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न्यायसार
यह समाधान भी असंगत है, क्योंकि वायु द्वारा घ्राणप्रदेश में आनीत गन्ध के साथ चम्पक पुष्प के सूक्ष्म अवयवों का आगमन है, अत वहां निराश्रय गन्ध का ग्रहण नहीं है, किन्तु भेरी के अवयवों का आगमन नहीं माना जा सकता, क्योंकि चम्पक के अवयचो में गन्धसत्ता की तरह भेरी के सूक्ष्म अवयवों में शब्द का अभाव है। क्योंकि स्थूल भेरी के साथ स्थूल दण्डादि के सम्बन्ध में स्थूल भेरी में शब्दोत्पत्ति है न कि उसके सूक्ष्म अवयवों में। तथा प्रतिकूल दिशा में वायुगति होने पर वायु द्वारा भेरी के अवयवों का आगमन न होने पर भी भेरीशब्द का श्रवण होता है, वह भी अनुपपन्न होगा । अत शब्द को भेर्यादि पृथिवी का गुण नहीं माना जा सकता । __दिक् तथा काल का भी गुण शब्द नहीं हो सकता, क्योंकि भासर्वज्ञ दिशा और काल की आकाश से भिन्न सत्ता नहीं मानते ।। अतः परिशेषात् शब्दाश्रयत्वेन आकाश की सिद्धि हो जाती है।
आकाश की श्रोत्ररूपता घ्राणादि की तरह श्रोत्र ही आकाशीय इन्द्रिय मानने पर समवाय सम्बन्ध से शब्द का प्रत्यक्ष संभव नहीं। अतः श्रोत्र को आकाशरूपता का प्रतिपादन किया जा रहा है। ___ आकाश ही श्रोत्ररूप है, इसकी सिद्धि श्रोत्र के पार्थिवादिरूप न होने से पारिशेष्यात् होती है, क्योंकि थोत्र गन्ध का ग्राहक न होने से पार्थिव नहीं है। जो गन्ध का ग्राहक नहीं होती, वह इन्द्रिय पार्थिव नहीं होती । जैसे, रसनादि इन्द्रियां । श्रोत्र के पार्थिवत्व का निषेधक अनुमानवाक्य है-'पार्थिवं तावन्न श्रोत्रम्, इन्द्रियत्वे सति गन्धाग्राहकत्वात, रसादिवत् । इसी प्रकार रस, रूप तथा स्पर्श का ग्राहक न होने के कारण श्रोत्र को जलीय, तेजस तथा वायवीय भी नहीं माना जा सकता । परिशेषतः श्रीत्र आकाशरूप ही है । जैसे घ्राणादि इन्द्रियां अपने अपने भूतों के विशेष गुण गन्धा द का ही ग्राहक होने से पार्थिव, आप्य. तैजस व वायवीय हैं, वैसे श्रोत्र आकाश के विशेष गुण शब्द का ही ग्राहक होने से आकाशरूप है। जैसे तत्तद्गुण ग्राहक घ्राणादि इन्द्रियों में समवाय सम्बन्ध से गन्धादिगुण रहते हैं, प्रकार शब्दग्राहक श्रोत्रेन्द्रिय में समवाय सम्बन्ध से शब्दगुण रहता है, जैसा कि "श्रोत्रं बाह्येन्द्रियग्राह्यगुण समवायि बाह्यन्द्रियत्वात्, रसनादिवत्" इस अनुमान से सिद्ध है। घ्राणादि इन्द्रियों के साम्य से श्रोत्र को शब्दाश्रय मानने पर उससे स्वनिष्ठशब्दग्राहकता के अभाव की आपत्ति है, क्योंकि जैसे घ्राणादि स्वनिष्ठ गन्धादि गुण के 1. दिकालो वा शब्दस्याश्रय इति चेत्, न संज्ञाभेदमात्रत्वात । यदि हि दिक्कालौ शब्दा
श्रयादभिन्नौ साधयितुं शक्ष्यामः ततस्तावदभ्युपगमिष्यामो नो चेत्तदा न ताभ्यां प्रयोजनम् ।
-न्यायभूषण, पृ. १६६. 2. न्यायभूषणम् १. १६६. ३. वही, पृ. १६५,
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