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प्रत्यक्ष प्रमाण
शब्द में देशान्तरगमन की प्रतीति के कारण कतिपय विद्वान् श द को द्रव्य मानते हैं, परन्तु उनको यह मान्यता उपयुक्त नहीं, क्योंकि जैसे छाया में गति न होने पर भी सूर्य-किरणों की गति के कारण छाया में गति प्रतीत होती है, उसी प्रकार शब्द में गति न होने पर भी शब्दोत्पत्तिसन्तान के कारण शब्द में देशान्तर गमन की प्रतीति होती है। शब्द को द्रव्य मानने वालों का कथन है कि शब्दविशेष दुःख का कारण होता है। अतः वह स्पर्शवान है, क्योंकि स्पर्शवान् द्रव्य के सम्बन्ध से ही दुःख होता है । जैसे, करकादि से। अतः शब्द भी द्रव्य है। ___ इसका खण्डन करते हुए भासर्वज्ञ का कथन है कि शब्द दुःखविशेष का कारण नहीं है, अपितु शब्द में तीव्रत्वादविशेष दुःख के कारण हैं, अतः शब्द को स्पर्शवान मानना भ्रान्ति है। शब्द को स्पर्शवान् मानने पर वातप्रतिकूल दिशा में शब्द का आगमन नहीं होगा जैसे वातप्रतिकूल दिशा में पर्णादि का आगमन नहीं होता । तथा कुड्यादि-व्यवधान में उच्चारित शब्द का श्रवण नहीं होगो, क्योंकि जैसे स्पर्शवान् बाणादि का कुड्यादि-व्यवधान होने पर आगमन नहीं होता इसी प्रकार यदि शब्द स्पर्शवान होता, तो वेगवान् द्रव्य के सम्बन्ध से जैसे तृणादि में क्रिया होतो है, वैसे ही वेगवान् शब्द के संयोग से भी तृणादि में कम्पादि क्रिया होती । अतः शब्द स्पर्शवान नहीं है, अत एव द्रव्य भी नहीं है। 'शब्दो गुणः सामान्यवत्वे सत्यनित्यत्वे च सति बाह्यनियतैकेन्द्रियग्राह्यत्वात्' इस अनुमान से प्राचीन आचार्यों ने शब्द में गुणाव की ही सिद्धि की है। भासर्वज्ञ ने इस हेतु में 'अस्पर्शवत्त्वे सति' का संयोजन आवश्यक माना है। अन्यथा इस हेतु की वायु में । अतिव्याप्ति होने से यह अनैकान्तिक हो जायेगा ।
शब्द के आश्रय का निरूपण शब्द की गुणत्वसिद्धि के पश्चात् शब्दगुणाश्रयत्वेन आकाश की सिद्धि बतलाई गई है । शब्द पृथिवी आदि का गुण नहीं हो सकता, क्योंकि वह शब्दत्व की तरह श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य है, जबकि पृथिव्यादि के रूपादि गुणों में श्रोत्रम्राह्यता नहीं है तथा शब्द को भेादि रूप पृथिवी का गुण मानने पर उसे भेर्यादि में आश्रित माना जायेगा। ऐसी स्थिति में भेरी के दूर देश में या व्यवहित देश में स्थित होने पर तज्जन्य शब्द का श्रोत्रेन्द्रियसम्बन्ध के अभाव से श्रावण प्रत्यक्ष नहीं होगा। क्योंकि आश्रय के बिना इन्द्रिय तद्गगत गुण का ग्रहण नहीं करती।
चम्पकादि के दूरदेशस्थ होने से उनके साथ घ्राणेन्द्रिय का संयोग न होने पर भी तद्गत गन्ध का ग्रहण जिस प्रकार होता है, वैसे ही दूरदेशस्थ व व्यवहित भेरी के साथ श्रोत्रेन्द्रिय का सम्बन्ध न होने पर भी शब्द का श्रवण प्रत्यक्ष बन जायेगा, 1. न्यायभूषण, पृ. १६५ 2. वही भान्या-८
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