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न्यायसार
संयुक्तविशेषणभाव सम्बन्ध से अभावप्रत्यक्ष का उदाहरण घटशून्यं भूतलम्' है। यहाँ चक्षुरिन्द्रियसंयुक्त भूतल के साथ घटाभाव का विशेषणता सम्बन्ध है, क्योंकि यहां घटाभाव की प्रतोति इन्द्रियसंयुक्त भूतल के विशेषणरूपमें होती है और 'भूतले घटो नास्ति' इस उदाहरण में इन्द्रियसंयुक्त भूतल के साथ घटाभाव का विशेष्यता का सम्बन्ध है, क्योंकि यहां घटाभाव भूतलविशेष्यत्वेन प्रतीत होता है । विशेषणता तथा विशेष्यता के नियत न होने के कारण दोनों प्रकार के उदाहरण दिये गये हैं।' इसी प्रकार 'अनुष्णोऽयं स्पर्शः' इसमें अभावप्रत्यक्ष संयुक्तसमवेतविशेषणभाव सम्वन्ध से होता है । 'तोयस्पर्श नास्त्योष्ण्यम्' इसमें संयुक्तसमवेतविशेष्यभाव से औष्ण्याभाव
का ग्रहण होता है। इसी प्रकार 'अशुक्लं नीलत्वसामान्यम', 'नीलत्वे शौक्ल्य नास्ति', .. 'अतीव्रो वीणाशब्दः', 'वीणाशब्दे तीव्रत्वं नास्ति,' 'भेदशून्यं शब्दत्वम् 'शब्दत्वे भेदो नास्ति' इत्यादि भी उदाहरण दिये जा सकते हैं।
विशेषणविशेष्यभाव एक विशेष सम्बन्ध है और वह अखण्ड है । संयोगादि सभी सम्बन्ध उसी विशेषणता के उपलक्षण हैं । उपलक्षण वस्तु का भेदक नहीं, अपि तु परिचायक होता हैं और विशेषण भेदक होता है । उपलक्षण से वस्तु में अन्तर नहीं होता, विशेषणों से वस्तु में अन्तर होता है । जैसे दण्डी देवदत्त, कुण्डली देवदत्त, छत्री देवदत्त में दण्डादि विशेषणों के भेद से देवदत्त में भेद मानना पड़ेगा, किन्तु दण्डोपलक्षित वस्तु में अन्तर नहीं आता । संयोगादि को उपलक्षण मानने पर संयोगादि सम्बन्ध विशेषणता और विशेष्यता के भेदक नहीं माने जा सकते । इसी लिये विशिष्ट के विषय में दो मत प्रचलित हैं
१. विशिष्टं शुद्धात् अतिरिच्यते
२. विशिष्टं शुद्धात् नातिरिच्यते । अर्थात् जहां विशिष्ट वस्तु में विशेषण होता है, वहां पर विशिष्ट और शुद्ध का भेद हो जाता है, किन्तु जहां पर विशेषण केवल उपलक्षण है. वहां विशिष्ट अर्थात् उपलक्षित वस्तु शुद्ध से भिन्न नहीं होती । संयोगादि सम्बन्धों को विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध का विशेषण मानने पर संयोगादिघटित विशेषणता ५ प्रकार की होता है और संयोगादिघटित विशेष्यता भी ५ प्रकार की । इस प्रकार केवल विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध १० प्रकार का हो जाता है। ये भेद उन लोगों ने किये हैं, जिनको दृष्टि में विशेष्यतादि के घटक संयोगादि को विशेषण माना जाता है। भूषणकार भासर्वज्ञ इसी बात को मानने वाले हैं और जो लोग संयोगादि को केवल उपलक्षकमात्र मानते हैं, विशेषणतादि उनके मत में दश प्रकार का नहीं हो सकता । केवल विशेषणता और विशेष्यतो-दो भेद ही होंगे । इस दृष्टि को मानने वाले अन्य नैयायिक आचार्य हैं । विशेषणता-विशेष्यता को पृथक्-पृथक् सम्बन्ध न मानकर विशेषणता और विशेष्यता अन्यतररूप से सम्बन्ध की विवक्षा होने पर वह सम्बन्ध एक ही प्रकार
1. विशेषणविशेष्यभावस्यानियतत्वादुभयथाप्युदाहरणं युक्तम् ।-न्यायभूषण, पृ. १६८.
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