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न्यायसार
शब्द तथा शब्दत्वादि सामान्य का प्रत्यक्ष शब्द की उपलब्धि समत्राय सम्बन्ध से होती है, क्यों के कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न आकाशरूप श्रोत्र में शब्द समवाय सम्बन्ध से रहता है । शब्द में आश्रित शब्दत्व, वर्णव, कन्वादि सामान्य का प्रत्यक्ष समवेतसमवाय सम्बन्ध से होता है, क्योंकि श्रोत्ररूप आकाश में समवेत शब्द में शब्दत्व जाति का समवाय है, क्योंकि वह शब्द में समवाय सम्बन्ध से रहती है। .
आकाश प्रत्यक्षसिद्ध न होने पर भी 'क्वचित्समवेतः शब्दो गुणत्वात् , रूपादिवत्' अर्थात् शब्द गुण होने के कारण रूपादि को तरह कहीं समवेत है, जहां समवेत है, वही आकाश है -- इस अनुमान प्रमाण से सिद्ध है। अतः चार्वाकादि का आकाश को न मानना उचित नहीं हैं। उपर्युक्त अनुमान में हेस्वसिद्धि नहीं है, क्योंकि 'गुणः शब्दः, सामान्यत्रत्त्वे सति सामान्यवदनाधारत्वात्, रूपादिवदिति' इत्याकारक अनुमान से शब्द में गुणत्व की सिद्धि हो जाती है । वासुदेव सूरि ने शब्द की गुणत्वसिद्धि के लिए निम्न हेतु प्रस्तुत किया है- 'शब्दो गुणः, सामान्यवत्त्वात् स्पर्शवत्वे सति अस्पदा दबाह्यै केन्द्रियग्राह्यत्वात् ।। यहां यह ध्यातव्य है कि भूषणकार द्वारा प्रस्तुत शब्द का गुणत्वसाधक हेतु वर्म में भी अतिव्याप्त हो जाता है। अतः उन्होंने शब्द में गुणत्वसिद्धि के लिए सामान्यवत्त्वास्पर्शकत्वे सति अस्मदादिबायकेन्द्रियग्राह्यत्वात्', यह हेतु प्रस्तुत किया है । भूषणकारोक्त गुण लक्षण की कर्म में अतिव्याप्ति का निवारण करने के लिए वासुदेव सूरि ने 'सामान्यवत्त्व कर्मव्यतिरिक्तत्वे सति सामान्यवतामनाधारत्वाद् वा इस दूसरे हेतु में 'कर्मव्यतिरिक्तत्वे सति' संयोजित कर दिया है। किन्तु वासुदेव सूरि का यह संशोधन उचित नहीं. क्योंकि भूषणकार कर्मवर्ग वा गुणसमुदाय में ही अन्तर्भाव मानते हैं। अतः वहां अतिव्याप्ति का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । किरणावलीकार उदयनाचार्य ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कर्मवर्ग को गुणवर्ग में संवेष्टित करने वाले गुणलक्षण की रचना के लिये भूषण कार को साधुवाद दिया है-'वरं भूषणः कर्मापि गुणस्तल्लक्षणयोगात ।
शब्द का द्रष्यत्वानुमान और उसका निरास शब्द का प्रत्यक्ष समवाय सम्बन्ध से होता है, क्योंकि वह गुण है और कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न ओकाश में समवाय सम्बन्ध से रहता है। इसी प्रसंग में भासर्वज्ञ ने शब्द के पराभिमत द्रव्यत्व का भी निराकरण किया है। अन्यथा उसका सम्बन्ध से प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ।। 1. न्यायसारपदचिका, पृ १३ । २. बही 3. कर्मवर्गोऽपि पंचविंशतितमो गुणभेदः एवास्तु न कंचिदत्र विशेष पश्यामः । किमेषां गुणत्व. मिति चेत् , गुणलक्षणमेव, तच्चास्पर्शवत्वे सामान्यवरवे च सति द्रव्याश्रितत्व सर्वेषामस्ति
रूपादीनाम् ।-न्यायभूषण, पृ. १५८ 4. किरणावली, पृ. १०४.
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