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न्यायसार
प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । नियतेन्द्रिय से अतिरिक्त इन्द्रिय से रूपादिज्ञान की उत्पत्ति के निषेधाथ मूल में चक्षुसैन आदि पदों में एव का उपादान किया गया है । रूपाविज्ञान में यद्यपि मनोव्यापार होने से मनः सम्बन्ध भी रूपादि के ज्ञान में कारण है, अतः 'चक्षुषव' इत्यादि अवधारणा की अनुपपत्ति है, तथापि चक्षुरिन्द्रिय का रूप से साक्षात् सम्बन्ध है, न कि मन का । तथा रूपज्ञान चाक्षुष है न कि मानस, ऐसा शब्द. व्यवहार होता है। अतः रूपज्ञान में चक्षु की प्रधानता होने से 'चक्षुबीव' ऐसा अवधारण किया गया है। ऐसी स्थिति रसादि झानों में है।
बौद्धों की मान्यता है कि ज्ञान व सुख-दुःखादि दोनों ही आत्मनः संयोगरूप तुल्यकारगजन्य होने से दोनों अभिन्न हैं । अतः जैसे ज्ञान स्वसंवेद्य है वैसे सुखादि भी स्वसंवेद्य हैं, इसलिये उनका मन के स्वसमवाय-सम्बन्ध से ज्ञान मानना उचित नहीं । प्रमाणवातिक में धर्मकीर्ति ने इस सिद्धान्तका समर्थन किया है। सुखादि स्वसंवेद्य हैं, इस बौद्धमत का निराकरण करते हुए भूषणकार ने कहा है कि सुखादि स्वसंवेद्य नहीं हैं, क्योंकि उनमें ज्ञानरूपता सिद्ध नहीं होती। आत्ममन संयोगरूप. समानहेतुजन्यता ज्ञान और सुखादि की अभेदसाधि का नहीं हो सकती, क्योंकि जो तुल्यहेतु जन्य हों, वे अभिन्न हों इस नियम का पाकज रूप, रस गन्ध, तथा स्पर्श में व्यभिचार है । पाकज गन्धादि के अग्नि योगरूप तुल्य हेतु से जन्य होने पर भी उनमें भेद स्वीकृत है । स्वयं बौद्धमत में भी तुल्यहेतुजन्यता अभेदसाधिका नहीं है, क्योंकि घटादिभंगजन्य शब्द और कपालखण्डों के घटादिभंगरूप एक हेतु से जन्य होने पर भी शब्द की कपालादिखण्ड से एकरूपता बौद्ध भो स्वीकार नहीं करते । तथा ज्ञान व सुखादि को सर्वथा तुल्यहेतुजन्यता भी असिद्ध है। सुखादि में अभिलाषा और अनभिलाषा आदि प्रतिनियत निमित्त हैं, जबकि ज्ञान में ऐसा कोई प्रतिनियत निमित्त नहीं । आनन्द (सुख) व ताप (दुःख, का भेद प्रत्यक्षसिद्ध है, अतः उनको ज्ञान से अभिन्न नहीं माना जा सकता । अन्यथा सुख व दुःख दोनों के ज्ञानरूप होने से उनमें भी परस्पर भेद नहीं होता ।
संशय, विपर्यय व निर्णय में अवान्तर भेद होने पर भी उनकी ज्ञानरूपता की तरह सुख व दुःख में अवान्तर भेद होने पर भी उनको ज्ञानरूपता उपपन्न हो सकती है, यह कथन भी उपयुक्त नहीं, क्योंकि संशयादि में संशयो ज्ञानम्', 'विपर्ययो ज्ञानम्' इत्याकारक अनुगत प्रतीति के कारण उनको ज्ञानरूप मानने पर भी सुखादि में सुखं ज्ञानम्' इत्याकारक प्रतीति के अभाव से उन्हें ज्ञान मानना निराधार है, प्रत्युत सुखादि की ज्ञानविषयत्वेन प्रतीति है । अतः सुखादि ज्ञानरूप 1. न्यायसार, पृ. २. 2. तदतरूपिणो भावास्तदतद्र पहेतुजाः। ...तरसुख दि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्न हेतुजम् ॥ -प्रमाणवार्तिक, २/२५१. 3. त्वन्मतेऽपि घटादिभंगजः शब्दः कालखण्डादितुल्य हेतुजो न च तद्रप इत्यनेकान्तः ।
-न्यायभूषण, पृ. १५
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