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प्रत्यक्ष प्रमाण
आश्रय में आश्रयित्वरूप युतसिद्धि मानी है तथा नित्य द्रव्यों में पृथग्गतिमत्तारूप युतसिद्ध । दोनों में से एक भी युतसिद्धि विभु नित्य द्रव्यों में घटित नहीं होती, क्योंकि वे विभु हैं, उनका कोई आश्रय नहीं है और विभु होने से ही उनमें गति का प्रश्न पैदा नहीं होता। अतः प्रशस्तपाद ने विभु द्रव्यों का संयोग स्वीकार नहीं किया है।
भासर्वज्ञ द्वारा परिभाषित युतसिद्धि विभु द्रव्यों में भी घटित हो जाती है, क्योंकि विभु द्रव्यों में न तो परस्पर और न स्वयं में अवयवावयविभाव है । अत उनका संयोग होता है । इस प्रकार उन्होंने विभुओं का संयोग न मानने वाले प्रशस्तपादाचार्य के मत का खण्डन किया है। शरीर से संयुक्त होने के कारण आत्मा आकाश से संयुक्त है, क्योंकि शरीर पांचभौतिक है। "आकाशेन संयुक्त मात्मा शरीरसंयुक्तत्वात, भूतलादिवत्" इस अनुमान प्रमाण से विभु द्रव्य आत्मा
और आकाश का संयोग सिद्ध है । संयोगादिजनक कर्मादि की विभु द्रव्यों में सत्ता न होने से विभुओं का संयोग नित्य होता है ।
न्यायवार्तिककार उद्योतकर ने ईश्वरसिद्धिप्रसङ्ग में-सम्बन्धाभाव के कारण ईश्वर आत्मान्तर (जीव) के धर्माधर्म का अधिष्ठाता नहीं हो सकता है-इस 'पूर्वपक्षशका' का निराकरण करते हुए कहा है कि कतिपय दार्शनिक (एके) जीवात्मा का ईश्वर के साथ अजसंयोग मानते हैं और उन्होंने (वार्तिककार ने) उपर्युक्त शङ्का के निराकरण के लिये प्रतिषिद्ध न होने के कारण अजसंयोग का उपादान किया है।' अजमंयोग के प्रतिपादन के लिये उनके द्वारा उपन्यस्त प्रमाण को भी वार्तिककार ने उद्धृत किया है-"व्यापकैराकाशादिभिः सम्बद्ध ईश्वरः मूर्तिमद्व्यसम्बन्धित्वाद् घटवदिति । वार्तिककार ने आगे यह भी सङ्केत किया है कि जिनको अजसंयोग अभीष्ट नहीं है, उनके मत में अणुमनःसंयोग की उपपत्ति होने से ईश्वर और जीवात्माओं का परम्परया सम्बन्ध हो जाता है और तदद्वारा ईश्वर का अधिष्ठातृत्व भी उपपन्न हो जाता है। आचार्य वाचस्पति मिश्र ने भी "संयुक्तसमवायो वा क्षेत्रज्ञेनेश्वरस्य संयोगात् अजसंयोगस्याप्युपपादितत्वात” यह कह कर अजसंयोग की 1. विभुनां तु परस्परत: संयोगो नास्ति युत सिद्ध्यभावात् । सा पुनद्वयोरन्यतरस्य वा पृथग्ग. तिमा पृथगाश्रयाययित्वं चेति ।।
-प्रशस्तपादभ स्य, पृ. १०१ 2. 'एवं युतसिध्यभावान्नास्ति विभुनां संयोग' इत्ययुक्त', देतोरसिद्धत्वात् । प्रमाणसिद्धश्च विभुनां संयोगः ।
-न्यायभुषण, पृ. १७० 3. न्यायभूषण, पृ. १७० । तुलना- 'आकाशमात्मसंयोगि, मूतद्रव्यसंयोगित्वात् , घटवदित्यनु
मानम् ।'- भामती, २.२.१७. 4. न्यायवार्तिक, ४/1/२१ 5. तत्रैव । 6. तत्रैव । 7. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १/१/२1.
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