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________________ ६६ न्यायसार 1 । उनका यह ज्ञान " भी अपेक्षा रखती है । क्योंकि नैयायिकों ने समवाय का भी प्रत्यक्ष स्वीकार किया है, अतः वहां भी इन्द्रियार्थसंनिकर्ष आवश्यक है और वह है - पंचविधसम्बन्धसम्बद्धविशेषणविशेष्यभाव | 'येनेन्द्रियेण यद्गृह्यते तेनेन्द्रियेण तद्गतं सामान्यं, तद्गतः समवायः, तद्गतोऽभावश्च गृह्यते' इस न्याय से भी न्यायशास्त्र में समवाय की प्रत्यक्षत्वस्वीकृति का ज्ञान होता है । आचार्य भासर्वज्ञ ने भी समत्राय के प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में 'न्यायसार' में 'एतत्पंचविध सम्बन्ध संबद्धविशेषणविशेष्यभावाद् दृश्याभाव समवाययोर्ग्रहणम् । तद्यथा घटशून्यं भूतलम्, इह भूतले घटो नास्ति । एवं सर्वत्रोदाहरणीयम् । समवायस्य तु क्वचिदेव ग्रहणम् । यथा - रूपसमवायवान् घटः घटे रूपसमवाय इति । - यह कहा है । इसका आशय भासर्वज्ञ ने 'न्यायसार' को स्वोपज्ञवृत्ति 'न्यायभूषण' में स्पष्ट किया है आशय है कि समवाय का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि जैसे 'दण्डी पुरुषः' दण्ड और पुरुष के संयोग का प्रत्यक्ष होने पर होता है, इसी प्रकार शुक्लः पद. इस रूप से शुक्लगुणविशिष्ट पट की प्रतीति भी शुक्ल गुण तथा गुणी पट के समवाय सम्बन्ध के प्रत्यक्ष के बिना अनुपपन्न है । इस प्रकार भासर्वज्ञ समवाय का प्रत्यक्ष स्वीकार करते हैं, परन्तु उसका प्रत्यक्ष अभावप्रत्यक्ष की तरह विशेषणत्वेन या विशेष्यत्वेन अक्षजन्य नहीं होता, क्योंकि विशेषणत्वेन या विशेष्यत्वेन समवाय का इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष मानने पर उसके विशिष्ट ज्ञान होने से और विशिष्ट ज्ञान में विशेषण, विशेष्य व सम्बन्ध तीनों के ज्ञान की अपेक्षा होने से समवाय तथा समवायी के सम्बन्ध का ज्ञान भी मानना होगा और सम्बन्ध समत्राय से भिन्न मानना होगा, क्योंकि सम्बन्ध सम्बन्धियों से भिन्न होता है । जैसे, दण्ड तथा पुरुष का संयोग दण्ड तथा पुरुष से भिन्न है और समवाय से भिन्न सम्बन्ध मानने पर अनवस्थादोष को प्रसक्ति होगी । तथा जैसे 'दण्डपुरुषयोः संयोगः' या 'पुरुषो दण्डसंयुक्तः' यह प्रतोति संयोग तथा दण्ड व पुरुषरूप संयोगी के सम्बन्धज्ञान का आक्षेपक है क्योंकि संयोग तथा संयोगियों के सम्बन्धज्ञान के बिना उपर्युक्त विशिष्ट प्रतोति नहीं हो सकती । उसी प्रकार यदि प्रत्यक्ष से 'घटरूपयोः समवायः' या 'रूपं घटे समवेतम्' इत्योकारक विशिष्ट प्रतीति होती, तो उस प्रतीति के आपादक समवाय तथा समवायियों के परस्पर सम्बन्ध का भी आक्षेप होता है, परन्तु ऐसी प्रतीति प्रत्यक्षतः नहीं है । अतः समवाय के प्रत्यक्ष न होने से उसके उपपादक सम्बन्धान्तर का आक्षेप भी नहीं होता | 2 ८ यद्यपि 'घटरूपयोः समवायः' इत्याकारक प्रत्यक्षज्ञान न होने पर भी घट तथा घटरूप का समवाय सम्बन्ध है, ऐसा यौक्तिक ज्ञान तो होता ही है और 'घटः रूपसमवायवान्' इस विशिष्ट ज्ञान की उपपत्ति के लिये भी घटरूप, समवाय तथा 1. न्यायसार, पृ. ३. 2. समवायस्य सम्बन्धग्रहणाक्षेपकत्वेनाप्रतिभासनात् । न हि प्रत्यक्षादनयोः समवाय इति इदमन्त्र समवेतमिति वा समवाय्येतदिति वा कस्यचित् प्रतीतिरस्ति, यथा भूतले घटो नास्ति इति सर्वेषामस्ति प्रतीति: ।-न्यायभूषण, पृ. १६९, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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