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प्रत्यक्ष प्रमाण
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समवाय का प्रत्यक्ष होता है या वह अनुमेय है, यह विचारणीय विषय है । वैशेषिक मतानुसार योगियों को समवाय का प्रत्यक्ष होता है, परन्तु अस्मदादि जनों के लिये वह अनुमेय है । प्रशस्तदेव ने प्रतिपादन किया है कि सत्ता आदि जातियों का प्रत्यक्ष घटादि विषयों में उनके समवाय सम्बन्ध से रहने के कारण संयुक्तसमवाय सम्बन्ध द्वारा होता है. परन्तु समवाय का प्रत्यक्षविषयभूत घटादि द्रव्य तथा रूपादि विषयों के साथ सम्बन्ध अन्य किसी सम्बन्ध से नहीं है । यदि समवाय के भी समवायियों के साथ सम्बन्ध के लिये सम्बन्धान्तर की कल्पना की जायेगी, तो अनवस्था दोष की 'प्रसक्ति होगी अतः समवाय समवायियों में स्वरूपतः ही रहता है, सम्बन्धान्तर से नहीं । अर्थात् इन्द्रिय जब किसी भाव पदार्थ का प्रत्यक्ष करती है, तब इन्द्रिय का उस भाव पदार्थ से संयोग या समवाय सम्बन्ध आवश्यक है और वह सम्बन्ध सम्बन्धियों से भिन्न होना चाहिए । जैसे- चक्षु द्वारा घटादि द्रव्यों के प्रत्यक्ष में घट के साथ इन्द्रिय का संयोग सम्बन्ध हैं, वह घट तथा चक्षुरिन्द्रिय दोनों से भिन्न है । यही स्थिति अन्य सम्बन्धों में है । किन्तु इन्द्रिय द्वारा समवाय का ग्रहण करते समय गृह्यमाण समवाय के साथ इन्द्रिय का न तो संयोग है और न समवाय । अतः ग्राहक संनिकर्ष के अभाव के कारण समवाय का प्रत्यक्ष नहीं होता | स्वात्मवृत्तित्व और वृत्त्यन्तराभाव के कारण ही वह अतीन्द्रिय कहलाता है । 1 इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हुए श्रीधराचार्य ने भी कहा है- 'संयोगसमवायापेक्ष स्यैव इन्द्रियस्य भावग्रहणसामर्थ्य मुपलभ्यते । यथा इन्द्रियेण संयोगप्रतिभासो नैवं समवायप्रतिभासो भवति, संबन्धिनोः पिण्डीभावेन उपलम्भात् ' । ' अतः वैशेषिकमतानुसार सामान्यजनों के लिये समवाय 'इहेति' बुद्धि से अनुमेय है, प्रत्यक्ष नहीं । व्योमशिवाचार्य के अनुसार सविकल्पकज्ञान में ही समवाय अनुमेय होता है, अवयव - अवयवी के निर्विकल्पक संश्लेषज्ञान में समवाय का प्रत्यक्ष होता है । "
किन्तु नैयायिक अभाव की तरह समवाय की भी विशेषण - विशेष्यभाव सम्बन्ध से साक्षात्कारिणी प्रमा मानते हैं । इन्द्रियजन्य प्रमा साक्षात्कारिणी प्रमा कहलाती है ।' इन्द्रियजन्य प्रमा विषयग्रहण के लिये न केवल इन्द्रिय, अपितु इन्द्रियार्थसंनिकर्ष की
1. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. २९३
2. न्यायकन्दली, पृ. ७८७-७८६
3 निर्विकल्प के त्ववयववाक्यविनोः संश्लेषज्ञाने समवायः प्रत्यक्ष एव । - व्योमवती, पृ. ६९९. 4. वेदान्त शब्दजन्य प्रत्यक्ष भी मानता है, अनुपलब्धिजन्य प्रत्यक्ष भी मानता है और अर्थापत्तिजन्य प्रत्यक्ष भी । अतः इन्द्रियजन्य ज्ञान ही प्रत्यक्ष होता है, ऐसा नियम उनके अनुसार नहीं हो सकता । तथापि अपनी-अपनी परिभाषाओं की व्यूहरचना प्रत्येक दार्शनिक ने की है। एक के अनुसार दूसरे पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता । दोनों के मत में प्रत्यक्ष का स्वरूप भी कुछ भिन्नभिन्न हो जाता है । अतः नैयायिकों की अपनी परिभाषा के अनुसार कहा जा सकता है कि अयोगिप्रत्यक्ष ( अनीश्वर ज्ञान )
इन्द्रियजन्य
होता है ।
भान्या- ९
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