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________________ ६२ न्यायसार इसीलिये नहीं माना जाता कि उस अभाव का प्रतियोगी पिशाच प्रत्यक्षयोग्य नहीं है | अतः अत्यन्ताभाव के प्रत्यक्ष में प्रतियोगी की योग्यता अपेक्षित है । किन्तु 'वृक्षो न पिशाचः ' इस अन्योन्याभाव के प्रत्यक्ष में अनुयोगी वृक्ष की प्रत्यक्ष योग्यता अपेक्षित है और वह प्रत्यक्षयोग्य है, अतः वृक्ष में पिशाचान्योन्याभाव का प्रत्यक्ष होता है । ६ सम्बन्धों की कल्पना जिस अन्वयव्यतिरेक के आधार पर होती है, उसी के आधार पर संयोगाभाव, समवायाभाव आदि में भी घटाभावादि के प्रति कारणता सिद्ध होती है । 'घट संयोगसत्त्वे घटाभावप्रत्यक्षाभावः, ' 'संयोगाभावसत्त्वे घटाभावप्रत्यक्षम् ' - इस प्रकार का अन्वयव्यतिरेक घटाभाव का संयोगाभाव के साथ है । संयोगाभाव, समवायाभाव - ये विषय नहीं, अपितु घटाभावरूप विषय की प्रत्यक्षता के नियामक सन्निकर्ष हैं। संयोगाभाव का घटाभाव के साथ सन्निकर्ष है - स्वप्रतियोगिक सम्बन्धाभावप्रयुक्तत्व स्व शब्द से इन्द्रिय का ग्रहण है, तत्प्रतियोगिक, घटादि-अनुयोगिक संयोग के न होने से घटाभाव का प्रत्यक्ष होता है । घटाभावप्रत्यक्ष का जनक घट संयोगाभाव है. अतः घटसंयोगाभाव आलोकसंयोगादि से सहवृत्त होकर घटाभावनिष्ठ विशेषणतादि सन्निकर्षो का सम्पादकमात्र होता है । 'आयुर्वै घृतम' में जैसे आयुः साधक घृत को आयु कह दिया जाता है, ऐसे ही विशेषणतादिसन्निकर्ष के सम्पादक संयोगाभावादि को भी विशेषणता सन्निकर्ष कह दिया जाता है । ऐसा व्यवहार उपचार कहलाता है । संयोगाभाव को विशेषणविशेष्यभाव कहने का तात्पर्य संयोगादि सम्बन्धों से उसका भेदबोधन भी है । ' संयोग निरूपण चक्षुरादि इन्द्रियों का घटादि द्रव्यों के साथ संयोग बतलाया है, क्योंकि द्रव्यों का युतसिद्धि के कारण संयोग सम्बन्ध है । इसी प्रसंग में सर्वद्रव्यानुगत संयोग का लक्षण बतलाया जा रहा है । भासर्वज्ञ ने 'युत सिद्धयोः संश्लेषः संयोगः " यह संयोग का लक्षण किया है ' तथा 'द्रव्ययोः पारम्पर्येण अवयवावयविभावरहित्वं युतसिद्धि: यह युतसिद्धि का स्वरूप बतलाया है । यह युतसिद्धि नित्य तथा अनित्य दोनों प्रकार के द्रव्यों में घटित हो जाती है, क्योंकि नित्य द्रव्यों में अवयवावयविभाव होता ही नहीं और अनित्य द्रव्यों में जहां युतसिद्धि है, वहां अवयवावयविभाव का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वे दोनों स्वतन्त्र द्रव्य हैं । प्रशस्तपादाचार्य ने अनित्य द्रव्यों में पृथक् 1. न्यायभूषण, पृ. १६८ 2. न्यायभूषण, पृ. १७० 3. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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