________________
प्रत्यक्ष प्रमाण
ग्राहक नहीं है, अपितु वस्त्वन्तर में विद्यमान गन्धादि के ग्राहक हैं, उसी प्रकार श्रोत्र भी स्वनिष्ठ शब्द गुण का ग्राहक नहीं होगा । इस दोष का परिहार करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि यदि सामान्यतः अर्थात् 'इन्द्रियं न स्वगुणग्राहकं, बहिरिन्द्रिय त्वात्' इस रूप से बहिरिन्द्रियमात्र में स्वगुणग्राहकता का निषेध किया जाता है, वह स्वीकार्य है, क्योंकि घ्राणादि स्वगुणपाहक नहीं । केवल श्रोत्रेन्द्रिय में स्वगुणग्राहकता होने से विरोध आता है, किन्तु वह विरोध एक श्रोजेन्द्रिय में होने से विशेषरूप है और विशेष विरोध सामान्य नियम का व्याघातक नहीं होता ।' तथा 'श्रोत्र न स्वगुणग्राहकं बहिरिन्द्रियत्वात् रसनादिवत्' इस प्रकार श्रोत्र में विशेष रूप से स्वगुणग्राहकता का निषेधानुमान बाधित होने से अनुपपन्न है, क्योंकि ओत्र की सिद्वि ही शब्दग्राहक होने से होती है । श्रोत्रेन्द्रिय को निर्गुण मानकर यद्यपि स्वगुणाग्राहकत्व-नियम के दोष से बचा जा सकता है, तथापि निगुण मानने पर उसके भौतिक न होने से मन की तरह श्रोत्रेन्द्रिय को नियतविषय: ग्राहकता की अनुपपत्ति होगी, क्योंकि नियतविषयग्राहकता प्रदीप की तरह भौतिक पदार्थो में ही होती है । श्रोत्रेन्द्रिय को भौतिक मानने पर यद्यपि श्रोत्र के दिगरूपत्वप्रतिपादक 'दिशः श्रोत्रम्' इस आगम का विरोध आता है, तथापि. उपर्युक्त वचन का अन्यार्थ में तात्पर्य मानने से उस विरोध का परिहार हो जाता है । अर्थात् 'दिक् श्रोत्रम्' इस वचन में दिक् शब्द से उसकी अधिष्ठात्री देवता गृहीत है। जैसे-'मनश्चन्द्रमा.' इस श्रुतिका तात्पर्य मन का अधिष्ठाता चन्द्रमा है. इस अर्थ में है न कि मन चन्द्ररूप है।"
शब्द में रहने वाली शब्दत्व जाति का प्रत्यक्ष श्रोत्रेन्द्रिय से समवेत-समवाय सम्बन्ध द्वारा होता है, क्योंकि श्रोत्ररूप आकाश में समवेत शब्द में शब्दत्व जाति का समवाय है। शब्दत्व जाति की सिद्धि 'शब्दाः असाधारणैकसामान्यवन्तः बाह्यकेन्द्रियप्राह्यगुणत्वात् रूपवदिति' इस अनुमान से हो जाती है।
अभावप्रत्यक्ष संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय और समवेतसमवायइन पांच सम्बन्धों से सम्बद्ध अर्थो (विषयों के साथ अभाव तथा समवाय का विशेषणविशेष्यभाव नामक छठा सम्बन्ध है, अतः प्रत्यक्षयोग्य अभाव व समवाय का संयुक्तविशेषणविशेष्यभावादि सम्बन्ध से प्रत्यक्ष होता है।
1. बाह्येन्द्रियमाह्यगुणसमवायि श्रोत्रं बाह्येन्द्रियत्वात् , रसनादिवत् । तद्वत्स्वगुणग्राहकत्वसंग इति चेत, न, विशेषविरोधस्यादूषणत्वात् ।
-न्यायभुषण, पृ. १६७ 2. न्यायभूषण, पृ. १६७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org