहा गया है। (१) प्रतिज्ञाहानि 'साध्ये प्रतिदृष्टान्नधर्मानुज्ञा प्रतिज्ञाहानिः'' यह प्रतिज्ञाहानि का लक्षण है। लक्ष ग में साध्य शब्द 'साधनमर्हति' इस व्युत्पत्ति से साध्यधर्मवान् पक्ष का बोधक हैं। इस प्रकार पक्ष में प्रतिदृष्टान्त अर्थात साध्यविरुद्ध धर्म की स्वीकृति प्रतिज्ञाहानि है । जैसे-'शब्दः अनित्यः कृतकत्वात् घटवत्' इस अनुमान-प्रयोग के द्वारा वादी ने शब्दरूप पक्ष में अनित्यत्व धर्म की प्रतिज्ञा की है। यहां प्रतिवादी यह कहे कि जैसे घटादि शब्द का अनित्यत्व-साधर्म्य होने के कारण उसे अनित्य माना जाता है, वैसे ही आकाश के साथ अमूर्तत्वसाधर्म्य के कारण शब्द को नित्य क्यों नहीं मान लिया जाय ? इस प्रकार के जातिप्रयोग अथवा अन्य किसी कारण से आकुल होकर वादी यह कह दे कि शब्द को नित्य मान लिया जाय, तब वादी ने शब्दरूप पक्ष में प्रतिदृष्टान्त आकाश के धम नित्वत्व को स्वीकार कर अपनी अनित्यत्वप्रतिज्ञा का भंग कर दिया, अतः वह प्रतिज्ञाहानिरूप निग्रहस्थान में पतित हो जाता है। । सूत्रकार ने यद्यपि प्रतिष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा स्त्रदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः' यह प्रतिज्ञाहानि का लक्षण किया है। अर्थात् स्वदृष्टान्त घटादि में प्रतिदृष्टान्त आकाशादि के नित्यत्वधर्म की अभ्यनज्ञा प्रतिज्ञाहानि है। किन्तु प्रतिज्ञाहानि का यह लक्षण मानने पर स्वदृष्टान्त घटाद में प्रतिदृष्टान्त आकाशादि के धर्म नित्यत्व की अभ्यनज्ञा मानने से घटादि के अनित्यत्व साध्य से विकल होने के कारण साध्य-विकलत्व ही निग्रह का नि मत्त सिद्ध होता है, न कि प्रतिज्ञा-हानि । यदि यह कहा जाय के प्रतिदृष्टान्त आकाशादि के धर्मो को स्वीकार करके वादी स्वदृष्टान्त घटादि का परित्याग कर देता है और उस दृष्टान्त का परित्याग करता हुआ 'तस्मादनित्यः शब्दः' इस निगमनान्त पक्ष का ही प रत्याग कर देता है, अतः प्रतिज्ञाहानि उपपन्न हो जाती है, तो यह समाधान भी उचित नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रकारान्तर से अर्थात उपचार से दृष्टान्तहानि ही प्रतिज्ञाहानि होगी। अतः वार्तिककार उद्योतकर ने सूत्रस्थ स्वदृष्टान्त पद में 'दृष्टश्चासावन्ते व्यवस्थित इति दृष्टान्तः स्वश्चासौ दृष्टान्तश्च'a 1. न्यायसूत्र, ५।२।। 3. . ५।२।२ 2. न्यायसार, पृ. २३ 4. न्यायवार्तिक, ५।२।२ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... इस व्युत्पत्ति से स्वदृष्टान्त शब्द का स्वपक्ष तथा प्रतिदृष्टान्त शब्द का प्रतिपक्ष अर्थ मानकर स्वपक्ष में प्रतिपक्ष आकाशादि के धर्म नित्यत्व की अभ्यनुज्ञा प्रतिज्ञाहानि है, यह समाधान प्रस्तुत किया है। किन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि सूत्र में दृष्टान्त शब्द करणत्वसाम्य के कारण लक्षणा सेही पक्ष का तथा प्रतिष्टान्त शब्द प्रतिपक्ष धक हो सकता है। अतः उपर्युक्त क्लिष्ट कल्पना की क्या आवश्यकता है? सहचरणादि सूत्र में साधनाधिकरणत्व का लक्षणकारणों में परिगणन न होने पर भी दोष नहीं, क्योंकि सूत्र में सहचरणादि कारण उदाहरणमात्र-प्रदर्शनार्थ हैं न कि इयत्ताबोधक । प्रयोजन के बिना लक्षणा कैसे होगी, यह भी कोई आपत्ति नहीं, क्यों क 'मंचाः कोशन्ति' इत्यादि में बिना प्रयोजन के भी मंचशब्द की मंचस्थ पुरुषों में लक्षणा दृष्ट है । यदि प्रयोजन का आग्रह ही हो, तो प्रकृत में भी प्रतिदृष्टान्त धर्म को न स्वीकार करने पर भी पक्ष में प्रतिपक्ष धर्म स्वीकार करने पर प्रतिज्ञात अर्थ की हानि से प्रतिज्ञाहानि हो जाती है, यह प्रयोजन लक्षणाश्रयण में विद्यमान है। धर्मकोर्ति ने यहां एक शंका प्रस्तुत की है कि वादी स्वयं शब्द को अनित्य स्वीकार कर उसे पुनः नित्य कैसे मान सकता है और यदि स्वीकार कर भी लेता है, तो शब्द में अनित्यत्व धर्म की उपलब्धि से वादी संशयग्रस्त हो सकता है कि शब्द नित्य है अथवा अनित्य । अतः यहां प्रतिज्ञाहानि का प्रश्न उपस्थित नहीं होता ।' भासर्वज्ञ ने इसका परिहार करते हुए कहा है कि प्रतिवादी की उक्ति में दोष का परिज्ञान न होने से सिद्भमाध्यतादोष से अपहत चित्त वाला वादी नित्यता का स्वीकार कर सकता है, क्योंकि भ्रान्ति पुरुष का धर्म है, और उसका कोई निश्चित कारण नहीं । शब्द में अनित्यत्व धर्म के दर्शन से वादी यद्यपि शब्द नित्य है अथवा अनित्य, ऐसे संशय में पड़ जाता है, तथापि विजयाकांक्षी होने से वह अपने संशय को प्रकट नहीं करता । अतः शब्द में प्रतिज्ञात अर्थ अनित्यत्व धर्म का परित्याग करने से वह प्रतिज्ञाहानिरूप निग्रहस्थान का भागी बन जाता है । (२) प्रतिज्ञान्तर प्रतिज्ञात अर्थ का प्रतिषेध हो जाने पर धर्मभेद से दूसरी प्रतिज्ञा स्वीकार करना प्रतिज्ञान्तर है जैसाकि सूत्रकार ने कहा है- 'प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञान्तरम् ।' जैसे, वादी ने शब्द को · अनित्य द्धि करने 1. वयं तु बमः- साधनाधिकरणत्वादिसाधयात पक्षोऽत्र दृष्टान्तशब्डेनोपचरितः । -न्यायभूषण, पृ. ३५८ 2. न्यायसूत्र, २/२/६१ 4. न्यायभूषण, पृ. ३५८, ३५१ 3. वादन्याय, पृ ७१ 5. न्यायसूत्र, ५।२।३ भान्या-२३ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ न्यायसार के लिये 'अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वात्' यह अनुमान प्रस्तुत किया। यहां पर इन्द्रियग्राह्य सत्ता आदि जाति में अनित्यत्व का व्यभिचार होने से शब्द में प्रतिज्ञात अर्थ अनित्यत्व का प्रतषेध हो जाने पर बादी धर्मभेद के साथ दूसरी प्रतिज्ञा करता है । जिस प्रकार घट असवंगत अर्थात् अव्यापक है, उसी प्रकार शब्द भी अव्यापक है । अव्यापक होने से घटादि की तरह शब्द अनित्य है । यहां साध्यसिद्धि के लिये वादी में असर्वगतत्व धर्म का शब्द में निर्देश किया है, किन्तु जैसे शब्द में अनित्यत्व की प्रतिज्ञा ही है. वैसे असत्य को भी प्र तेज्ञा ही है । एक प्रतिज्ञा दुसरी प्रतिज्ञा को सिद्ध करने में असमर्थ है । इस प्रकार असमर्थ वस्तु का उपादान करने से यह निग्रहस्थान है, ऐसा भाष्यकार ने सूत्र का व्याख्यान किया है, ' किन्तु यह व्याख्यान उचित नहीं है, जैसाकि धर्मकार्ति ने कहा है कि शब्द असर्वगत है, यह दूसरा हेतु है, न कि दूसरी प्रतिज्ञा ।" क्योंकि असर्वगतस्त्र का ऐन्द्रियकत्व हेतु के विशेषण रूप से उपादान है । तथा एक प्रतिज्ञा को सिद्ध करने के लिये कथ्यमान प्रतिज्ञा प्रतिज्ञान्तर नहीं कहलाती, क्योंकि प्रतिज्ञादि की सिद्धि हेत्वादि से होती है, न कि प्रतिज्ञादि से । इसलिये भासर्वज्ञ ने इस सूत्र की दूसरी व्याख्या प्रस्तुत की है । उनकी रीति से 'सर्वमनित्यं सत्त्वान्' इस अनुमान में सर्वमात्र के पक्षनिविष्ट होने से प्रतिज्ञाव क्य में तदुभिन्न दृष्टान्त के न होने से प्रतिवादी द्वारा प्रतिज्ञात अर्थ का उच्छेद कर देने पर विवादास्पदी भूतत्वरूप धर्म के भेद के साथ प्रतिज्ञा का पुनः कथन प्रतिज्ञान्तर है । अर्थात् पहिले वादी ने प्रतिज्ञा के विशेषणरूप में विवादास्पदीभूतत्व धर्म का कथन नहीं किया था, बाद में किया है । सूत्र में 'तदर्थनिर्देशः ' इस पद में 'तत्' शब्द प्रतिषेध का परामर्शक है और अर्थ शब्द 'मशकार्थो धूमः' की तरह निवृत्ति का वाचक है । अतः तदर्थ का अभिप्राय है - प्रतिषेध की निवृत्ति के लिये । निर्देश शब्द विवादास्पदीभूतत्वरूप विशेषणसहित 'सर्वम् अनित्यम्' इस प्रतिज्ञान्तर का बोधक है । निष्कर्ष यह है कि पहिले वादी ने सामान्यतः सब अनित्य है, यह प्रतिज्ञा की थी, किन्तु इसमें पक्षभिन्न दृष्टान्त न मिलने से प्रतिज्ञात अनित्यत्व अर्थ का प्रतिषेध हो जाने पर उसके परिहार के लिये प्रतिज्ञाविशेषण रूप में विवादास्पदी भूतत्वरूप धर्म का निर्देश कर दिया गया है । अतः जैसे सामान्यतः कथित हेतु का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध कर देने पर उस हेतु में पश्चात् विशेषण का उपादान करने वाला वादी हेत्वन्तररूप freeस्थान से ग्रस्त होता है, वैसे ही सामान्यतः प्रतिज्ञा का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध कर देने पर विशेषणोपादानपूर्वक विशिष्ट प्रतिज्ञा का कथन करने वाला वादी प्रतिज्ञान्तररूप निग्रहस्थान से ग्रस्त हो जाता है । 1. न्यायभाष्य, ५/२/३ 2. वादन्याय, पृ. ७६ 3. न्यायभूषण, पु, ३५९-३६० Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १७९ (३) प्रतिज्ञाविरोध प्रतिज्ञा तथा हेतु का विरोध प्रतिज्ञाविरोध कहलाता है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोधः। जैसे, वादी द्रव्य को गुण से भिन्न सिद्ध करने के लिये 'गुणव्यतिरिक्तं द्रव्य भेदेनाऽनुपलम्भात्'-इस अनुमान का प्रयोग करता है, तो 'गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यम्' इस प्रतिज्ञा-वाक्य का 'भेदेनानुपलम्भात्' हेतु से विरोध है, अतः यह प्रतिज्ञा विरोध निग्रहस्थान है । धर्मकीर्ति ने यहां प्रश्न उपस्थित किया है कि यदि वस्तुतः प्रतिज्ञा और हेतु में विरोध हो तो प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान हो सकता है, किन्तु दो भिन्न वस्तुओं का भी यदि किसी कारण से भिन्न रूप से उपलम्भ न हो, तो यह निग्रहस्थान नहीं माना जा सकता। जैसे, किसी पवत के पास विद्यमान पिशाचादि का पर्वत से भेद होने पर भी उससे भिन्न उपलम्भ नहीं होता । इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि यदि वादी को द्रव्य और गुणों के भेद को परिज्ञान नहीं है, तो वह दूसरे को समझाने के लिये उसकी प्रतिज्ञा क्यों करता है ? क्योंकि अव्युत्पन्न पुरुष दूसरे को समझाने वाला नहीं हो सकता और यदि उसको उनके भेद का उपालम्भ है, तो उसका 'भेदेनानुपलम्भात्' यह हेतुवाक्य व्याघातदोषग्रस्त है। अतः प्रतिज्ञा और हेतु का विरोध होने से प्रतिज्ञाविरोध की अनुपपत्ति नहीं है। (४) प्रतिज्ञासंन्यास अपने पक्ष का निषेध हो जाने पर प्रतिज्ञात अर्थ का निह्नय करना प्रतिज्ञासंन्यास निग्रहस्थान है। सूत्रकार ने भी कहा है-'पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञामन्यासः "। सूत्र में अपनयन पद अपहनवार्थक है । प्रतिज्ञाहानि में वादी असामर्थ्य के कारण प्रतिज्ञात अर्थ का परित्याग करता है और प्रतिज्ञासंन्यास में 'मैंने ऐसी प्रतिज्ञा नहीं की' इस प्रकार प्रतिज्ञातार्थ का अपहनव करता है। अतः दोनों में भेद है । जैसे-'अनुष्णः अग्निः' ऐसो प्रतिज्ञा करने पर अग्नि में अनुष्णता का स्पार्शन प्रत्यक्ष द्वारा बाध होने से प्रतिज्ञात अनुष्णता का प्रतिषेध होने पर यदि वादी यह कहता है-'हे मध्यस्थ व साक्षियों, देखो. मैंने अग्नि अनुष्ण है, ऐसा नहीं कहा । यह प्रतिवादी मेरे द्वारा अनुक्त वस्तु को लेकर दोष दे रहा है', ऐसा वादी का कथन प्रतिज्ञासंन्यास निग्रहस्थान है। (५) हेत्वन्तर वादी द्वारा सामान्यतः कथित हेतु का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध कर देने पर विशेषणविशिष्ट हेतु का जहां वादी द्वारा प्रयोग किया जाता है, वहां हेत्वन्तर 1. न्यायसूत्र, ५।२। 2. वादन्याय, पृ. ७९ 3. न्यायभूषण, पृ. ३६० 4. नगयसूत्र, ५/२१५ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० न्यायसार निग्रहस्थान होता है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है-'अविशेषोक्ते हेतो प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम्' । जैसे-किसी ने वेदों को नित्य सिद्ध करने के लिये अम्मर्यमाणक कत्व हेतु का उपादान किया, किन्तु यह हेतु जीर्णकूगदि में व्यभिचरित है. क्योंकि उनके निर्माण करने वाले का ज्ञान नहीं । अतः इस हेतु के प्रतिवादी द्वारा निषेध कर देने पर सम्प्रदायाविच्छेदे सति' यह विशेषण जोड़कर वादी द्वारा पुनः उस हेतु का उपादान हेत्वन्तरनामक निग्रहस्थान है। (६) अर्थान्तर प्रकृत अर्थ से असम्बद्ध अर्थ का कथन अर्थान्तर निग्रहस्थान है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'प्रकृतादादपतिसम्बद्धार्थमर्थान्तरम्' । जैसे---किसी ने शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिये 'नित्यः शब्दः अस्पर्शत्वात्' इस प्रकार अस्पर्शत्व हेतु का उपादान किया । यहां पर कोई यह कहे कि हेतु शब्द 'हि' धातु से 'तुम्' प्रत्यय करने पर बनता है और यह कृदन्त पद है । पद नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात भेद से चार प्रकार के हैं। नाम सस्वप्रधान होता है, इत्यादि का कथन करता है, तो वह प्रकृत विषय से असम्बद्ध अर्थ का कथन करने के कारण अर्थान्तरूप निग्रहस्थान से ग्रस्त है। धर्मकीर्ति ने भी इस निग्रहस्थान को स्वीकार किया है । (७) निरर्थक वर्णक्रमनिर्देश अर्थात् सिद्धमातृका-पाठ के समान कथन निरर्थक निग्रहस्थान कहलाता है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है .- वर्ण कर्मानदेशवन्निरर्थकम् '1 अर्थात् जहां प्राश्निक और प्रतिवादी को वादो द्वारा कथित वाक्यों के पदार्थों का भी ज्ञान नहीं होता है, उसे निरर्थक कहते हैं । जैसे, किसी वादी ने शब्द में नित्यत्व सिद्ध करने के लिये नित्यः शब्दः कचटतपानां जबगडशत्वात्, झभघढधषवत्' इस अनुमानवाक्य का यदि प्रयोग किया, तो प्राश्निक (मध्यस्थ) और प्रतिवादी का हेत्वादिवाक्यों द्वारा किसी अर्थ का परिज्ञान न होने से यह निरर्थकनामक निग्रहस्थान है। सत्र में 'वर्णक्रमनिर्देशवत्' पद में तुल्यार्थ में वति प्रत्यय है न कि 'तदस्यास्ति' इस अर्थ में मतुप् प्रत्यय । अतः क च ट त प आदि वर्णो का भी किसी प्रकरण में अर्थ होने से इसे निरर्थक कैसे कहा जा सकता है, धर्मकीति की इस आशंका का परिहार हो जाता है, क्योंकि किसी प्रकरण में उनका अर्थ होने पर भी यहां जो हेतु रूप से क, च, ट, त, आदि वर्गों का प्रयोग है, वह सार्थक नहीं है, अपितु सर्वथा निरर्थक है। 1. न्यायसूत्र, ५।२।६ 2. वही, ५।२७ ३. न्यायसूत्र, ५।२८ | Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छलं... १८१ (८) अविज्ञातार्थ वादी के द्वारा तीन बार कहे अर्थ को भी यदि अप्रसिद्ध प्रयोग अथवा अनिद्रुत उच्चारण के कारण परिषत् और प्रतिगदी नहीं समझ सकते हैं, तो वह विज्ञातार्थनामक निग्रहस्थान है, क्योंकि बादो वहां अपने अज्ञान को छिपाने के लिये अप्रसिद्धार्थक पदों का प्रयोग करता है या अतिद्रुत रूप में उनका उच्चारण करता है। अविज्ञातार्थ का यही लक्षण सूत्रकार ने भी किया है-'परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातार्थम् । __ अविज्ञातार्थ और निरर्थक निग्रह स्थान में धर्मकार्ति द्वारा आशंकित अभेद का निराकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि निरर्थक में वाक्यों का कोई अर्थ ही नहीं होता और अविज्ञातार्थ में अर्थ होते हुए भी अप्रसिद्धार्थकपदप्रयोग तथा अतिद्रुतोच्चारणादि कारणों से उसको प्रतीति नहीं होती । यही दोनों का भेद है । (९) अपार्थक जहां अनेक पदों अथवा वाक्यों का पूर्वापरभाव से सम्बन्ध नहीं है, वहां उनके असम्बद्धार्थक होने से अपार्थक निग्रहस्थान है, क्यों क उन पदों और वाक्यों के समुदाय का कोई अर्थ प्रतीत नहीं होता, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बद्धार्थमपार्थकम् । जैसे, 'दश दाडिमानि', 'षडपूपाः', 'कुण्डमजाजिनं', 'पललपिण्डः', 'रौरुकं कुमार्याः पाय्यम्', 'तस्याः पिता अप्रतिशीनः' इत्यादि का प्रयोग। इसी अपार्थक को असम्बद्धवाक्य अथवा असम्बद्धाभिधान कहते हैं। अपार्थक में अधिकांशतः पदार्थों का अनुसंधान होने पर भी पौर्वापर्य सम्बन्ध के न होने से उनके समुदाय के अर्थ की प्रतीति नहीं होती और आवज्ञातार्थ में आतेद्रुतोच्चारणााद के कारण अर्थ की प्रतीति नहीं होतो, यह दोनों में भेद हैं। (१०) अप्राप्तकाल प्रतिज्ञादि अवयववाक्यों का अर्थ के कारण क्रम माना जाता है, उनका विपरीत. क्रम से कथन अप्राप्तकालनामक निग्रहस्थान होता है, जैसाक सूत्रकार ने कहा है'अवयवावपयोसवचेनमप्राप्तकालम' । (११) न्यून प्रतिज्ञादि अवयववाक्यों में से एक भी वाक्य को न्यूनता होने पर न्यून नामक निग्रहस्थान होता है, क्यों के उस वाक्य के अभाव में साध्यसिद्धि नहीं हो सकती। 1. वही, ५।२।९ 2. न्यायसूत्र, ५।२।१० 3. वही, ५४२११ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ न्यायसार पांचों ही अत्रयवाक्य साध्यसिद्धि में कारण है । इसलिये सूत्रकार ने कहा है'हीनमन्यतमेनापि अत्रयवेन न्यूनम्' ।" (१२) अधिक इसका लक्षण सूत्रकार ने हेतूदाहरणाधिकमधिकम् 2 अर्थात् जिस वाक्य में दो हेतु और दो उदाहरण होते हैं, वह अधिक निग्रहस्थान कहलाता है । एक हेतु और एक उदाहरण ही साध्यसिद्धि के लिए पर्याप्त है, अतः अन्य हेतु व उदाहरण का उपादान निरर्थक है । परन्तु यह भी नियमकथा में ही निग्रहस्थान कहलाता है, प्रपंचकथा में तो नियमाभाव के कारण दोष नहीं होता । नियमकथा में भी सम्प्लव की स्वीकृति न होने पर यह दोष होता ही है । (१३) पुनरुक्त बिना किसी प्रयोजन के शब्द का पुनः उच्चारण या एक ही अर्थ का पर्यायवाची शब्द से पुन कथन पुनरुक्त निपइस्थान कहलाता है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है - ' शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात्' । जैसे, 'नित्यः शब्द., नित्यः शब्दः । नित्यो ध्वनिः अविनाशी शब्द:' । प्रथम उदाहरण में एक शब्द का निष्प्रयोजन पुनः उच्चारण है तथा द्वितीय में एक ही अर्थ का पर्यायवाची शब्द से पुनः कथन है । प्रथम शब्दपुनरुक्त तथा दूसरा अर्थपुनरुक्त का उदाहरण है । जहां किसी प्रयोजनवश शब्द और अर्थ का पुनः कथन किया जाता है, वहां पुनरुक्त निप्रहस्थान नहीं होता । जैसे, कथित वस्तु के अनुवाद में । जैसे, 'नित्यः शब्द:' इसी प्रतिज्ञावाक्य का निगमन में 'तस्मात् शब्दो नित्यः इस प्रकार अनुवादरूप से पुनः कथन दोष नहीं है । निगमनवाक्य में 'तस्माद् नित्यः शब्दः' यह हेत्वर्थ का अनुवाद है । वोदसा तथा पौनः पुन्यादि अर्थो में भी द्विरुक्ति या शब्दमात्र का अनुवाद होता है । जैसे– 'गौः गौः कामदुधा, सर्पः सर्पः' आदि । यद्यपि अर्थपुनरुक्तरूप एक निग्रहस्थान से ही शब्दपुनरुक्त गतार्थ है, तथापि बालव्युत्पत्ति के लिये उसका पृथक् कथन कर दिया गया है । पुनरुक्तान्तर इसी पुनरुक के अवान्तर भेदों के अवधारण की इच्छा से पुनरुक्त का दूसरा लक्षण भी सूत्रकार ने किया है- 'अर्थादापन्नस्य स्त्रशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तम्' | " जैसे - 'पर्वतो बहूनिमान् धूमात्' इत्यादि स्थल में, 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वहूनिः, यथा महानसे' इस साधम्र्योदाहरण से व्याप्ति की सिद्धि हो जाती है । अतः तत्पश्चात् 'यत्र यत्रः बहून्यभावः तत्र तत्र धूमाभावः, यथा जलहृदे' इस वैधम्र्योदाहरण का अभिधान पुनरुक्त निग्रहस्थान है । 1. न्यायसूत्र ५/२/१२ 2. बद्दी, ५२११३ 3. वही, ५/२/१४ 4. न्यायसूत्र, ५/२/१५ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १८३ (१४) अननुभाषण परिषत् तथा प्रतिवादी के द्वारा विज्ञाताक वाक्य का तीन बार कहने पर भी प्रतिवादी द्वारा उसका अनुभाषण (प्रत्युच्चारण) न करना अननुभाषण नामक निग्रह स्थान होता है । यह प्रतिवादी का ही निग्रहस्थान है अर्थात् इसमें प्रतिवादी का ही निप्रह होता है । क्योंकि जब वह वादो के कथन का प्रत्युच्चारण नहीं कर सकता, तो किस आधार पर वह परपक्ष का प्रतिषेध कर सकता है ? धर्मकीर्ति का यह कथन है कि कोई प्रतिवादी ऐसा हो सकता है जो प्रत्युच्चारण में समर्थ न होता हुआ भी वादी का उत्तर देने में समर्थ हो और वादी के कथन का प्रत्युच्चारण न करते हुए भी उसके दिये हुए समीचीन उत्तर से उसकी अमूढता का परिज्ञान भी पारिषद्यों को हो ही जाता है। ऐसी स्थिति में अनुभाषण को निग्रहस्थान कैसे माना जा सकता है? इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि वादी के कथन का प्रत्युच्चारण न कर सदुत्तर देने पर भी उसका उत्तर निविषय हो जायेगा । अतः अनुभाषण आवश्यक है । हां, वादी के सारे कथन का प्रत्युच्चारण आवश्यक नहीं, किन्तु आवश्यक कतिपय अंश का प्रत्युच्चारण तो आवश्यक है । अन्यथा उत्तर में निविषयता दोष का प्रसंजन होगा। (१५) अज्ञान वादी के जिस वाक्य के अर्थ को परिषत् समझ जाती है और तीन बार उच्चारण करने पर भी प्रतिवादी उसके अर्थ को नहीं समझता, वहां अज्ञान नामक निग्रहस्थान होता है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है :-'अविज्ञातार्थ चाज्ञानम्' ।। इसका अन्तर्भाव अननुभाषण निग्रहस्थान में नहीं हो सकता, क्योंकि वहां प्रतिवादी वादी के वाक्याथ' का प्रत्युच्चारण करने में असमर्थ होता है, चाहे वह उसका समीचीन उत्तर देने में समर्थ हो और अज्ञान नामक निग्रहस्थान में प्रतिवादी वादी के वाक्या का प्रत्युच्चारण तो कर देता है, किन्तु उसके अर्थ को नहीं समझता । (१६) अप्रतिमा कथा को स्वीकार कर वादी या प्रतिवादी जहां उत्तर का स्फुरण न होने से मौनावलम्बन कर लेता है, वह अप्रतिमा नामक निग्रहस्थान होता है । यद्यपि मत्रकार ने 'उत्तरस्य अप्रतिपत्तिरप्रतिमा' इतना ही लक्षण किया है, तथापि सत्र में उत्तर पद पूर्बोपन्यास की अर्थात् वादी के उपन्यास को अप्रतिपत्ति का भी बोधक है । इसो अभिप्राय से भासर्वज्ञ ने अप्रतिमा का 'कथामभ्युपगम्यतूष्णी भोवोऽप्रतिमा 1. न्यायसूत्र, ५/२।१७ 2. वही, पाश 3. न्यायसार, पृ. २६ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार यह लक्षण किया है। सूत्र में 'उत्तरस्य अप्रतिपत्तिः' से केवल उत्तर का अपरिज्ञान ही अभिप्रेत नहीं है, किन्तु वचन का अनध्यवसाय अर्थात् निश्चित उत्तर की अप्रतीति भी विवक्षित है । अतः यदि कोई अनध्यवसायपूर्वक उत्तर दे भी देता है, तो भी अप्रतिमा से बहिर्भूत नहीं होता । अथवा उत्तर पद से प्रथम वादी का वचन भी संगृहीत है। यदि परिषत् वादी से यह पूछ बैठे कि तुम्हारा क्या पक्ष है ? क्या साधन है ? तुम हो पहिले अपने पक्ष और साधन को बतलाओ, तो वहां पक्षादि का कथन भी उत्तर है। यदि वादो पक्षादि के कथन में असमर्थ होकर चुप बैठ जाता है, वहां वादी अप्रतिमा निग्रहस्थान से ग्रस्त हो जाता है। अतः यह निग्रहस्थान बादी और प्रतिवादी दोनों के लिये है। (१७) विक्षेप किसी कार्य के व्यासंग से अर्थात् मुझे आवश्यक कार्य है, यह कह कर जो कथा का विच्छेद किया जाता है, वहां विक्षेप निग्रहस्थान होता है। किसी दुर्वर के मिथ्या व्यपदेश से कथा का विच्छेद भी इसमें संगृहीत है। जब कथा को स्वीकार कर लिया जाता है और सभ्य लोग एकत्र हो जाते हैं, उस समय यदि कोई कहे कि मुझे बहुत काम है, उस कार्य के समाप्त होने पर उत्तर दूंगा, तब यह दोष है। - इसका अर्थान्तर नामक निग्रहस्थान से यह भेद है कि अर्थान्तर में साधन का उपन्यास करने के लिये प्रवृत्त पुरुष अनुपयोगी वस्तुओं का उपन्यास करता है और विक्षेत्र में वादो या प्रतिवादी कथा को स्वीकार कर मैं बाद में साधन का उपन्यास करूंगा' यह कहता है । (१८) मतानुज्ञा स्वपक्ष के दोष को स्वीकार कर जो परपक्ष में दोष देता है, उसे मतानुज्ञा निग्रहस्थान कहते हैं, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात् परपक्षदोषो मतानुज्ञा' । अर्थात् जो अपने पक्ष के दोष का परिहार बिलकुल भी नहीं करता और दूसरे पक्ष में दोष देता है. वहां मतानुज्ञा निग्रहस्थान होता है। जैसेकिसो ने कहा - 'तुम चोर हो, तो उसका उत्तर न देकर - 'तुम भी चोर हो', यह कहता है । 'त्वमपि चोरः' - इस प्रकार कहता हुआ वह दूसरे द्वारा कथित चौरत्व की अनुज्ञा प्रदान कर देता है। परमत की अनुज्ञा प्रदान करने वाले व्यक्ति के प्रति ही यह मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान होता है, क्योंकि वह स्वदोष को स्वीकार कर लेता है। 1. न्यायसूत्र, ५।२।२० Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानिरूपण तथा छल... १८५ (१९) पर्यनुयोज्योपेक्षण निग्रह का अवसर प्राप्त होने पर प्रतिवादी 'तुम निगृहीत हो ऐसा वादी से नहीं कहता, वहां पर्यनुयोज्योपेक्षणरूप निग्रहस्थान होता है। जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'निग्रहं प्राप्तस्य अनिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणम् ।' अर्थात निग्रहोपपत्ति के अवसर पर उसका कथन न करना, उसकी उपेक्षा कर जाना पर्यनुयोज्योपेक्षण निग्रहस्थान है। (२०) निरनुयोज्यानुयोग अदोष में दोष का उद्भावन निरनुयोज्यानुयोग नामक निग्रहस्थान है, जैमाकि सूत्रकार ने कहा है-'अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्यानुयोगः'। जैसे, 'सावयवत्व' हेतु के द्वारा पृथ्वी आदि को कार्य सिद्ध करने पर यदि प्रतिपक्षी कहे कि यह हेतु अप्रयोजक हेत्वाभास है, तो मिथ्याभियोग के कारण यह निरनुयोज्या. नुयोग नामक निग्रहस्थान होता है, क्योंकि सावयवत्व हेतु कार्यत्व साध्य को सिद्ध करने में समर्थ है, अपयोजक नहीं । (२१) अपसिद्धान्त किमी सिद्धान्त को स्वीकार कर अनियम से कथा करना अर्थात् स्वीकृतसिद्धान्तविरुद्धकथन अपसिद्धान्त निग्रहस्थान है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है - " स्वसिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमातकथाप्रसंगोऽपसिद्धान्तः' ।। जैसे-भीमांसकसिद्धान्त को स्वीकार कर यदि वादी कहता है कि अग्निहोत्र स्वर्ग का साधन है, उस पर यदि प्रतिवादी यह प्रश्न करे कि अग्निहोत्र क्रिया यही नष्ट हो जाती है, वह उत्तरकालभावी स्वर्ग का साधन कैसे हो सकती है? उसके उत्तर में वह कहता है कि क्रिया यद्यपि नष्ट हो गई है. तो भी उससे आराधित परमेश्वर राजादि की तरह स्वर्गादि. रूप फल प्रदान करता है। तो यह उसका उत्तर अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान से ग्रस्त है, क्योंकि मोमांसादर्शन में ईश्वर की सत्ता नही मानी जाती, अतः वह कैसे प्रदान कर सकता है ? (२२) हेत्वाभास पूर्वोक्त छः हेत्वाभास भी निग्रहस्थान हैं, किन्तु उनको निग्रहस्थान मानने के लिये पृथक् लक्षण मानने की आवश्यकता नहीं है, पहिले जो उनके लक्षण बतलाये 1. न्यायसूत्र, ५।२।२२ 2. ५।२।२१ 3. ५२।२४ न्या-२४ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ न्यायसार जा चुके हैं, उन्हीं लक्षणों से इनका निग्रहस्थानत्व उपपन्न है। इसीलिये सत्रकार ने कहा है-'हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः' ।' इस सत्र में 'च' शब्द अन्य दृष्टान्ताभासादि निग्रहस्थानों का संग्राहक है। निग्रहस्थानों का परिगणन उनकी इयत्ता का निर्धारण करने के लिये नही, अपेतु उदाहरगमात्रप्रदर्शनार्थ है । अतः परिगणित निग्रहस्थानों से अधिक निग्रइत्थान मानने में सूत्रविरोध नहीं है । दुर्व वन, कोलवादनादि भी साध्यसिद्धि में अनुपयोगी होने से निग्रहस्थान ही हैं।' 1. न्यायसूत्र, ५।२।२५ 2. न्यायभूषण, पृ. ३७५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ विमर्श आगमप्रमाणनिरूपण यद्यपि वैदिक मतानुसार वेदों का जैसा प्रामाण्य माना जाता है, वैसा प्रत्यक्ष आदि का भी नहीं | अद्वैत वेदान्तियों का तो यहां तक कहना है कि जैसे बौद्धसिद्धान्त मे निर्विकल्पात्मक स्वलक्षण तत्व को विषय करने के कारण प्रत्यक्ष ही परमार्थतः प्रमाण है और अनुमान अविसंवादी अर्थमात्र का ग्राहक होने के कारण व्यवहारतः प्रमाण है, वैसे ही असन्दिग्ध, अनधिगत, अबाधित, अर्थभूत ब्रह्म तत्त्व को विषय करने के कारण महावाक्यात्मक शब्दप्रमाण ही एकमात्र पारमार्थिक दृष्टि से प्रमाण है । उससे भिन्न प्रत्यक्षादि पांचों प्रमाणों में व्यवहारसिद्धि के लिये व्यवहारतः प्रामाण्य है, परमार्थतः नहीं, क्योंकि उनका प्रमेय पदार्थ ब्रह्मज्ञान के द्वारा बाधित हो जाता हैं । अतः वे बाधितार्थविषयक होते हैं । केवल तद्वति तत्प्रकारकत्वरूप सांव्यवहारिक प्रमाण्य उनमें माना जाता है । 2 34 जैमिनि धर्म में वेदों का प्राधान्य और प्रामाण्य स्वीकार करते हुए कहते हैं'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः " | शबर स्वामी भी शब्द का अगाध सामर्थ्य मानते हैं'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थं शक्नो त्यवगमयितुं नान्यत्किंच नेन्द्रियम् ' ।" यहां 'चोदना ' पद शब्दमात्र का बोधक है, जैसा कि कुमारिल भट्ट कहते हैं- 'चोदनेत्यब्रवीच्चात्र शब्दमात्रविवक्षया 15 स्मृतिकार 'श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः " - ऐसा उद्घोष करते हुए श्रुतिप्रामाण्य पर पूर्ण विश्वास प्रकट करते हैं । अतः वैदिक दार्शनिकों की कक्षा में प्रविष्ट नैयायिकों को भी शब्द का प्राधान्य स्वीकार करके शब्द प्रमाण का सर्वप्रथम निरूपण करना चाहिए था, तथापि आन्वीक्षिकी - शास्त्र के प्रवर्तक महर्षि अक्षपाद ने 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि 5 इस सूत्र के द्वारा अपने प्रमाणों का क्रम निर्दिष्ट कर दिया है । अतः न्यायसूत्रपरिवार के किसी भी प्रकरण या शास्त्र को यह सोचने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि हम किस प्रमाण को प्रधान तथा किसे अप्रधान मानें । सूत्रानर्दिष्ट क्रम के अनुसार ही प्रायः सभी आचार्यो ने प्रमाणों का निरूपण किया है । 1. जमिनिसूत्र, १1१/२ 2. मीमांसादर्शन, (शावर भाष्यसहित ), पृ. ३ 3. मीमांसा लोकवार्तिक, चोदनासूत्र, का. ७ 4. मनुस्मृति, २1१२ 5. न्यायसूत्र, १1११३ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ न्यायसार नव्य न्याय के प्रवर्तक आचार्य गंगेशोपाध्याय ने भी अपने 'तत्त्वचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ में क्रमशः प्रत्यक्ष-खण्ड, अनुपानखण्ड, उपमानखण्ड और शब्दखण्ड का का निरूपण करते हुए इसी क्रम को अपनाया है। सूत्रनिर्दिष्ट एक पदार्थ का निरूपण हो जाने के पश्चात् उत्तरभावी पदार्थ के निरूपण का अवसर सहज सुलभ हो जाता है, अतः अवसरसंगति का सहारा लेकर अनुमान के अनन्तर शब्द का निरूपण न्यायसंगत है । उपमान प्रमाण अनुमान के अनन्तर निर्दिष्ट होने पर भी भासर्वज्ञ ने उसका प्रामाण्य स्वीकार नही किया है। अतः उनका कहना है'अवसितमनुमानमागस्येदानी लक्षणमुच्यते'1 (अवसरसंगत्या)। . भासर्वज्ञाचार्य ने समयबलेन सम्यवपरोक्षानुभवसाधनगमागमः १ यह आगम प्रमाण का लक्षण किया है । सव्यापार कारण को हो कार्य का निर्वर्तक माना जाता है। जैसे-उद्यमन, निपातनादिव्यापारयुक्त कुठार काष्ठादि के द्वैधीभाव का सम्पादक होता है। जैसे इन्द्रियसन्निकर्षरूप व्यापार के माध्यम से चक्षुरादि करणों में प्रत्यक्ष ज्ञान की जनकता आती है तथा जैसे व्याप्ति (अविनाभाव)-बान को व्यापार बनाकर साधन अपने साध्य की अनुमिति किया करता है, उसी प्रकार संगातग्रह या संकेतज्ञानरूप व्यापार द्वारा पदज्ञान परोक्षज्ञान का साधन बनता है। उसी साधन को आगम प्रमाण कहा जाता है। भासर्वज्ञोक्त आगम प्रमाण के इस लक्षण का उनके परवर्ती उदयनाचार्य ने भी उल्लेख किया है-'तत्र समयबलेन सम्यक्परोक्षानुभवसाधनं शब्द इति एके' । पदकृत्य पर विचार करते हुए उन्हों ने कहा है कि प्रथम, द्वितीय, तृतीय चतुर्थ तथा पंचम पद कमशः अनुमान, शब्दाभास, सविकल्पक प्रत्यक्ष, पदार्थस्मरण तथा कर्ता व कर्म के निवर्तक हैं । 'अस्मात् पदादयः मर्थो बोद्धव्यः'-इस प्रकार की ईश्वरीय इच्छा या संकेत ही समय कहलाता है। ईश्वरीय इच्छारूप संकेत अनादि होता है और वही मुख्य है। पाणिनि आदि कृत गुणसंज्ञा, वृद्धिसंज्ञा आदि भी आधुनिक संकेत हैं, किन्तु वे अमुख्य हैं। सभी सूत्रकारों ने अपने ग्रन्थों में पृथक्-पृथक् समय माने हैं। कतिपय दार्शनिक ज्ञायमान शब्द को करण मानते हैं और अन्य शब्दज्ञान को* । इस प्रकार शब्द और शब्दज्ञान दोनों का प्रहण आगम से होता है । आचार्य भासर्वज्ञ ने दोनों मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए 'तच्छ दात्मकमशब्दात्मक वा करणम्' यह कहकर विकल्प से दोनों को स्वीकार किया है। इस प्रकार यह निष्कृष्टार्थ प्राप्त होता है कि समय -सामर्थ्य से परोक्ष प्रमा के करणीभूत पदार्थ को 1. न्यायसार, पृ. २९ 2. वही, पृ. २९ 3. तात्पर्यपरिशुद्धि, ११७ 4. पदज्ञानं तु करणं द्वारं तत्र पदार्थधीः । -भाषापरिच्छेद, का. ८१ 5. न्यायभूषण, पृ ३७९ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रमाणनिरूपण १८९ आगम कहा जाता है, चाहे वह शब्दात्मक हो अथवा ज्ञानात्मक । 'परोक्षानुभव - साधनमागमः'-यह लक्षण करने पर अनुमान प्रमाण में अतिव्याप्ति हो जाती है, इसलिये 'समयबलेन' संयोजित किया गया है। अनुमान प्रमाण अविनाभावरूप व्याप्ति का सहारा लेकर परोक्षज्ञान को जन्म देता है, समय या संकेतज्ञान के आधार पर नहीं । शब्द आगम प्रमाण है, वह समयपदाभिहित ईश्वरीय इच्छारूप संकेतज्ञान के द्वारा परोक्षज्ञान को जन्म देता है। यदि कोई अविनाभाव और समयरूप द्वारों को अभिन्न करना चाहे, तो उसका निराकरण करने के लिये आचार्य भासर्वज्ञ कहते हैं कि वे दोनों एक नहीं, अपितु उनमें बहुत बड़ा अन्तर है ।। साध्य और साधन के स्वाभाविक सम्बन्ध को अविनाभाव कहा जाता है, किन्तु बोधक और बोध्य के पुरुषेच्छाजनित सम्बन्ध को समय कहा जाता है, बोध्य तथा बोधक में अविनाभाव नहीं होता । शबर स्वामी शब्दार्थ के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण आक्षेप और समाधान के द्वारा इस प्रकार करते हैं - 'स्यादेतदेवं नैव शब्दस्याथेन सम्बन्धः । कुतोऽस्य पौरुषेयताऽपौरुषेयता वेति । कथम् ? स्याच्चेदर्थेन सम्बन्धः क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणे ग्याताम यदि संश्लेषलक्षण संबन्धनभि. प्रेत्योच्यते कार्यकारण-निमित्तनैमित्तिकाश्रयायिभावादयन्तु संबन्धाः शब्दस्यानुपपन्ना एवेति । उच्यते । यो यत्र व्यपदेश्यः संबन्धस्तमप्येकं न व्यपदिशति भवान्प्रत्याय्यस्य प्रत्यायकस्य च संज्ञासंज्ञिलक्षण इति । शब्द और अर्थ का संज्ञा शिसम्बन्ध शाब्द प्रमा का माध्यम है। अनुमान प्रमाण का माध्यम अविनाभाव है । परोक्षज्ञान के जनक अनुमान प्रमाण और शब्दप्रमाण दोनों है. किन्तु द्वार भिन्न-भिन्न है। समयसामर्थ्य से शब्द कहीं-कहीं पर संशय और विपर्यय तथा असद्वस्तु का भो बोधक हो जाता है, परन्तु वह प्रमा नहीं है, जैसाकि कुमारिल ने कहा है 'अत्यन्ताऽसत्यपि ज्ञानमर्थे शब्दः करोति हि । तेनोत्सर्गे स्थिते तस्य दोषाभावात्प्रमाणता ॥ संशय तथा विपर्यय में अतिव्याप्ति के निराकरणार्थ लक्षण में 'सम्यक्' विशेषण दिया गया है। ख पुष्प इत्यादि शब्दों के द्वारा अवश्य कुछ न कुछ अर्थबोध होता है, किन्तु बह बाधितविषय होने के कारण अप्रमा कहलाता है, प्रमा नहीं, क्योंकि सम्यक ज्ञान अबाधितविषयक होता है। ___ सविकल्पक प्रत्यक्ष भी सम्यक् अनुभव होता है, परन्तु परोक्ष नहीं । अतः 'परोक्ष' शब्द सविकल्पक प्रत्यज्ञ में आगमलक्षण की अतिव्याप्ति का निवर्तक है। यद्यपि औषनिषद मत में 'दशमस्त्वमसि' इत्यादि वाक्यों के समान 'तत्त्वमसि' आदि 1. समयाविनाभावयोर्वलक्षण्यं पश्यामस्तेनानुमाने प्रसंग: समयग्रहणेन न निवर्तितः ।, -न्या. भू., पृ. ३९६ 2. मीमांसादर्शन (आनन्दाश्रम संस्कृत-प्रन्थावली, १९२९), पृ. ४३ 3. मीमांसा लोकवार्तिक, सूत्र २, का. ६, पृ. ४६ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० व्यायसार महावाक्यों को प्रत्यज्ञ ज्ञान का जनक माना जाता है, तथापि उक्त स्थलों पर जो व्यवस्था आचार्य मण्डन मित्र तथा उनके अनुयायी वाचस्पति मिश्र आदि ने दी है कि महावाक्यों के श्रवण, मनन, निदिध्यासन से संस्कृत होकर मनरूप आन्तर इन्द्रिय उस प्रत्यक्ष ज्ञान का जनक होता है, शब्द प्रमाण नहीं ! वही व्यवस्था नैयायिकों को भी स्वीकृत है । आगमद्वैविध्य आचार्य भासर्वज्ञ ने 'स द्विविधो दृष्टादृष्टार्थत्वात्' इस न्यायसूत्र का अनुसरण करते हुए आगम प्रमाण के दृष्टार्थ तथा अदृष्टार्थ भेद का निर्देश किया है- 'स द्विष्टाष्टार्थभेदात् । दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ के स्वरूप का निर्वचन करते हुए भाष्यकार ने कहा है कि जिस शब्द प्रमाण का अर्थ (विषय) इस लोक में चक्षुरादि इन्द्रियों से प्रत्यक्ष ज्ञात होता है, वह दृष्टार्थक होता हैं । तथा जिसके विषय की परलोक में सिद्धि होती है, वह अनुष्टार्थक शब्दप्रमाण कहलाता है । " वार्तिककार ने दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ को प्रवक्ता के पक्ष में घटित किया है । प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण कारणसामग्री और विषय के आधार पर किया गया है । भाष्यकारादि ने शब्द प्रमाण का लक्षण विषय और कारणसामग्री की दृष्टि से किया है, कर्ता की दृष्टि से शब्द का लक्षण पहिले नहीं किया गया था । इसका कारण यही प्रतीत होता है के साधारणतया वेद में पुरुष- ऋतृत्व नहीं माना जाता था । मीमांसकों ने वेदों का अपौरुषेयत्व मानकर उनका नित्यस्व स्थापित किया । मीमांसकसम्नत शब्दांनत्यत्वप नैयायिकों को स्वीकार्य नहीं था । उनके अनुसार कृतक होने के कारण शब्द अनित्य है । अतः मीमांसकों के शब्दनित्यत्व-पक्ष को परिहार कर शब्दानित्यत्व पक्ष को सुदृढ़ करने के लिए वार्तिककार ने शब्द के भेदों को कर्तृपरक बतलाया है । वार्तिककारादि से पूर्व बौद्धों और मीमांसकों का वेदप्रामाण्य को लेकर शास्त्रार्थ प्रचलित था । वेदों को प्रमाण मानने के लिये मीमांसकों ने उनका अपौरुषेयत्व स्वीकार किया, बौद्धों ने अपौरुषेयत्व का प्रबल तकों से खण्डन किया । दोनों के संघर्ष को देखकर नैयायिकों ने वेदप्रामाण्य के लिये ईश्वरप्रणीतत्व को आधार बनाया । नैयायिक तर्कों द्वारा विषय का परीक्षण करते हैं । नैयायिकों को वेदों के कर्तृवपक्ष में तर्क संगति दिखाई दी, अपौरुषेयत्व में नहीं । अपौरुषेयता न मानने से वे अन्धालुता के देष से बच जाते हैं और ईश्वरप्रणीतत्व स्वीकार करने से वेदप्रामाण्य की रक्षा भी हो जाता है । वार्तिककार ने नैयायिकों के पौरुषेयत्वपक्ष को ध्यान में रखते हुए दृष्टार्थ तथा अष्टार्थ पद का तत्यवक्तृपरक निर्वचन किया है । 1. न्यायसार, पृ. २९ 2. न्यायभाष्य, ११११८ 3. न्यायवार्तिक, १1११८ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रमाणनिरूपण १९१ आचार्य भासर्वज्ञ को हष्टार्थ का अर्थ भाष्यकार के अनुसार विषय की दृष्टि से अभीष्ट है, जैसाकि उनके 'तत्र दृष्टार्थानां वाक्यानाम् इम प्रयोग से ज्ञात होता है । दृष्टार्थक तथा अष्टार्थक द्विविध वाक्यों में से दृष्टार्थक वाक्यों के प्रामाण्य का निश्चय ज्ञाता पुरुष को सफल प्रवृत्ति से होता है। अर्थात् यदि किसी ने कहा है कि घर में पांच फल रखे हुए हैं, इस वाक्य से घर में पांच फलों के होने का ज्ञान प्राप्त कर पुरुष घर में जाता है और पांच फल मिल जाते हैं, तो सफल प्रवृक्ति. द्वारा 'गृहे पंच फलानि सन्ति' यह वाक्य प्रामाणिक है, यह निश्चय हो जाता है। और यदि घर में पांच फलों की प्राप्ति नहीं होती तो ज्ञाता की असफल प्रवृत्ति से उस वाक्य का अप्रामाण्यनिश्चय हो जाता है। स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि अदृष्टार्थक वाक्यों में फल के अदृष्ट होने से उसकी प्राप्ति की संभावना भी नहीं है । अतः सफल प्रवृत्ति द्वारा उसके प्रामाण्य का निश्चय न होने से आप्तोक्तता ही उसके प्रामाण्य की निश्वायिका है। अदृष्टार्थक वाक्यों के प्रणेता अर्थात वक्ता का प्रत्यक्ष न होने से आप्तोतः त्वेन भी प्रामाण्य संभव नहीं है, इस आशंका का समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि 'पुत्रकामो यजेत' इत्यादि वाक्यों के फल के दृष्ट होने से पुत्रेष्टि करने पर पुत्ररूप फल की प्राप्ति हो जाती है और सफल प्रवृत्ति द्वारा उन वाक्यों का प्रामाण्यनिश्चय हो जाता है । 'पुत्रकामो यजेत' इत्यादि वाक्यों के प्रणेता अतीन्द्रियार्थदर्शी होने से परम आप्त पुरुष हैं । अतः उन अतीन्द्रियार्थदर्शी पुरुषों द्वारा प्रणीत सारे ही वाक्य प्रामाणिक हैं, इस प्रकार आप्तोक्तत्वेन सारे ही अदृष्टार्थक वैदिक वाक्यों के प्रामाण्य का निश्चय उपपन्न है। इस रीति से वेदों को ईश्वर पुरुष से प्रणीत मानने पर भी उनमें आप्तोक्त वेन प्रामाण्य का ज्ञान संभव है। वर्णनित्यता का निराकरण मीमांसक वेदों को अपौरुषेय मानकर नित्यत्वेन उनमें प्रामाण्य मानते हैं, वह संभव नहीं, क्योंकि वाक्यों के नित्य होने में कोई प्रमाण नहीं मिलता । अभिप्राय यह है कि वाक्य या पद वर्णो से भिन्न नहीं है । वर्णसमूह पद तथा पदसमूह वाक्य कहलाता है और समूह अवयवों से भिन्न नहीं होता । अतः वाक्य वर्णरूप हैं और वर्ण उत्पाद-बिनाशशाली होने से अनित्य हैं। यदि वर्गों को नित्य भी माना जाय, तो भी वेद का प्रामाण्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वर्णनित्यत्वेन वेद का प्रामाण्य मानने पर सभी लौकिक वाक्य भी प्रमाण होने लग जायगे। तात्पर्य यह है कि 'य एव वेदे वर्णाः त एव लोके' इस प्रत्यभिज्ञा के बल से लौकिक व वैदिक वर्ण एक हैं। यदि वर्णनित्यत्व के कारण वेद का प्रामाण्य माना जाता है, तो लोकक वाक्यों का भी प्रामाण्य मानना होगा और लौकिक वाक्य सभी प्रमाण नहीं हैं, 1. न्यायसार, पृ. २९ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ न्यायसार अतः वर्णनित्यत्व को वेदप्रामाण्य का कारण नहीं माना जा सकता। वाकयनित्यत्व की अपेक्षा वाक्यों का अनित्यत्व ही 'वैदिकानि वाक्यानि अनित्यानि वाक्यत्वात् लौकिकवाक्यवत्' इस अनुमान से सिद्ध होता है। इसी प्रकार निम्तोक्त अनुमानों से भी शब्द में अनित्यत्व ही सिद्ध हाता है : १ 'अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबायेन्द्रियग्राह्यत्वात् घटादिवत', २ 'अनित्यः शब्दः तीव्रत्वादिधर्मयुक्तत्वात्, सुखदुःखादिवत् ।' तथा शब्द को नित्य मानने पर यदि आकाशादि की तरह उसका अनुपलब्धिस्वभाव है, तो कभी भी शब्द की उपलब्धि नहीं होनी चाहिए और यदि उसका उपलब्धि स्वभाव है तो सर्वदा ही उपलब्धि होनी चाहिए । शब्द के नित्य होने पर भी व्यंजक द्वारा उसकी उपलब्धि होती है, अतः व्यंजककाल में ही उसकी उपलब्धि है, सर्वदा नहीं । जैसे, कक्ष में घट के विद्यमान होने पर भी प्रदीपादिरूप व्यंजक के बिना उसकी उपलब्धि नहीं होती, यह कथन भी समीचीन नहीं, क्योंकि शब्द का व्यंजक कोई उपलब्ध नहीं होता। वायुयोग को नित्य शब्द का व्यंजक मानने पर सभी शब्दों की एक काल में अभिव्यक्ति हो जानी चाहिये, क्योंकि वायुसंयोग को किसी शब्दविशेष का व्यंजक मानने में कोई कारण प्रतीत नहीं होता और जैसे चक्षुरिन्द्रिय अविशेषेण इन्दियसम्बद्ध सभी रूपों के ग्रहण में समथ हैं, उसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय भी वायुसंयोग द्वारा अभिव्यक्त सभी शब्दों के ग्रहण में समर्थ हैं। न तो श्रोत्र के किसी प्रतिनियत शब्द के संस्कार से युक्त होने में प्रमाण है और न शब्दों के प्रतिनियत संस्कार से युक्त होने में कोई प्रमाण है। अतः वायपयोग भी शब्दव्यंजक होने से सभी शब्दों को अभिव्यक्ति कराने में समर्थ है तथा श्रोत्रेन्द्रिय भी चक्षुरादि इन्द्रियों की तरह अपने विषयभूत सभी शब्दों के ग्रहण में समर्थ है। इसलिये एक काल में सभी शब्दों को अभिव्यक्ति व श्रोत्रन्द्रिय से उनका ग्रहण होना चाहिए। किन्तु होता नहीं । अतः वायुसंयोग को नित्य शब्द का अभिव्यंजक नहीं मान सकने । यदि यह कहा जाय कि शब्दों को अनित्य मानने में भी यह दोष है, क्योंकि ककारोच्चारण के लिये प्रेरित वायु वर्णान्तरोत्पादक वायुओं के समान होने से एक काल में सर्ववर्णो की उत्पत्ति क्यों नहीं करता ? विद्यमान वर्ण का वायुसंयोग उत्पादक है और सभी वर्ग उत्पत्ति से पूर्व समानरूप से अवेद्यमान हैं । अतः वर्णो के उत्पत्तिपक्ष में इस दोष का जो परिहार होगा, वही अभिव्यक्ति पक्ष में भी माना जा सकता है । इसीलिये अभियुक्तों ने कहा है 'यश्चोभयोः समो दोषः परिहारस्तयोः समः ।' इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि कारक और व्यंजक कारणों में वैधर्म्य है। मृत्पिण्डचक्रचीवरादि उत्पादक कारणों का समूह कुलाल के शरावनिर्माण के अभिप्राय से नियमित होकर शराब आदि प्रतिनियत कार्य का ही उत्पादन करता है, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रमाणनिरूपण १९३ घटादि का नहीं। किन्तु प्रदीपादिव्यंजक सामग्री किसी के अभिप्राय से नियमित नहीं होनी, अत एव प्रतिनियत ग्य का ही व्यंजन नहीं करती, अपितु स्वसम्बद्ध सभी व्यंग्यों का करती है । अतः वर्णात्पत्ति पक्ष में वायुपंयोग उत्पादयिता पुरुष के अभिप्राय से नियमित होने के कारण प्रतिनियत ककारादि वर्ण का ही उत्पादन करता है, सभी वणों का एक काल में नहों। किन्तु वायु संयोग को शब्दव्यंजक मानने पर वह पुरुषाभिप्राय से अतः वाय संयोग को शब्द का व्यंजक न मानकर उत्पादक मानना ही उचित है । अत एव वर्णो का अनित्यत्वपक्ष ही संगत है, नित्यत्व नहीं और इसी लिये नित्यत्वेन शब्दों का प्रामाण्य न मानकर आप्तीक्तत्वेन ही प्रामाण्य मानना समुचित है। इस प्रकार भासर्वज्ञ ने प्रत्यक्ष, अनुपान व आगम ये तीन ही प्रमाण माने हैं, शेष का इन्ही प्रमाणों में अन्तर्भाव माना है। अर्थापत्ति का प्रमाणान्तरत्व-निराकरण अन्यथा अनुपपद्यमान अर्थ के द्वारा उसके उपपदक अर्थ की कल्पना अर्थापत्ति प्रमाण है । जैसे-दिन में भोजन न करने वाले देवदत्त की प्रत्यक्षतो ज्ञात पोनता द्वारा उसके उपपादक रात्रि-भोजन की कल्पना अर्थापत्ति है। पीन देवदत्त का रात्रिभोजन प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात नहीं है, क्योंकि उसके साथ इन्द्रियसंनिकर्ष नहीं। तथा रात्रिभोजन के बोधक किसी आप्तवाक्य के न होने से वह शब्द प्रमाण से भी ज्ञात नही है । सादृश्यज्ञान के द्वारा रात्रिभोजन का ज्ञान न होने से उपमान प्रमाण द्वारा उसका ज्ञान नहीं। पोनता के साथ रात्रिभोजन का अव्यभिचाररूप व्याप्तिसम्बन्ध न होने से अनुमान द्वारा भी उसका ज्ञान नहीं । इसी प्रकार जीवित पुरुष की गृहासत्ता बहिः सत्ता के बिना अनुपपन्न है। अतः जीवी पुरुष की गृहासत्ता के उपपादक बहिः सत्त्व की कल्पना भी अर्थापत्ति है । उपर्युक्त रोति से रात्रिभोजनादि का प्रमाणान्तर द्वारा ज्ञान न होने से उसके बोधक अर्थापत्ति प्रमाण को पृथक प्रमाण मानना चाहिये । भासर्वज्ञ का कथन है कि अनुमान प्रमाण से रात्रिभोजन को या बहः सत्त्व की अनुमति होने से अनुमान प्रमाण में इसका अन्तर्भाव उपपम्न है । अनुमान अविनाभावरूप व्याप्ति के बल से अर्थसिद्धि करता है । जैसे, धूम वन्यविनाभाव से पर्वतादि में वहनि को सिद्धि करता है, किन्तु यहां तो अन्यथानुपपत्ति के बल से रात्रि-भोजन या पुरुष की बहिः सत्ता सिद्ध होती है। अतः इसे अनुमान कैसे माना जा सकता है १ तथापि 'अन्यथा नोपपद्यते' इस उक्ति का तात्पर्य 'उसके होने पर ही होता है, इस अविनाभाव में ही है अतः दिन में भोजन न करने वाले पुरुष भान्या-२५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ न्यारसार को पीनता तथा रात्रिभोजन का अविनाभाव उपपन्न हो जाता है ।1 निम्नलिखित अनुमान भी इसी तथ्य को सिद्ध कर रहे हैं : 'देवदत्तो रात्रिभोजनवान् दिवाऽमुंजानत्वे सति पीनत्वात्' । 'चैत्रो बहिः सत्त्ववान्, जीवित्वे सति गृहासत्त्वात्' । गृहासत्व का सत्ता के साथ विरोध होने से वह सत्ता को कैसे सिद्ध करेगा, . यह आशंका भी अविचारितरमणीय है, क्यों के गृहासत का गृहसत्त्व से विरोध है न कि सत्तामात्र से । अतः गृहासत्त्व बहिः सत्ता का विरोधी नहीं है। जहां विस्फोटादि कार्य की अन्यथानुपपत्ति के द्वारा अग्नि में दाहकत्वशक्ति की कल्पना की जाती है, वहीं अनुमान हीं बन सकता, क्यों के कारण-साकल्य के प्रत्यक्षविषय न होने से कारणसाकल्य मैं और वहनिनिष्ठ अप्रतिबद्ध शक्ति में अन्वयसहचाररूप अन्वयव्याप्ति नहीं बन सकती । अतः तदर्थ अर्थापत्ति प्रमाण मानना पड़ेगा, यह कथन भी समीचीन नहीं, क्योंकि वहां भी व्यतिरेकव्याप्ति के संभव से केवलव्यतिरेकी अनुमान में अर्थापत्ति का अन्तर्भाव संभव है ।' अन्वयव्या ८त के अभाव से यदि केवलव्यतिरेकी को अनुमान न मानने पर व्यतिरेकव्याप्ति के अभाव से केवलान्वयी हेतु का भी अनुमानत्व नहीं होगा और उसे भी केवलव्यतिरेको की तरह पृथक् प्रमाण मानना पड़ेगा और इसी प्रकार प्रत्यक्षादि भेदों में भी स्वल्प वैधर्म्य के कारण प्रत्यक्ष न होने से प्रमाणान्तरता को आपत्ति होगी । अतः अन्वयव्याप्ति के वैधुर्य से केवलव्यातरेकी को अनुमान मानना उचित है और केवलव्यतिरेकी अनुमान में ही अर्थापत्ति का अन्तर्भाव है। संभव का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण सहस्त्र संख्या में शत संख्या के सम्भव से सहस्र के द्वारा शतादि संख्या की प्रतिपत्ति संभव प्रमाण है । सहस्र में शतादि संख्या का ज्ञान प्रत्यक्षादि प्रमाण का विषय नहीं है, अत. इसे पृथक् प्रमाण मानना चा हैए, ऐसा कतिपय विचारक मानते हैं । किन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि सहस्र में शतादि संख्याप्रतिपत्ति अनुमान प्रमाण से संभव है । शता दे संख्या का सहस्र संख्या से अवनाभाव है, क्योंकि स्वल्प संख्या का समाहार ही अधिक संख्या है। स्वल्प संख्या के अभाव में अधिक संख्या की अनुपपत्ति है । अतः 'सहस्र शतादिसंख्याविनाभूतं सहस्रस्य स्वल्पशतादि. संस्थासमाहाररूपत्वात्, स्वल्पसंस्थाभावे प्रभूतसंस्थानुपपत्तेः' इत्ययाकारक अनुमान द्वारा ही सहन संख्या में शतादि सख्या का ज्ञान उत्पन्न होने से संभव के पृथक्प्रामाण्य की अपेक्षा नहीं। 1. न्यायसार, पृ. ३२-३३ 2. न्यायसार, पृ. ३३ 3. न्यायभूषण, पृ. ४३०-४३१ : Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रमाणनिरूपण १९५ अभाव का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण भाह मीमांसक भूतलादि में घटाभवज्ञान के लिये अनुपलब्धि या अभाव नामक पृथक् प्रमाण की सत्ता स्वीकार करते हैं । उनका अभिप्राय यह है कि भूतल में घटाद्यभाव का प्रत्यक्ष उत्पन्न नहीं, क्यों क घटाद्यभात्र की इन्द्रिय के साथ संयोगादि सम्बन्धों की अनुपपत्ति है । अभाव के द्रव्य न होने से उसके साथ चक्षुरिन्द्रय का संयोग सम्बन्ध नहीं बन सकता । अभाव के गुण, कर्म व तद्गत जाति न होने से संयुक्तसमवाय तथा संयुक्तसवेत पमवाय मम्बन्ध भी बन सकते । अभाव के शब्द व शब्दत्वरूप न होने से समवाय तथा समवेतसमवाय सम्बन्ध भी नहीं बनते । विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्ध ही नहीं है, क्योंकि सम्बन्ध द्विष्ठ. एक तथा सम्बन्धियों से भिन्न होता है। विशेषण-विशेष्यभाव में विशेषणता विशेषण में व विशेष्यता विशेष्य में ही रहती है। अतः वह द्विष्ठ नहीं है तथा वह दोनों संबंधियों से भिन्न भी नहीं है । अतः इन्द्रिय के साथ अभाव का कोई सम्बन्ध न होने से प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा घटाद्यभाव का ज्ञान नहीं हो सकता। अव्यभिचारी लिंगज्ञान, सादृश्यज्ञान तथा पदज्ञान के अभाव से अनुमानादि प्रमाणों को अभावज्ञान में प्रसक्ति नहो है । अतः परिशेषात् भूतलादि में घटाभावादि के ज्ञान के लिए अनुपलब्धि अर्थात् उपलब्धि के अभाव को पृथक् प्रमाण मानना होगा । इससे भूतल में घटाभावादि का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है. क्यों क यदि भूतल में घटाभाव होता, तो भूतल की तरह उसकी भी इन्द्रिय से उपलब्धि होती है । उपलब्धि का अभाव है, अतः भूतल में घटाभाव का निश्चयात्मक ज्ञान हो जाता है। भासर्वज्ञ का कथन है कि भूतलादि में घटाद्यभावज्ञान इन्द्रियरूप प्रत्यक्ष प्रमाण से ही होता है, क्योंकि चझुरादि इन्द्रिय के होने पर ही घटाद्यभावज्ञान होता है, अन्यथा नहीं । अतः घटाद्यभावज्ञान का इन्द्रिय के साथ अन्वयव्यतिरेक होने से इन्द्रिय ही उसमें कारण है। - यदि यह कहा जाय कि इन्द्रिय का अन्वयव्यतिरेक भूतलादिज्ञान में पर्यवसित है न कि अभाव के साथ, तो यह कथन भी युक्त नहीं क्योंकि जैसे घटरूप प्रत्यक्ष स्थल में घटादि आश्रय के साथ विद्यमान इन्द्रिय का सम्बन्ध रूपाद आश्रित के साथ भी माना जाता है, उसी प्रकार घटाभावादि के आधार भूतल में विद्यमान इन्द्रिय सम्बन्ध के तदाश्रित घटाभावादि के साथ भी मानने में कोई बाधा नहीं है। घटाभावादि के साथ इन्द्रिय का संयोग, समवाय या अन्य कोई सम्बन्ध नहीं है और विषय से असम्बद्ध इन्द्रिय विषयग्रहण में असमर्थ है, यह कथन भी तर्क संगत नहीं है, क्योंकि मीमांसकमत में जैसे घटरूपादि का इन्द्रिय के साथ घटरूपादि के प्रत्यक्षरूप कार्य से अनुमेय योग्यतारूप सम्बन्ध है, उसी प्रकार घटाभावादि के प्रत्यक्ष में भी घटाभावादि के प्रत्यक्षरूप कार्य से अनुमेययोग्यता सम्बन्ध इन्द्रिय Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ न्यायसार का घटाभावादि के साथ विद्यमान है और न्यायमत में जैसे घटरूपादि के साथ इन्द्रिय का संयोग या समवाय संबंध न होकर संयुक्तसमवायादि सम्बन्ध है. जैसे ही भूतलनिष्ठ घटाभावादि के साथ भी इन्द्रिय का मंयुक्त-विशेषण विशेष्यभावादि सम्बन्ध विद्यमान है । 'चक्षुषा घटरूपं पश्यामि' की तरह 'चक्षुषा घटाभावं पश्यामि' प्रतीति भी समान है। संयोग-प्समवायादि से भिन्न विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध की अनुपत्ति है, यह मान्यता भी तर्कयुक्त नहीं है, क्योंकि 'भूतलं घटाभाववत्' इस विशिष्ट प्रतीति के बल से अभाव के साथ इन्द्रिय का संयोगादि रहित विशेषण विशेष्यभाव सम्बन्ध मानना हो होगा । जैसे-'गोमान्' इस विशिष्ट प्रतीति के बल से गोमान् पुरुषमात्र के साथ इन्द्रिय का संयोग सम्बन्ध होने से विप्रकृष्ट देशस्थित गाय के साथ इन्द्रियसम्बन्ध न होने पर भी उसके साथ संयोगादिरहित विशेषणविशेष्यभाव माना जाता है अन्यथा 'गोमान् इत्याकारक विशिष्ट प्रतीति अनुपपन्न हो जायेगी । अतः इन्द्रिय के साथ घटाभावादि का विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध होने से इन्द्रिय द्वारा ही भूतलादिवर्ती घटाभावादि का ज्ञान हो जाता है, उसके ज्ञान के लिये अनुपलब्धि अर्थात् उपलब्ध्यभाव को पृथक् प्रमाण मानने को आवश्यक्ता नहीं। ऐतिहय का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण जनश्रुतिपरम्परागत 'इस क्ट में राज्ञ है' इत्याकारक ज्ञान के लिये कतिपय विद्वान 'इह वटें यज्ञः प्रतित्रसति' इस अनिर्दिष्टवक्तृक प्रवादपरम्परारूप ऐतिहय को प्रमाण मानते हैं । यह ऐतिय पृथक् प्रमाण है, क्योंकि वट में यक्षज्ञान इन्द्रियसम्बन्ध के अभाव से प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं है । किसी अव्यभिचारी लिंगासन के अभाव से अनुमान द्वारा तथा साहश्यज्ञान के अभाव से उपमान प्रमाण द्वारा व आप्तपुरुषवक्तृत्व के ज्ञान के अभाव से आप्तवाक्यरूप शब्द प्रमाण द्वारा भी उसका ज्ञान संभव नहीं । किन्तु भासर्वज्ञ नैयायिक मतानुसार यह कहते हैं कि 'इह वटे यज्ञः प्रतिवसति' यह किसी आप्त पुरुष का वाक्य हैं, तब तो आप्तवाक्य द्वारा वट में यक्षज्ञान होने से वह शब्द प्रमाण ही है और यदि वह वचन आप्तपुरुषोक्त नहीं है, तो उसे प्रमाण मानना ही असंगत है। परम्परागत जनश्रुति का भी कोई अज्ञात आप्त पुरुष मूल होता है, इस अभिप्राय से भासर्वज्ञ ने उसका आगम प्रमाण में अन्तर्भाव बतलाया है । चेष्टा का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण शरीर व शरीरावयवों की प्रयत्नजनित क्रिया रूप चेष्टा का भी प्रमाण है, क्योंकि उसके द्वारा नाट्य व लोक में भिन्न पुरुषाभिप्रायों की प्रतीति होती है। 1. न्यायसार, पृ. ३३, ३४ . 2. न्यायसार, पृ. ३४ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रमाणनिरूपणं १९७ प्रत्क्षादि प्रमाणों से अप्रतिपादित पुरुषाभिप्रायविशेष की बोधिका होने से चेष्टा पृथक् प्रमाण है ऐसा पौराणिक मानते हैं । किन्तु चेष्टा नाट्यशास्त्रादि द्वारा ज्ञात संकेत के बल से ही सतत्पुरुषाभिप्राय विशेष का बोधन करतो है । अतः संकेतग्रह द्वारा अर्थबोधक होने से उसका आगम प्रमाण में अन्तर्भाव है । संकेतबल से पुरुषाभिप्रायविशेष का बोधन करने पर भी वह शब्दरूप नहीं है, अतः इसे आगम नहीं माना जाना चाहिए, यह आपत्ति निर्मूल है, क्योंकि ऐसा मानने पर लिप्यक्षरों के भी शब्दरूप न होने से अर्थ प्रतिपत्ति की अनुपपत्ति होगी । अतः शब्दरूप न होने पर चेष्टा संकेतबल से अर्थबोधन करने के कारण शब्द - प्रमाणरूप ही है । ' इस प्रकार अर्थापत्ति आदि प्रमाणों में अनुमान शब्दादि प्रमाणों में अन्तर्भाव हो जाने से अर्थापत्ति आदि का पृथक् प्रमाणत्व नहीं है । इसा अभिप्राय से सूत्र - कार ने कहा है ' शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावादनुमानेऽर्थापत्तिसम्भवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ' ।, " उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण 4 · यथा भासर्वज्ञ नैयायिक होते हुए भी परम्परागत न्यायसिद्धान्त के विरुद्ध सांख्य, 8 योग आयुर्वेदादि दर्शनों की तरह प्रत्यक्ष, अनुमान व शब्द ( आगम ) इन तीन प्रमाणों को ही स्वीकार करता है तथा प्राचीन न्यायचार्यो द्वारा स्वीकृत उपमान प्रमाण का शब्द में अन्तर्भात्र मानता है । उनका आशय यह है कि गौस्तथा गवयः' अर्थात् जैसे गाय होती है, वैसा ही गवय होता है इत्याकारक ज्ञान ही उपमान है और यह वाक्यरूप है । अतः इसका 'अग्निमानय ' इत्यादि वाक्यों की तरह शब्द प्रमाण में अन्तर्भाव है । यदि ' यथा गौस्तथा गत्रयः इस वाकय के अन्य वाक्वों से भिन्न होने के कारण उपमान को पृथक् प्रमाण माना जायेगा, तो विधि, अर्थवाद आदि वाक्यों के भी सामान्य वाक्यों से भिन्न होने के कारण उनमें भी पृथक् प्रामाण्यापत्ति होगी । " मीमांसकों का कथन है कि ' यथा गौस्तथा गत्रयः ' यह ज्ञान तो शब्द प्रमाणजन्य है, किन्तु वन में गवय को देखने पर 'मेरी गाय इस गवय के समान है ' 1. न्यायसार, पृ ३४ 2. न्यायसूत्र, २/२/२ 3. त्रिविचं प्रमाणमिष्टम्... | - सांख्यकारिका, ४ 4. प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि । न्यायसूत्र, १९७ 5. एत्रमेतानि त्रीण्येव प्रमाणानि । - न्यायसार, पृ. ३४ 6 तत्र गौरिव पत्र इत्युक्मानं शब्देऽत्तर्भूतम् । 7. न्यायभूषण, पृ. ४१७ वही, पृ. ३० Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ न्यायसार अर्थात् गो में गवयसाश्यज्ञान है वह उपमान है। उस समय गाय का प्रत्यक्षादि द्वारा ज्ञान न होने से उस ज्ञान को प्रत्यक्षादिप्रमाणजन्य नहीं कहा जा सकता। अन उपमान को पृथक् प्रमाण मानना उचित है। किन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि गृहस्थित गाय का तथा सादृश्य का पहिले प्रत्यक्ष हो चुको है। अतः वन में गवय को देखने पर उसमें गो में) गवय-सादृश्यज्ञान स्मृतिमात्र है, क्यों के पहिले घर में चक्षुरिन्दय द्वारा गोपिण्ड के प्रत्यक्ष के समय विषाणादिप्रत्यक्ष को तरह प्रत्यक्षयोग्य हाने से सादृश्य का भी प्रत्यक्ष हो चुका है। अतः उसकी स्मृति मानने में केसी प्रकार को आपत्ति नहीं है। गोपण्ड प्रत्यक्षकाल में सादृश्यमात्र का ही प्रत्यक्ष हआ है न कि गवयप्तादृश्य का । अन्यथा उसी समय गवयसादृश्य को प्रतीति हो जाती और वर्तमान में अनेन सहशो मदीया गौः' इस रूप से गो में गवयसादृश्यज्ञान हो रहा है, अतः इसे स्मृति नहीं माना जा सकता- यह शंका भी निराधार है, क्योंकि गोपिण्डदर्शनकाल में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा सादृश्यमात्र का ज्ञान होने पर भी यदि गाय गवय के सदृश न होती, तो गवय भो गाय के सदृश नहीं होता, किन्तु यह गवय गोपिण्ड के समान है, अतः यह मेरी गाय भो गवय के समान अवश्य है, इस आपत्ति से गवय-दर्शन-काल में गोपिण्ड में गवयसादृश्य का स्मरण हो जाता है। निर्विकल्पक अनमव से अर्थात गो में सादृश्यमात्र के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से 'गव यसादृश्य वाली यह गाय है, ऐसी सविकल्पक स्मृति अनुपपन्न है, क्यों के अनुभवानुकारिणी हो स्मृति होती है, यह आशंका भी समुचित नहीं । जैसे अभाव, सामान्य का पूर्व निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होने पर भी बाद में प्रतियोगिज्ञानादि सहकोरिकारणों के सामर्थ्य से अभागदि को सविकल्पक स्मृति होती है उसी प्रकार गौ में सादृश्यमात्र के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से बाद में गवय को देखने पर 'यह गौ गवय सादृश्य वाली है, यह सविकल्पक स्मृति गवयदर्शनसामर्थ्य से हो जाती है । जैसी गाय है वैसा गवय है, यह ज्ञान 'यथा गोस्तथा गवयः' इस वाक्य से हो जाने पर भी 'गवय शब्द गवय-पिण्ड को वाचक है, यह ज्ञान उपर्युक्त वाक्य से नहीं होता और उपमान का फल गवय शब्द तथा गवयपिण्ड में संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध का ज्ञान है । अतः तदर्थ उपमान को पृथक् प्रमाण मानना चाहिये. यह न्याय. भाष्यकार, वातिककोरादि की मान्यता है। किन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि यह संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान भो आप्तवाक्यरूप शब्दप्रमाण से ही उपपन्न हो जाता है। इसीलिये तुम्हें कसे मालूम हुआ कि यह गवयपिण्ड गवयशब्दवाच्य है, ऐसा पूछने पर वह व्यक्ति उत्तर देता है कि 'यथा गौस्तथा गवयः' इस वनेचर के वाक्य से 1. न्यायसार, पृ. ३० 2 न्यायभूषण, पृ. ४१८-४१९ 3. समारूयासबन्धप्रतिपत्तिरुपमानार्थः ।- न्यायभाष्य, 1111६ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमगप्रमाणनिरूपण १९९ मालूम हुआ, न कि उपमान से । यह प्रश्नोत्तर संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान को आप्तः वाक्यरूप शब्द से जन्य ही बतला रहा है ।' तथा 'प्रत्यक्षेण घटं पश्यामि. 'धूमेनाग्निं जानामि, 'आगमेन स्वर्गमवगच्छामि' की तरह 'उपमानेन संज्ञासंज्ञि. सम्बन्धं जानामि' का प्रयोग कोई भी लौकिक तथा तेर्थिक नहीं कहता, अतः उपमान पृथक् प्रमाण नहीं है। यथा गौस्तथा गवयः' इस वनेचरवाकय से संज्ञासंज्ञसम्बन्ध-ज्ञान अनुपपन्न है. क्योंकि वनेचरवाक्योच्चारण के समय गवर्यापण्ड का प्रत्यक्ष नहीं है और अप्रत्यक्ष अर्थ में संज्ञासज्ञिसम्बन्धज्ञान कैसे हो सकता है, यह शंका भी निर्मूल है, क्योंकि अदृष्ट शकादिशब्दसम्बन्धज्ञान तथा कभी कभी अदृष्ट पुत्रादि में नामकरण रोक में अनुभवसिद्ध है । अदृष्ट शकादि में जैसे शक्रादि-संज्ञाग्रहण में नेत्रसहस्रादि निमित्त उपलब्ध होते हैं उसी प्रकार अदृष्ट गवयपिण्ड में गवयसंज्ञाज्ञान का निमित्त गवादिसादृश्य भी उपलब्ध है। 'गवयपिण्उ गवयशब्दवाच्य है, 'इस सामान्य संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध-ज्ञान के वनेचर. वाक्यरूप शब्द से उपपन्न होने पर भी यह प्रत्यक्ष दृश्यमान अर्थात् पुरतः स्थित गवयपिण्ड गवयशब्दवाच्य है, इत्याकारक विशेष संज्ञा ज्ञसम्बन्धज्ञान के लिये उपमान को पथक प्रमाण मानने की आवश्यकता है, यह कथन भी यक्तियक्त नहीं, क्यों क ऐसा मानने पर 'गौरयम्' इस वाक्य से भो इस पुरोदृश्यमान विशेष आकार वाले व्यक्ति की गोसंज्ञा है, इस अर्थ को प्रतिपत्ति न होने से एतदर्थ पृथक् प्रमाणाभ्युपगम की प्रसक्ति होगी । तथा एक गोपिण्ड में 'गौरयम्' इत्याकारक विशेष संकेतज्ञान हो जाने पर भी व्यक्त्यन्तर में संकेतज्ञान न होने से तदर्थ पृथक् प्रमाण मानना होगा। यदि यह कहा जाय कि व्यक्त्यन्तर में 'गौरयम्' इत्याकारक शब्द का प्रयोग न करने पर भी एकत्र प्रयुक्त 'गौरयम्' इस वाक्य का प्रतिपादक तथा प्रतिपत्ता दोनों यही अभिप्राय समझते हैं कि सभी गोव्यक्तियों की गोशब्द संज्ञा है, अतः तदर्थ पृथक् शब्दाभिधान की आवश्यकता नहीं, तो प्रकृत में भी 'गोमहशो गरयः' इस वनेचरवाक्य का उच्चारण करने वाला वने चर तथा उससे अर्थज्ञान करने वाला नागारक यही समझता है कि गोसहशपिण्ड की गवयशब्द संज्ञा है, क्योंकि यह बाक्य उसी अर्थ को बतलाता है । अतः उपमान को किसी भी प्रकार से पृथक प्रमाण मानना उचित नहीं है। सूत्र विरोधपरिहार यदि उपमान पृथक् प्रमाण नहीं है, तो सूत्रकार ने 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि' इस प्रमाविभागसूत्र में उसका पृथक् प्रमाणत्वेन उल्लेख क्यों किया ? 1. न्यायसार, ३०-३१ 3. न्यायसार, पृ. ३१ 2. न्यायभूषण, पृ. १२० 4. न्यायसार, ३१ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि जिस प्रकार हष्टान्त प्रमाण के अन्तर्भूत है, फिर भी दृष्टान्ताभासों से उसका भेदज्ञापन करने के लिये सूत्रकार ने उसका पृथक् उल्लेख किया है तथा हेत्वाभासों के निग्रहस्थानान्तर्गत होने पर हेत्वाभासों के स्वरूपविशेषबोधन के लिये उनका पृथक् अभिधान किया है. उसी प्रकार उपमान के शब्दान्तभूत होने पर भी शब्द के प्रामाण्यसामर्थन के लिये उसका पृथक अभिधान सत्रकार ने किया है । तात्पर्य यह हैं कि कछ विद्वान शब्द का प्रामाण्य स्वीकार नहीं करते, कयोंकि जहां शब्द प्रमाण का विषय प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण से ज्ञात है, वहां शब्द उस अर्थ का अनुवादकमात्र है न कि अपूर्वार्थबोधक । अतः अनुवादकत्वेन वहां उसे प्रमाण मानना अनुचत हैं और जहां शब्द का विषय प्रत्यक्ष व अनुमानादि से ज्ञान नहीं है, वहां उन पदार्थ के अज्ञान होने से उसके साथ शब्द का संकेतज्ञान नहीं हो सकता और अज्ञात संकेत अर्थ का शब्दबोध नहीं करा सकता । पद द्वारा पदार्थ को ज्ञान मानना अन्योन्याश्रय दोष के कारण मंभव नहीं और वाक्यार्थ पदार्थो का अन्वयमात्र होने से उसे भी पदार्थ का बोधक नहीं माना जा सकता । अतः अप्रसिद्ध अर्थ के साथ शब्द का संकेतग्रहण संभव न होने से संकेतज्ञान द्वारा अर्थबोधक शब्द का प्रमाण नही माना जा सकता इस शब्दाप्रामाण्य का निराकरण करने के लिये उपमान का पृथक् उपादान किया है । अर्थात् जिस नागरेक ने गवय पण्ड को नही देखा है, अत एव जिसको गवय पदार्थ का ज्ञान नहीं है, उस व्यक्ति को भी 'गोसदृशो गवयः' इत्याकारक गोसादृश्यरूप उपमान के द्वारा अज्ञात पदार्थ गवव प्राणी के साथ गवयशब्द का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार प्रत्यक्षादि द्वारा अज्ञात होने से अप्रसिद्ध पदार्थ का भी शब्द के साथ सम्बन्धज्ञान उपपन्न हो जाता है और सम्बन्धज्ञान द्वारा उस पदार्थ का बोधक होने से शब्द का प्रामाण्य अक्षत है। शब्दप्रामाण्यसमर्थनार्थ उपमान का पृथक् उल्लेख करने पर भी यदि वह पृथक प्रमाण नहीं है, तो उसके लक्षण की क्या आवश्यकता है ? किन्तु सूत्रकारने 'प्रासद्धसाधोत् साध्यसाधनमुपमानम इस रूप से पृथक् लक्षण बतलाया है। अतः उसका पृथक् प्रामाण्य सूत्रकार को स्वीकृत है, यह शंका भी निराधार है, क्योंकि लक्षणनिर्देश बिना उसको सप्रयोजनता व अन्य प्रमाणों में अन्तर्भाव का ज्ञान नहीं हो सकता, एतदर्थ उसका पृथक् प्रमाण न होते हुए भो लक्षण किया गया है । सूत्रकार ने अन्य प्रमाणों की तरह उपमान प्रमाण की परीक्षा की है यह तर्क भी उपमान को पृथक् प्रमाण सिद्ध करने में असमर्थ है, क्यों क परीक्षासूत्रों द्वारा उसमें प्रमाणता सिद्ध की गई है। याद परीक्षा न की जाती, तो उपमान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होती और उसके अभाव में अन्य प्रमाण में उसका अन्तर्भाव कैसे बतलाया जा सकता है। 1. न्यायभूषण, पृ. १२२, ४२३, ४९१ 2. वही, पृ. ४२४ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रमाणनिरूपण २०१ परीक्षा में पूर्वपक्षसूत्र तथा उत्तरपक्षसूत्र भी उपमान की शब्दरूपता ही बतला रहे हैं । विस्तारभय से उनका उल्लेख यहां नहीं किया जा रहा है। सूत्रकार ने उष्मान के अन्तर्भाव का निषेध भी अनुमान प्रमाण में ही बतलाया है न कि शब्द प्रमाण में । अतः शब्द प्रमाण में इसका अन्तर्भाव सूत्रकार को संमत है । यदि उपमान का पृथक् प्रामाण्य सूत्रकार को अभीष्ट नहीं है. तो प्रमाणों के त्रित्वसंख्याविशिष्ट होने से 'न चतुष्ट-मैतिह्य पत्तिसंभवाभावप्रामाण्यात्', 'शब्द ऐतिह्यान्र्थान्तरभावादनुमानेऽर्थापत्तिमभवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेध ' । इन सूत्रों के द्वारा प्रमाणचतुष्टयातिरिक्त ऐतिह्यादि प्रमाणों का शब्द तथा अनुमान में अन्तर्भावप्रतिपादन द्वारा चतुष्वसाधन असंगत होगा । अतः इन परीक्षा सूत्रों द्वारा स्पष्ट सिद्ध है कि सूत्रकार को प्रमाणचतुष्टव ही अभिप्रेत है । उपमान को पृथक् प्रमाण न मानने पर इन परीक्षा सत्रों का विरोध स्पष्ट है. इस आशंका का परिहार करते हुए भासज्ञ ने कहा है कि सत्रकार का परीक्षासूत्रों द्वारा चतुष्ट्व. प्रतिपादन पंचत्वादि अधिक संख्या के परिहारार्थ है न कि न्यून त्रिस्त संख्या के प्रतिषेधार्थ क्योंकि उपमान का कद प्रमाण में अन्तर्भाव प्रमाण सिद्ध है । प्रमाण त्रित्व के सूत्रकारामित होने पर भी उमका अभिधान सत्रकार की इस प्रकार की क्वाचिक शली के कारण है। तात्पर्य यह है कि सत्रकार स्वाभिमत सिद्धान्त का भी कहीं-कहीं कथन लिये नहीं करते कि इस न्यायशास्त्र में ऊहादिशक्ति के अतिशय से सम्पन्न व्यक्तियों का अधिकार है, इस बात को वे बतलाना चाहते हैं । अनः अनभिधान करने पर भी वे ऊहादिशक्त्यतिशय द्वारा उस बात को समझ लेंगे । जैसे. मनम्हित ६ इन्द्रियां सूत्रकार को अभिप्रेत हैं, किन्तु सत्र में इन्द्रियों के पंचत्व का ही उल्लेख है न कि पदव का । अतः प्रमाण त्रित्व का अभिधान न करने मात्र से सत्र का प्रमाण त्रित्व से विरोध माना संभव तहीं। आलोचना सांख्यादि की तरह उपमान का शब्द प्रमाण में अन्तर्भाव हा कर चाहे भासर्वज्ञकृत प्रमाण त्रित्व की स्थापना संगत कही जाय, किन्तु उसे सूत्रकारसम्मत सिद्ध करना समुचित नहीं है। सूत्रकार 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि' 1. न्यायसूत्र, ५। 3. न्यायसार, पृ. ३२ 2. . ५।२।२ 4. न्यायभूषण, पृ. ४२६-३२७ 5. Here comes a hard nut to crack and we find in wbat a hopeless quandary our author finds himself in his anxiety to reconcile the view of the Sūtrakāra to bis own view. The ingenuity that our author shows simply amuses us and fails to produce any conviction-Nyaya. sāra, Notes (Poona, 1922), p. 74, भान्या-२६ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.२ न्यायसार इम विभागसूत्र में स्पष्ट रूप से उम्को शब्द प्रमाण से पृथक उल्लेख कर रहे हैं। प्रत्यक्षा'द प्रमाणों को रह प्रसिद्धसार ति र साधनम् मनम' इस सत्र द्वारा उपमान का लक्षण भी उन्होंने बताया है तथा 'आयन्त प्रायैकदेशसाधादुपमानासिद्धिः'। इस सूत्र द्वारा उपमानासिद्धिबोधक पूर्वपक्ष का उपन्यास कर 'प्रसिद्ध. माधोदुपमा म्द्धयथोक्त दोषानुपपत्तिः” इस सूत्र के द्वारा उपमान मिद्धि का निरूपण द्वारा और 'उपमानानुमानं प्रत्यक्षेणा प्रत्यक्षसिद्धःइस सूत्र से उकी अनुमानान्न तता को आशंका कर तथेत्यपसंहागदुपमा नसिद्ध विशेषः 4 सूत्र के द्वारा उमके अनुमान में अन्तर्भाव का निषेधरूप परीक्षा द्वारा वे उपमान की पृथक प्रमाणता सिद्ध करते हैं । अतः सूत्रकार उद्देश लक्षण, परीक्षा नीनों के धारा जब उपमान की पृथक् प्रमाणता सिद्ध कर रहे हैं, तब उपमान का पृथक् प्रामाण्य सूत्रकार को अभिमत नहों, यह कथन साहस मात्र ही है। उपमानविषयक सूत्रों की अन्यथा योजना भी समीचीन नहीं है । भामर्वज्ञ ने कहा है कि दृष्टान्त के प्रमाण तथा हेत्वाभामों के निग्रहस्थान होने पर भी प्रयोजनवशात उनके पृथक् अभिधान की तरह उपमान का पृथक् अभिधान प्रमाण विभागसूत्र में किया गया है, यह कथन समुचित :हीं, क्यों क दृष्टान्त प्रथम तो कोई प्रमाण नहीं क्योंकि प्रमाण प्रमेय का माधक है । पर्वतादि में नि का साधक अविनाभूत हेतु है. न कि दृष्टान्त । परार्थानुमान में दूमरे व्यक्ति को 'पर्वत में अग्नि है' इस बात को बतलाने के लिये पञ्चावयववाक्यरूप ममदाय की आवश्यकता होती है, उन्हों अवयव-गक्यों में अन्यतम हाटान्त हैं। उम्की कल्पना केवल पगर्थानुमान के लिए है, वह स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है। इसी प्रकार हेत्वाभास सामान्य निग्रहम्थान न होकर साध्यमाधक हेतु के ही दोष हैं, जो कि हेतु की तरह प्रतीत होते हैं, किन्तु उनका प्रयोग करने पर भी आदी या प्रतिवादी निगृहीत हो जाता है, अतः • उनको निग्रहस्थान भी मान लिया गया है। उपमान का पृथक कथन शब्दप्रामाण्य के समर्थन के लिये है-यह क्थन भी संगत नहीं, क्योंकि व्याकरण-कादि द्वारा प्रसिद्ध पदार्थ के साथ पद का सम्बन्धग्रह हो जाने से उपमान के बिना भी शब्द प्रामाण्य का समर्थन संभव है। संकेत ग्राहक व्याकरणादि तो प्रसिद्धार्थक पदार्थ वा पद के साथ रंकेत बोधन करने के लिए ही हैं । उपमान के सूत्रकारकृत लक्षण सत्र का, अलक्षित प्रमाण के अन्तर्भाव 1. न्यायसूत्र, ५।२।२५ 2. वही, २१:१५ 3. , २।११४६ 4. , १४८ 5.शक्तिग्रह व्याकरणीपमानकोशाप्तवाक्या व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्धिवृत्तवदन्ति सांनिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ।। -न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, शब्दखण्ड, पृ. २९६ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रमाणनिरूपण २०३ का सरलतया बोध नहीं हो सकता, यह जो अभिप्राय बतलाया गया है, यह भी व्यभिचारी है। क्योंकि अर्थापत्ति, संभव, अभाव, ऐतिह्य, चेष्टा आदि के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण सूत्रकार ने किया है, किन्तु कही भी उनका लक्षण नहीं बतलाया । अतः जैसे इन प्रमाणों के अन्तर्भाव का ज्ञान बिना लक्षण के हो सकता है, उसा प्रकार उपमान के अन्तर्भाव का बोध भी बना लक्षण के हो सकता है। इसी प्रकार प्रामाणान्तर में अन्तर्भाव किये जाने वाले अर्थापत्यादि प्रमाणों की परीक्षा तो सूत्रकार ने पूर्वपक्ष का उद्भावन करते हुए नहीं का, उपमान का हो क्यों की, इससे स्पष्ट होता है कि सूत्रकार को उपमान का पृथक् प्रामाण्य अभीष्ट है। ___ विभागसूत्र न्यूनाधिक संख्या का व्यवच्छेद करते हैं, यह नियम नहीं, जैसे कि ब्राणरसनचक्षुस्त्वक श्रोत्राणोन्द्रियाणि भूतेभ्यः '1 यह इन्द्रियविभागसूत्र इन्द्रियों की न्यून मंख्या का ही न्यवच्छेदक है, अधिक संख्या का नही । अतः मन भी षष्ठ इन्द्रिय मानी जाती है, उसी प्रकार 'प्रत्यक्षानुमानो. पमानशब्दाः प्रमाणानि' यह प्रमाणविभाग-सूत्र भी प्रमागों का अधिक संख्या का व्यवच्छेद करता है, न्यून संख्या का नहीं । अतः इस सूत्र का प्रमाण त्रित्व से विरोध नहीं है -भासर्वज्ञ का यह कथन भी उचित नही , क्यों. दृष्टान्त में इन्द्रियविभाग-सूत्र न्यून व अधिक दोनों संख्याओं का व्यवच्छेद करता है। वहां भूतोद्भूत भौतिक इन्द्रियों का पंवत्र बालाया गया है आर भौतिक इन्द्रियों घ्रागादि पाच ही हैं, न न्यून और न अधक । मन भौतिक इन्द्रिय नहीं है, अतः उसका लेकर आधक संख्या के व्यवच्छेद का व्यभिचार बतलाना नितान्त अमंगत है। अतः यह सिद्ध है कि विभागसूत्र न्यूनाधिकसख्याव्यवच्छेदक होता है। इसलिये प्रमाणावभागसूत्र भी प्रमाणों का न्यूनाधिक संख्या का व्यवच्छेद करता हुआ प्रमाणचतुष्ट्व का प्रतिपादन कर रहा है, न कि प्रमाणत्रित्व का । सूत्रकार ने 'उपमानमनुमान प्रत्यक्षेगाप्रत्यक्षसिद्धेः' के द्वारा उपमान के अनुमान में अन्तर्भाव की आशंका कर तथेत्युपमहारादुपमानसिद्धे विशेषः' अर्थात 'यथा गौस्तथा गवयः' इस प्रकार उपमान का उपसहार किया जाता है, तथा चायम्' अर्थात् 'पर्वतो वहानमान् ' इस रूप से अनुमान में जैसे पक्ष-धर्मताांद का कथन होता है, वैसे उपमान में नहीं होता, अतः उसका अनुमान में अन्तर्भाव नहो', इस प्रकार उपमान के अनुमान में अन्तर्भाव का निराकरण किया है, शब्द में अन्तर्भाव का नहीं । अतः शब्द प्रमाण में उपमान का अन्तर्भाव सूत्रकार को अभीष्ट है यह भासर्वज्ञ का कथन भी आवचारित साहसमात्र हो प्रतीत होता है, क्यों के नैयायिकों को मंज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान उपमानप्रयोजनस्वेन अभीष्ट है और वह ज्ञान 'यथा गौस्तथा गवयः' इस वाक्य से हो नहीं सकता, क्यों क इस वाक्य का संकेत 'गवय में गोसादृश्य है' इस अथ में ही है न कि 'गवयापण्ड गवयपदवाच्य है' इस अर्थ में । अतः शब्दप्रमाण में अन्तर्भाव का उपपादन असभव होने से 1. न्यायसूत्र, १1१1१२ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ न्यायसार सत्रकार ने शब्दप्रमाण में उपमान के अन्तर्भाव का निराकरण नहीं किया। संज्ञा. संज्ञसम्बन्धप्रतपत्ति की दृष्टि से उपमान का अन्तर्भाव अनुमान में ही संभावित है न कि शब्द प्रमाण में । इसीलिये दार्शनिक-सार्वभौम वाचस्पति मिश्र ने 'सांख्यतत्त्व कौमुदी में 'योऽव्ययं गवयशब्दो गोसदृशस्य वाचक इति प्रत्ययः, सोऽप्यनुमानमेव'' इस उक्त द्वारा अनुमान में ही मंज्ञासाज्ञसम्बन्धज्ञानरूप उपमान का अन्तर्भाव बतलाया है न कि शब्द में । अत शब्द में उपमान के अन्तर्भाव का सूत्रकार द्वारा निराकरण न करने से यह तात्पर्य निकालना कि सूत्रकार को उपमान का शब्द प्रमाण में अन्तर्भाव अभीष्ट है, यह ममुचित प्रतीत नहीं होता। अत. किसी भी प्रकार सूत्रकार को उपमान का पृथक् प्रामाण्यनिराकरण अभीष्ट नहीं, अपितु उपर्युक्त रीति से उसका पृथक् प्रामाण्य ही उनको अभीष्ट है । भामर्वज्ञ के उपमान प्रमाणसम्बन्धी विवेचन की अत्यन्त विलक्षणता की ओर सङ्केत करते हुए प्रोफेपर कार्ल एच्. पाटर ने भी यह स्वीकार किया हैं कि भामर्वज्ञाचार्य उपमान के पृथक् प्रमाणत्रनिराकरण को सूत्रकारसम्मत सिद्ध करने के प्रयासों द्वारा किसा को प्रभावित नहीं कर सके हैं। 1. सांख्यतत्वकौमुदी, पृ. १८५ 2. Bhasarvajha's discussion of this instrument is very peculiar. His conclusion is that comparison is not an instrument of knowledge in addition to the others. contrary to what Gautama maintained. Yet he struggles to make it seem that he is not saying anything in conflict with the view of the Sotrakāra. His apologies seem to have taken no one in. More unusual still, he has no firm alternative to offer.-The Encyclopedia of Indian Philosophies, Vol. II (Delhi, 1977), p. 175. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम विमर्श प्रमेयनिरूपण प्रत्येक दर्शन का निरुपणीय प्रमेय तत्त्व होता है, वही उसका प्रधान प्रतिपाद्य होता है, किन्तु प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के बिना अनुपपन्न है। प्रमाण ही प्रमेसिद्धि में समर्थ है, जैसाकि अभियुक्तों ने कहा है-' मानाधीना मेसिद्धिः, 'प्रमेयमद्धिः प्रमाणाद्धिः। अतः प्रमेय तत्त्व के प्रधानतया प्रतिपाद्य होने पर भी दार्शनिकों ने प्रमाण-निरुपण के पश्चात् प्रमेयनिरुपण किया है। आचार्य भासर्वज्ञ ने भी प्रमाण नरूपण के पश्चात न्यायसार के तृतीय परिच्छेद में प्रमेय पदार्थो का निरूपण किया है। यद्यपि 'प्रमाविषयत्वं प्रमेयत्वम' इस प्रकार से प्रमेय के लक्षण का प्रतिपादन किया जा चुका है तथापि वह प्रमेयसामान्य का लक्षण है। प्रमेयविशेष का अर्थात् विशिष्ट प्रमेय का लक्षण नहीं है। अतः जो प्रमेय तत्त्वज्ञान द्वारा अपवर्ग के साधन हैं, उन प्रपेयविशेषों में घटित होने वाला लक्षण यहाँ बतलाया जा रहा है . यद्विषयं तत्त्वज्ञानमन्यज्ञानानुग्योगित्वेन निःश्रेयसाङ्ग भवति, मिथ्याज्ञानं च संसारं प्रतनोति, तत् प्रमेयम्" अर्थात् जिसका तत्त्वज्ञान निःश्रेयस का साधक है तथा जिसका मिथ्याज्ञान संसार का जनक है, वह प्रमेय है। न्यायभाष्यकार तथा वार्तिककार ने भी प्रमेय विशेष का लक्षण इसी प्रकार किया है। उपर्युक्त प्रमेय का ही तत्त्वज्ञान तथा उसकी भावना मोक्ष के लिये कर्तव्य है। __ कीठसंख्यादि का तत्त्वज्ञान तथा उसकी भावना की व्यावृत्ति हो जाती है, क्योंकि उनका ज्ञान निःश्रेयस के लिये उपयोगी नहीं होता। इसीलिये बौद्ध दार्शनिक 1. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. १०७ 2. सांख्यकारिका, ४ 3. (अ) न्यायभूषण, पृ. ६२ (ब) न्यायसार, पृ. २ . 4. न्यायसार, पृ. ३४ 5. (अ) अस्य तु तत्वज्ञानादेपवर्गो मिथ्याज्ञानात् संसार इत्यत एतदुपदिष्टं विशेषेणेति । -न्यायभाष्य, १११९ (ब) कतमं तत् प्रमेयं यदनेन प्रमाणेन यथावत् परिज्ञायमानमपवर्गाय अनबगम्यमानं च संसारायेति । -न्या.वा. १११९ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ न्यायसार धर्मकीर्तिने कहा है ' तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमत्र विचार्यताम् । कीटसंख्या दपरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥1 जिन प्रमेयविशेषों का यथार्थस्वरूपज्ञान भाव्यमान होने पर मोक्ष के लिये उपयोगी है, उन आत्मादि १२ प्रमेयों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-चेतन और जड़ । आत्मा चेतन है और उससे इतर शरीरेन्द्रियाद जड़ हैं। न्यायभाष्यकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- 'चेतनोऽयमात्मा । अर्थात् आत्मा चतन्य का आश्रय होने से चेतन है शेष शरीरादि चैतन्य के आश्रय न होने से जड़ हैं । इससे वेदान्तदर्शन के कतिपय दार्शनिकों ने नैयायिकों पर जो यह लाछन लगाया है कि वे जडात्मवादी हैं, उसका निराकरण हो जाता है, क्योंकि संसारदशा में आत्मा को चतन्याश्रय सभी मानत हैं। मोक्षदशा में भी भासर्वज्ञ आत्मसंवत्सहित दुःखात्यन्तानवृत्ति को मक्ष मानता हुआ आत्मा में ज्ञानरूप चैतन्य का अभाव नहीं मानता । इसमें आत्मविषयक तत्त्वज्ञान के साक्षात् मिथ्याज्ञान निवृत्ति द्वारा निःश्रेयसाङ्ग होने से आत्मा के स्वरूप तथा उसके पारमाणादि का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन करना है, अतः उसके स्वरूप का उद्देशक्रमानुसार निरूपण न करके सूचीकटाहन्याय से प्रथम शरीरादि प्रमेयों का निरूपण किया जा रहा है। (२) शरीर शरीर का सौत्र लक्षग है- चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम् ' क्रियाविशेष के लिये लोक में भी वष्टा शब्द प्रयु होता है । यथा- धावति, लंघते आदि । वह चेष्टा जिस अन्य अध्ययी में समवेत होती है, उसे शरीर कहते हैं । इन्द्रियाश्रयत्व का अर्थ इन्द्रियसभवायित्य नहीं है, क्यों क शरीर इन्द्रयों का समवायकारण नहीं है अतः वह समवाय सम्बन्ध से इन्द्रिों का आश्रय नहीं है । शरीरानुग्रह और शरीरापघात से इन्द्रियों का अनुग्रह तथा उपघात होने के कारण शरीर को इन्द्रियाश्रय कहा है। अयात्रयत्व का मा यही आभप्राय है कि शरार क होने पर ही तदर्वाच्छन्न आत्मप्र दश में सभा अर्थ सुख दुःखादि के जनक हात हैं। (३) इन्द्रिय 'इन्द्रियमिन्द्र लिङ्गनिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्त मति वा'। इस पाणिनिसत्र के अनुमार इन्द्रालगत्व इन्द्रियसामान्य का लक्षण है। अर्थात् इन्द्रिय आत्मा का अनुमापक हेतु है। इन्द्रियों के द्वारा आत्मा का अनुमान होना है । 'घ्राण रसनचक्षुस्त्वक् श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः '' यह न्यायसूत्र घ्राणादि इन्द्रियों का विशेष रूप से नामोल्लेख नथा व्यत्पन से उनका विशेष लक्षण प्रस्तुत करता है। सूत्रस्थ 1. प्रमाणवातिक, १३२ 3. पाणिनिस्त्र, ५।२।९३ 2. न्यायसूत्र, १1१1१२ 4. न्यायसूत्र, ११।१२ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ प्रमेयनिरूपण घ्राणादि शब्द 'जिघ्रत्य नेनेति घ्राणम', 'ग्सयन्य नेनेति सनम', 'चाटेनेनेति चक्षुः', 'स्पृश्यने नेति पर्शनम', 'शृणोत्य ने नेति ओम इस प्रकार व्युत्पत्ति से घ्राणादि इन्द्रियों के विशेष लक्षण का प्रतिपादन कर रहे हैं । यहां भासज्ञ का कथन है कि उपयुक्त रीति से विशेषलक्षणार्थक पाँच सत्र और विशेष देश के लिये एक सूत्र, इस प्रकार मिलाकर उपर्युक्त सत्र में ६ सूत्र हो जाते हैं ।' सूत्रन्थ 'भूतेभ्यः' पद इन्द्रियों के सांख्याभिमत आहंकारिका' के प्रनिषेध के लिये है। यद्यपि. अहङ्कार भी भूनों की कृति पचतामा ाओं का कारण होने से कारण में कार्योपचार द्वारा भनशनवान्य है और त्रिगणत्व के कारण बहवचन में भी प्रयुक्त हो सकता है। अतः 'भने गः' से आहंकारिकव की निवृत्ति संभव नहीं, तथापि यहां भूतों से पृथिव्यानि भून ही अभिप्रेत हैं न कि प्रथिव्यानिकारणकारणत्वेन अहंकार । इसीलिये सन्कार ने 'पृथिव्यापम्तेजोवायुगका मिति भृतानि इस सूत्र द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि पृथिवी. जल. तेज वाय तथा आका-ये पांच भून ही भूत शन से अभिप्रेत हैं न कि सख्यमंमत अहंकार । पांच भूतों में चार इन्द्रियों के समगयिकारण हैं। आकाश में वस्तुतः श्रोत्रेन्दिर कारणव नह है. क्योंक कर्ण शकल्यवछिन्न आकाठा ही श्रोत्रेन्द्रिय कहलाता है। अत एव भासर्वज्ञ ने स्पष्ट किया है कि आकाठा के विशिष्ट प्रदेश को इन्द्रियम्वभाव (इन्द्रियस्वरूप' ज्ञापित करने के लिये आकाश में इन्द्रियप्रकतिव का उपचार किया जाता है मख्यवृत्ति से आकाश में इन्द्रियकारणत्व नहीं है । अथवा का शकुली से संयोग की अपेक्षा से आकाठा में भी कारणत्व है। इस प्रकार 'भूतेभ्य' इम पद में निमित्त पंचमी मानने में कोई आपत्ति नहीं । मागमतानमार सभी इन्द्रियों की अहंकार से उत्पत्ति मानने पर सभी इन्नियों का अहङ्काररूप एक कारण होने से समानप्रकृतित्व के कारण रूपरसादि-व्यवस्थितविषयता की उपपत्ति संभव नहीं होगी। समानतन्त्र शेनिस में भी अगर को इन्द्रियों की प्रकृति न मानकर भूनों को ही प्रक्रति बतलाया है। इसीलिये प्रशस्तपाद ने 'पदार्थ-धर्मसंग्रह' में 1. न्यायभूषण, पृ. ४६७ 2. अभिमानोऽहंकारस्तस्माद् द्विविधः प्रवर्तते सर्गः । साविक एकादशकस्तन्मात्रपंच चैव । सात्विक एकादशकः प्रवर्तते वकृतादहंकारात् । भूतादेम्तन्मात्रस्तौजसादुभयम् ॥ -- सांस्यकारिका, २४, २५. 3. प्रकृतेम हाँस्तजोऽहंकारस्त तो गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात पंचभ्यः पंच भूतानि || -सांख्यसारिका. २२ 4. न्यायसूत्र, १1११३ 5. न्यायभूषण, पृ. ४३८ 6. वही Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ पदार्थो के साधर्म्यवैधर्म्य प्रकरण में पृथिव्यादि पांच भूतों का साधर्म्य बतलाते हुए इन्द्रियप्रकृतित्व को भी उनका साधर्म्य बतलाया है ।" (४) अर्थ घ्राणादि पांचों इन्द्रियों द्वारा ग्राहूय गन्ध, रस. रूप, स्पर्श, शब्द ये पांच अर्थ कहलाते हैं जैसाकि सरकार ने कहा है- 'गन्धरसरूपापर्श-शब्दः पथिव्यादिगुणा स्तदर्था: 12 भाष्यकार ने 'पृथिव्यादीनां यथाविनियोग गणा इन्द्रियाणां यथाक्रममर्थाः विषया इति ' इस प्रकार षष्ठीपमाम का ग्रहण कर पृथिव्यादि के गणों को अथ माना है । वार्निककार ने भाष्यकारसम्मन इस षष्ठी मामपक्ष की उपेक्षा कर 'पृथिव्यादिगुणाः ' शब्द में द्वन्द्व समास माना है ।" भासर्वज्ञ ने भी 'पृथिव्यादयश्च गुणाश्च' इस उक्ति द्वारा वार्तिककारोक्त पक्ष का ही समर्थन किया है । अतः पृथिव्यादिगुणाः' के गन्धादि गुण ही अर्थ नहीं किन्तु उनके आश्रय पृथिव्यादि भी अर्थ हैं। गुणग्रहण से भासवंज्ञ के अनुसार यहां समस्त आश्रितों तथा विशेषण का संग्रह किया है । अतः भाव तथा अभाव इन दोनों प्रकार के इन्द्रियविष्यों का अर्थ पद से ग्रहण है। सूत्र में गुण शब्द से केवल भावरूप गुणों का ही ग्रहण नहीं हैं. अपितु अभाव का भी ग्रहण है, क्योंकि वह भी संयुक्तविशेषणता सम्बन्ध से इन्द्रिय का विषय होने के कारण अर्थ है । वह गुणों की तरह आश्रित तो नहीं है. परन्तु विशेषण तो है ही क्योंकि 'घटाभावभूतलम्' में घटाभाव की विशेषणतया प्रतीति अनुभवसिद्ध है । गुण शब्द से अब समस्त आश्रितों व विशेषणों का ग्रहण करने से घटाभाव, रूपाभाव आदि अभावरूप इन्द्रियविषयों का ग्रहण हो जाता है । देह भी इन्द्रियविषयत्वेन अर्थ है किन्तु चेष्टाश्रय तथा सुखद खादि-भोग का आयतन होने से 'शरीर' इस विशेष पद से व्यवहृत कर दिया गया है । 2. न्यायसूत्र, १1१/१४ 3. न्यायभाष्य, १११।१४ 4. पृथिव्यादीनि गुणाश्चेति द्वन्द्वः समासः । न्यायवार्तिक, ११०१४ 5. न्यायभूषण, पृ. ४३८ 6. न्यायसूत्र, १1१1१५. न्यायसार (५) बुद्धि न्यायदर्शन के अनुमार ज्ञान या उपलब्धि का नाम बुद्धि है. जैसाकि सूत्रकार For हैं - 'बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् ।" यहां सूत्र में बुद्धि का पर्यायरूप लक्षण दिया गया है. अर्थात् बुद्धि के पर्यायवाची उपलब्धि व ज्ञान को ही बुद्धि का लक्षण बतलाया है । अन्य लक्षण को छोड़कर पर्यायलक्षण बतलाने का अभिप्राय यह है कि सांख्यदर्शन में प्रकृति का प्रथम परिणाम बुद्धि है, पुरुष का प्रतिबिम्बोदयरूप 1. पृथिव्यादीनां पंचानामपि भूतत्वेन्द्रिय प्रकृतित्वं बाह्यकेन्दियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वानि । - प्रशस्तपादभाष्य, पृ. ११ B Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयनिरूपण २०९ भोग उपलब्धि है तथा विषयाकाररूप से बुद्धि का परिणाम अर्थात बुद्धि का धर्म ज्ञान है इस प्रकार बुद्धि. उपलब्धि व ज्ञान का भेद बतलाया गया है । बुद्ध. उपलब्धि व ज्ञान भिन्न नही हैं, अपितु एक ही हैं. इस तथ्य को बतलाने के लिये पर्यायलक्षण ही बुद्धि का दिया गया है । इसी अभिप्राय से भाष्यकार वात्स्यायन ने भी सूत्र के प्रारंभ में ' अचेतनस्य करणम्य बुद्धर्ज्ञानं वृत्तिः चेतनस्याकर्तुरुपलब्धरिति युक्नित्रिमर्थ प्रत्याचक्षाणक एवेन्माह' ऐसा कहा है । भासर्वज्ञ ने यह भी स्पष्ट निर्देश कर दिया है कि प्रतीति, अवगम और विज्ञान इत्यादि शब्द भा बुद्धि के पर्यायवाची ही हैं । यह ज्ञान प्रमख्यान के द्वारा दोष निमुत्तों के निवृत्त होने पर अपवर्ग का हेतु होता है और निवृत्त होने पर संसार का भी कारण है । (६) मन ज्ञान के साधन आत्मा इन्द्रिय तथा विषयों का सम्बन्ध होने पर भी जिस वारण से एक काल में अनेकज्ञान नहीं होते. वही मन है । अतः एक काल में अनेक ज्ञनों की अनुपन्ति मन का लिङ्ग ( ज्ञापक अनुमापक) है । यही मन का लक्षण है. जैसाकि सूत्रकार ने कहा है- 'युगपज्ञानानुत्पतमनसो लिंगम' | भाज्ञ ने बया है कि आत्मा की तरह उपर्युक्त लिंग ही मन का लक्षण है । घ्राणादि इन्द्रियों का भी गन्धाविज्ञानरूप लिङ्ग ही लक्षण है । तात्पर्य यह है कि आत्मा व्यापक होने से सभी इन्द्रियों से सम्बद्ध है और निद्रारहित पुरुष की इन्द्रियां भी प्रेक्षादि अवसर पर अनेक अर्थों से सम्बद्ध होती है । इस प्रकार ज्ञान के साधन आमा इन्द्रिय तथा अर्थों के सम्बन्ध होने पर भी एक काल में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति इन्से अतिरिवत किसी को ज्ञान के प्रति करण सिद्ध कर रही है। आत्मादि से भिज्ञान का जो है वह मन है । बिना मन के आत्मादिज्ञानसाधनों के होने पर भी ज्ञान नहीं होता है । इसीलिये उपनिषद् में हिखा है- 'आयना अभूवं नदर्रम मना अभूवं नाष्म इत्यादि । रिट कोशिका में भी मनोऽन्व स्थान से ज्ञान का अभाव बताया है । * मन क्योंकि उपरिमाण है, रस्का एक काल में अनेक इन्द्रियों से सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतः एक काल में अनेव ज्ञान भी नहीं हो सकते । भाज्ञ ने एक काल में अनेवज्ञानमनुत्पत्ति के अतिरिक्त मन के साधक 'आत्मेद्रियार्थादयः यहि कार्यन्तरापेक्षाः सन्निहितानामपि कार्योत्पादकत्वात् वस्त्रोपक्षित चित्रोत्पादका व वर्ष कादयः, ' 'स्खादयः इन्द्रियपरिच्छेदकाः प्रत्यक्षस वेद्यत्वात् रूपादिवत्' इन अनुमानों का निर्देश भी किया है । B 1. न्यायभाष्य, ११३१५. 2. न्यायसूत्र, १११।१६ 3. न्यायभूषण, पृ. ४२९ 4. सांख्यकारिका, ७ 5. न्यायभूषण, पृ. ४४.० भान्या-२७ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. न्यायवार मन के इन्दिय होने पर भी उसे इन्द्रियरूप प्रमेय से पृथक् मानने के कारण का उल्लेख करते हुए भामर्वज्ञ ने कहा है कि अन्य इन्द्रियां एक-एक विषय का प्रहण करती हैं जैसे चक्ष रूप का, घ्राण गन्ध का. किन्त मन शब्दस्पर्शादि सभी विषयों का ग्रहण करता है। इन्द्रियां भौतिक हैं। जैसे, घ्राण पार्थिव, रसन जलीय चक्षु तेजस आदि । किन्तु मन भौतिक नहीं है। अतः इन दो वैधयों के कारण मन का इन्द्रियरूर प्रमेय से पृथक् कथन किया गया है । तथा सभी इन्द्रियों की प्रवृत्ति मनोमूलक है, बिना मन के इन्द्रियों की प्रवृत्ति विषय में नहीं होती और मन के जय से सभी इन्द्रियों का वशीकरण बन जाता है। अतः मनोवशीकरण में या मनोजय में मुमुक्ष को अतिशय प्रयास करना चाहिये इस बात को बतलाने के लिये भी अन्य इन्द्रियों से मन का पृथक् प्रमेय के रूप में कथन किया गया है। (७) प्रवृत्ति वाचिक मानस, कायिक व्यापार का नाम प्रवृत्ति है, जैसाकि सुत्रकार ने कहा है:-'प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारम्भः । यद्यपि सूत्र में मन पद नहीं दिया गया है, तथापि सूत्रस्थ 'बुद्धि' पद 'बुध्यतेऽनेन' इम करणव्युत्पत्ति से ज्ञानसाधन मन को पतला रहा है । भाष्यकार ने भी यही संकेत किया है। यह त्रिविध प्रवृत्ति विहित तथा प्रतिषिद्ध भेद से दो प्रकार की है । विहित प्रवृत्ति का फल पुण्य होता है और प्रतिषिद्ध प्रवृत्ति का फल पाप । अर्थात् 'स्वर्गकामो ज्योतिष्टोमे यजेत' इत्यादि शास्त्र बहित प्रवृत्ति पुण्य को तथा 'नानृतं बदेत्' इत्यादि शास्त्रप्रतिषिद्ध अनूतभाषणादि प्रवृत्ति पाप को उत्पन्न करती है। (८) दोष विहित और प्रतिषिद्ध कर्मों में पुरुष को प्रवृत्त करने वाले राग द्वेष, मोह दोष कहलाते हैं, जै कि सूत्रकार ने कहा है 'प्रवर्तनालक्षणाः दोषाः ।, सूत्र में 'लक्षण' शब्द स्वभावार्थक है। भाष्यकारादि ने 'अवतनालक्षणाः दोषाः' की व्याख्या अन्य प्रकार से की है । उनके अनुसार प्रवर्तना का अर्थ प्रवृत्तिहेतुत्व है और वह रामादिगत धर्म है. जो कि स्वसंवेद्य है । वह जिनका लक्षण अर्थात चिह्न है. वे दोष कहलाते हैं । इस व्याख्या का पर्यवमान भी उपयुक्त प्रवृत्तिस्वभाव राग द्वेष. मोह दोष कहला हैं. इसी में है । वे प्रवर्तनालक्षण दोष राग, द्वेष, मोह भेद से सीन हैं. क्योंकि सूत्रकार ने 'तत्त्रैराश्यं रागद्वेषमोहार्थान्तरभावात् ' इस सूत्र के द्वारा इन्हों तीनों को दोष बतलाया है। 1 न्यायसूत्र, १११७ 2. 'मनोऽत्र बुद्धिरित्यभिप्रेत', बुध्यतेऽनेनेतिबुद्धिः । -न्यायभाष्य, १।१।१७ 3. सासूध, 19110 4. न्यायभाय, 1111८ 5. श्यामसूत्र, १३ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयनिरूपण २११ (९) प्रेत्यभाव सूत्रकार ने 'पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभाव'1 इस सूत्र के द्वारा पूर्वोत्पन्न शरीरादि का परित्याग कर पुनः शरीरान्तर को प्राप्त को प्रेत्यभाव बतलाया है । सूत्र में पुनः' पद से यह सूचित किया गया है कि यह प्रत्यभाव एक अनादि परम्परा है। इसका अवसान अपवर्ग के द्वारा ही होता है. इस बात का बतलाने तथा जन्ममरणरूप दुख की अतिशय भावना के लिये दह, इन्द्रियों से पृथक् प्रेत्यभाव का कथन किया गया है । (१०) फल सूत्रकार ने फल का लक्षण ' प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थ. फलम् १ यह किया है। विहितप्र तषिद्धरूप द्विवेध प्रवृत्ति तथा राग द्वेष-मोहरूप दोषों से व्यवाहतरूप से उत्पन्न अर्थ फल कहलाता है । यह फल हेयोपादेय भेद से दो प्रकार का है । हेय प्रथमतः मुख्य-गौण भेद से द्विावध होता हुआ अनेक प्रकार का है और उपाय फल अज्ञानियों के लिये मुख्य तथा गोण भेद से दो प्रकार का सुख है। ज्ञानियों के लिये कोई भी सुख उपादेय नहीं, किन्तु सभी हेय हैं, क्योंकि उनके लिये लाकिक सुख भो दुःख का ही कारण होता है। इसीलिये योगदशन में 'दुःखमेव सर्वविवेकमः । सूत्र के द्वारा ज्ञानी के लिये सभा लोकिक सुखों को दुःख रूप ही बनाया है। सुख और दुःख दोनों हो प्राणी के कमो से उपार्जित हैं। अतः मानव को सनमें समता की भावना करनी चाहिये । एतदर्थ फलरूप प्रमेय का दुःख से पृथक् कथन किया है। (११) दुःख दुःख का लक्षण सूत्रकार ने 'बाधनालक्षण दुःखम्' यह किया है । लक्षण में 'लक्षण' शब्द स्वभाव अर्थ का बोधक है । अर्थात् मुख्य दु ख बाधनास्वभाव होतो है अर्थात् उसका पीड़ा स्वभाव है। (१२) अपवर्ग अपवर्ग का लक्षण सूत्रकार ने 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः' यह किया है। मुख्य सथा गौण दुख से अत्यन्त विमुक्ति या उसका आत्यन्तिक विच्छेद अपवर्ग कहलाता है। भासर्वज्ञसम्मत अपवर्गस्वरूप का विशद विवेचन अष्टम विमर्ग में किया जायेगा। इस प्रकार लक्षणभेद से द्वादशविध ग्रमेय का निरूपण किया गया है। 1. वही, १/११९ 4. न्यायसूत्र, १११।२१ - 2. वही, ११२० 5. वही, २९ 3. योगसूत्र, २०१५ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२. न्यायसार प्रमेयों की मौक्षोपयोगिता आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ आदि सभी द्वादश प्रमेयों का ज्ञान मोक्षोपयोगी है । आत्मज्ञान होने पर परलोकाकांक्षा होती है. अन्यथा नहीं। आत्मा से देह की भिन्नता का ज्ञान होने पर देह में मंभाव्य आत्मबुद्धि की निवृत्ति हो जाती है, शरीररक्षा के लिये क्रियमाण हिंसादिकर्मों से भी पुरुष निवृत्त हो जाता है तथा शरोर के दुखायतनत्व का ज्ञान होने पर शरीरविषयक अज्ञान निवृत्त हो जाता हैं। दोषनिमित्तों के होने पर भी इन्द्रयों की अप्रवृत्ति होने पर दोषोत्पत्ति नहीं होती है, इस प्रकार इन्द्रिय-स्वरूप का यथार्थज्ञान कर उनके प्रत्याहार के लिये मुमुक्षु को रना चाहिये । जाति, आयु तथा भोगरूप फल वाले, परिणाम में दुःखकारी इन्द्रियार्थी में उपादेयबुद्धि का त्याग कर वैराग्य की भावना करता है । विथ्याज्ञान संमार का हेतु है और तत्त्वज्ञान अपवर्ग का हेतु, यह ज्ञात कर मिथ्याज्ञान को तिरोभूत कर तत्त्वबुद्धि को अभ्यास से परिपुष्ट करता है । इस राति से इन प्रमेयों का ज्ञान मोक्षोपयोगी है । इन्द्रियों की विषय में प्रवृत्ति मन के द्वारा होती और दोषवशात् इन्द्रियों को प्रवृत्ति होने पर अवश्य दोषोत्पत्ति होतो है, मनोजय से सभी इन्द्रियों का वशीकरण हो सकता है। अतः मुमुक्षु को प्रधानरूप से मनोजय में प्रवृत्त होना चाहिये । धर्माधर्मजनन द्वारा प्रवृत्तियों के दुःखमूलत्व का ज्ञान कर मुमुक्ष उनका पारहार करता है। 'न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय क्षीणक्लेशस्य'। इस सूत्र के अनुसार जिस पुरुष के राग, द्वेष, मोहरूप दोषों का नाश हो चुका है, उसकी पुनर्जन्म के लिये प्रवृत्ति नहीं होती । अतः दोष के स्वरूप को जानकर मुमुक्षु का दोषनाश के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये । अनादिपरम्पराप्राप्त पुनर्जन्म की समाप्ति अपवर्ग के बिना नहीं हो सकती तथा उसकी निवृत्ति के लिये उसमें जननमरणादिरूप दुःखातिशय की भावना करनी चा हये । इस प्रकार प्रवृत्ति तथा दोष से जनित सुखदुःखरूप फल में मुमुक्षु को समता की भावना करना चाहिये । इस रूप से इन प्रमेयों का ज्ञान मोक्षोपयोगी है। __ इस प्रकार मुमुक्षु विषानुविद्ध मध्वादि की तरह ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त समस्त वेश को दुःखानु बद्ध होने से दुःखका जानकर उससे विरत हा जाता है । अपवर्ग हो सर्गोत्कृष्ट, अनन्त, आतेनिनल है ओर वही सदु.खोरमस्वरूप है, यह जानकर उसके लिये ही मुमुक्षु को प्रयत्न करना चाहिये । इस रूप से अपगस्वरूपज्ञान भी प्राप्तव्य होने से मोक्षोपयोगी है । उपर्यु क राति से समा आमादे नमे य माक्षोपयोगी हैं, अतः उनका स्वरूपज्ञान उपाय है । अतः इन द्वादश प्रमेयों का स्वरूप न्याय. दर्शन में बतालाया गया है। 1. न्यायसूत्र, १११६४ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयनिरूपण प्रमेयों का हेयादिचातुर्विध्याविभाग भासर्वज्ञ ने न्यायसूत्रोक्त द्वादश प्रमेयों को चार भागों में विभक्त किया है(१) हेय, (२। उसका निवर्तक, (३) आत्यन्तिक हान और (४) उसका उपाय ।। क्योंकि उपर्युक्त द्वादश प्रमेय हेयादि रूप से चार भागों में भाव्यभान होकर ही नि श्रेयस के जनक बनते हैं. अन्यथा नहीं । यदि ऐसी स्थिति है, तो सूत्रकार ने इस चातुविध्य का निर्देश क्यों नहीं किया ? इसका कारण यही है कि पातंजल' तथा बौद्ध दार्शनिक हेयादि चार विभागों को मानते हैं और उनको स्वरूप न्यायदर्शन से भिन्न मानते हैं। जैसे-पातंजल में रजोवृत्त्यात्मक दुःख को हेय, द्रष्टापुरुष तथा दृश्यं प्रधानादि के संयोग को हेय का कारण, अविद्या के द्रष्टा और दृश्य के संयोग का अभाव हान तथा संशय-विपर्ययरहित विवेकख्याति हान का उपाय-माना है । इसो प्रकार बौद्वों ने दुःख, समुदय. निरोध, मार्ग-इन चतुर्विध आर्यसत्यज्ञान को मोक्ष का कारण मान कर संज्ञावेदनादि पंचस्कन्धों को दुःखरूप, शरीरेन्द्रियस्थोनाद में आत्मीयाभिनिवेश से उत्पन्न आग्रहरूप तृष्णा को हेय का प्रवान निमित्त समुदय, तृष्णारहित पुरुष को अविद्या-काम-कर्मादि द्वारा उपनीत रजतराज्यादि में अप्रवृत्ति को दुःखहानरूप निरोध और नैरात्म्यज्ञान का दु:खनिरोध का उपायरूप मार्ग माना है । प्रमेयों का हेयहानादि चतुर्विध विभाग करने पर पातंजलसंमत तथा बौद्धसमत हेय, हानादि के स्वरूप के ग्रहण की आशका बन जाती है। तत्परिहारार्थ उन्होंने उपयुक्त चतुविध विभाग रूप से प्रमेय का विभाग नहीं किया ।किन्तु न्यायदशन में आत्मादि प्रमे। हेयादि रूप से बम क होकर भायमान होने पर हो नि.श्रेयससाधक बनते हैं। अतः आत्मादि प्रमेयां का हेयादिरूप से चातुविध्य भासर्वज्ञ ने माना है। न्यायदर्शनानु पार द्वादश प्रमेयों में शरोर, घ्राणादि ६ इन्द्रियां, गन्धादि ६ विषय, उनके ज्ञान, सुख तथा दुःख हेय हैं । इनमें शरीर दुःख भोग का आयतन होने से दुःखरूप है, इन्द्रियां, विषय तथा उनका ज्ञान दुःखसाधन होने से तथा सुख दुःखसबन्ध से दुःखरूप हैं और स्वयं दुःख बाधनारूप होने से मुख्यतया दुःखरूप है । उपर्युक्त दुःख के उत्पादक असाधारण कारण अविद्या, तृष्णा, धर्म तथा अधर्म हेयहेतु हैं । इनमें आस्थ, मजा, मांस, शोणितादि से युक्त मूत्रराषा देभाजन रोगाधिष्ठान, आनत्य शरोपाद में नित्यत्वबुद्धरूप विपरीतज्ञान अविद्या है । पुनर्जन्म की इच्छा तृष्णा है। सुख का असाधारण कारण धर्म तथा दुःख का कारण अधर्म है। उपयुक्त दु ख का आत्यन्तिक उच्छेद हान है । आत्मविषयक तत्त्वज्ञान हानोपाय. है। इस प्रकार आत्मादि प्रमेयों का चातुर्विध्य है। 1. न्यायसार, पृ. ३१ 2. योगसूत्र, २।२४, २५, २६, २७ 1. न्यायभूषण, पृ. ४१२ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ न्या.सार धात्मा जिस आत्मा का मुख्यतया तथा साक्षात् तत्त्वज्ञान आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिरूप मुक्ति का या निन्य सुखाभिव्यक्तिसहत अत्यन्त दुःखानवृत्तिरूप मोक्ष का कारण है, वह आत्मा पर-अपर भेद से दो प्रकार का है। उनमें परमात्मा ऐश्वर्यादि गुणों से विशिष्ट. मंसारधर्म राग, द्वेष, मोह से सर्वथा असं दृष्ट, पर, भगवान् . महेश्वर, सर्वज्ञ तथा सम्पूर्ण संसार का रचयिता माना गया है। इन्द्रादि भी महैश्वर्य से युक्त हैं, अतः उसमें परमात्मत्व की व्यावृत्ति के लिये संसार धर्मा से असंस्पृष्ट विशेषण दिया है। संसारधर्मो से अस पृष्टता लयस्थ यागियों में भी है, अतः उनके व्यवच्छेद के लिये पर पद दिया है गया है । परत्व सांखयाभिमत प्रधान में भी है, उसका व्यावृत्ति के लिये भगवान् पद दिया है । भगवत्व व्यासादि में भी है. तव्यावृत्त्ययं महेश्वर पद दिया गया है, क्योंकि महेश्वर का अभिप्राय धर्म, ज्ञान, वराग्य, ऐश्वर्य, यश तथा श्रा-इस षडू वध भग की परिपूर्णता है। व्यासादि में एक-दो भगों का परिपूर्णता हाते हुए भी नि:शेष भगों का पारपूर्णता नहीं है। सर्वज्ञत्व योगियों में भी उसपन्न है, तव्यावृत्त्यर्थ सकलजगद्वधाता पद दिया है। योगबल से योगियों के सर्वज्ञ होने पर भी जगद्रचनासामर्थ उनमें नहीं है, जैसाकि ब्रह्मसूत्र में लिखा है - जगद्व्यापार र्ज प्रकरणादसनिाहतत्वाच्च ।। ईश्वरसिद्धि परमात्मा 'अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम् इत्यादि श्रुतियों से शब्दादिरहित है, अतएव इन्द्रियागोचर है । उसका प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञ न संभव नहीं, अतः उसकी सिद्ध अनुमान तथा आगम प्रमाण से मानी जाती है । भासर्वज्ञ ने 'विवादाध्यासतम् उपलब्धिमत्कारणकम्, अभूबा मावित्वात् वस्त्रादिवत्' यह अनुमान परमात्मसिद्धि के लिये प्रयुक्त किया है । इस अनुमान में धनि विशेष का निर्देश न करने पर भी बुद्धिमत्पूर्वकत्वरूप साध्यविशेष का निर्देश होने से जिन वस्तुओं में वादी बुद्धमपूर्वकत्व मानता है और प्रातवादा नहीं मानता है, ऐसे विवादास्पद क्षित्यं कुरादिरूप पक्षविशेष का लाभ हो जाता है। अतः लक्षण में सान्दग्धपक्षता दोष नहीं है । दृष्टान्तभूत वस्त्रााद की रचना चेतनप्रेरित शरारादि के द्वारा हा हो। से दृष्टान्तासिद्धि अर्थात् दृष्टान्त में साध्याकलता भी नहीं है। 1. स द्विविघ. | परवापराचे ते । -न्यायसार, पृ.३५ 2. न्यायसार, पृ. ३५ 3. ब्रह्ममूत्र, १।४।१७ 4. कठोपनिषद्, १।३।१५ 5. न्यायसार, पृ. ३६ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयनिरूपण २१५ उपयुक्त अनुमान से 'यथा वस्त्रादिकं प्रागभूत्वा पश्चादभक्त बुद्धिमत्तन्तुवायपूर्वकं तद्वत क्षिय कुदिकमपि प्रलर काले ऽभत्ता पश्चाप्रादुरत बुद्धिमापूर्वकम्' इस व्या प्त के बल से क्षित्यं कुरादि के कर्तृत्वरूप से परमात्ममिद्धि हो जाती है। उपर्युक्त व्याप्ति के बल से यद्यपि अनुमान से कर्तृ सामान्य की हो सिद्धि होती है, न कि परमात्मारूप क विशेष की. तथापि अस्मदादि प्राणिरूप जीवों के अल्पज्ञ तथा अल्पशक्तिमान् होने से न तो हमें क्षित्यंकुरादि के उपादान कारणों का पूर्णतया ज्ञान है और न हममें क्षित्यादि पदार्थों की रचना करने की सामर्थ्य है। अतः परमात्मातिरिक्त जीवों में नित्यादि के कर्तृत्व की असिद्वि हो जाने से परिशेषात सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् परमात्मा ही उसका कर्ता है. अतः परमात्मा की सिद्धि हो जाती है। जगदुरचनारूप कार्यविशेष से भी कतृवशेषरूप परमात्मा की सिद्धि होती है. जैसे-चित्रादिरूप कार्यविशेष के द्वारा चित्रकाररूप कतृ-शेष की सिद्धि होती है, क्यों कि जोवों में जगद्रचनारूप कार्य करने की शक्ति नहीं है। ‘एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमाल्लोकान् ईशते ईशनीभिः ।" 'न तस्य कार्य करणं च विद्यते । न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ॥ पगऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते । स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥" 'विश्वतश्चक्षुमत विश्वनोमखो विश्वतोवाहुमत विश्वतस्यात । संबाहुभ्यां धमति सपनावाभूमा जनयन् देव एक ॥ 'एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि! सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठन एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि! द्यावापृथिव्यो विधृते तिष्ठन...।" 'प्रशामितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि । रुक्मानं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् ॥ 'एष सर्वाणि भूतानि पंचभिर्व्याप्य मूतिभिः । जन्मवृक्षयनित्यं संग्राभयति चक्रवत् ॥8 इत्यादि श्रुतिस्मृतिरूप आगमों से भी ईश्वर की सिद्धि होती है। 1. श्वेताश्वतरोपनिषद, ३१२ २. वही, ६१८ 3. बही, ३३३ 4. वारण्यकोपनिषद् , ३११९ 5. मनुस्मृति, १२:१२. 6.पही, १२४ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २१६ - न्यायसार अपरात्मविचार सुख-दुःखरूप फल का भोक्ता जीव अपरात्मा है। वह अनन्त अर्थात अविनाशी है । अपरात्मा की सिद्ध भासवज्ञने बुध्याद लिगों के द्वारा की है अर्थात् बुद्ध-सुख-दुःख-इच्छा द्वष प्रयत्न किसी न किसी द्रव्य के आश्रित हैं, क्यों क गुण द्रव्याश्रित ही होते हैं । अत इन बुध्यादि लिंगों के द्वारा तदाश्रय भूत जीव की सिद्धि होती है। सूत्रकार ने भी 'इच्छा द्वष-प्रयत्न सुखदुःख-शनानि आत्मनो लिंगानि 1 इस सूत्र के द्वारा इसी तथ्य की अभिव्यक्ति की है। अनुमान प्रकार निम्नलिखित है-'बुद्ध्यादयः क्वचित समवेताः कार्यत्वाद् गुणत्वादा रूपादिवत् । उपर्युक्त अनुमान सामान्यतः आश्रयमात्राश्रितत्व को सिद्ध कर रहा है, अतः रूपादि गुणों के आत्मसमवेत न होने से दृष्टान्त में साध्यविकलता दोष नहीं है। चक्षुरादि इन्द्रि यों को बुध्यादि का आश्रय नहीं माना जा सकता । अन्यथा चक्षु द्वारा किसी वस्तु को देखने के बाद चक्षु के नष्ट हो जाने पर उमसे दृष्ट वस्तु का स्मरण नहीं होना चाहिए, क्योंकि उस वस्तु का ज्ञान करने वाली चक्षु रन्द्रिय के न रहने पर पुरुष के द्वारा उसका स्मरण अनुपपन्न है। इसलिये विश्वनाथ पञ्चानन ने कहा है-'तथास्वं चेदिन्द्रियाणामुपघाते कथं स्मृतिः ?' शरीर को भी बुद्धयादि का आश्य नहीं माना जा सकता । क्योंकि शरीर बाल्य, कौमार्य, जगदि भेद से भिन है, अतः बाल्यावस्था में नभत ठस्त का यावस्था में बारुयशरीर के न रहने से स्मरण नहीं होगा. क्योंकि जो अनुभविता होता है, वही ग्मर्ता होता है. भिन्न नहीं । अन्यथा देवदत्त द्वाग अनुभूत वस्तु का यज्ञदत्त द्वारा स्मरण की प्रमक्ति होगी। इस प्रकार बुद्ध आश्रय शरीर. इन्द्रियादि के न होने पर परिशेषात आत्मा ही उनके ओश्रयरूप से शेष रहता है। अतः पृक्ति ७ नमान द्वारा सामान्यतः आश्रयमात्र की सिद्धि काय विशेष के कारण तथा पारिशेष्य से आममिति में विश्रान्त हो जाती है और उपर्युक्त अनुमान में सिद्धसाध्यता दोष की आपत्ति नहीं है। बौद्ध क्षणिक विज्ञान को आत्मा मानते हैं। उनके मत का भी इसी से निरास हो जाता है। क्षणिक विज्ञान को आत्मा मानने पर प्रतिक्षण विज्ञान के बदलते रहने से पूर्वविज्ञान से अनुभूत विषय का उत्तरबुद्धि से स्मरण नहीं होगा क्योंकि अन्य से अनुभूत का अन्य द्वारा स्मरण नहीं होता । पूर्वबुद्धि को उत्तर बुद्धि के प्रति कारण मानने पर भी पूत्रबुद्ध और उत्तरबुद्ध में भेद (अन्यत्व) बना ही रहता है और इस प्रकार अन्यानुभूत का अन्य के द्वारा स्मरण नहीं होता इस न्याय से पूर्वबुद्ध से अनुभूत वस्तु की उत्तर बुद्धि से स्मरणानुपपत्तिरूप दोष बना ही रहता है । यदि बुद्धिभेद होने पर भी कार्यकारणभाव के कारण पूर्वबुद्ध्यनुभूत का उत्तरबुद्धि स्मरण करती है, तो आचार्य के द्वारा अनुभूत विषय का शिष्य . को 1. न्यायसूत्र, १11. 2. न्यायभूषण, पृ.१८७ 3. भाषापरिच्छेद, कारिका १८ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयनिरूपण २१७ स्मरण होने लगेगा, क्योंकि उनमें कार्यकारणभाव है । यदि यह कहा जाय कि लाक्षारस के सेक से आहित संस्कार वाले कपास के बीज से जैसे कपास में रक्तता पैदा हो जाती है, उसी प्रकार पूर्वबुद्धि अपने संस्कारों का आधान अपने कार्य उत्तरबुद्धि में कर देती है, अतः उस संस्कार के बल से उत्तरबुद्धि द्वारा पूर्वबुद्धि से अनुभूत का स्मरण हो सकता है, तो यह कथन भी अनुचित है। क्योंकि कपास की रक्तता वाला दृष्टान्त न तो 'पूर्वबुद्धि से अनुभूत विषय का उत्तरबुद्रि से स्मरण हो सकता है इस बौद्वमन को सिद्ध कर सकता है और न' पूर्वबुद्ध से अनुभूत विषय का उत्तरबुद्धि से स्मरण अनुपपन्न है, क्योंकि अनुभव और स्मरण का सामानाधिकरण्यनियम है,' इस हमारे पक्ष को दूषित कर सकता है। अर्थात् कार्यासरक्तता-दृष्टान्त जहाँ कार्यकारणभाव होता है, वहाँ अन्यानुभूत का अन्य को स्मरण होता है इत्याकारक अन्वयव्याप्ति या जहाँ अन्यानुभूत का अन्य से स्मरण नहीं होता है व कार्यकारणभाव नहीं होता है, इस व्यातरेक-व्याप्ति को सिद्ध. करने में समर्थ होता, तो पूर्वबुद्धि व उत्तरबुद्धि में कार्यकारणभाव होने से पूर्णबुद्ध से अनुभूत का उत्तरबुद्धि को स्मरण हो जाता है इस बौद्धमत का साधक हो सकता था, किन्तु कार्पासदृष्टान्त से यह सिद्ध नहीं होता और यदि अन्य से अनुभूत का अन्य द्वारा स्मरण अनुपपन्न है, क्योंकि अनुभव और स्मरण का सामानाधिकरण्य नियम है, इस अस्मदभिमत में असिद्धि आदि दोषों की उद्भावना में कार्पासरक्तता का दृष्टान्त समर्थ होता, तो हमारा पक्ष दूषित हो जाता । किन्तु यह दृष्टान्त इस कार्य को करने में भी असमर्थ है। __कार्पासरक्तता का दृष्टान्त भी विषम है, क्योंकि कार्पास में लाक्षारसावसेक के द्वारा उसके पत्र-कुसुमादि में रक्तता मानने वालों के मत में कार्पास का निरन्वय विनाश नहीं होता । अंकुर से जहाँ बीजोत्पत्ति होती है, वहाँ भी अंकुर के बाह्यदलों का अर्थात बोजावरण का ही नाश होता है, सूक्ष्म बीजरूप कारण का नहीं क्योंकि सूक्ष्म बीज ही वृक्षरूप में परिणत होता है, अतः किसी भी वस्तु का निरन्वय विनाश नहीं होता है । इसलिये कार्पास के बीज की रक्तता पत्र-पुष्पादि में आ सकती है, किन्तु बौद्ध विज्ञान का निरन्वय विनाश मानते हैं । अतः वहाँ पूर्वबुद्ध के संस्कारों का उत्तरबुद्धि में आधान कथमपि संभव नहीं है और न पूर्वबुद्ध से अनुभत विषय का उत्तरवद्धि से स्मरण होता है। अतः क्षणिक विज्ञान भी आत्मा नही है। बौद्धों का सभी पदार्थो को क्षणिक मानना भी सर्वथा असंगत है, क्योंकि घटादि पदार्थों में ‘स एवायं घटः यो ह्यो मया दृष्टः' इस प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष के द्वारा पदार्थो में क्षणिकत्व का अभाव सिद्ध है। प्रदीपज्वाला प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, किन्तु वहां भी 'सेयं दीपज्वाला' यह प्रतीति जिस प्रकार सादृश्य के कारण मानी जाती है अर्थात् पूर्वक्षण में विद्यमान दीपज्वाला से उत्तरक्षणवर्तनी भान्या-२८ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ न्यायसार दीपज्वाला भिन्न है, फिर भी उत्तरक्षणवर्तिनी दीपज्वाला पूर्वक्षणवर्तिनी दीपज्वाला के समान है, इस सादृश्य को लेकर ही 'सेयं दीपज्वाला' यह एकत्व-प्रत्यभिज्ञा हो रही है। उसी प्रकार घटादि में भी सादृश्य को लेकर स एवायं घटः' इस प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति मानने पर पदार्थों को क्षणिक मानने में कोई आपत्ति नहीं है, यह कथन भी अविचारविजृम्भित है। प्रत्यक्ष द्वारा दीपज्वाला की क्षणिकता सिद्ध होने पर वहां 'सेयं दीपज्वाला' इस प्रत्यभिज्ञा को भ्रान्त मानने पर सर्वज्ञ अर्थात् घटादि स्थल में भी प्रत्यभिज्ञा को भ्रान्त मानना संगन नहीं है । अन्यथा प्रत्येक ज्ञान में भ्रान्तता की प्रसक्ति होगी। इस प्रकार बुद्ध्यादि के आश्रयत्वेन शरीरादि से भिन्न आत्मा की सिद्धि हो जाती है। आत्मनित्यत्व यह आत्मा नित्य है, क्योंकि वह अनादि तथा भावरूप है । अतः 'आत्मा नित्यः, भावत्वे सति अनादित्वात् गगनवत' इस अनुमान से आत्मा में नित्यत्व की सिद्धि हो जाती है। यदि आत्मा को नित्य नहीं माना जायेगा, तो सद्योजात बालक की स्तन्यपान में प्रवृत्ति अनुपपन्न हो जायेगी; क्योंकि इष्टज्ञान के बिना किसी भी प्राणी की किसी भी कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती और स्तन्यपान मेरा इष्टजनक है', यह ज्ञान सद्योजात बालक को इस जन्म में हुआ नहीं है, अतः जन्मान्तर का अनुभव ही इस विषय में मानना होगा, जिसका स्मरण कर उसकी स्तन्यपान में प्रवृत्ति होती है। अतः जन्मान्तर में और इस जन्म में एक ही आत्मा मानना पड़ता है। अन्यथा अन्यानुभूत का अन्य द्वारा स्मरण न होने से स्तन्यपान में उसकी प्रवृत्ति नहीं होगी । इसी प्रकार सद्योजात बालक की हर्ष-भय-शोक आदि निमित्त उपस्थित होने पर उनमें प्रवृत्ति या निवृत्ति भी आत्मा को नित्य सिद्ध कर रही है। आत्मविभुत्व भासर्वज्ञ ने आत्मा के वैष्णवाभिमत' अणुपरिमाणत्व और जैनाभिमत शरीरमात्र. परिमाणत्व' का खण्डन किया है तथा उसका विभुपरिमाणत्व सिद्ध किया है। 'न्यायसार' में जीव की व्यापकत्वसिद्धि के लिये भासर्वज्ञ ने निम्नलिखित हेतु दिये हैं - 'धर्मादेराश्रयसंयोगापेक्षस्य गुरुत्वादिवदाश्रयान्तरे वायवादी क्रियाकर्तृत्वात्, अणिमाद्युपेतस्य योगिनो युगपदसंख्यातशरीराधिष्ठातृत्वाच्च' ।' अभिप्राय यह है कि 1. बालानशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । ____ भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ -श्वेताश्वतरोपनिषद्. ५।९ 2. जीवो उबओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोइढगई ॥ -द्रव्यसंग्रह, २ 3. न्यायभूषण, पृ. ५४४ 4. न्यायसार, पृ. ३७ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयनिरूपण २१९ वायु का तिर्यग्गमन और अग्नि को ऊर्ध्वग्वलन क्रिया होने के कारण अवश्य सहेतुक है और अन्य हेतु के असम्भव होने से ध धर्म हो हेतु हैं । "अग्नेरूज्वलन वायोस्तियपवनमणून मनसश्चाद्य कर्मादुष्टकारितम्"1 यह वैशेषिकसूत्र भी इसमें प्रमाण है । अनुमानप्रयोग इस प्रकार होगा-वायु आदि की क्रिया धर्माधर्म से जनित है, किया होने के कारण, सम्प्रतिपन्न (ज्ञात) क्रिया की तरह । वायु आदि आश्रय से असम्बद्ध अदृष्ट (धर्माधर्म) उन क्रियाओं का कारण नहीं हो सकता, असम्बद्ध से कार्गोत्पत्ति की उपलब्धि न होने के कारण । आत्मसमवेत धर्माधर्म का द्रव्यान्तर के साथ साक्षात् सम्बन्ध नहीं हो सकता है। अतः धर्माधर्म निज आश्रय से अन्य वायु आदि के निज आश्रय (आत्म) से संयुक्त होने पर ही उनमें क्रिया उत्पन्न करते हैं, निरवयव होते हुए क्रियाजनक गुण' होने के कारण, गुरुत्वादि गुणों की तरह । गुरुत्वादि अन्य आश्रय के स्वाश्रयसंयुक्त होने पर ही उसमें पतनादि क्रिया के जनक होते हैं । धर्माधर्म आत्मा के गुण हैं और गुण गुणी को छोड़कर कहीं भी नहीं रहते हैं। वायु आदि की सर्वत्र होने वाली क्रिया को धर्माधर्म की अपेक्षा होती है और धर्माधर्म स्वाश्रयसंयुक्त में ही क्रिया के जनक होते हैं । इस प्रकार आत्मा का समस्त मूर्त द्रव्यों से संयोग होने के कारण उसका सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगित्वरूप व्यारकत्व सिद्ध होता है। भोसर्वज्ञाचार्य ने इस सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगित्वरूप व्यापकत्व की सिद्धि के लिये यह अनुमान भी प्रयुक्त किया है - " मच्छरीरं मुक्त्वाऽन्यातिमूर्तद्रव्याणि सर्वाणि मदात्मना संयुक्तानि, मूर्तत्वान्मच्छरीरवत् । अपि च, अणिमादिसिद्धि के प्रादुर्भूत होने पर योगी की आत्मा असंख्य इन्द्रियसहित शरीरों का निर्माण कर उनका अधिष्ठाता बनकर एक साथ भोगों का उपभोग करता है, ऐसा शास्त्रों में बतलाया गया है और यह आत्मा के विभु 1. वैशेषिकसूत्र, ५।२।१३ 2. गुरुत्वद्वत्ववेगप्रयत्नधर्माधर्मसंयोगविशेषाः क्रियाहेतवः ।- प्रशस्तपादभाष्य (न्यायकदली. सहित), सम्पूर्णानन्द संस्कृतविश्वविद्यालय, वाराणसी, १९७७, पृ. २४४ 3. आकाशकालदिगात्मनां सर्वगतत्वं परममहरवं सर्वसंयोगिसमानदेशत्वञ्च । --प्रशस्तपादभाष्य, पृ. ५८-५९ 4. न्यायभूषण, पृ. ५४४ 5. आत्मनो वै शरीराणि बहुनि मनुजेश्वर । प्राप्य योगबलं कुर्यातश्च सर्वा मही चरेत् ॥ भुंजीत विषयान् कश्चित् कैश्चिदुन तपश्चरेत् । संहरेच्च पुनस्तानि सूर्यों रश्मिगणानिव ।। -महामारत, १२।३००।२६, २७ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० न्यायसार होने पर ही उपपन्न हो सकता है, अन्यथा योगी की आत्मा एक काल में भोगार्थनिर्भित अनेक शरीरों का अधिष्ठाता नहीं बन सकता। “विभुरात्मा परमाणुपरिमाणानाश्रयत्वे सति नित्यद्रव्यत्वात् आकाशवत् "1 इस अनुमान से भी आत्मा में विभुत्व सिद्ध होता है। आत्मज्ञान का प्रयोजन . समस्त लोक प्रयोजनप्रेरित है, जैसाकि कहा गया है-'न हि प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न समप्रवर्तते । अतः यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आत्मज्ञान प्रयोजन है जिसकी सिद्धि के लिये इतना यत्न किया गया है। इसका उत्तर देते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि परलोकसिद्धि हो आत्मज्ञान का प्रयोजन है। आत्मा की सिद्धि न होने पर परलोकी अर्थात् परलोक में गमन करने वाले तथा वहां फल भोगने वाले पुरुष को सिद्धि नहीं होगी और परलोकों को सिद्ध न होने पर परलोक की भी सिद्धि नहीं होगी । आप च, प्रेक्षावान् पुरुष की स्वर्ग के लिये प्रवृत्त नहीं होगी, क्योंकि परलोक में फलभोक्ता आत्मा के सद्भाव से परलोक की सत्ता निश्चित होती है और परलोक में मानव की प्रवृत्ति होती है और तत्पश्चात् अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि होती है। इस प्रकार परलोक में प्रवृत्ति के लिये उपयोगी होने तथा अधर्मक्षय का हेतु होने के कारण आत्मज्ञान निःश्रेयस का अंग है। 'तरति शोकमात्मवित् ' (छा. उ. ११४३) इत्यादि श्रुतियों से आत्मा का अधर्मक्षयहेतुत्व अवगत है। परमात्मा न केवल जीवरूप अपरात्मा का ज्ञान परलोकसिद्धि व परलोकप्रवृत्ति के लिये उपयोगी होने से और अधर्मक्षय का कारण होने से निःश्रेयस का अंग है, अपितु परमात्मा के भी उपास्यत्वेन उपासना का अंग होने से उसका ज्ञान भी निःश्रेयस का अंग है। परमात्मा की उपासना से राग-द्वेष-मोहरूप क्लेशों व कर्मो का नाश होता है तथा महेश्वरविषयक चित्तकाग्रयरूप समाधि की प्राप्ति होती है । इसके अतिरिक्त यमनियमादि योगांगों का अनुष्ठान क्लेशक्षयार्थ तथा महेश्वरविषयक समाधिप्राप्त्यर्थ उपादेय है। ब्रह्मादिस्थावरान्त विषयों में अनेक प्रकार की दुःखभावना से अनभिरतिसंज्ञक उत्कृष्ट वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। वैराग्यपूर्वक योगांगों के सेवन से परमात्मविषयक परा भक्ति का उदय होता है और शीघ्र ही अनुपम शिव तत्व का साक्षात्कार होता है और उसके साक्षात्कार से निरतिशय श्रेयोरूप मोक्ष की प्राप्ति 1. न्यायभूषण, पृ. ५४५ 2. वही, पृ. ५४८ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयनिरूपण २२१ हो जाती है ।1 उपासनाविधि का यद्यपि न्यायदर्शन में प्रतिपादन नहीं किया गया हैं, तथापि पातंजलादि शास्त्रों में उपदिष्ट उपायों का ही अवलम्बन 'परमतमप्रतिषिद्धि मनुमतम्' इस तन्त्रयुक्ति के अनुसार यहां गृहीत है। जैसे सांख्यदर्शन में आचारविधि का प्रतिपादन नहीं किया गया है, अतः उसमें योगशास्त्रप्रतिपादित अष्टांगयोगविधि का का मोक्षोपायरूप से ग्रहण है। कुछ विद्वान् तो ऐसा मानते हैं कि सांख्ययोग दोनों मिलकर एक दर्शन है । सांख्य में तत्त्वमीमांसा और प्रमाणमीमांसा का प्रतिपादन है और योग में मोक्षोपयोगी आचारमीमांसा का । इसी प्रकार न्यायदर्शन में भी मोक्ष. प्राप्ति के लिये स्वतन्त्र आचारभीमांसा का प्रतिपादन नहीं किया गया है, किन्तु सूत्रकार ने 'योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः' इस सूत्र से संकेत कर दिया है कि मोक्षसाक्षात्कार के लिये परमात्मोपासनविधिरूप आचारमीमांसा का योगदर्शन से ग्रहण करना चाहिए । भासर्वज्ञ ने तदनुसार ही परमात्मोपासन-विधि के उपायों का निरूपण किया है। परमात्मा की उपासना क्यों की जाती है, यह बतलाते हए भासर्वज्ञ ने 'क्लेशतनूकरणार्थः समाधिभावनाथश्च' इस योगसूत्र के अनुसार क्लेशकारी कर्मों का नाश तथा समाधि को प्राप्त उपासना का प्रयोजन बतलाया है और 'तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानि क्रियायोगः' इस क्रियायोग को ही उपासनाविध कहा है। 'समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च इस पातंजल सूत्र द्वारा प्रदर्शित क्रम में भासर्वज्ञ ने अर्थानुसार परिवर्तन किया है, क्योंके पहिले क्लेशों का तनूकरण होता है, तभी समाधिभावना हो सकती है । 'तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः' का निरूपण करते हुए उन्माद, काम आदि की निवृत्ति के लिये आध्यात्मिकादि दुःखों की सहनशीलता को तप, ईश्वरवाची प्रणव के अभ्यास को स्वाध्याय तथा अविच्छेदेन परमेश्वर तत्त्व के चिन्तन का ईश्वर-प्राणिधान कहा है। योगदर्शन में अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पंचक्लेशाः' इस सूत्र के अनुसार जिन क्लेशों का नाश करना है, उनका अविद्यादिभेद से पांचविध्य बतलाया है, किन्तु भासर्वज्ञ ने न्यायपद्धति के अनुसार क्लेश के.संक्षेपतः रोग, द्वेष, मोह तीन भेद ही माने हैं, क्योंकि 'तत् त्रैराश्य रागद्वेषमोहार्थान्तरभावात्'' न्यायसूत्र में तीन क्लेशों का ही परिगणन किया गया है । ये तीनों समाधि के विरोधी हैं और 1. न्यायसार, पृ. ३९ 2. न्यायसूत्र, ४२१४६ 3. योगसूत्र, २१ 4. वही, २१२ 5. न्यायभूषण, प्र. . .. .. 6. योगसूत्र, २॥३........... 7. न्यायसूत्र, ११३ ..... . . ... . . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ न्यायसार जन्मादि द्वारा पुनः पुनः संमारप्राप्ति कराने वाले हैं, अतः सूत्रोक्त इन दोषों का ही क्लेश का कारण होने से क्लेश पद से अभिधान किया है। इन क्लेशों की निवृत्ति उपयुक्त कियायोग के द्वारा हो होती है । इसके अतिरिक्त क्लेशक्षय तथा समाधिप्रारित के लिये योगसूत्रोत यमनियमदि आठ अंगों को भी आवश्यक माना है। 1. समासतो रागद्वेषमोहाः क्लेशा: समाधिप्रत्यनीकत्वेन संसारापत्तिद्वारेण क्लेशहेतुत्वात् । -न्यायसार, १.३८ 2. यथा च कियायोगः क्लेशक्षयहेतुस्तथा योगांगान्यपि अतस्तान्यपि अतिप्रयत्नेन अनुष्ठेयानि । -न्यायभूषण, पृ. ७८७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षस्वरूप के विषय में दार्शनिकों में मतभेद है । अधिकांश दार्शनिक, जिनमें वैशेषिक तथा भाष्यकारादि नैयायिक, सांख्य तथा योग दार्शनिक हैं, एकान्ततः दुःखनिवृत्ति को ही मोक्ष स्वीकार करते हैं । वेदान्ती तथा भासर्वज्ञ' और उनके मतानुयायी नैयायिक नित्यसुखाभिव्यक्ति को मोक्ष मानते हुए मोक्ष दशा में आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति भी स्वीकार करते हैं । भासर्वज्ञ ने मोक्ष का निरूपण करते हुए पूर्वपक्ष के रूप में 'एके' पद द्वारा वैशेषिकमत' का उल्लेख करते हुए कहा है कि उनके अनुसार संहारावस्था में आत्ममनःसंयोगजन्य सभी विशेष गुणों का उच्छेद हो जाने पर आकाश की तरह आत्मा का सर्वदा अवस्थान ही मोक्ष है । " इस कथन से स्पष्ट है कि मोक्षदशा में दुःखनिवृत्ति की तरह सुख की निवृत्ति भी उनको अभिप्रेत है, क्योंकि सुख और दुःख दोनों अविनाभूत है, एक को छोड़कर दूसरे का भोग नहीं किया जा सकता । विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति सुख के लिये ही देखी जाती है और मोक्ष में सुख का अभाव मानने पर उनकी प्रवृत्ति नहीं होगी - यह आशंका निरर्थक है; क्योंकि कण्टकादिजन्य दुःखाभाव के लिये भी प्रेक्षावान् पुरुषों की प्रवृत्ति लोक में देखी जाती है तथा अध्यात्मशास्त्र विषयी पुरुषों के लिये नहीं है, जिससे कि सुखादिरूप विषय के अभाव में मनुष्य की प्रवृत्ति न हो । जो पुरुष दुखों से अत्यन्त निर्विण्ण हो चुके हैं, उनके दुःखोच्छेद के लिये ही अध्यात्मशास्त्र की प्रवृत्ति है । इसीलिये सांख्यकारिका में भी कहा हैं अष्टम विमर्श अपवर्गनिरूपण दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ । Esc साऽपार्था चैन्नैकान्तत्ततोऽभावात् ॥ * अर्थात् विवेकख्याति के द्वारा दुःखत्रय के आत्यन्तिक तथा ऐकान्तिक अभाव के लिये ही विवेकख्याति के जनक सांख्यशास्त्रनिरूपित तत्त्वों के सम्यग्ज्ञान के लिये शास्त्र में प्रवृत्ति होती है । 1. न्यायसारे पुनरेवं नित्यसंवेद्यमानेन सुखेन विशिष्टात्यन्तिकी दुःखनिवृत्ति: पुरुषस्य मोक्षः । - षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति, पृ. ९३-९४ 2. तदभावे संयोगाभावोऽप्रादुर्भावश्च मोक्षः । - वैशेषिकसूत्र, ५/२/१८ 3. एके तावद् वर्णयन्ति - समस्तात्सविशेषगुणोच्छेदे संहाराम्यायामाकाशवदात्मनोऽत्यन्तावन्यायसार, पृ. ३९-४० स्थानं माक्ष इति । 4. सांख्यसारिका, १ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ न्यायसार न्यायभाष्यकार वात्स्यायनादि ने भी दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद को ही मोक्ष स्वीकार किया है। 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः1 इस सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने दुःख की अत्यन्त विमुक्ति को ही मोक्ष बतलाया है और यह दुःखात्यन्तविमोक्षरूप मोक्ष ही दुःखरूप भय, मृत्यु के अभाव से अभय, अजर, अमृत्युपद् आदि शब्दों से व्यवहृत किया गया है । भाष्यकार ने मोक्ष में नित्य सुख की अभिव्यक्ति मानने वालों के मत का निराकरण करते हुए कहा है कि मोक्ष में नित्य सुख की अभिव्यक्ति में कोई प्रमाण नहीं तथा उस सुख को नित्य मानने पर समारदशा में भी उस सुख की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। यदि कारणविशेष से उसको अभिव्यक्त होती है, तो कारणजन्य होने से वह अभिव्यक्ति अनित्य होने से विनाशी होगी, सर्वदा स्थिर नहीं रह सकेगी। किन्तु क्रान्तिकारी नैयायिक भासर्वज्ञ का कथन है कि मोक्ष में दुःखात्यन्त - निवृत्ति की तरह सुख को निवृत्ति मानने पर दुःख-सुख दोनों का ज्ञान न होने से वह दशा मूविस्था के समान होगी और उसमें विवेकियों को प्रवृत्ति नहीं होगी। जैसे संसारावस्था में सुख सभी को इष्ट है और दुखनिवृत्ति भी अभीष्ट है, उसी प्रकार मोक्षदशा में भी दुख की निवृत्ति सभी को इष्ट हो सकती है, किन्तु सुख की निवृत्त नहीं । सुख के लिये हो सभी विवेकियों की प्रवृत्ति देखी जाती है। कण्टकादिजन्य दुःख का परिहार भी मानव सुखोपभाग के लिये ही करता है, क्योंकि कण्टकादिजन्य दुःख के होने पर निरवद्य (दुःखदोषरहित) सुख का उपभोग नहीं हो सकता । अत. वह उसके परिहार के लिये चेष्टा करता है। मोक्ष में सुख की निवृत्ति मानने पर मोक्ष एकान्ततः पुरुषार्थ नहीं होगा क्योंकि जैसे दुःखानवृत्ति के कारण वह (मोक्ष) पुरुष द्वारा अभिलपणीय होगा, उसी प्रकार सखाभाव के कारण वह प्रेक्षावान् पुरुष के द्वारा अनभिलषणीय भी होगा । अतः मोक्ष में दुःखात्यत्तनिवृत्ति के साथ नित्य सुख को अभिव्यक्ति माननी उचित है। मोक्षदशा में नित्य सुख होता है, इसमें श्रुतिस्मृतिरूप आगम प्रमाण विद्यमान हैं । 'सुखमात्यन्तिकं यद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्रापमकृतात्मभिः ॥ 1. न्यायसूत्र, १११२२ 2. न्यायभाष्य, ११२२ 3. It is with the radical Bhāsarvajña that a real change is wrought with in the system. He specifically denies that the purely negative - description of liberation ean be correct,....... No one wants such a state, says Bhasarwajna. - Karl H. Potter : The Encycopedia of Indian Philosophies, Vol. II, p. 29. 4. न्यायसार से उधृत, पृ. १० Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवर्ग निरूपण २२५ 'आमन्द ब्रह्मणो विद्वान् । न बिभेति कदाचनेति ।1 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिलक्ष्यते । ‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म । उपर्युक्त श्रुतिस्मृतियों में प्रतिपादित सुख को 'भाराद्यपगमे सुखी संवृत्तः' की तरह लक्षणया दुःखाभावपरक मानना असंगत है, क्योंकि लक्षणा मुख्यार्थ का बाध होने पर होती है और इन श्रुतियों में मुख्यार्थ सुख का बाध नहीं है। भाराकान्त पुरुष के भार के दूर हो जाने पर शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु के सम्पर्क से ही उसको सुख होता है, इसी.लये वहां सुखी शब्द का प्रयोग किया गया है, न कि दुःखाभाव के कारण । दुःखाभाव ही सुख है, यह भी संगत नहीं । अन्यथा सामान्य आहार से बुभुक्षाजन्य दुःख की निवृत्ति हो जाने पर आहारविशिष्ट से विशेष आनन्द की प्राप्ति पुरुष को नहीं होनी चाहिए । इसीलिये अभियुक्तों ने कहा है "दुःखाभावोऽपि नाऽवेद्यः पुरुषार्थतयेष्यते । न हि मूर्छाद्यवस्थार्थ प्रवृत्तो दृश्यते सुधीः ॥4 अपि च, मोक्षदशा में सुखाभिव्यक्ति न मानने पर केवल दुःखाभाव में सुख शब्द का प्रयोग मानना होगा, जो कि गौण प्रयोग है और असंगत है, क्योंकि मुख्यार्थबाध के बिना गौण प्रयोग मानने में कोई कारण नहीं। तथा मोक्षदशा में ज्ञानादि सकल विशेष गुणों का अभाव मानने पर दुःखाभाव का भी ज्ञान न होने से अज्ञात अर्थ में गौण प्रयोग भी अनुपपन्न है । सुषुप्त्यवस्था में ज्ञान न होने पर भी जैसे 'सुखमहमस्वाप्सम्' इस प्रकार दुःखभाव में सुख शब्द का प्रयोग होता है, उसी प्रकार मोक्षदशा में भी हो जायेगा, यह कहना भी संगत नहीं, क्योंकि सुषुप्त्यवस्था में ज्ञानाभाव की सिद्धि में कोई प्रमाण नहीं । प्रत्युत जागरणानन्तर 'सुखमहमस्वाप्सम्' इत्याकारक स्मृति के बल से सुषुप्ति में सुख तथा सुखज्ञान दोनों मानमे पडते हैं । सुषुप्त्यवस्था में सुख का ज्ञान मानने पर सुषुप्ति और मोक्ष का कोई भेद नहीं रहेगा, क्योंकि मोक्ष में नित्य सुख को अभिव्यक्ति मानने वालों के मत में मोक्ष में भी सुख और सुखज्ञान है तथा सुषुप्ति में भी, यह कथन भी अविचारिसरमणीय है, क्योंकि सुषुप्त में सुखमात्र का ज्ञान होता है, चाहे वह नित्य हो अथवा निद्रासहकृत धर्मविशेष से जन्य हो, किन्तु मोक्ष में नित्य सुख का हा ज्ञान होता है, अतः दोनों मे भेद है। मोक्ष में नित्य सुखाभिव्यक्ति मानने पर सुख तथा ज्ञान दोनों के नित्य होने से संसारावस्था में भी उस सुख का भान होना चाहिए और ऐसा मानने पर 1. तैत्तिरीयोपनिषक, ३/४ 2. न्यायसार से उधृत, पृ. ४० 3. बृहदारण्यकोपनिषद्, ३/६/२८ 4. न्यायभूषण से उधृत, पृ. ५९६ भान्या-२९ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ न्यायसार मुक्तावस्था तथा संसारावस्था में कोई भेद नहीं रहेगा, यह शंका भी अनुपपन्न है, क्वोंकि जैसे चक्षु और घट के बीच में कुड्यादि का व्यवधान होने पर उन दोनों के विद्यमान होने पर भी घट का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार सुख सुखज्ञान दोनों के नित्य होने पर भी संसारदशा में उन दोनों के विषयविषयिभाव सम्बन्ध के विरोधी अधर्मादि के कारण दुःख होने से उसका भान नहीं होता और मुक्त्यवस्था में उस सम्बन्ध के प्रतिबन्धक अधर्मादि का नाश हो जाने से भान हो जाता है । जैसे, कुड्यादि का व्यवधान हट जाने पर चक्षु और घट का सम्बन्ध हो जाने से चक्षु द्वारा घट का ज्ञान हो जाता है। यद्यपि अधर्मादि अमूर्त होने से कुड्यादि की तरह व्यवधायक वस्तु नहीं है, अतः दृष्टान्त में विषमता है, तथापि जिस प्रकार कुइय चक्षु तथा घट के सम्बन्ध का प्रतिबन्धक है, वैसे ही नित्य सुख व उसके ज्ञान के विषयविषयिभावसम्बन्ध के अधर्मादि प्रतिबन्धक है । अतः प्रतिबन्धकत्वसाम्य के कारण कुड्यादि का दृष्टान्त दिया गया है। इसलिए मोक्षकाल में नित्य सुख तथा उसके ज्ञान का सम्बन्ध अधर्मादि प्रतिबन्धकों के द्वारा जन्य है, किन्तु किती विनाशकारण के न होने से वह नष्ट नहीं होता और इस प्रकार मोक्षदशा में नेत्य सुख की अभिव्यक्ति सदा बनी रहेगी । मोक्ष में नित्यसुखाभिव्यक्ति के संभव होने से तथा श्रुतिस्मृत्यादि प्रमाणों द्वारा उस दशा में नित्य सुख की अभिव्यक्ति के सिद्ध होने से नित्यसुखाभिव्यक्तिविशिष्ट दुःखनिवृत्ति ही मोक्ष है, यह निर्विवाद सिद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि नैयायिक प्रारम्भ मे मोक्ष में नित्य सुखाभिव्यक्ति मानते थे, जैसाकि उपलभ्यमान कुछ उक्तियों से सिद्ध होता है। वे उक्तियां निम्नलिखित हैं 'दुःखाभावो हि नावेद्यः पुरुषार्थतयेष्यते । न हि मूर्छाद्यवस्यार्थ प्रवृत्तो दृश्यते सुधी ।।' अर्थात् अज्ञायमान दुःखात्यन्तनिवृत्ति को मोक्षरूप पुरुषार्थ नहीं माना जा सकता; क्योंकि केवल दुःखनिवृत्ति को मोक्ष मानने पर मोक्षकाल में आत्ममन:संयोगजन्य सुख, दुःख, ज्ञान आदि सभी विशेष गुणों का उच्छेद होने पर मूर्छादिसदृश स्थिति हो जाती है । अतः इसे मोक्ष मानना अनुचित है। यह एक प्राचीन कारिका भी मिलती है, जिसे न्यायभूषण तथा सदानन्दकृत अद्वैतब्रह्मसिद्वि आदि में उद्धृत किया गया है 'वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं वृणोम्यहम् । __ न तु निर्विषयं मोक्षं गौतमो गन्तुमिच्छति ॥'' अ), ब) उस उक्ति से यह स्पष्ट सिद्ध है कि सकलात्मगुणविशेषोच्छेद को गौतम मुक्ति कभी स्वीकार नहीं करता । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवर्गनिरूपण २२७ दो प्राचीन कारिकाएं उपलब्ध होती हैं, जिनसे यह स्पष्ट सिद्ध है कि न्यायसूत्र के रचयिता गौतम समस्तविशेषगुणोच्छेदरूपी मुक्ति को नहीं मानते थे । 'तत्रापि नैयायिक आत्तगर्वः कणादपक्षाच्चरणाक्षपक्षे । मुक्तविशेष वद सर्वविच्चेत् नो चेत् प्रतिज्ञा त्यज सर्ववित्वे ॥ अत्यन्तनाशे गुणसंगतेर्या स्थितिनभोवत् कणभक्षपक्षे ।। मुक्तिस्त्वदीये चरणाक्षपक्षे सानन्दवित् सहिता विमुक्तिः ॥' इन कारिकाओं से यह प्रतीत होता है कि किसी नैयायिक ने शंकराचार्य की सर्वज्ञता पर कटाक्ष करते हुए यह आक्षेप किया कि यदि आप सर्वज्ञ हैं, तो बतलाइये कि कणादसम्मत मुक्ति से न्यायसम्मत मुक्ति में क्या भेद है ? और यदि नहीं बतला सकते, तो स्वयं को सर्ववित् कहना छोड़ दोजिये । इस पर शंकराचार्य ने कहा कि कणादमत में आत्मा के अशेष विशेष गुणों का उच्छेद हो जाने पर आकाश की तरह केवल महत्त्वादि सामान्य गुणों के साथ आत्मा को स्थिति मोक्ष है। किन्तु गौतम के मत में आनन्दसंवित्-सहित अर्थात् नित्यसुखाभिव्यक्तिसहित दुःखात्यन्तनिवृत्ति मोक्ष है। ___ यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि चाहे कितनी ही प्राचीन कारिका या वचन इस विषय में उपलब्ध होते हों, किन्तु स्वयं गौतमने अपने न्यायसूत्र में 'बाधनालक्षण दुःखम्', 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपर्वाः' इन सूत्रों के द्वारा बाधनास्वरूप दुःख की अत्यन्त निवृत्ति को हो मोक्ष स्पष्ट रूप से बतलाया है, तब यह कैसे माना जा सकता है कि गौतम नित्य सुखाभिव्यक्तिसहित दुःखाभिव्यक्ति को मोक्ष मानते हैं । इसका यह समाधान है कि गौतम ने यही बतलाया है कि प्रमाणप्रमेयादि षोडश पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञाननिवृत्ति द्वारा परम्परया मिथ्याज्ञानजन्य दुःख की अत्यन्त निवृत्ति हो जाती है, इसी को अपवर्ग कहते हैं। सभी दार्शनिक तत्त्वज्ञान से तो मिथ्याज्ञान की निवृत्ति ही मानते हैं, क्योंकि तत्त्वज्ञान का मिथ्या. ज्ञान से ही विरोध है । वेदान्ती जीवब्रह्मैक्यरूप सम्यज्ञान से तथा सांख्य व पातंजल विवेकज्ञान से अज्ञान तथा अविवेक की ही निवृत्ति मानते हैं । अर्थात् तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान नष्ट होता है और उसके नाश से परम्परया दुःख की निवृत्ति होती है। अतः तत्त्वज्ञान का सामध्ये मिथ्याज्ञान तथा परम्परथा तज्जन्य दुःख की निवृत्ति में ही है, नित्य सुख की अभिव्यक्ति में नहीं। प्रतिबन्धकरूप दुःख को निवृत्ति हो जाने पर नित्य सुख तो स्वतः अभिव्यक्त हो जाता है । अतः शास्त्र का तात्पर्य तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान-निवृत्ति द्वारा दुःखात्यन्तनिवृत्ति में है, इसी 1 (a) न्यायभूषण से उधृत पृ. ५९४ । (b) अद्वत्तब्रह्मसिद्धि, पृ १७६ 2. शङ्करदिग्विजय, सर्ग १६१६८-६९ 3. न्यायसूत्र, ११।२१ 4. वही, १।१२२ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ न्यायसार अभिप्राय से सूत्रकार ने ‘तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः'1 इस सूत्र के द्वारा दुःखात्यन्त. विमोक्ष को अपवर्ग कहा है। अपर्ग शब्द का प्रयोग भी यह सिद्ध कर रहा है कि सूत्रकार तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान नेवृत्ति द्वारा अपवर्जनीय वस्तु का निर्देश कर रहे हैं और वह अपवर्जनोय वस्तु दुःख ही है । अतः सूत्रकार का दुःखात्यन्तविमोक्ष को अपर्ग तथा तत्त्वज्ञान का फल बतलाना सर्वथा समीचीन है। वेदान्त ने भी ब्रह्मात्मैक्यज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति तथा तज्जन्य अनर्थरूप अपंच की निवृत्त ही शास्त्र का प्रयोजन माना है, आत्मरूप सुख की अभिव्यक्ति को नहीं । आत्मसुख तो नित्य है, वह अज्ञान से अभिभूत रहता है । ज्ञान द्वारा अज्ञान को निवृत्ति हो जाने से उसकी आंभव्यक्ति नित्यासद्ध हाने से स्वतःसिद्ध है। इसी प्रकार न्यायमत में दुःखात्यन्तनिवृत्ति हो जाने पर नित्यसुखाभिव्यक्ति के प्रतिबन्धक दुःख की निवृत्ति हो जाने से नित्य सुखाभिव्यक्ति स्वतःसिद्ध है। सूत्रकार ने कहीं भी नित्य सुखाभिव्यक्ति का मोक्ष में निषेध नहीं किया है। अतः सूत्रकार दु.खात्यन्तनिवृत्तिसहित नित्य सुखाभिव्यक्ति को हो मोक्ष मानते हैं। गौतम ने यह भी कहो नहीं बतलाया है कि मोक्षदशा में आत्सा के सकल विशेष गुणों का उच्छेद हो जाता है । अतः मोक्षदशा में नित्य सुखभान मानने में सूत्रकार का किसी भी र का विरोध नहीं. अपित उपर्यत उपलभ्यमान मोक्षविषयक कारिकाओं से नित्य सुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष में उनकी सम्मति ही उपलब्ध होती है। सूत्रकार के बाद कालप्रभाव से वैशेषिकमत के प्रभाव के कारण न्यायभाष्यकारादि ने कणादमम्मत मोक्षस्वरूप अपना लिया और महान संरम्भ के साथ उसी को एकान्ततः मोक्ष का स्वरूप मानते हुए नित्यसुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष का प्रत्याख्यान किया। किन्तु आचार्य भासर्वज्ञ ने अपनी प्रतिभा के बल पर उस मत का पुनः उज्जीवन किया । अतः भासर्वज्ञ के न्यायसार में 'एके तावद् वर्णयन्ति सकलविशेषगुणोच्छेदे संहारावस्थायामाकाशवदात्मनोऽत्यन्तावस्थान मोक्षः' इस वाक्य में 'एके' पद से वैशेषिकों तथा तथा वैशेषिकानुयायी भाष्यकारादि का ग्रहण उचित है तथा 'मोहाद्यवस्थात्वान्मूर्छाद्यवस्थावदत्र विवेकिनां प्रवृत्तिने त्याहुरन्ये' इस वाक्य में 'अन्ये' पद से आचार्य गौतम तथा तन्मतानुयायी भासर्वज्ञादि का ग्रहण है । 'अन्ये' पद से गृहीत आचार्यो का मत ही वास्तविक न्यायमत है । इसलिये भासर्वज्ञ ने 'अन्ये' मत को न्याय का मत मानते हुए 'मोक्षे सुखाभिव्यक्तिरिति न्यायमतम्' वाक्य का प्रयोग किया है और यहो गौतम को अभिप्रेत है, इस तथ्य को पुष्टि के लिये "वरं वृन्दावनेरम्ये शुगालत्वं वृणोभ्यहम् । न तु निविषय मोक्ष गौतमो गन्तुमिच्छाते ॥" यह वचन उद्धत किया है। अतः भासर्वज्ञ के अनुसार आनन्दसवित्सहित दुःखात्यन्तनिवृत्ति हो मोक्ष है, यह मत ही न्यायमत है, न कि केवल दुःखात्यन्तनिवृत्ति । 1. न्यायसूत्र, १111२२ 2. तत्सिबमेलस् नित्यसंवेद्यमानेन सुखेन विशिष्टा आत्यन्तिकी दुःख निवृत्तिः पुरुषस्य मोक्ष इति । -न्यायसार, ३. १० 3. न्यायसार, पृ. ३९-१० 4. न्यायभूषण, पृ. ५९४ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवर्गनिरूपण २२९ भासर्वज्ञ ने उपर्युक्त रीति से आनन्दसंवितसहित दुःखात्यन्तनिवृत्ति को मोक्ष माना है । अर्थात् मोक्षदशा में दुःखरूप प्रतिबन्ध के नष्ट हो जाने से नित्य सुख की अभिव्यक्ति हो जाती है, जो कि संसारदशा में दुःखरूप प्रतिबन्ध के कारण ती थी. किन्त न्यायदर्शन की रीत से यह सर्वथा अनुपपन्न है, क्योंकि यह मुक्ति आत्मा को आनन्द व ज्ञानरूप मानने वालों के मत में ही बन सकती है। किन्तु न्यायदर्शन आत्मा को ज्ञानरूप व आनन्दरूप नहीं मानता । वह तो आत्मा के साथ मन संयोग द्वारा बुद्ध्यादि विशेष गुणों की उत्पत्ति आत्मा में मानता है । इसीलिये उन्होंने आत्मा को 'ज्ञानाद्यधिकरणमात्मा इस रीति से ज्ञानादि का आश्रय माना है और इन्हीं बुद्ध्यादि लिंगों के द्वारा उन्होंने आत्मा को अनुमति मानी है । यद्यपि ईश्वर के गुणों की संख्या के विषय में नयायकों के मत में एकरूपता नहीं है, तथापि ईश्वर में नित्य ज्ञान, नित्य इच्छा तथा नित्य प्रयत्न सब को मान्य है। परन्तु वे उसमें भी नित्य सुख की सत्ता नहीं मानते हैं । हाँ, जरन्नैयायिक जयन्त ने ईश्वर को धर्म तथा नित्य सुख का आश्रय भी माना है। ऐसो स्थिति में आत्मा में मुक्तिदशा में सुख व ज्ञान के न होने से नित्य सुख को अभिव्यक्ति किस प्रकार बन सकती है ? उन्होंने जो नित्य सुख की आभव्यक्ति के विषय में 'आनन्द ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन,' 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपम्' इत्यादि जो श्रुतिवचन उपन्यस्त किये हैं, वे ब्रह्म अर्थात् आत्मा को आनन्दरूप बतला रहे हैं और न्यायदर्शन में उपक्त रीति से आत्मा जब आनन्दरूप नहीं है, तब उपयुक्त श्रतिवचन किस तरह नित्य सुख को अभिव्यक्ति में प्रमाण हो सकते हैं । अतः दुःखात्यन्तानवृत्ति ही न्यायदर्शन में मोक्ष का स्वरूप है । इसीलिये श्रीहर्ष ने गौतम के मुक्तिसिद्धान्त पर कटाक्ष करते हुए कहा है 'मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् । गोतमं तमवेक्ष्येब यथा वित्थ तथैव सः ॥” इसका स्पष्ट अभिप्राय है कि बुद्धिजीवी तथा प्रेक्षावानों को जडतारूप मुक्ति का उपदेश करने वाला गोतम गोतम ही है अर्थात् निरा पशु है । यद्यपि गौतम ने कहीं भो सकलविशेषगुणोच्छेदरूप मुक्ति का प्रतिपादन नहीं किया है, किन्तु 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः'3 सूत्र में दुःखात्यन्तविमुक्तिरूप मुक्ति का तो प्रतिपादन किया ही है, अतः दुःखात्यन्तनिवृत्ति ही न्यायमत में मोक्ष का स्वरूप सिद्ध होता है। 1. धर्मस्तु भूतानुमहवतो वस्तुस्वाभाव्या भिबन्न वार्यते तस्य च फलं परमार्थनिष्पत्तिरेव, सुखें स्वस्य नित्यमेव नित्यानन्दत्वेन आगमात् प्रतीतेः, असुरिक्तस्य चैवविधकार्यारम्भयोग्यताs. भावात् । -न्यायमञ्जरी, पूर्व भाग (चौखम्बा, वाराणसी, द्वितीय संस्करण), पृ. १८५ 2. नैषध, सर्ग १७, श्लोक ७४ 3. न्यायसूत्र, १२२ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० न्यासार आत्मा की नित्यसुखरूपता का कहीं भी गोतम के द्वारा प्रतिपादन नहीं किया गया है, अपि तु न्याय के वैशेषिक के समानतन्त्र होने से ज्ञानसुखाद्याश्रयत्व ही आत्मा का स्वरूप सिद्ध होता है न कि नित्यसुखरूपता । न्याय और वैशेषिक दर्शन ही नहीं, षड्दर्शनों में वेदान्त को छोड़कर किसी भी दर्शन ने आत्मा की सुखरूपता अंगीकार नहीं की है । इसीलिये वेदान्तातिरिक्त सभी दर्शनों में शब्दभेद से दुःखात्यन्तनिवृत्ति को ही मोक्ष माना है । षड् दर्शनों में केवल वेदान्तदर्शन ही एक ऐसा है जिसने प्रपञ्चनिवृत्तिपूर्वक नित्यसुखाभिव्यक्ति को मोक्ष स्वीकार किया है । वस्तुतः मोक्ष में आत्मा की स्वरूपस्थिति होती है । अतः आत्मा को नित्य - सुखस्वरूप मानने वाले वेदान्तमत को छोड़कर अन्य दर्शनों में नित्य सुखस्वरूपतारूप मोक्ष को मानना नितान्त असंगत है । इसीलिये जयन्तभट्ट ने आत्यन्तिकी दुःखव्यावृत्ति को हो मुक्ति माना है और उसको सिद्ध भी किया है । 1 6 1. ... आत्यन्तिकी दुःखव्यावृत्तिरपवर्गो न सावधिका द्विविधदुःखावमर्शिना सर्वनाम्ना सर्वेषामात्म गुणानां बुद्धिसुखदुःखेच्छ । द्वेषप्रयत्नधर्माधिर्म संस्काराणां निमू लोच्छेदोऽपवर्ग इत्युक्तं भवति । .... तदेवं नवानामात्मगुणानां निम् लोच्छदोऽपवर्ग इति यदुच्यते तदेवेदमुक्तं भवति तदत्यन्तवियोगोऽपवर्ग इति । ननु तस्यामवस्थायां कीहगात्भावशिष्यते । स्वरूपैकत्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः ॥ ऊर्मिषट्कातिगं रूपं तदस्याहुर्मनीषिणः । संसारबन्धनाधीनदुःखक लेशाद्यदूषितम् ॥ -न्यायमञ्जरी, उत्तरभाग, पृ. ७७ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम विमर्श परवर्ती ग्रन्थकारों पर भासर्वज्ञाचार्य का प्रभाव परस्पर खण्डमण्डन की परम्परा ने श्रौत तथा अश्रौत दर्शनों के सिद्धान्तों में अनेक परिवर्तन, परिष्कार तथा परिवर्धन द्वारा दार्शनिक वाङ्भय को पर्याप्त समृद्ध बनाया है । दर्शनशास्त्र के प्रौढ़ ग्रन्थकारों से उत्तरवर्ती ग्रन्थकार अवश्य प्रभावित हुए हैं। आचार्य भासर्वज्ञ भी उन ग्रन्थकारों में अन्यतम हैं, जिनका भूरि प्रभाव उत्तरवर्ती दर्शनशास्त्रीय वाङ्मय पर परिलक्षित होता है । न्यायशास्त्र को परम्परागत वैशेषिकप्रभाव से मुक्त कर उसमें नूतन सिद्धान्तों की उदुभावना द्वारा क्रान्ति ल के कारण भासर्वज्ञाचार्य परवर्ती ग्रन्थकारों के विशेष चर्चा के विषय रहे हैं। उनके 'न्यायसार' पर स्वोपज्ञ विवृति 'न्यायभूषण' के अतिरिक्त सत्रह टीकाएं लिखी गई। यह उनके प्रभावातिशय तथा प्रसिद्धि का द्योतक प्रबल प्रमाण है। इन टीकाकारों में जयसिंह सूरि आदि जैन दार्शनिक भी हैं । न्यायभूषण पर भी दो टीकाओं की रचना का उल्लेख प्राप्त होता है ।' वासुदेव सूरि ने तो न्यायभूषण की दुर्बोधता और गहनता से प्रभावित होकर उसे महाम्बुधि संज्ञा दी है। बौद्ध दार्शनिक ज्ञानश्रीमित्र ने न्यायशास्त्र के आधारस्तम्भभूत प्रमुख नैयायिकों में भासर्वज्ञ की गणना कर उनके महत्व का अंकन किया है।* हेमचन्द्र सूरि, मल्लिषेण सूरि, श्रीमद्वल्लभाचार्य, उदयनाचार्य, किरणावलीप्रकाशकार, शंकरमिश्र, भट्ट वादीन्द्र, वरदराज वेंकटनाथ, ज्ञानश्री, रत्नकीर्ति आदि परवर्ती ग्रन्थकारों ने प्रमाणसामान्य, प्रत्यक्ष, अनुमान, संख्या, कर्म, विभागज विभाग, मुक्ति आदि अनेक विषयों से सम्वन्धित भासर्वज्ञ के मन्तव्यों के खण्डन अथवा मण्डन के लिये अपनी लेखनी चलाई है और उनके मत को उद्धृत किया है । भासर्वज्ञ के मन इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि विरोध होने पर भी परवर्ती दार्शनिक उनको उपेक्षा नहीं कर सके । ४००५०० वर्षों की सुदीर्घ कोलावधि तक भासर्वज्ञ के मतों की समालोचना होती रही, इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उनकी मान्यताएं निश्चित रूप से प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण थी । जसाकि पुरस्तात् कहा जा चुका है, उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने स्वमतसमर्थनार्थ या भासर्वज्ञमतखण्डनार्थ दो रूपों में उनके विचारों को उद्धृत किया है। यहां दोनों प्रकार के कतिपय उद्धरण प्रस्तुत कर आचार्य भासर्वश के प्रभाव का अवधारण किया जा रहा है। 1. द्रष्टप्य-प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध, पृ. २६ 3. वही 2. वही 4. ज्ञानश्रीनिबन्धावलि, पृ. १५९ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ न्यायसार (क) तर्कभाषाप्रकाशिका के प्रणेता चिन्नभट्ट भासर्वज्ञमत से प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्होंने अनेक स्थलों पर भासर्वन के मन्तव्यों को स्वमत के समर्थन के लिये उद्भत किया है। जैसे-तर्कभाषाकार ने साधारण तथा असाधारण भेद से अनैकान्तिक हेत्वाभास के दो भेद माने हैं। इस प्रसंग में चिन्नंभट्ट ने व्यभिचार का लक्षण किया है-'स्वोचितस्थलमतिक्रम्य अन्यत्र वर्तनं व्यभिचारः। अर्थात स्वोचित स्थल सपक्ष को छोड़कर अन्यत्र अर्थात् विपक्ष में हेतु का रहना व्यभिचार है। यहां आशंका होती है कि अनुचित स्थल विपक्ष में न रहने वाले पक्षमात्रवृत्ति असाधारण हेत्वाभास में सव्यभिचारिता कैसे सम्पन्न होगी ? तर्कभाषाप्रकाशिकाकार ने इसका समाधान करते हुए कहा है-'अनुचितस्थले वर्तमान मिवोचितस्थलेऽवर्तमानमपि व्यभिचार एव' ।' अर्थात् हेतु ही की विपक्षवृत्तिता की की तरह सपक्षावृत्तिता भी व्यभिचार हो है । अतः असाधारण का भी ग्रहण हो जाता है । उपयुक्त उभयविध व्यभिचार के समर्थन में चिन्नंभट्ट ने भासर्वज्ञमत को उद्धृत किया है 'तदुक्तं भासर्वक्षेन हेतोरुभयत्रवृत्तिय॑भिचारस्तथोभयतो व्यावृत्तिरपि व्यभिचार एवं' । (ख) अपि च, चिन्नंभट्ट ने बतलाया है कि न्यायविद्या में संशयादि पदार्थों का प्रमाणों तथा प्रमेयों से पृथक् कथन न्यायविद्या का अध्यात्मविद्या से भेद बतलाने के लिये किया गया है। अन्यथा उपनिषद् की तरह न्यायविद्या भी अध्यात्मविद्यामात्र हो जाती । संशयादि पदार्थों द्वारा ही न्यायविद्या से पृथक् प्रस्थापित होती है। इसके समर्थन के लिये उसने भासर्वज्ञ को प्रमाणरूप से उद्धृत किया है'तस्मात् संशयादिभिः पदार्थैः (न्यायविद्या) पृथक् प्रस्थाप्यत इति भूषणेऽप्येतत्प्रति. पादितम्' । (ग) न्यायशब्द की अनुमानार्थपरकता का निर्देश करते हुए चिन्नंभट्ट ने कहा है-'नीयते ज्ञाप्यते विवक्षितोऽर्थो येनेति करणव्युत्पत्त्या न्य योऽनुमानम्' । अपने इस कथन के समर्थन में चिन्नं भट्ट ने भासर्वज्ञ के वक्तव्य को प्रमाण रूप में उपन्यस्त किया है-'अतः एवोक्तं भासर्वज्ञेनानुमाननिरूपणावसाने-'सोऽयं परमो न्याय' इति । (घ) अनुमान के दो साध्य होते हैं-(१) अग्निसामान्य और (२) पर्वतादिनिष्ठ अग्निविशेष । इस साध्यद्वय की सिद्धि के लिये अनुमान में सामर्थ्यद्वय होता हैव्याप्ति और पक्षधर्मता । व्याप्ति से सामान्यसाध्य की सिद्धि होती है और पक्षधर्मता के बल से अभिमत विशेष साध्य की सिद्धि । पूर्व न्यायाचार्यों को भी यह मान्य था, इसकी पुष्टि के लिये चिन्नंभट्ट भूषणकार भासर्वज्ञ को उद्धृत करते है-'अत एवाह भूषणकारः-बहिर्याप्त्यन्ताप्तिप्रसादादुभयसिद्धिरिति पूर्वाचार्याः 'प 1. तर्कभाषाप्रकाशिका, पृ. १५६ 5. वही, पृ. ६८ 2. वही 6. वही 3. वही 7. वही, पृ. १५० 4. तर्कभाषाप्रकाशिका, पृ. २०९ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवती ग्रन्थकारों... अर्थात् पक्षबहिर्देश महानसादि में गृहोत अग्निसामान्य के साथ धूम की व्याप्ति के बल से अग्निसामान्य की सिद्धि होती है और पक्षान्तदेश में उपलभ्यमान व्याप्ति से पक्षवृत्ति अग्निविशेष की सिद्धि । (ड) व्याप्ति का स्पष्टीकरण करते हुए चिन्नंभट्ट ने कहा है कि व्याप्ति से व्याप्यव्यापकभाव बतलाना अभीष्ट है । व्याप्यव्यापकभाव दो प्रकार का होता हैअन्वयरूप और व्यतिरेकरूप । इस प्रसंग में चिन्नंभट्ट ने भूषणकार भासर्वज्ञ को उद्धृत करते हुए कहा है-तथा च भूषणे भासर्वज्ञप्रन्थः । तत्र साधनसामान्य व्याप्यं साध्य सामान्य व्यापकमित्यय व्याप्यमापकभावोऽन्धयः । साध्यसामान्यभावो व्याप्यः साधनसामान्याभावो व्यापक इत्ययं व्याप्यव्यापकभावो व्यतिरेकः ।" किरावलीकार उदयनाचार्य ने कर्म के गुणान्तर्भाव के लिये भासर्वज्ञ को साधुवाद दिया है-'तस्माद् वरं भूषणः कर्माणि गुणस्तल्लक्षणयोगात्' ।' भासज्ञ ने सूत्रकारसरणि से विलग होकर मोक्ष में नित्यसुखाभिव्यक्ति मानी है। उनकी यह मान्यता भी परवर्ती ग्रन्थकारों की विशेष चर्चा का विषय बनी । वादिदेव सूरि कहते हैं- भूषणोऽपि मोक्षे सुखतत्संवेदनसनाथमात्मानमातिष्ठमानोऽस्मदनुचर एवं' । अर्थात् मोक्षदशा में सुख व सुखज्ञानसहित आत्मा की स्थिति मानते हुए भूषणकार भासर्वज्ञ ने हमारे (जैन) मत को स्वीकार किया है, क्योंकि हम भी मोक्ष में आत्मा का सुख व सुखज्ञानयुक्त स्थिति मानते हैं। तर्कभाषाप्रकाशिकाकार ने भासर्वज्ञ के कतिपय मतों का खण्डन भी किया है। प्रकरणसम हेत्वाभास नैयायिकों को मान्य है। भासर्वज्ञ के अनुसार स्वपक्ष तथा परपक्ष की सिद्धि में त्रिरूप हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास कहलाता है। परन्तु चिन्नंभट्ट को यह स्वीकार्य नहीं, अतः असहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं-'स्वपरपक्षसिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसम इति भूषणकारो बभाषे तदसंभवि । एकस्य हेतोरुभयत्र त्रैरूप्यासंभवात् । तस्मात् प्रतिज्ञातार्थ वपरीतार्थज्ञापकहेमान् हेतुः प्रकरणसमः' । तार्किकरक्षासारसंग्रह में वरदराज ने भी प्रकरणसम हेत्वाभास का भासर्वज्ञाभिमत लक्षण उदाह्रत किया है-'एकदेशिनस्तु स्वपक्षपरपक्षसिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसम इति लक्षयन्ति उदाहरन्ति च। यहां 'एकदेशिनः' शब्द से भूषणकार भासर्वज्ञ ही अभिप्रेत है, जैसाकि ताकिकरक्षा के टीकाकार मल्लिनाथ ने 'अत्र भूषणोक्तं लक्षणं दूषयितुमनुभाषते'' इस कथन से स्पष्ट हो जाता है। 1 तर्कभाषाप्रकाशिका, पृ. १४२ 2 किरणावली, पृ. १०४. 3. Thakur. A. L., Nyayabhāsana ~A Lost Work on Medieval Indian Logic, JBRS. Vol, XLV, p. 97, Footnote No. 51. 4. न्यायसार, पृ. ७. 6. तार्किकरक्षा, प. २२३. 5. तर्कभाषाप्रकाशिका, पृ. १५६. 7. वही, पृ. २१२-२२३. भान्या-३० Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ न्यायसार ___ भासर्वज्ञ ने प्रमाण सामान्य का लक्षण-'सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्'' यह किया है। इस प्रमाणलक्षण से ज्ञात होता है कि नैयायिकपरम्परा के अनुसार भामर्वज्ञ ने भी प्रमाण को ज्ञानरूप तथा ज्ञानभिन्नस्वरूप माना है । जैन दार्शनिक हेमचन्द्र ने वातिककारादि नैयायिकों के प्रमाणलक्षण का खण्डन करते हुए भासर्वज्ञोक्त प्रमाणलक्षण को उद्धृत कर यह कहा है कि इस लक्षण के अनुसार भी जिसके व्यापार के अव्यवहित काल में फलनिष्पत्ति हो, वह साधकतम अर्थात् साधन कहलाता है और ज्ञान के उत्तरकाल में ही प्रमारूप फल की निष्पत्ति होती है, अतः ज्ञान व अज्ञान दोनों प्रकार के प्रमाणसाधनों को प्रमाण न मानकर ज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहिये ।' स्याद्वादमंजरीकार श्री मल्लिषेण सूरि ने भी मासर्वज्ञ के प्रमाणलक्षण में दोषोद्भावन करते हुए उनके मत को उद्धृत किया है । जैसे-'यदपि न्यायभूषणसूत्रकारेणोक्तं सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणमिति तत्राप साधनग्रहणात् कर्तृकर्मनिरासेन करणस्यैव प्रमाणत्वं सिध्यति । तथाप्यव्यवहितफलत्वेन साधकतमत्वं ज्ञानस्यैवेति न तत्सम्यग् लक्षणम् । स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणात तु तात्त्विक लक्षणम्' । वस्तुस्थिति यह है कि जैन दार्शनिकों ने प्रमाण को एकान्ततः ज्ञानरूप माना है, परन्तु भासज्ञ ऐसा नहीं मानते । आपेक्षिक दृष्टि से 'अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्' इस वातिककारोक्त प्रमाणलक्षण से भासर्वज्ञोक्त प्रमाणलक्षण अधिक परिष्कृत है, क्योंकि वार्तिककारोक्त प्रमाणलक्षण अतिव्यापक है, उसमें कर्ता, कर्म तथा करण तीनों का समावेश हो जाता है। भासर्वज्ञोक्त प्रमाणलक्षण में साधन शब्द का प्रयोग होने के कारण प्रमाता और प्रमेय में उसकी अतिप्रसक्ति नहीं है । परन्तु एकान्ततः ज्ञानरूप न होने से जैन दार्शनिक उसे भी स्वीकार नहीं करते ।। शुद्ध नैयायिक होने के कारण भासर्वज्ञ ने न्यायशास्त्र को वैशेषिकप्रभाव से मुक्त करने का प्रयास किया । उन्होंने न्यायभूषण में स्पष्ट घोषणा की है कि उनका उद्देश्य है -न्यायशास्त्र का व्यारूयान । अतः वैशेपिक-शास्त्र से न्यायशास्त्र का विरोध दोषजनक नहीं हो सकता । पूर्ववर्ती न्यायाचार्यो द्वारा स्वीकृत तथा अन्य वैशेषिकसिद्धान्तों का उन्होंने खण्डन किया है। परवर्ती अनेक वैशेषिक आचार्यों ने भासर्वज्ञकृत वैशेषिक-खण्डन का निराकरण किया है । 1. न्यायसार, पृ. १. 2. सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्' इत्यत्रापि साधन ग्रहणात् कत'कर्मनिरासेन कारणस्य प्रमाणत्वं सिध्यति, तथाप्यव्यवहितफलत्वेन साधकतमत्वं ज्ञानस्यैवेति तदेव प्रमाणत्वेनेष्टव्यम् । -प्रमाणमीमांसा, पृ. ७. 3. स्याद्वादमंजरी, पृ. ५७. 4. न्यायशास्त्रं च व्याख्यातुं वयं प्रवृत्तास्तेनास्माकं शेषिकतन्त्रेण विरोधो न दोषाय । -न्यायभूषण, पृ. १६३. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवती ग्रन्थकारों... २३५ भासर्वज्ञ ने संख्या को पृथक् गुण न मानकर एकत्व को अभेदरूप तथा द्वित्वादि को भेदरूप बतलाया है। अतः मानमनाहरकार का कथन है कि संख्या को स्वीकार न करने के कारण भूषणमतानुसार अन्तःकरण में द्वित्व या बहुत्व संभावित नहीं होता-'भूषगस्य संख्यानभ्युपगमेन मनोगतत्वस्य दूरापास्तत्वात् ।'1 __ न्यायलीलावतीकार श्रीमद्वल्लभाचार्य ने भी प्रस्तुत भासर्वज्ञमत के प्रति घोर विरोध प्रदर्शित करते हुए कहा है-'तदिदं चिरन्तनशेषिकमतदूषणं' भूषणकारस्य अतित्रपाकरम् । तदि यमनाम्नातता भासर्वज्ञाचार्यस्य यदयमाचार्यमप्यवमन्यते । तथा च 'तदनुयायिनस्तात्पर्याचार्यस्य सिंहनादः संविदेव हि भगवती' इत्यादि । उदयनाचार्य ने भी किरणावी में संख्या के पृथग्गुणत्व की स्थापना करते हुए भा पर्वज्ञमत का निराकरण किया है-'एतेन स्वरूपाभेद एकत्वं स्वरूपभेदस्तु नानात्वं द्वित्वमिति भूषणः प्रत्यारूयातः।' 'स्वरूपाभेदो हि घटस्य घट एबोच्यते । घटादिप्रत्ययस्य स्वरूपप्रत्ययस्य च घटाघेकनिबन्धनत्वात एकादिप्रत्ययस्य च घटपटादसाधारणत्वात्, तथा च तन्निबन्धन एकादिप्रत्ययः तं विहाय पटं नोपसमेत् । एवं स्वरूपभेद एव यदि द्वित्वं तदा श्यादिष्वपि द्वित्वप्रत्ययः स्यात्, टादावेव वा स्वरूपभेद इति पटादौ द्वित्वप्रत्ययो न स्यादिति । भासर्वज्ञ विभाग को संयोगाभावरूप मानते हैं। विभागज विभाग भी उनको मान्य नहीं है । परवर्ती वैशेषिक आचार्यों ने भासर्वज्ञ को उपर्युक्त मान्यता का खण्डन किया है । वैशेषिकों के अनुसार हस्तकुड्यविभाग से शरीर कुइयविभाग उत्पन्न होता है। विभागज विभाग को स्वीकार न करने पर हस्तकुड्यमंयोग का विनाश होने पर भी उत्तर विभागरूप कारण के अभाव में शरीरकुड्यसंयोग का विनाश नहीं होगा । भासर्वज्ञ की मान्यता है कि हस्तकुड्संयोग से भिन्न शरीरकुड्यसंयोग नामक कोई वस्तु नहीं है । यदि हस्तकुड्यसंयोगदर्शन से शरीरकुड्यसंयोग को कल्पना की जाती है तब फिर हस्तकर्मदर्शन से शरीर में कर्म की कल्पना क्यों नहीं की जाती ? अतः भासर्वज्ञ को कथन है कि हस्तकुड्यसंयोग के नाश से ही शरीरकुड्यसंयोग का नाश हो जाता है, उसके नाश के लिये विभागज विभाग की कल्पना की आवश्यकता नहीं । भूषणकार की इस मान्यता को उद्धृत करते हुए न्यायलीलावतीकार ने कहा है-'तथा कारणाकारणजन्यविभागः । यथा अंगुलितरुविभागात पाणितरुविभागः। नन्वत्र किं प्रमाणम् ? विभक्तबुद्धिरांत चेत्, न, तदसिद्धेः । अन्यथा कर्मापि कि नांगुलिकर्मजं स्यादिति भूषणः' । 1. मानमनोहर, पृ. २६ 2. न्यायलीलावती, पृ. ४१ 3. किरणाबली, पृ. १२४ 4. न्यायलीलावती, पृ. १२७ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ न्यायसार ___ उदयनाचार्य ने भी किरणावली में विभागसम्बन्धी भासर्वज्ञमत का निराकरण करते हुए अन्त में कहा है-'व्यधिकरणमपि कर्मव विनाशकमस्तु । न चातिप्रसंगः, आश्रयाश्रित. परम्परासंयोगस्यैव विनाश्यत्वात । न, विरोधिनः समानाधिकरणस्यैव विनाशकत्वमित्यत्र असति बाधके संकोचानुपपत्तिरिति भासर्वज्ञमतनिरासः। 1 अर्थात् अंगु लक्रिया अंगुत्यधिकरण में होने से अंगुलितरुसंयोग की नाशक हो सकती है, हस्ततम्संयोग की नाशक नहीं। क्योंकि कर्मजन्य हस्ततरुसंयोग के प्रति अगुलितमसंयोग कारण नहीं और अकारण अंगुलितरुसंयोग हस्ततरुसंयोग का नाशक नहीं, क्योंकि समानाधि. करणवर्ती विरोधी ही अपने विरोधी का नाश कर सकता है इस नियम में संकोच का कारण न होने से अंगुल्यधिरण कर्म के द्वारा हस्ताधिकरण संयोग का नाश नहीं हो सकता । अतः विभागज विभाग मानना ही होगा। भासर्वज्ञ ने कर्म का गुण में अन्तर्भाव किया है। उनके अनुसार व पचीमबां गुण है। वैसे कर्म का गुण में अन्तर्भाव भारतीय दार्शनिकों को अतिप्राचीनकाल से ज्ञात था । मण्डनामन प्रणीत भावनाविवेक को टीका में उम्बेक ने यह प्रमाणित किया है कि बादरि नामक मीमांसकवृद्ध ने इस मान्यता का समर्थन किया था। परन्तु न्यायलोलावतीकण्ठाभरण के रचयिता शंकर मिश्र, न्यायासद्धान्तमुक्तावलीप्रकाश के रचयिता भट्ट दिनकर और तार्किकरक्षाानष्कण्टका के प्रणेता मल्लिनाथ ने कर्म के गुणान्तर्भाव को भूषणमत के रूप में बतलाया है, क्योंकि उनको भूषणकार के प्रन्थ से ही इसका ज्ञान प्राप्त हुआ था । भट्ट वादीन्द्र ने भी रससार में भूषणकार के इस मत का उल्लेख किया है-'कर्म गुणः सामान्यवत्त्वे स्पर्शानाधारत्वे च सति द्रव्याश्रेितत्वात् । सामान्यवत्त्वे सात कार्यानाधारत्वादित्यनुमानाच्च कर्म गुण इति न्यायभूषणकारः । जैसाकि पहिले कहा जा चुका है कि वैशेषिक दार्शनिक आर्षज्ञान को योगिप्रत्यक्ष से भिन्न मानते हैं और भासर्वज्ञ ने आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव किया है । परवत वैशेषिक आचार्यों ने इस मान्यता का निराकरण किया है। मानमनाहरकार वादिवागीश्वराचार्य ने कहा है-'धर्मविशेषजत्वाद् योगप्रत्यक्षान्तर्मुतामात चेत्, न, धर्मविशेषजत्वासिद्धेः। धर्मविशेषमात्रजन्यत्वस्य व्यभिचारात् । अविनाभावानरपेक्षः 1. किरणावली, पृ. १५१-१५२ 2. द्रव्यगुणयोः वीयरुणिम्नोर्यागक्रयरूपयोर्धातुवाम्यसंयोगविभागरूपक्रिययोः । -भावनाविवेकटीका, पू ४२. 3. Nyayabhusana-A Lost Work on Medieval Indian Logic, - A. L. Thakur, JBRS, Vol. XLV, P. 94, Footnote No. 27 4. Ibid, Footnote No. 28 5. कमापि गुण इति भूषणः...। -तार्किकरक्षा, पृ. १४१. 6. रससार, १.४. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवती ग्रन्थकारों... सम्यकपरोक्षानुभवः आर्षः । किरणावली में उदयन ने भी आर्षज्ञान के योगिप्रत्यक्षान्तः र्भाव का खण्डन किया है-'न च योगिप्रत्यक्षत्व, योगधर्माजन्यत्वात् । न च प्रकृष्टधर्मशब्दवाच्यत्वेन समानत्वम् , प्रकृष्टशब्दप्रवृत्तावेकनिमित्तविरहात । उनका आशय यह है कि आषज्ञान को योगिप्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता, कयोंकि वह योगजधर्मजन्य नहीं है। प्रकृष्टधर्मजन्यत्व आर्षप्रत्यक्ष व योगिप्रत्यक्ष दोनों में समानधर्म है, इससे भी योगिप्रत्यक्ष में आषप्रत्यक्ष का अन्तर्भाव संगत नहीं, क्योंकि दोनों में धर्म के प्रकर्ष का कारण एक नही , अपितु विभिन्न है । अतः दोनों में भेद मानना ही उचित है। भासर्वज्ञ ने अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव किया है । परवतो वैशेषिकों तथा वादिदेव सूरि आदि ने इस मान्यता का खण्डन किया है। वादिदव ने भासर्वज्ञमत का निराकरण करते हुए कहा है-'नन्वयमनध्यवसायः संशयान्न विशिष्यते, विशेषानवधारणात्मकत्वाादात तु न तर्कोयम्, स्वरूपभेदान् । अनवस्थतानेकको टस्पर्शित्वं हि संशयस्य स्वरूपम् । सर्वथा कोट्यसंस्पशित्वं चानध्यवसायस्योत महाननयोर्भद ।। अर्थात् संशय में अनिश्चित अनेककाटिक ज्ञान होता है और अनध्यवसाय में कोई भी कोटि नहीं होती । अतः अनध्यवसाय का अन्तर्भाव संशय में नहीं हो सकता। न्यायलीलावतीकार श्रीवल्लभ ने भी अनध्यवसाय के संशयान्तर्भाव का खण्डन करते हुए कहा है - तृतोये तु संशय एवायमिति भूषणः । मैवम् । सामान्यतोऽवगते जिज्ञासते वाच्यावशेष यदा कि शब्दामिलापः तदानध्यवसायः । अव्यवस्थितनानावाचकवाच्यत्वप्रतिभासे तु सशयः । अथात् असमुच्चित नानावस्तुविषयक ज्ञान अनध्यवसाय है, यह तृताय विकल्प मानने पर अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव है, क्योंकि संशय में भी ऐसा हो ज्ञान हाता है, ऐसा भूषणकार का कथन है, किन्तु वस्तुस्थिति ऐसा नहीं है। क्योंकि सामान्यतः ज्ञात तथा विशेषतः अज्ञात वस्तु में किमिदम्' इत्याकारक व्यवहार का विषय अनध्यवसाय होता है तथा ' स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इस रूप से अव्यवस्थित नाना वस्तुओं की प्रतोति संशय है। उदयनाचार्य ने भी अनध्यवसाय को संशय से भिन्नता स्थापित की है - 'अनुपलब्धसपक्षावपक्षसंस्पर्शस्य धर्मस्य दर्शनात् विशेषत उपलब्धानुपलब्धकोाटकं ज्ञानमनध्यवसायः। अत एवायं संशयाभिद्यत स धुपलब्धतपक्षावपक्षसस्पशवर्मदर्शनादुत्पद्यते । अथात् सशय में सपक्ष तथा विपक्ष उभयवृत्ति धमों की उपलब्ध होती है जबकि अनध्यवसाय में सपक्षविपक्षोभयवृत्ति धमी का उपलब्धि नहीं होती। - - - ---- 1. मानमनोहर, पृ. ९. 2. किरणावला, पृ. २०६ 3. Nyayabhasana-A Lost work on Medieval Indian Logic, -A. L. Thakur JBRS, Vol. XLV, P. 99. Footnote No. 71 4. न्यायलीलावती, पृ. ५७ 5. किरणावली, पृ. १७८ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार २३८ अतः अनध्यवसाय संशय से भिन्न है । यद्यपि यहां किरणावलीकार ने भूषणकार का उल्लेख नहीं किया है, तथापि यहां भूषणकार के मत का ही खण्डन है, क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव किया है । वैशेषिक आचार्य वादिवागीश्वर ने तो भासर्वज्ञ से सहमति व्यक्त करते हुए कहा है- विरुद्धकोटिसंस्पनिश्वयः संशयः । विरुद्धकोट्यसंस्पर निश्चयोऽनध्यवसायः । अरमा भरप्यनवधारणत्वस्य संशयानध्यवसाययोरभ्युपगतेः । तेन चास्मदुक्तावान्तरभेदस्याभ्युपगतत्वाद् भासर्वज्ञेन सहास्माकं नास्ति विप्रतिपत्तिरिति नात्र प्रपंच्यते । इस प्रकार परवर्ती आचार्यों ने भूषणकार का परत्व - अपरत्य - सम्बन्धी मत भी उधृत किया है । न्यायलीलावतीकार कहते हैं- 'न च परत्वापरत्वसिद्धिरपि । बहुतरतपन परिस्पन्दान्तरित जन्मत्वेनैव तदुपपत्तेः । अन्यथा मध्यत्वस्यापि स्वीकारप्रसंगादिति भूषणः । अर्थात् भ'सर्वज्ञ ने परत्व - अपरत्व को क्रमशः पूर्वोत्पन्नत्व और पश्चादुत्पन्नत्वरूप माना है । इसका खण्डन करते हुए न्यायलीलावतीकार ने भूषणमत को उद्धृत किया है 'यत्तु भासर्वज्ञोयं मतं 'पूर्वोत्पन्नत्वं परत्व' पश्चादुत्पन्नत्वमपरत्रमि'ति तत्कगमक्ष पक्षाक्षमामात्र विजू म्भितम् । पूर्वपश्चाद्भावस्य परत्वापरत्वातिरिक्तस्य निर्वक्तुमशक्यत्वात् । अर्थात् भासर्वज्ञ ने परत्व - अपरत्व को क्रमशः पूर्वोत्पन्नस्वरूप व पश्चादुत्पन्नत्वरूप मानकर परत्व - अपरत्व का जो निराकरण किया है उससे कामत के प्रति असहनशीलता ही व्यक्त होती है, क्योंकि परत्यअपरत्व से भिन्न पूर्वोत्पन्नत्व व पश्चादुत्पन्नत्व का कोई निर्वचन ही संभव नहीं है । अतः प्रकारान्तर से पूर्वोत्पन्नत्व व पश्चादुत्पन्नत्वरूप मानने पर भी परत्व - अपरत्व को मानना ही पड़ता है । भासर्वज्ञ ने लक्षण चिह्न तथा लिंग को पर्याय माना है । इसका खण्डन करते हुए उदयन ने कहा है-' यत्पुनराह भूषणो 'लक्षणं चिह्न लिंगभिति पर्याया' इति तदसत् व्यावृत्तौ व्यवहारे वा साध्येऽन्वायनोऽनवकाशात् । 14 वेंकटनाथ ने तन्त्र मुक्ताकलाप तथा न्यायपरिशुद्धि में भूषणमत उधृत किया है'नित्याया एव बुद्धेः स्वयमभिदधतः केचिदद्रव्यभावम् । सम्बन्धं धर्मतोऽस्याः कृतकमथयन् भूषणन्याय सक्ताः ॥६ 'अत एव हि भूषणमते नित्यसुखसंवेदनसिद्धिरपवर्गे साधिता । ९ आनन्दवर्धन ने भगवद्गीता की टीका में यह प्रतिपादित किया है कि भूषणमतानुसार अपवर्गप्राप्ति 1. मानमनोहर, पृ. ७८-७९ 2. न्यायलीलावती, पृ. ३१ 3. न्यायलीलावती, पृ. ५० 4. किरणावली, पृ. ३० 5. तत्त्वमुक्का कलाप, पृ. ६५६ 6. न्यायपरिशुद्धि, प्रथम भांग, पृ. १७ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवर्ती ग्रन्थकारों... २३९ के लिये तवज्ञान और अभ्यास दोनों उपादेय हैं- 'तथा चाक्षपादानामपि न्यायभूषणे तृतीये परिच्छेदे परमात्मतत्त्वज्ञानं च तदुपासनांगत्वेनापवर्गसाधनम् (३.१२३ ) इत्येतद् वाक्यविचारे तस्य परमेश्वरस्योपासनमाराधनम् -- तस्यांगत्वेनोपायत्वेन केनचिदुपायेन क्लेशाः रागद्वेषमोहाः क्षीयन्ते महेश्वरविषयं चित्तैकायं च प्राप्यते । स उपायः अनुष्ठीयमानः 'तपः स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि क्रियायोगः' (यो.सु. २ । १) । क्लेशननूकरणार्थ ः समाधाभार्थश्च इते विचारे कर्मणोऽङ्गित्वेन ज्ञास्य च कर्मांगत्वेन स्पष्ट एव समुच्चयपक्षः' । आनन्दवर्धन ने यह भी उल्लेख किया है कि योगियों द्वारा स्वीकृत कायव्यूह सिद्धान्त न्यायभूषणकार को भी मान्य था - ' कमभोगार्थ नानाशरीरस्थोऽहमक एव न्यायभूषणोक्तयुक्त्या ।" मानमनोहरकार वादिवागीश्वराचार्य ने भो भासवज्ञप्रतिपादित मुक्ति का वैशेषिकी मुक्ति से विरोध होने के कारण खण्डनार्थ भासर्वज्ञसम्मत मोक्षस्वरूप का उल्लेख किया है- 'अत्र केचित् दुःखपरिहारार्थं ज्ञानसुखयोः पूर्व विषयविषयिभावोऽनुपपन्नः पश्चादुत्पद्यत इति ब्रूयुः । तदसाम्प्रतम्, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात । यस्य लोके प्रसिद्धिः, तस्य प्रयोजकत्वमित्यप दुर्घटमेव । नेह ज्ञानमस्ति विषयविषयिभावो नास्तीति दृष्टपूर्वम् ज्ञानस्य वाक्येनोत्पादक सामग्रया एव वा तदुत्पादकत्वात् ।" भासर्वज्ञ का मत है कि सुख तथा सुखज्ञान का सम्बन्ध संसारदशा में दुःखराशि के प्रतिबन्धक होने से नहीं हो पाता । जैसे, चक्षु तथा घट के होने पर भी भित्ति आदि के व्यवधान से उनका सम्बन्ध नहीं होता, किन्तु मोक्षदशा में दुःखरूप प्रतिबन्धक का अभाव हो जाने से सुख त्र सुखज्ञान का विषयविषयिभाव सम्बन्ध बन जाता है । अतः मोक्ष में सुख तथा सुखज्ञान उपपन्न है । किन्तु भासर्वज्ञ का यह कथन संगत नहीं क्योंक नित्य सुख के होने में कोई प्रमाण नहीं । नित्य सुख जब लोक में प्रसिद्ध नहीं है, तो वह मोक्ष का प्रयोजक कैसे हो सकता है ? ज्ञान हो और उसका विषय के साथ विषयावषयिभाव सम्बन्ध न हो, ऐसा कहीं देखा नहीं गया है, क्योंकि ज्ञान की उत्पादक सामग्री हो विषयविषयिभाव सम्बन्ध की उत्पादिका है । वादिदेव सूरि ने चक्षुरिन्द्रिय द्वारा अर्थप्रकाशन के विषय में भूषणमत उद्घृत किया है - ' यत्तु भूषणेनावभासे कथनमनुद्भूतरूपाणामर्थ प्रकाशकत्वमिति चेत्, न प्रदीपप्रकाशसंहितानां तदुपपत्तेः । अत एव येषामदृष्टसामर्थ्यादुद्भूतरूपा नायना रश्मय उत्पन्नास्तेषां बाह्यप्रकाशनिरपेक्षा एवार्थ प्रकाशयन्ति । यथा - नक्तंचराणाम् । तथा च केषांचित् नक्तंचराणां नायना रश्मयः प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते । 1. Nyāyabhūsana - A Lost Work on Medieval Indian Logic-A. L. Thakur, JBRS, Vol. XLV. p. 99, Footnote No. 71 2. Ibid, Foot note No. 72 3 मानमनोहर, पृ. १४३-१४४ 4. Thakur, A. L.. Nyayabhusana - A Lost Work on Medieval Indian Logic, JBRS, Vol. XLV, p. 97, Footnote No, 57 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० न्यायसार वैशेषिकसूत्र की एक अज्ञातकर्तृक व्याख्या में भी भूषणमत उद्धृत है। प्राभाकर मीमांसक तथा भूषणकार गुणत्व को सामान्य के रूप में स्वीकार नहीं करते। इसीलिये उसने कहा है-'प्राभाकरन्यायभूषणकारादीनां गुणत्वासिद्धस्तदभावस्याप्रसिद्ध. त्वात् ।'1 उदयन ने तात्पर्यपरिशुद्ध में अधिकरणसिद्धान्त के लक्षणसूत्र की व्याख्या करते हुए यह सूचित किया है कि भूषणकार ने इसकी दो प्रकार से व्याख्या की है-' एतच्च भूषणभृतयो द्विधा व्याचक्षाते । किरणावलीप्रकाशकार ने भी भासर्वज्ञमत को उद्धृत किया है-'लक्षणस्य केवल व्यतिरेकित्वम् विदुषा भूषणेन अन्यवव्यतिरेकित्वमभ्युपेत्वापादितं दूषणमुपन्यस्यति । न्यायशास्त्र के विभिन्न पदार्थों पर प्रमुख नैयायिकों के मत उद्धृत करते हुए ताकिकरक्षाकार वरदराज ने भूषणमत का भी उल्लेख किया है। अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान के प्रसंग में भूषणमत को उद्धृत करते हुए कहा है-'परिषदनुज्ञोप. लक्षणं त्रिरभिधानमिति भूषणकारः ।' विपर्यास नामक निग्रहस्थानसम्बन्धी भूषणमत को भी उद्धृत किया है -' भूषणकारस्तु विपर्ययेणार्थप्रतीतिसम्भवादपशब्दवान्नयमकथायामेवैतन्निग्रहस्थानमिति मन्यते स्म । ___ उद्योतकर ने अप्रतिभा निग्रहस्थान का लक्षण करते हुए बतलाया है-'श्लोकादिपाठादिभिरवज्ञां दर्शयन्नोत्तरं प्रतिपद्यते इति तदप्रतिभानिग्रहस्थानं मूढत्वात् ।। भूषणकार ने यह माना है कि श्लोकादिपाठ करने पर अर्थान्तर, अपार्थकादि निग्रहस्थान की प्रसक्ति हो जायेगी । अतः तूष्णोभाव ही अप्रतिभा निग्रहस्थान है। प्रस्तुत भूषणमत को उद्धृत करते हुए तार्किकरक्षाकार ने कहा है-'भूषणकारादयस्तु श्लोकादिपाठे अर्थान्तरापार्थकादेप्रसंगात् तूष्णाभावमेवाप्रतिभानिग्रहस्थानमाहुः ।" मतानुज्ञा निग्रहस्थान के विषय में भी भूषणमत को उद्धृत किया है-'भूषणकारः पुनरेवं व्याख्यातवान् यस्तु स्वपक्षे दोषमनुद्धृत्य केवलं परपक्षे दोषं प्रसंजयति स तु परापादितदोषाभ्युपगमात् परमनुजानातीति मतानुज्ञया निगृह्यत इति ।' वरदराज ने ताकिकरक्षासारसंग्रह में मानसोल्लास से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किये हैं, 1. वैशेषिक दर्शन (मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९५७), पृ. ११ 2. तात्पर्यपरिशुद्धि, १1१1३. 3. किरणा वला प्रकाश, पृ. १९७ 4. तार्किकरक्षा, पृ. ३३७ 5. वही, पृ. ३११ 6. न्यायवार्तिक, ५।२।१८ 7. तार्किकरक्षा, पृ. ३५१ 8. वही, पृ. १५३ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवर्ती ग्रन्थकारों... २४१ जिनमें भासर्वज्ञ तथा उनके मतानुयायी नैयायिकों को 'न्यायैकदेशी' संज्ञा से अभिहित किया गया है 'प्रत्यक्षमेकं चार्वाकाः कणादसुगतौ पुनः ॥७॥ अनुपानं च तच्चाथ सांख्याः शब्दं च ते अपि। . न्यायैकदेशिनोप्येवमनुमानं च केचन ॥८॥ न्यायैकदेशी के रूप में भासर्वज्ञ और उनके अनुयायी नैयायिक ही अभिप्रेत हैं, जैसाकि तार्किकरक्षानिष्कण्टका व्याख्या के प्रणेता मल्लिनाथ सूरि के 'न्यायक. देशिनो भूषणीयाः -" इस कथन से स्पष्ट है । जैन दार्शनिक वादिराज सूरि ने 'न्यायविनिश्चयविवरण' में अनेक स्थलों पर भासर्वज्ञमत उद्धृत किया है। उनके द्वारा उद्धृत सभी अंश प्रत्यक्ष से सम्बन्धित हैं। ज्ञान अन्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है, परन्तु वह स्वप्रकाशक नहीं होता । ज्ञान के स्वप्रकाशकत्व के विषय में संभावित आशंका का समाधान करते हुऐ भासज्ञ ने कहा है कि जिस प्रकार अग्नि स्वयं को नहीं जलाती, भिन्न पदार्थ को ज है, दात्र ( दौतरी) स्वयं को नहीं काटता, अपितु स्वभिन्न वस्तु को काटता है इसी प्रकार ज्ञान स्वयं को प्रकाशित न करने पर भी परप्रकाशकर रूप अपने स्वभाव से प्रच्युत नहीं होता । इस भामर्वज्ञमत को उद्धृत करते हुए वादिराज ने कहा है'यदुक्तं भासर्वज्ञेन-स्वात्मावबोधकत्वाभावे कथमसौ बोधस्वभाव इति चेत ?... स्वात्मदाहकत्वाभावेऽपि यथाऽग्निदहनस्वभावः, स्वात्मदारकत्वाभावेऽपि यथा दानादिकं दात्रादिस्वभावम् ।' ज्ञान स्वप्रकाशक न होने पर अन्य वस्तुओं का प्रकाशन नहीं कर सकता-इस आपत्ति का भासर्वज्ञ ने समाधान किया है कि ज्ञान धूमादि लिंग की तरह अपने विषय को प्रकाशित नहीं करता, जिससे कि ज्ञान के ज्ञात न होने पर उससे विषय का ज्ञान न हो, अपितु ग्राह्यत्वेन उसको व्यवहारयोग्य बना देता है । अतः ज्ञान के अज्ञात होने से विषय में अजाततापत्ति दोष नहीं । वादिराज ने भामर्वज्ञ के इस समाधान को उद्धत किया है-'उक्तं तेनैव-तदप्रसिद्धौ विषयस्याप्यप्रसिद्धरिति चेत् ?...किं कारणम् ? न हि तदुपलम्भ स्वविषयं लिंगवत् साधयति, येन तदप्रसिद्धौ विषयस्याप्यप्रसिद्धिः स्यात् । किं तहिं १ तद्गृहीति (?) रूपतयोत्पादमात्रेण तं विषयं व्यवहारयोग्यं करोति । तदप्रसिद्धावपि विषयः प्रसिद्ध एवेत्युच्यत इति । भासर्वज्ञ का कथन है कि ज्ञान के उत्पन्न होने पर ही वस्तु का प्रत्यक्ष संभव है, पहिले नहीं । वादिराज सूरि ने भासर्वज्ञ के इस कथन को उद्धृत किया है'यत पुनरत्र तस्यैव वचनम-उत्पादे हि सति पश्चादर्थदृष्टेः प्रत्यक्षत्वं युक्तम, न पूर्वमेव ।' प्रतिपक्ष की और से यह आपत्ति हो सकती है कि ज्ञान को स्वप्रकाश 1. ताकिरक्षा, पृ. ५६ 3. न्यायविनिश्यविवरण, प्रथम भाग, पृ. २१५ 2. बही 4. वही न्याभा-३१ 5. वही Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ न्यायसार न मानने पर ईश्वरज्ञान की व्याख्या नहीं हो सकेगी। ईश्वर एक है और उसके ज्ञान के याथार्य का अवधारण करने वाला दसरा कोई नहीं है। ईश्वर को ज्ञान अज्ञात नहीं रह सकता । अज्ञात रहने पर उसकी सर्वज्ञता का हान हो जायेगा । इस आपत्ति से बचने के लिये भासर्वज्ञ ने तीन विकल्प दिये हैं। वादिराज सूरि ने उन तीनों विकल्पों को उद्धृत करते हुए कहा है-'भासर्वज्ञेन पक्षत्रयमुपन्यस्तम्अनैकान्तिकत्वपरिहारार्थ परमेश्वरस्य ज्ञानद्वयमभ्युपगन्तव्यम् । तदुव्यातरेकेण वा सर्वज्ञत्वम् । अनित्यत्वे सति इति वा हेतुविशेषणं कर्तव्यम् । वादिराज ने इसे यों भी कहा है- अर्थ-ज्ञानं तदन्तरवेद्यम् , अनित्यत्वे सति वेद्यत्वात् कलशवत् । माहेश्वरे च ज्ञाने तद्विशिष्टस्य हेतोरभावात ।' नैयायिकों के अनुसार ज्ञान स्व. प्रकाश नहीं है, वह अर्थप्रकाशन में सहायता करता है। यहां प्रश्न होता है कि जब ज्ञान स्वयं ज्ञात नही है, तब यह कैसे निश्चय किया जाय कि इससे व्यवहार प्रवृत्त होता है । इस शंका के भासर्वज्ञोक्त समाधान को वादिराज ने उद्धृत किया है'यदुक्तं भासर्वज्ञेन तदप्रवृत्ती ततोऽमी व्यवहाराः प्रवृत्ता इति कुतोऽवगम इति चेततद्व्यवहारदर्शनादेव अकुरदुःखादिदर्शनाद् बीजाधर्मादिनिस्रयवत् ।' बौद्ध अवयवों से भिन्न अवयवी की सत्ता नहीं मानते । वादिदेव सूरि ने बौद्धमत के उपन्यास रूप में धर्मकीति के अवर्यावनिराकरणपरक 'पाण्यादिकम्पे सर्वस्य कम्पप्राप्तेविरोधिनः । एकस्मिन् कर्मणोऽयोगात् स्यात् पृथक्सिद्धिरन्यथा । एकस्य चावृत्ती सर्वस्यावृत्तिः स्यादनावृत्तौ। दृश्येत रक्ते चैकस्मिन् रागोऽरक्तस्य वाऽगतिः ।। नास्त्येकः समुदायोऽस्मादनेकत्वेऽपि पूर्ववत् । इन श्लोकों को उद्धृत कर बौद्वमत की स्थापना कर भासर्वज्ञ मतानुसार बौद्धमत का निराकरण करते हुए उसके मत का उल्लेख किया है 'भासर्वज्ञस्य प्रत्यवस्थानम्-यत् तावन्नास्त्येकोऽवयवी, तस्य पाण्यादिकम्पे सर्वकल्पप्राप्ते रति, तदयक्तम. व्याप्तेरप्रसिद्धत्वात, न हि यस्य पाण्यादकन्पे सर्व. कम्पप्राप्तिस्तस्याभावः इत्येवं व्याप्तिः क्वचित गृहीता । नापि यस्य सत्त्वं तस्य न पाण्यादिकम्पे सर्वकम्पप्राप्तिरित्येवं व्याप्तिः परेण दृष्टा । न च दृष्टान्ताभावे स्वपक्षसिद्धौ परपक्षानराकरणे वा क्वचिद्रतोः सामर्थ्य दृष्टम ।' इनसे आंतरिक्त अन्य दार्शनिकों ने भी भासवज्ञमत को उद्धृत किया है, परन्तु विस्तारभय से उनके उद्घरण यहां नहीं दिये जा रहे हैं। 1. न्यायविनिश्चय विवरण, प्रथम भाग, पृ. २२२ 2. वही, पृ. २२१ 3. वही, पृ. २२७ 4. प्रमाणवार्तिक, का, ८६, ८७.४८ 5. न्यायविनिश्रयविवरण, प्रथम भाग, पृ. ३६८ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवती' ग्रन्थकारों... २४३ परवर्ती दर्शनवाङ्मय पर भासर्वज्ञ के प्रभाव के परिज्ञानार्थ ये उद्धरण प्रबल प्रमाण हैं । तर्कभाषाप्रकाशिकाकार चिन्नंभट्ट आदि ग्रन्थकारों ने कतिपय विषयों के प्रतिपादन के पश्चात् भासर्वज्ञमत को प्रमाणत्वेन उपन्यस्त किया है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे ग्रन्थकार भासर्वज्ञमत से प्रभावित हैं, उसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं। जिन ग्रन्थकारों ने भासर्वज्ञमतों को केवल उद्धृत किया है, उससे भी यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भासर्वज्ञाचार्य एक प्रौढ़ दार्शनिक के रूप में उन्हें मान्य थे । इसीलिये भासर्वज्ञमत पर उन्होंने गम्भीरतापूर्वक विचार किया और अपने मतवादों की सुरक्षार्थ नये तर्को की उद्भावना की। भासर्वज्ञकृत आलोचना से उन्हें अपने पूर्वपरीक्षित सिद्धान्तों पर पुनः अन्वीक्षण करने के लिये बाध्य होना पड़ा। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार भासर्वज्ञ न्यायदर्शन की प्राचीन तथा गंगेशोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित नव्य इन दो धाराओं के मध्यकाल में हुए हैं। नव्यन्यायधारा का भासर्वज्ञ के समय तक प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। किन्तु न्यायदर्शन की प्राचीन धारा अर्थात प्राचीन न्याय का भासर्वज्ञ के समय तक पर्याप्त विकास हो गया था। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन, वार्तिककार उद्योतकर, तात्पर्यटीकाकार दार्शनिक-सार्वभौम वाचस्पति मिश्र आदि ने अपनी वैदुष्यपूर्ण व सारगर्भित विवेचनाओं से इसका पर्याप्त विकास कर दिया था। किन्तु इन विद्वानों ने न्यायसूत्रकार गौतम के सूत्रों का कम अपनाकर तदनुसार ही न्यायदर्शन के पदार्थों का विवेचन किया. उनके विवेचन में न नवीन क्रम अपनाया और न उनके स्वरूप पर परम्परा से हटकर स्वतन्त्र समीक्षण किया । अर्थात् न्यायसूत्रकार गौतम ने प्रमाणप्रमेयादि पदार्थों का जो स्वरूप बतलाया था, उसी का व्याख्यान द्वारा विश्लेषण प्रस्तुत किया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि वार्तिककार तथा तात्पर्य-टीकाकार ब्याख्याकार होने के नाते न्यायभाष्य से बँधे हुए थे, अतः वे पदार्थो के विवेचन में वैज्ञानिक अभिनव क्रम नहीं अपना सकते थे और न पदार्थों पर स्वतन्त्रतया ऊहापोहात्मक विचार ही कर सकते थे। वे इतना ही कर सकते थे कि भाष्यकारीय सूत्रव्याख्यान में सूत्रार्थ का स्पष्टीकरण नहीं हुआ या कहीं अपव्याख्यान प्रतीत हुआ तो उसका संशोधन वे अपने व्याख्यान में प्रस्तुत कर दें । यद्यपि भासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती न्यायमंजरीकार जयन्त भट्ट ने गौतमसूत्रों की व्याख्या करते हुए भी केवल सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत न कर स्वतन्त्र ऊहापोह भी किया, पर पूर्णतया नहीं। इसी प्रकार समानतन्त्र वैशेषिक दर्शन के आवश्यक तत्त्वों का स्वीकार करना तो 'परमतप्रतिषिद्धमनुमतं भवति' इस न्याय के अनुसार आवश्यक था, क्योंकि उनका निरूपण न्यायदर्शन में नहीं किया गया है, तथा प न्यायदर्शन पर वैशेषिकशास्त्र का इतना प्रभाव छा गया था कि वैशेषिक दर्शन के कतिपय तत्त्वों का ग्रहण उनके औचित्यानौचिस्य पर कुछ भी विचार न कर अनावश्यक व असंगत होते हुए अन्धानुकरण के रूप में किया । भासर्वज्ञ ने सर्वप्रथम न्यायदर्शन के पदार्थो के विवेचन में सूत्रक्रम से भिन्न वैज्ञानिक क्रम अपनागा, उन तत्त्वों के स्वरूप पर स्वतन्त्र बुद्धि से विचार किया तथा आवश्यकतानुसार उनके स्वरूप में परिवर्तन भी। ऊह तथा अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भात्र, प्रत्यक्ष लक्षण में परिवर्तन, समवाय का यौक्तिक प्रत्यक्षता का प्रतिपादन, अनध्यवसित हेत्वाभास का स्वीकार, उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण आदि इसके स्पष्ट निदर्शन हैं। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन के अनुचित प्रभाव से न्यायदर्शन को मुक्त भी किया । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २४५ आनन्द संक्तिसहित दुःखात्यन्तनिवृत्तिरूप मोक्ष का स्वरूप-प्रतिपादन, कर्म का गुणान्तर्भाव, दिक् तथा काल के पृथक् द्रव्यत्व का अस्वीकार, अपरत्व, संख्या, वेग इन गुणों का अस्वीकार, स्नेह को घृतादि पृथिवी का गुण मानना आदि इसके उदाहरण हैं । न्यायदर्शन पर दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्धों के प्रहारों का प्रबल तर्को से निराकरण भो भासर्वज्ञ ने किया। इस प्रकार न्यायदर्शन के शुद्ध स्वरूप को उन्होंने प्रतिष्ठित किया । प्रकृत शोधप्रबन्ध में प्रसंगतः भासर्वज्ञ की इन सभी विशेषताओं का विवेचन किया गया है। इस उपसंहार में उन्हीं विशेषताओं का संक्षेप से दिग्दर्शन कर इस शोधप्रबन्ध के निष्कर्ष तथा उपयोगिता को प्रस्तुत किया जा रहा है प्रमाणसामान्यलक्षणनिरूपणात्मक द्वितीय विमर्श में वैशेषिकों द्वारा पृथक्तया अविद्याभेदत्वेन स्वीकृत ऊह तथा अनध्यवसाय का अनवधारणात्मक ज्ञान होने से संशय में अन्तर्भाव बतलाया है। तर्कापरपर्यायत्वेन ऊह को नेयारिकों ने भी अप्रमा के संशय व विपर्यय भेदों से भिन्न माना है, किन्तु भासर्वज्ञ ने उसको संशय में अन्तर्भावित कर स्वतन्त्र विचारक होने का परिचय दिया है। इसी विमर्श में प्रमाणों के सम्प्लव व व्यवस्था दोनों का सोदाहरण प्रतिपादन करते हुए एकान्ततः व्यवस्थितप्रमाणवादी बौद्धों के मत का सयुक्तक निराकरण किया है और प्रमाणों की संख्या का निर्धारण करते हुए प्रमाणों की इयत्ता न मानने वाले चार्वाकसूत्रों के व्याख्याकार उद्भट के मत का भी सप्रमाण प्रत्याख्यान किया है। ज्ञ ने संशय नरूपणपरक 'समानधमो...' इस सूत्र को भाष्यकार व वातिककारसम्मत व्याख्या में परिवर्तन कर उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की आवृत्ति मानकर उनको संशयविशेष का कारण माना और उपलब्धि तथो अनुपलब्धि की अव्यवस्था को संशय का साधारण कारण मानकर पांचों प्रकार के संशय के लक्षण में उनका समावेश कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। वैशेषिकसम्मत स्वप्नज्ञान का भी विपर्यय, संशय, स्मृति तथा समीचीन ज्ञान में अन्तर्भाव कर पृथक्त्व निराकृत किया है। स्वप्नज्ञान का उपर्युक चारों में . अन्तर्भाव इसलिये किया है कि कोई स्वप्नज्ञान विपर्ययात्मक, कोई संशयात्मक, कोई स्मरणात्मक तथा कोई अनुभवात्मक होता है । अतः स्वप्नज्ञान जिस प्रकार है, उसका उसी में अन्तर्भाव किया है। इसी विमर्श में भासज्ञप्रतिपादित विभिन्न दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत अख्याति, असख्याति आदि अष्टविध ख्यातियों के स्वरूप का भी स्पष्ट विश्लेषण है। यद्यपि ये अष्टविध ख्यातियाँ विभिन्न दाशनिकों द्वारा अपने अपने शास्त्रों में प्रतिपादित थी, किन्तु भासर्वज्ञ से पूर्व वाचस्पति आदि ने प्रायः पंचविध ख्यातियों का ही निरूपण किया है, सबका नहीं । भासर्बज्ञ ने ही अपने न्योयभूषण प्रन्थ में सर्वप्रथम सब ख्यातियों का स्पष्ट विवेचन किया है। 'प्रत्यक्ष प्रमाण' नामक तृतीय विमर्श में भी भासर्वज्ञ द्वारा उभावित कितनी ही विशेषताओं का प्रतिपादन किया गया है। जैसे, सूत्रकारकृत 'इन्द्रियार्थ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् इस परम्पराप्राप्त प्रत्यक्ष लक्षण का निराकरण कर 'अपरोक्षत्वजातिमत्वम् प्रत्यक्षत्वम् ' इस लक्षण का स्वीकार, 2 वार्तिक करमत का प्रत्याख्यान कर ज्ञानगत परोक्षत्व व अपरोक्षत्व जाति की स्थापना, वैशेषिकसम्मत आर्ष प्रत्यक्ष का प्रकृष्टधर्मजत्वरूप साधर्म्य के कारण योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव, समवाय के परम्पराप्राप्त विशेषणविशेष्यभाव सम्बन्ध से इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षत्व का निराकरण व उसके यौक्तिक प्रत्यक्ष की स्थापना ", नाम जात्यादि -- द-- सम्बन्ध के ग्राहक सविकल्पक प्रत्यक्षत्व - प्रतिपादन करते हुए भी नामजात्याद के सम्बन्ध के इन्द्रियग्राह्य न होने से उसका अतीन्द्रियत्वप्रतिपादन । इसके अतिरिक्त नित्य आत्मा, आकाश आदि तथा अनित्य घटपटादि पदार्थो में लनुगत संयोग को परिभाषा का विवेचन, अज संयोग के विषय में भासर्वज्ञ से पूर्वत्र नैयायिकों की मान्यता का अनुसन्धान, शब्द का द्रव्यत्वनिराकरण, प्रत्यक्ष शब्द के व्युत्पत्तिविषयक बौद्धमत का निराकरण कर प्रत्यक्ष शब्द के व्युत्पत्त्यर्थ का प्रतिपादन आदि का भी इस विमर्श में समावेश किया गया है । " 6 अनुमान प्रमाण नामक चतुर्थ विमर्श में अथ तत्पूर्वकमनुमानम्, इत्यादि सूत्र में भाष्यकार, वार्तिककार, जयन्त भट्टादि द्वारा प्रतिपादित 'तत्पूर्वक मनुमानम्' इस अनुमान - लक्षण का निराकरण कर सूत्र में अनुमानम्' पद ही अनुमीयतेऽनेनेति' व्युत्पत्ति द्वारा ' अनुमितिसाधनमनुमानम्' इस अनुमानलक्षण का प्रतिपादक है, इस भासर्वज्ञ मत का प्रतिपादन कर भासर्वज्ञसम्मत 'सम्यगविना भावेन परोक्षानुभवसाधनमनुमानम् 7 इस लक्षण का विवेचन, व्याप्तिस्वरूप, व्याप्तिग्राहक भूयोदर्शन का स्वरूप, अनुमान के दृष्ट, सामान्यतोदृष्ट तथा केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी, अन्वयव्यतिरेकी भेद, परार्थानुमान के प्रतिज्ञादि पांच अवयव, दृष्टान्ताभास तथा अनध्यवसितसहित असिद्धादि ६ हेत्वाभासों का स्पष्ट विवेचन प्रस्तुत किया गया है । इस विमर्श में ही अनुमानलक्षण, व्याप्तिग्राहक भूयो दर्शन, षष्ठ अध्यवसित हेत्वाभास, विरुद्धाव्यभिचारी हेत्वाभास आदि के विवेचन में भासज्ञ की विशेषताओं का दिग्दर्शन है । ܕ 1. न्यायसूत्र १।११४ 2. व्रष्टव्य - शोधप्रबन्ध, पृ. ७४-७५ "1 3. वही, पृ. ७३-७४ 4. वही, पृ. १०१, १०२, १०३ “ 'कथा निरूपण तथा छल-जाति - निप्रहस्थाननिरूपण' नामक पंचम विमर्श में वाद, जल्प, वितण्डा कथाओं का निरूपण करते हुए यह बतलाया गया है कि भासर्वज्ञ ने परम्परा का परित्याग कर स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा इस न्यायसूत्र में 'सः' पद से वाद और जल्प का ग्रहण कर वितण्डा कथा के वीतरागवितण्डा तथा विजिगीषुः वितण्डा भेद से दो भेदों का प्रतिपादन किया है। इसी प्रकार वादकथारूप वीतराग कथा के भी सरतिपक्ष, अप्रतिपक्ष भेद से दो भेद बतलाये हैं और इन दो है म न्यासार 6 5. वही, पृ. ९५-९८ 6 न्यायसूत्र १।११५ 7. न्यायसार, पृ. ५ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २४७ भेदों में स्वकपोलकल्पितत्ता का निराकरण करते हुए प्रमाण रूप में 'प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वे " इस न्यायसूत्र को उद्धृत किया है । जातिनिरूपण में 'साधर्म्य कार्यसमा इति' इस न्यायसूत्र में प्रतिपादित २४ जातिभेदों में प्रसगसम, प्रतिदृष्टान्तसम, संशयसम, प्रकरणसम, अर्थापत्तिसम, उपपत्तिसम, अनित्यसम, कायसम, इन आठ जाति-भेदों का न्यायसार में निरूपण नहीं किया, क्योंकि उनकी साधर्म्यसमादि के साथ समानता है तथा सभी जातिभेदों का निरूपण यहां अभीष्ट नहीं है । सूत्रकार ने दिग्दर्शनमात्र के लिये सूत्र में २४ भेदों का परिगणन किया है, सबका नहीं । और भी अनन्यसम, सम्पतिपत्तिसम, व्यवस्थासम आदि जातियां विद्यमान हैं जिनका सूत्र में परिगणन नहीं किया गया है, न उनका उदाहरण दिया गया है और न उसका निराकरण ही किया गया है । निग्रहस्थानों के भी असंख्यात होने से सूत्रकार ने सूत्रों में तथा भासर्वज्ञ ने अपने न्यायसार में प्रतिज्ञाहीन आदि २२ निग्रहस्थानों का ही निरूपण किया है । इसके अतिरिक्त असिद्ध, विरुद्ध आदि हेत्वाभासों का हेत्वाभासप्रकरण में प्रतिपादन कर ही दिया गया है । इनके निरूपण में धर्मकीर्ति की आशंकाओं के निराकरण को छोड़कर और किसी विशेषता का प्रतिपादन नहीं किया है । 6 ' आगमप्रमाणनिरूपण' नामक षष्ठ विमर्श में सपदकृत्य आगमप्रमाण के लक्षण का निरूपण, दृष्टार्थ - अदृष्टार्थ भेद से आगम का द्वैविध्य, वेदों के प्रामाण्य में मीमांसकाभिमत अपौरुषेयत्व की कारणता का निराकरण कर ईश्वरप्रणीतत्व की कारणता का निरूपण, वर्णनित्यता का निराकरण, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव, ऐतिह्य व उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है । इस विमर्श में भी शब्दज्ञान तथा ज्ञायमान शब्द दोनों का शाब्द प्रमा का करण मानना, उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण, उपमान के पृथक् प्रमाण न होने पर भी उपमान - लक्षण का सूत्रकार द्वारा निरूपण शब्दप्रामाण्य की सिद्धि के लिये है. इस तथ्य का प्रतिपादन, उपमान प्रमाण के उद्देश, लक्षण तथा परीक्षाविषयक सूत्रों का अपने पक्ष में योजन आदि भासर्वज्ञ की विशेषताएं उल्लेखनीय हैं । इस विमर्श के अन्त में उपमान प्रमाण का निराकरण सूत्रसंगत नहीं है, इसका प्रदर्शनकर भासर्वज्ञमत की सप्रमाण समीक्षा भी की गयी है । 2 ' प्रमेयनिरूपण ' नामक सप्तम विमर्श में संक्षेप में प्रमेयविशेष का लक्षण, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ आदि द्वादश प्रमेयों का संक्षेप से निरूपण, अपवर्गोपयोगित्वेन द्वादश प्रमेयों का हेय, हेयहेतु, हान तथा हानोपाय इन चार भागों में विभाजन, आत्मसिद्धि, शरीर, इन्द्रिय आदि का आत्मत्वनिराकरण, आत्मविभुत्व, आत्मनित्यत्व का प्रतिपादन, परलोकोपयोगित्वेन अपरात्मा का स्वीकार तथा क्लेशनिवृत्ति द्वारा अपरात्मा की मोक्षांगता का प्रतिपादन, परमात्मा के अस्तित्व में प्रमाण तथा उपासनांगत्वेन उसकी मोक्षोपयोगिता का प्रतिपादन है । 1. न्यायसूत्र ४।२।४९ 1. द्रष्टव्य - प्रस्तुत शोधप्रबन्ध, पृ. २६८ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ न्यायसार यह भी न्यायसार में प्रमेयविशेष आत्मेन्द्रियादि का योगदर्शनरीति से हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय भेद से चातुविध्यविभाग तथा योगदर्शन और बौद्धदशन से भिन्न उनके स्वरूप का प्रतिपादन, अपरात्मा, परमात्मा दोनों को अपवर्गाङ्गता का प्रतिपादन, अपवर्गप्राप्ति के लिये योगदर्शनोक्त यमानयमादि अष्टांगों का उपाय रूप से प्रतिपादन तथा परमात्मा का शैव प्रत्याभज्ञादर्शनानुकूल स्वरूपनिरूपण भासर्वज्ञ की विशेषताएँ हैं। 'अपवग नरूपण' नामक अष्टम विमर्श में अपवर्ग का स्वरूपप्रतिपादन भासर्वज्ञ का सर्वोत्कृष्ट विशेषता है। प्राचीन समय में न्यायदर्शन आनन्दसंवितविशिष्ट दुःखात्यन्ताभावरूप मुक्ति का मानने वाला था, न कि केवल दुःखात्यन्ताभावरूप मुक्ति को, जै लाकि उपलभ्यमान निम्न उक्तियों से सिद्ध है "दुःखहानाय नो युक्ता सुखदुःखात्मकं परम् । न हि कश्चित् पदार्थज्ञो मोहासद्धौ प्रवर्तते ।। वरं वृन्दावनेऽरण्ये शुगालत्वं वृणोम्यहम् । न तु निविषयं मोक्षं गौतमो गन्तुमिच्छति । अत्यन्तनाशे गुणसंगतेर्या स्थिति भावेत् कणभक्षपक्षे । मुक्तिस्त्वदीये चरणाक्षपक्षे सानन्दसंवित्सहिता विमुक्तिः ॥" किन्तु उत्तरकाल में वैशेषिकशास्त्र के वर्धमान प्रभाव के कारण जैसे अन्य न्यायदर्शनाभिमत तत्त्वों का समावेश न्यायदर्शन में हो गया, उसी प्रकार आनन्द. संवित् का पारत्याग कर केवल दुःखात्यन्तीभावरूप मुक्ति का ही प्रतिपादन किया । किन्तु भासर्वज्ञ ने सर्वप्रथम यह दुःखात्यन्ताभावरूप मुक्ति न्यायदर्शन को अभिमत है, इसका खण्डन कर आनन्दसंवित्सहित दुःखात्यन्ताभाव ही मुक्ति है, इस प्राचीन गौतमसमत सिद्धान्त का पुनरुज्जीवन व प्रतिष्ठापन किया । इस शोधप्रबन्ध में यह बतलाने का प्रयास किया गया है कि सूत्रकार ने वैशेषिकदर्शन की तरह कहीं भी मुक्ति में सकलात्मविशेषगुणोच्छेद का निरूपण नहीं किया, किन्तु 'बाधनालक्षणं दुःखम् 1 इस सूत्र के द्वारा दुःख का स्वरूप बतलाकर · तदत्यन्तबिमोक्षोऽपवर्ग ३ इस सूत्र के द्वारा उसके अत्यन्ताभाव को अपवर्ग बतलाया है, क्योंकि सम्यग् ज्ञान के द्वारा 'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्यः। इस सूत्र में प्रातपादित मिथ्याज्ञानादि के अपाय के द्वारा दुःख का ही आत्यन्तिक उच्छेद होता है, आनन्द की प्राप्ति उससे नहीं होती। आनन्द स्वतःसिद्ध है, जो कि दुःखादिरूप प्रतिबन्धक के द्वारा संसारदशा में अभिव्यक्त नहीं रहा है, किन्तु सम्यग्ज्ञान द्वारा मिथ्याज्ञाननिवृत्तिकम से दुःखरूप प्रतिबन्धक का नाश होने पर उसकी अभिव्यक्ति मुक्तिदशा में हो जाती है। मुक्तिदशा में स्वतः सिद्ध आनन्द की ही अभिव्यक्त होने से उसकी प्राप्ति सूत्र में निर्दिष्ट नहीं है। 1. न्यायसुत्र, 11११२१ 1. न्यायमच, १११२२ 2. १1११२ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २४९ 'परवती प्रन्थकारों पर भासर्वज्ञ का प्रभाव ' नामक नवम तथा अन्तिम विमर्श में यह बतलाया गया है कि उत्तरवती दार्शनिकों ने भासर्वज्ञ के वैदुष्य तथा न्यायदर्शन की स्वतन्त्र समीक्षापद्धति से प्रभावित होकर अपने ग्रन्थों में अपने सिद्धान्तों के समर्थनार्थ या भासर्वज्ञ के सिद्धान्तों के प्रत्याख्यानार्थ तत्प्रतिपादित सामग्री को प्रचुरमात्रा में उद्धृत किया है । उन विद्वानों में न्याय, वैशेषिक तथा बौद्ध दर्शन सभी के विद्वान् हैं। इससे भासर्वज्ञ का प्रभावातिशय स्पष्ट प्रतात होता है । चाहे खण्डनार्थ ही उल्लेख किया हो, तो भी वे उसकी उपेक्षा न कर सके। उपलब्धि इस शोधप्रबन्ध की प्रथम उपलब्धि यह है कि न्यायसार के समासतः सभी विषयों का विवेचनपूर्वक सम्यक् उपस्थापन है । ऐतिहासिक दृष्टि से भासर्वज्ञ के पूर्ववता' भाष्यकार, वातिककार, जयन्त भट्ट के तथा समानतन्त्रीय वैशेषिक विद्वान् प्रशस्तपादादि व बौद्ध दार्शनिकों के तत्त।वषयसम्बन्धी विचार का प्रस्तवन द्वितीय उपलब्धि है। कितने ही स्थलों में भूषणसम्बन्धी समीक्षा का भी उल्लेख तथा स्पष्टीकरण इसकी तृतीय उपलब्धि है। इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं भासर्वज्ञमत की आलोचना जैसे, अनध्यवसित हेत्वाभास की पृथकता का निराकरण, उपमानप्रमाणान्तर्भाव की सूत्रारकानभिमतता तथा आनन्दसंवितसहित दुःखात्यन्तनिवृत्तिरूप भासर्वज्ञसम्मत मुक्ति न्यायदर्शन से विपरीत है इसका प्रतिपादन इस शोधप्रबन्ध की चतुर्थ उपलब्धि है। न्यायदर्शन की अभिनव शैली से स्वतन्त्र विवेचना प्रस्तुत करने वाले इस ग्रन्थ पर, जहां तक कि मुझे विदित है, किसी ने भो समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत व्या है। अतः यह शोधप्रबन्ध इस विषय पर भविष्य में समीक्षात्मक अप्ययन करने बालों के लिये किसी न किसी रूप में उपयोगी हो सकेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इति शम भान्या-३२ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूचि लेखक-नाम. पुस्तक-नाम प्रकाशम-संस्था चाय १ अद्वैतब्रह्मसिद्धि सदानन्द-यति....... परिमल पब्लिकेशन्स् , दिल्ही, अहमदाबाद, सन १९८१. १अ अमरकोश अमरसिंह श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई, सन् १९३०. २ अर्थसङ्ग्रह लौगाक्षि भास्कर साहित्य-भण्डार, मेरठ, सन् २०२८. ३ ईशादिदशोपनिषत्संग्रह निर्णयसागर मुद्रणालय, बम्बई, सन् १९३२. (श्वेताश्वतरोपनिषद सहित) १ ईशादिविंशोत्तरशतोपनिषद् निर्णयसागर मुद्रणालय, बम्बई, सन् १९४८. ५ कात्यायनवार्तिक : कात्यायन निर्णयसागर मुद्रणालय, बम्बई. ६ किरणावली उदयनाचार्य गायकवाद ओरियण्टल सीरीज, बडौदा, सन् १९७१. ७ किरणावली उदयनाचार्य एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता, सन् १९१ १. (किरणावलीप्रकाशसहित) ७अ को लोपनिषद् . तान्त्रिक टेक्स्ट्स , कलकत्ता. ८ खण्डनखण्डखाद्य श्री हर्ष चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन् १९७० ९ गणकारिका भासर्वज्ञ गायकवाड ओरियण्टल सीरीज, बडौदा, (रत्नटीका सहित) सन् १९६६, १० गादाधरी गदाधर भट्टाचार्य चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन १९२२ ११ जैमिनिसूत्र महर्षि जैमिनि आभन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावलि, पूना, सन १८९२. १२ ज्ञानश्रीनिबन्धावलि ज्ञानश्रीमित्र काशीप्रसाद जायसवाल, रिसर्च इन्स्टीटयुट, पटना, सन् १९५९. 1३ तत्वचिन्तामणि गंगेशोपाध्याय केन्द्रीय संस्कृत-विद्यापीठ, तिरुपति, सन् १९७३ १३अ तत्वचिन्तामणि गंगेशोपाध्याय एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता. १४ तत्वप्रदीपिका चित्सुखाचार्य षड्दर्शन-प्रकाशन-प्रतिष्ठान, उदासीन संस्कृत चित्सुखी) विद्यालय, वाराणसी, सन् १९५६. १५ तत्त्वमुक्काकलाप वेङ्कटनाथ देशिक मेडिकल हाल, वाराणसी, १९००, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रेन्थ सूचि २५१ लेखक-नाम पुस्तक-नाम प्रकाशन-संस्था १६ तत्वसंग्रह शान्तरक्षित बौद्ध भारती ग्रन्थमाला, वाराणसी, सन् १९६८. १७ तकभाषा केशव मिथ मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ही, सन् १९६८. सम्पादक प्रो. बदरीनाथ शुक्ल १८ तर्कभाषा केशव मिश्र काशी संस्कृत ग्रन्थमाला, वाराणसी, सन १९६३. सम्पा. आचार्य विश्वेश्वर १९ तर्कभाषा केशव मिश्र सर परशुरामभाउ कालेज, पूना, सन् १९३४. (सं. गजेन्द्रगडकर और करमरकर) २० तर्कभाषा केशव मिश्र बाम्बे संस्कृत खण्ड प्राकृत सीरीज नं. Lxxxv तर्कभाषा-प्रकाशिका सन् १९३७. सहित) तर्कसंग्रह अभट्ट मेहरचन्द्र लक्ष्मणदास, दिल्ली, सम् १९२४. २२ तर्कामृत जगदीश तर्कालङ्कार गुजराती न्यूज मुद्रणयन्त्रालय, बम्बई, सन् १९२५ २३ तार्किकरक्षा वरदराज मेडिकल हाल, वाराणसी, सन् १९.३, २४ द्रव्यसंग्रह आचार्य नेमिचन्द्र श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, सन् ११६६. २५ धर्मोत्तरप्रदीप दुवेक मिश्र काशीप्रसाद जायसवाल रिसर्च इन्स्टीटयूट, पटना, (न्यायविन्दु तथा सं.-पण्डित दलसुख. सन् १९७१. न्यायबिन्दुटीकासहित) भाई मालवणिया २६ नैषधीयचरित श्रीहर्ष चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी सन् १५६७. २७ न्यायकन्दली श्रीधराचार्य वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, सन् १९६३. २८ न्यायकुसुमाञ्जलि उदयनाचार्य । चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन् १९५७. न्यायकोश भीमाचार्य पूना, १९२८. न्यायदर्शन चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन् १९७०. ३१ न्यायदर्शन (प्रथम भाग) मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, सन् १९६७. (न्यायचतुर्ग्रन्थिका-समलङ्कृत) .३२ न्यायदर्शन चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन् १९२५. (खद्योत, भाष्यचन्द्र सहित) ३३ न्यायदर्शन (२ भाग) कलिकाता संस्कृत ग्रन्थमाला, कलकला, सन् १९४४ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ न्यायसार लेखक-नाम पुस्तक-नाम प्रकाशन-संस्था ३४ न्यायपरिचय म.म.फणिभूषण चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, सन् १९६८. तर्कवागीश । हिन्दी रूपान्तरकार-डो. किशोरनाथ झा ३५ न्यायपरिशुद्धि वेङ्कटनाथ देशिक चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन् १९१८. (प्रथम भाग) ३६ न्यायप्रवेश (भाग १, दिङ्नाग गायकवाड ओरियण्टल सीरीज, बडोडा, सन् १९६८ ३७ न्यायबिन्दु- धर्मकीर्ति नूतन संस्कृत सीरीज, अकोला, सन् १९५२. (धर्मोत्तरप्रणीत न्याय. बिन्दुटीका सहित) १८ न्यायभूषण भासर्वज्ञ षड्दर्शन-प्रकाशन-प्रतिष्ठान, उदासीन संस्कृत (से. स्वामी विद्यालय, वाराणसी, सन् १९६८. योगीन्द्रानन्द) ३९ न्यायमञ्जरी जयन्त मट्ट चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन् १९६८. ३९अ न्यायम जरी चक्रधर लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, ग्रन्थिमा अहमदाबाद, १९७२. ४. न्यायरत्नातिमालिका नृसिंहयज्वन् मद्रास गवर्नमेण्ट ओरियण्टल सीरीज़, मद्रास, सन् १९५३. ५१ न्यायलीलावती श्रीवल्लभाचार्य निर्णयसागर मुद्रणालय, बम्बई, सन् १९२३. १२ न्यायवार्तिक उद्द्योतकर चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन १९१६. ४३ न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका वाचस्पति मिश्र चौखम्वा संस्कृत सीरीज, वाराणसी सन् १९२५. ५. न्यायविनिश्चय विवरण वादिराज सूरि भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९५४. (दो भाग) ४५ न्यायसार भासर्वज्ञ निर्णयसागर मुद्रणयन्त्रालय, बम्बई, शक संवत् १८३२ (सं. वी.पी.वैद्य) ४६ न्यायसार (न्यायसार. भासर्वज्ञ ओरियण्टल बुक सप्लाइ ग एजन्सी, पूना, पदपछिचका सहित) (सं. प्रो. देवधर) सन् १९२२. ५७ न्यायसार (न्यायसार. भासर्वज्ञ त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरीज, नं. Cix, सन १९३.. पदपम्चिकासहित) (सं. साम्बशिव शास्त्री) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक प्रन्थ-सूचि २५३ लेखक-नाम पुस्तक-नाम प्रकाशन संस्था ४८ न्यायसार भासर्वज्ञ एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता, सन् १९१०. (न्यायतात्पर्य दीषिका (सं. प्रो. विद्याभूषण) न्यायसार भासर्वज्ञ मद्रास गवर्नमेन्ट ओरियण्टल सीरीज, मद्रास, (न्यायमुक्तावली तथा सन् १९६९. न्यायकलानिधि सहित ५० न्यायसारविचार श्री रणवीर केन्द्रीय संस्कृत-विद्यापीठ, जम्म् , सन् १९७६. ५१ न्यायसिद्धान्त विश्वनाथ पंचानन चौखम्बा संस्कृत सीरीज, सन् १९७२. मुक्तावली प्रकरणपचिका शालिकनाथ चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन् १९०३. ५३ प्रमाणमीमांसा हेमचन्द्र तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी, सन् १९७०. (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) ५४ प्रमाणवार्तिक धर्मकीति बौद्ध भारती ग्रन्थमाला, वाराणसी, सन् १९६८. ५५ प्रमाणवार्तिकालङ्कार प्रज्ञाकर गुप्त के. पी. जायसवाल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पटना, (सं. पण्डित सन् १९५३. दलसुख मालवणिया) ५६ प्रमाणसमुच्चय दिङ्नाम मैसुर युनिवर्सिटी, सन् १९३०. ५६अ प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रभाचन्द्र निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, सन १९४१. (परीक्षामुखसूत्रटीका) (सं. पं. महेन्द्र. कुमार शास्त्री) ५७ प्रशस्तपादभाध्य प्रशस्तपाद चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन् १९६६. ५८ प्रशस्तपादभाष्य प्रशस्तपाद चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन् १९२४. (सूकि आदि टीका सहित) ५९ पाणिनीय अष्टाध्यायी श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट ग्रन्थमाला. सं. २३, सूत्रपाठ अमृतसर, सन् १९५७. ६० पातजल योगदर्सन श्री मदनलाल लक्ष्मीनिवास चण्डक, अजमेर, सन् १९६१. ६१ बृहदारण्यकोपनिषद- सुरेश्वराचार्य आनन्दाश्रम मन्थावली, पूना, सन् १८९४. भाध्यवातिक Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ न्यायसार लेचक-नाम पुस्तक-नाम प्रकाशन संस्था ६२ ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य . गोविन्दमठ, वाराणसी, वि. सं. २०२८. ६३ ब्रह्मसिद्धि मण्डन मिश्र मद्रास गवर्नमेन्ट ओरियण्टल मेन्युस्क्रिप्ट सीरीज नं. ४, सन १९३७. ६४ भारती सं. सूर्यनारायण थियोसोफिकल पब्लिशिंग हाउस, अड्यार, सन् शास्त्री और १९३३. कुन्हन राजा ६५ भारतीय दर्शन बलदेव उपाध्याय शारदा मन्दिर, वाराणसी, सन १९६६ ६६ भारतीय दर्शन प्रो. हरिमोहन पुस्तकभण्डार, पटना, सन् १९६४. परिचय (प्रथम झा और द्वितीय खण्ड) ६७ भारतीय दर्शन में डॉ. ब्रजनारायण मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, अनुमान शर्मा सन् १९७३. ६८ भारतीय दर्शनशास्त्र प्रो. धर्मेन्द्रनाथ मोतीलाल बनारसीदास, सन् १९५३. न्यायवैशेषिक शास्त्री ६९ भावनाविवेकटीका भट्ट उम्बेक सरस्वती भवन टेक्स्दसू, वाराणसी, सन् १९२२. (प्रथम भाग) मनुस्मृति श्री वेङ्कटेश्वर प्रेस, बम्बई, संवत् १९६७. महाभारत श्री वेटेश्वर प्रेस, बम्बई. ७२ माध्यमिककारिका नागार्जुन के. एल. मुखोपाध्याय, कलकत्ता, सन १९६२ मानमनोहर वादिवागीश्वर षड्दर्शन-प्रकाशन-प्रतिष्ठान, वाराणसी, सन १९७३. ७१ मानमेयोदय नारायण भट्ट षड्दर्शन-प्रकाशन-प्रतिष्ठान, वाराणसी, सन १९७८. मीमांसादर्शन . चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन १९१०. (शाबरभाष्यसहित) ७६ मीमांसाश्लोक-- कुमारिल चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन १८९०. वातिक रत्नकीतिनिबन्धावलि रत्नकीति' ... के. पी. जायसवाल रिसर्च : इन्स्टीट्यूट, पटना, सन् १९७५. ७८ रसगंगाधर . पण्डितराज निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, सन १९१६... जगन्नाथ . ७९ रससार भट्ट वादीन्द्र सरस्वती भवन टेक्स्ट्स , वाराणसी, सन १९२२. ८० लक्षणाबली उदयनाचार्य निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, वि. सं. १९५५. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूषि ..... लेखक-नाम पुस्तक-नाम प्रकाशन संस्था ८१ वाक्यपदीय भत हरि चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन १९३७ .. ०२ वैशेषिक-दर्शन चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, सन १९६६. ८३ वैशेषिक-दर्शन मिथिला विद्यापीठ, दर मंगा, सन १९५७... (अज्ञातकतृ'कव्याख्या संवलित) ८३१ वैशेषिकसूत्रोस्कार - शंकर मिश्र चोखम्बा, वाराणसी.शंकरदिग्विजय विद्यारण्य आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावली, पूना, सन १९१५. ८५ लोकवार्तिक-व्याख्या भट्ट उम्बेक मद्रास विश्वविद्यालय, (तात्पर्यटीका) सन १९७१. ८६ षड्दर्शनसमुच्चय मलधारी राजशेखर यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, बनारस. ८७ षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति गुणरत्न एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता, सन १९०५. ८८ सप्तपदार्थी शिवादित्य एल. डी. इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद, सन १९६३. ८९ सर्वदर्शनसंग्रह माधवाचार्य आनन्दाश्रम ग्रन्थावली, पूना, सन १९६६. ९. स्यावादमन्जरी मल्लिषेणसूरि भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, . सन १९३३. .९१ सांख्यकारिका ईश्वरकृष्ण निर्णयसागर प्रेस, बम्बई... -(सांख्यतत्वकौमुदी सहित) . सन १९९० ENGLISH BOOKS and ARTICLES 2. 1. Bhattacharya. D. C. : History of Navya-Nyaya in Mithila, Mithila Research Institute, Darbhanga, 1958. Chattopadhyay, D. P., : Nyaya Philosophy (5 parts), . Gangopadhyaya, M. K. Indian Studies, Past & Present, Calcutta. 3. Dasgupta, S. N. A History of Indian Philosophy (Vols. I-II). The Cambridge University Press, 1969. 4. Gaur. J. P. : History of Indian Epistemology, Minshiram Manoharlal, Delhi, 1956. 5. Kaviraj, Gopinath : Gleanings from the History and Bibliography of the Nyaya-Vaisesika Literature, Indian Studies, Past & Present, Calcatta, 1961. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसार 6. Potter, Karl H. 7. Radhakrishnan, s. 8. Sanghavi, Sukhlal 9. Satkari, Mookerjee 10. Seal, B. N. 11. Shastri, D. N. 12. Thakur, A. L. : The Encyclopedia of Indian Philosophies, Vol. II, Motilal Banarsidass, Delhi, 1977. : Indian Philosophy (Vol 1 & II), George Allen & Udwin, London. : Advanced Studies in Indian Logic & Metaphysics, Indian Studies, Past & Present, Calcutta, 196). : The Buddhist Philosophy of Universal Flux, Motilal Banarasidass. Delhi, 1975. : The Positive Sciences of the Ancient Hindus, Motilal Banarasidass, Varanasi, 1958. Critique of Indian Realism, Bhartiya Vidya Prakashan, Delhi, 1976. ; Nyāyabhūşaņa - A lost work on Medieval Indian Logic, Article in the Journal of the Bihar Research Society. Volume XLV, January-December, 1959. : Peep in the less-known Nyāya Authors and Works, Article in A. D. Pusalker Commemoration, Volume, 1975. : Uddyotakar as a Vai eşika, Paper pub. in Proceedings and Transactions of AJ.O.C.. Fifteenth Session, 1949. Porception in Nyāya Philosophy, Bharat Manisha Quarterly, Vol. I, 1975. Visvarapa the Naiyayika. The Journal of Oriental Research, Vol. XXVIII, 1958-59, Madras. : A History of Indian Logic, Motilal Banarasidass, Varanasi, 1971, 13. -- 14. Thakur, A. L. -- 17. Vidyabhusana, S. C. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक पन्ना अशुद्ध कल काल आ: भासर्वज्ञनने अतः मासर्वज्ञने गणकारिका न्यायवार्तिक गणकारिक न्यांयवार्तिक प्रभाणम् सयोजन 0 प्रमाणम् 0 संयोजन असाधाण असाधारण विद्ध अनुपलनिमात्र विरुद्ध अनुपलब्धिमात्र एक A दुखजन्म दुःखजन्म N सभीचीन ___E किय समीचीन किया नहीं नहाँ इत्यायारक ANA प्रमाणसमुच्य सविक पक श दार्थ ताद त्म्य अतिरिक्ति इत्याकारक प्रमाणसमुच्चय सविकल्पक शब्दार्थ तादात्म्य अतिरिक्त दृष्ट कालान्वयी ब्राह्मणत्व विश्व सामान्यवत्वे ਵਰ केवलाम्वया ब्राह्मणत्व श्वि ૧૦૮ सामान्यक्तवे Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] पन्ना पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ११३ १५ ११७ पक्षत्रयैकदेवृत्ति क्षविपक्ष विनाम शंङ्का पक्षत्रयकदेशत्ति पक्षन्निपक्ष दिङनाग १२६ १२७ १९८ शङ्का १३० परिष्कार धतोपदर्शन परिष्कार धर्म तोपदर्शन १५० -पपन्नछल १६७ १७० १७४ ૧૮૧ १९२ २.२ -पन्नश्यछ निगृहगीयात कात्यासिद्ध धर्मापपत्तरवि प्र षेधाभावः थिते चक्षुरिन्द्रय कयोंक दसरे निगृहणीयात् त्रैकाल्यासिदेः धर्मोपपत्तरबि प्रतिषेवाभावः स्थिते चक्षुरिन्द्रिय कयोंकि Mu09 9 दूसरे 0 कि 0 ० 0 २३३ समप्रवर्तते पक्ष सद्धावपि बैशेपिक चातिप्रगः पचीसवां का धमो की सप्रवर्तते पक्षसिद्धावपि वैशेषिक चातिप्रसंग: पचीसवां की धर्मों की २३७ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dain Education International