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प्रत्यक्ष प्रमाण
को होगा । इस तरह ५ संयोगादि सम्बन्ध तथा षष्ठ विशेषण-विशेष्यभाव संभूय षोढासंनिकर्षवाद सम्पन्न होता है, ऐसा उद्योतकरादि' प्राचीन आचार्य मानते हैं और उत्तरकालिक न्यायग्रन्थों में इसी पक्ष को स्वीकृत किया गया है।
अभाव के लिये विशेषणता या विशेष्यता सन्निकर्ष मानने पर उसी सम्बन्ध से शब्द. रूप आदि का प्रत्यक्ष हो सकता है, अतः अन्य सम्बन्धों के मानने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि 'शब्दवदाकाशम्' में शब्द आकाशस्वरूप श्रौत्र का विशेषण है। 'रूपवान् घट:' में रूप घट के प्रति विशेषण है । अतः विशेषणता सम्बन्ध से ही उनका प्रत्यक्ष संभव है । इसी प्रकार पर्वतादिवृत्ति अग्नि का भी संयुक्तविशेषणता संनिकर्ष से प्रत्यक्ष संभव हो जाता है। अतः तदर्थ अनुमान की भी क्या आवश्यकता है?
इसका समाधान भासर्वज्ञ के अनुसार यह है कि किसी रोग को देखकर उसके मल निदान की कल्पना की जाती है। किसी व्यक्ति को ज्वरग्रस्त देखकर इस व्यक्ति ने दधि का सेवन किया है, इस रोति से उसके कारण दधिसेवन की कल्पना की जाती है। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जो भी व्यक्ति दधि का सेवन करता है, वह ज्वर से अवश्य ही ग्रस्त हो जाता है । क्योंकि कारण व्यापक होता है और कार्य व्याप्य । अतः जहां जहां कारण होता है, वहां वहां कार्य का रहना आवश्यक नहीं । जहां जहां कार्य रहता है, वहां कारण का रहना आवश्यक है। जहां प्रत्यक्ष रूप कार्य है, वहां उसके नियामक सम्बन्ध को रहना चाहिये, न कि वह सम्बन्ध जहां-जहां है, वहां प्रत्यक्ष को होना चाहिये । भूतलादि में अभाव का प्रत्यक्ष देखकर जिस सम्बन्धविशेष की कल्पना की जाती है, वह एक विशिष्ट सम्बन्ध है, परोक्षादिस्थल पर वह सुलभ नहीं हो सकता, क्योंकि संयोगादिघटित विशेषणता इन्द्रियसंनिकर्षजन्य प्रत्यक्ष-स्थल में ही बन सकती है, परोक्ष स्थल में नहीं । ६ प्रकार के प्रत्यक्षभेदों को उपपत्ति करने के लिये ६ संनिकर्ष माने गये हैं । सभी प्रत्यक्षों की उपपत्ति एक सम्बन्ध से नहीं हो सकती ।
अभावप्रत्यक्ष में दृश्याभाव भी विशेषण रूप से उपात्त हैं । दृश्याभाव शब्द में 'दृश्यस्याभावः' तथा 'दृश्ये अभावः' ये दोनों प्रकार के समास अभिप्रेत हैं। अतः कही दृश्य को अभाव और कहीं दृश्य में अभाव अभावप्रत्यक्ष में कारण होता हैं । अर्थात् वहीं अभाव के प्रतियोगी की दृश्यता (प्रत्यक्षयोग्यता) अपेक्षित होती है और कहीं अभाव के अनुयोगो की । जैसे-वृक्ष में पिशाचात्यन्ताभाव का प्रत्यक्ष
1. (अ) सन्निकर्षः पुनः षोडा भिद्यते । सपोगः, संयुक्तसमवायः संयुक्तसमवेतसमवायः समवायः
समवेतसमवायो विशेषणविशेष्यमावश्चेति । -न्यायवार्तिक, १/१/४ (ब) सन्निकर्षस्त्विन्द्रियाणामथैः सह षट्प्रकारः । -न्यायमंजरी, पूर्वभाग पृ. ६८ 2. न्यायसार, पृ. ३.
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