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________________ न्यायसार तात्पर्य यह है कि 'दण्डपुरुषयोः संयोगः', 'पुरुषो दण्डसंयुक्तः' इत्याकारक संयोग. प्रत्यक्ष के समान 'घटरूपयोः समवायः', 'रूपं घटसमवेतम्' इत्यायारक प्रत्यक्षज्ञान नहीं है । अतः समवाय की विशेषणतया व विशेष्यतया प्रतीति न होने से उनका विशेष्य. विशेषणभाव से प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु घट तथा रूप के समवाय सम्बन्ध का ज्ञान अनुमान से होता है। उसीको भासर्वज्ञ ने यौक्तिक प्रत्यक्ष माना है। समवाय का विशेषणविशेष्यभाव से अक्षज प्रत्यक्ष उनको मान्य नहीं है । ऐसी स्थिति में 'समवायस्य क्वचिदेव ग्रहणम् । यथा-रूपसमवायवान् घटः, घटे रूपसमवायः' इस उक्ति द्वारा न्यायसार में विशेषणविशेष्यभाव द्वारा उसका जो प्रत्यक्ष बतलाया है, वह अविचारित अभिधान ही है। अर्थात् 'भूतले घटो नास्ति' की तरह प्रत्येक को विशेषणतया या विशेष्यतया उसका ज्ञान नहीं होता, अपि तु असदुपदेश से विपर्यस्त बुद्धि वालों को ही ऐसा होता है। अतः समवाय का विशेषणविशेष्य - भाव से अक्षम प्रत्यक्ष न होकर यौक्तिगत प्रत्यक्ष ही होता है और वह युक्ति 'शुक्ल: पट इत्यादि प्रत्यक्षप्रत्ययः प्रत्यक्षेण ज्ञायमानसम्बन्धपूर्वकः, प्रत्यक्षात्मकविशिष्ट प्रत्ययत्वाद् दण्डो तेप्रत्य यवत्' इत्याकारक अनुमान है, जिससे समवाय के प्रत्यक्ष का अनुमान होता है । . ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायसार की रचना के समय समवाय का विशेषणविशेष्यभाव सम्बन्ध से प्रत्यक्ष भासर्वज्ञ को क्वचित् अर्थात् कतिपय स्थलों (स्थानत्रय) में अभिमत था, परन्तु बाद में चिन्तासन्तति के फलस्वरूप उनको मान्यता परिवर्तित हो गई और न्यायभूषण में यह प्रतिपादित किया कि समवाय का यौक्तिक प्रत्यक्ष होता है न कि विशेष्यतया व विशेषणतया अक्षज प्रत्यक्ष । योगिप्रत्यक्ष देश को दृष्टि से विप्रकृष्ट सत्यलोकादि, अतिदूरस्थ और व्यवहित नागभुवनादि. काल की दृष्टि से विप्रकृष्ट अतीत और अनागत, स्वभावविप्रकृष्ट परमाणु आकाशादि-इन तीन प्रकार के विप्रकृष्टों में समस्त अथवा व्यस्त का ग्राहक प्रत्यक्ष योगिप्रत्यक्ष कहलाता है । 1. क) ममेव वा स्खलितमेतद्, अपर्यालोचित ग्रन्थकरणात् ।-न्यायभूषण, पृ. १६९ ख) आचार्य: पुनरौत्र स्खलित बास्त्विद ममेत्यवोचत। -न्यायमुक्तावली (प्रथम भाग), १. १७६ ग) भासर्वज्ञस्तु केनाभिप्रायेण ममेव बावस्खलितमेतदिति व्याख्यातमिति चिन्त्यम् । -न्यायसारबिचार, पृ. २१ 2. समवायस्य बुद्धौ तथा ग्रहणं क्वचिदेव भवति । अर्थात् असदुपदेशविपर्यासित-- बुद्धावेव समवायम् तथा गृह्यते, न तु अभाववत् लौकिकबुद्वौ सर्वव्यवहतृ बुद्धौ वा । -न्यायभूषण, पृ. १६९ 3. तम्माद् यौक्तिकमेव समवायस्य प्रत्यक्षत्वम् ।-न्यायभूषण, पृ. १६९ 4. न्यायसारपदपंचिका, पृ. १६ 5. (अ) न्यायसार. पृ. ३ (ब) न्यायभूषण, पृ. १७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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