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________________ ६४ न्यायसार उपपत्ति स्वीकार की है। भासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती जयन्त भट्ट ने विभु द्रव्यों का अज. संयोग स्वीकार न करते हुए कहा है-"विभूनामपि सम्बन्धः परस्परमसम्भवा देव नेष्यते न परिभाषणात् , न संयोगस्तेषाम प्राप्तेरभावादप्राप्तिपूर्विका हि प्राप्तिः संयोगः”।' ऐसा प्रतीत होता है कि न्याय सम्प्रदाय में अजसंयोग को स्वीकार करने वाले नैयायिकों में भासर्वज्ञाचार्य प्रथम नहीं थे, अपि तु उनसे पहिले कतिपय नैयायिकों ने इसका प्रतिपादन कर दिया था। यह भी स्पष्ट है कि अज संयोग न्यायसम्प्रदाय मे सर्व सम्मत नहीं है। भासर्वज्ञाचार्य ने तो पूर्ववर्ती एकदेशीय नैयायिकों के द्वारा प्रतिपादित अजसंयोग का समर्थन किया है। प्रोफेसर कार्ल एच्. पाटर ने उल्लेख किया है कि अजसंयोग के प्रशस्तपादकृत प्रतिषेध का प्रायः सभी नैयायिकों और वैशेषिकों ने अनुमरण किया है, परन्तु अपरार्कदेव ने विभु द्रव्यों में संयोग को स्वीकार करते हए विलक्षणतापूर्वक असहमति व्यक्त की है। प्रोफेसर पाटर ने अजसंयोग के बारे में भासर्वज्ञ के मत का उल्लेख नहीं किया है । वस्तुस्थिति यह है कि अपरार्क ने तो अपने गुरु भासर्वज्ञ के मत का समर्थन किया है । न्यायलीलावतीकार श्रीवल्लभाचार्य ने भासर्वज्ञकृत युतिसिद्धिलक्षण का खण्डन किया है। उनके मतानुसार यदि अवयवावयविभाव के अभाव की युतसिद्धि माना जायेगा, तो गुणादि में भी असमवायिता को आपत्ति हो जायेगी, जो कि सर्वथा अनिष्ट है। समवायप्रत्यक्ष महर्षि कणाद ने समवाय का 'इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः स समवायः' यह लक्षण बतलाया है। प्रशस्तपाद के अनुसार समवाय सम्बन्ध कार्यकारणभूत पदार्थों का ही नहीं, अपि तु अकायकारणभूत पदार्थो का भी होता है, जैसाकि उनके द्वारा दी गई परिभाषा से स्पष्ट है- 'द्रव्यगुणकर्म सामान्यविशेषाणां कार्यकारणभूतानाम् अकार्यकारणभूतानां वाऽयुतसिद्धानाम् आधार्याधारभावेन अवस्थितानामिहेदमिति बद्धिर्यतो भवति यतश्चासर्वगतानामधिगतान्यत्वानामविष्वग्भावः स समवायाख्यः सम्बन्धः ।' भासर्वज्ञ ने समवाय की परिभाषा 'अयुतसिद्धयोः संश्लेषः समवायः यह की है। इससे यह स्पष्ट है कि उन्हें भी कार्यकारणभूत तथा अकार्यकारणभूत दोनों पदार्थो का समवाय अभीष्ट है। 1. न्यायमजरी, प्रथम भाग, पृ. २८५ 2. He is followed in this by most of our philosophers Characteristi cally, however, Apararkadeva disagrees, allowing contact between two ubiquitous substances such as akasa and time. -- Karl H. Potter, The Encyclopedia of Indian Philosophies, Vol. II, p. 122. अवयवावयविभावाभाव एव युतसिद्धिरिति चेन्न । गुणादेरसमवायित्वापत्तः । एषां स्वातन्त्रयेणा श्रयान्तरासमवायित्वमयुतसिद्धिरिति चेन्न । तुल्यत्वात् ।-न्यायलीलावतो. पृ १२५ 4. वैशेषिकसूत्र, ७/२/२६ 5. प्रशस्तपादभाष्थ, पृ. २८९ 6. न्यायमूषण, पृ. १७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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