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________________ प्रत्यक्ष प्रमाण इनसे भिन्न सम्बन्ध इन तीनों के ज्ञान की अपेक्षा है, क्योंकि विशिष्ट ज्ञान विशेषण, विशेष्य तथा सम्बन्ध तीनों के ज्ञान के बिना अनुपपन्न है । ऐसी स्थिति में घटरूप तथा समवाय से भिन्न सम्बन्ध को सत्ता मानने पर यौक्तिक प्रत्यक्ष में भी अनवस्था दोष को प्रसक्ति बनी रहेगी और यदि यौक्तिक विशिष्ट ज्ञान में सम्बग्धज्ञान की अपेक्षा नहीं मानी जाती है, तो विशिष्टज्ञान विशेषण-विशेष्यतत्सम्बन्धज्ञानपूर्वक होता है, इस नियम का व्यभिचार होता है। भासर्वज्ञ का कथन है कि जिस विशिष्ट ज्ञान का इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष होता है, यह विशेष्य, विशेषण तथा उनके सम्बन्ध के ज्ञान के बिना नहीं हो सकता, किन्तु परोक्ष प्रतिभासरूप यौक्तिक प्रत्यक्ष सम्बन्धानुभव का व्याप्य नहीं होता, वह सम्बन्धज्ञान के बिना भी हो जाता है और समवाय का यौक्तिक प्रत्यक्ष माना गया है, अतः यौक्तिक प्रत्यक्ष में विशेषणविशेष्यभावसम्बन्धपूर्वकत्वरूप साध्य के व्यभिचार का प्रश्न उपस्थित नहीं हो सकता ।' यद्यपि 'दण्डपुरुषयोः सयोगः' इत्याकारक विशिष्ट ज्ञान जैसे संयोग तया संयोगियों के सम्बन्धज्ञान के बिना अनुपपन्न है, उसी प्रकार 'घटरूपयोः समवायः' या 'घटे रूपं समवेतम्' इत्याकारक यौक्तिक विशिष्ट ज्ञान भी समवाय तथा समवायियों के सम्बन्यज्ञान के बिना अनुपपन्न है। अत: उनके सम्बन्ध का आक्षेप मानना ही होगा और समवायभिन्न सम्बन्ध मानने पर अनवस्थादोष की प्रसक्ति पूर्ववत विद्यमान है, तथापि समवाय तथा समवायियों का सम्बन्धज्ञान समवाय के स्वरूपभेद को मानकर हो सकता है, इसके लिये सम्बन्धान्तर . -कल्पना की आवश्यकता नहीं । जैसे एक ही सत्ता में स्वरूपभेदकल्पना से द्रव्यादि में सद्व्यवहार सती सत्ता अर्थात् समवाय सम्बन्ध से सत्ता जाति की स्थिति से और सामान्य में सद्व्यवहार असती सत्ता अर्थात् स्वरूपतः सत्ता जाति की स्थिति से माना जाता है, उसी प्रकार 'दण्डषुरुषयोः संयोगः' इस विशिष्ट ज्ञान में संयोग तथा संयोगियों के सम्बन्धज्ञान के लिये उससे भिन्न समवाय सम्बन्ध की अपेक्षा है, किन्तु 'घटरूपयों समवायः' इत्याकारक विशिष्ट ज्ञान में समवाय को अपने समवायियों से सम्बन्ध के लिये समवाय से भिन्न सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं, अपितु समवाय स्वयं ही स्वरूप से अपने समवायियों से सम्बद्ध है । अर्थात् अष्टादिसहित प्रत्यक्षयोग्य घट तथा रूप इन दोनों से सम्बन्धित इन्द्रियसंनिकर्ष द्वारा ही समवाय सम्बन्ध का ज्ञान हो जाता है, उसके लिये किसी पृथक संनिकर्षरूप सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है। 1. न्यायभूषण, पृ. १६९ 2. सत्ता के दो भेद कल्पित किये गये है-(१) स्वरूपत: सत्ता और (२) सत्वेन सत्ता । जैसे - ब्रह्म सत्ता से सत् नहीं, अपितु स्वरूपतः अर्थात् सद्रप होने से सत् है । प्रकृत्यतिरेकेण प्रत्ययार्थो न गम्यते ।। सत्यत्र तत: स्वार्थस्तद्धितोऽत्र भवन्भवेत् ॥ -बृहदारण्यकोपनिषदभाष्यवार्तिक, का. १६८८, पृ. १६७८ 3. न्यायभूषण, पृ. ।६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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