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प्रमाणसामान्यलक्षण
नहीं हैं । सुखादि को ज्ञानविषय मानने पर उनमें घटादि की तरह बाह्यता तथा सर्वसाधारणता को प्रतोति की आशंका भी निराधार है, क्योंकि सुखादि ज्ञान-विषय होते हुए भी घटादि की तरह बाह्य पृथिव्यादिभूतात्मक या उनमें समवेत नहीं हैं, किन्तु आत्मा में समवेत हैं।
संख्यादि में समवेत संख्यात्व, एकत्वादि सामान्यों का प्रत्यक्ष संख्यादि के आश्रय की ग्राहक चक्षुरादि इन्द्रियों द्वारा संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध से होता है। अर्थात् 'एतेषु आश्रितानां' इतना ही न कहकर 'एतेषु संख्यादिषु आश्रितानाम्'1 कहने का अभिप्राय यह है कि संख्यादि गुणों में समवेत संख्यात्वादि सामान्यों का ही संयुक्त समवेतसमवाय सम्बन्ध से चक्षुरादि इन्द्रियों से ग्रहण होता है. न कि घटत्वादि में समवेत सामान्यों का, क्योंकि अनवस्था दोष के कारण जात में जात्यन्तर नहीं मानी जाती ।
__'संख्यादिषु' में प्रयुक्त आदि शब्द के द्वारा सखादिपर्यन्त सभी का ग्रहण है। अर्थात् संख्या द में आदि पद से परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग, कर्म रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द तथा सुखादि का समावेश किया गया है। संख्यादि में समवेत सत्ता, गुणत्व, संख्यात्व आदि सामान्य तथा सुखादि में समवेत सुखत्यादि सामान्यों का प्रत्यक्ष यहाँ गृहीत है। इनमें भी संख्या से लेकर कर्मपर्यन्त में समवेत सामान्यों का प्रत्यक्ष संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध के द्वारा चक्षु तथा त्वगिन्द्रिय दोनों से होता है। अर्थात् ये द्वीन्द्रियग्राह्य हैं। रूप में आश्रित रूपत्व सामान्य का चक्षुरिन्द्रिय से ही प्रत्यक्ष होता है, स्पर्श में आश्रित स्पर्शत्व सामान्य का स्पर्शन से ही प्रत्यक्ष होता है. गन्ध में समवेत गन्धत्व सामान्य का प्रत्यक्ष घ्राणेन्द्रिय से ही होता है, रस में आश्रित रसत्व सामान्य का रसनेन्द्रिय से ही प्रत्यक्ष होता है और सुखादि में समवेत सुखत्वादि सामाग्यों का प्रत्यक्ष मन द्वारा ही होता है । इसी प्रकार संख्यादि में रहने गली सत्ता और गुणत्व जाति का प्रत्यक्ष भी चक्षुरादि इन्द्रियों से संयुक्त समवेतसमवाय सम्बन्ध के द्वारा ही होता है। ये दोनों जातियां सभी गुणों में आश्रित रहती हैं, अतः इनका ज्ञान (प्रत्यक्ष) सभी इन्द्रियों से होता है।
सभी गुणों, में 'सत् सत्' इस अनुगत व्यवहार के प्रत्यक्ष होने से गुणों में सत्ता जाति प्रत्यक्ष से सिद्ध है, किन्तु रूपादिगुणों में 'गुणः' इस अनुगत व्यवहार के अभाव में प्रत्यक्ष प्रमाण से गुणत्व जाति की सिद्धि न होने पर भी 'अस्पर्शवत्वे सति सामान्यवत्त्वे च सति द्रव्याश्रितत्वरूप अनुमान' से गुणत्व जाति की सिद्धि है।' भासर्वज्ञ के अनुसार कर्मवर्ग के भी गुणान्तभूत होने से इस अनुमान की कर्म में अतिव्याप्ति मानना असंगत है । गुणत्व के अनुमेय होने पर भी उसका प्रत्यक्षज्ञान पूर्वाचार्यों के अनुसार बतलाया गया है, क्योंकि उन्होंने गुणस्व का प्रत्यक्ष माना है। 1. न्यायसार, पृ. ३
2. न्यायभूषण, पृ. १५८ 3. सन्द्रिय प्रत्यक्षं तु गुणत्वं पूर्वाचार्यैरिष्टम् । तच्च तथास्तु मा भूदू वेति, नात्र निर्बन्धोऽ. स्माकम्, प्रयोजनाभावात् ।
-न्यायभूषण, पृ. १५८
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